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जब मैंने इस वेबसाइट पे ग्रन्थस ग्रमपस का 'अनफकेबल मी' लेख पढ़ा, तो यह मेरे अंदर मानो ख्यालों की बाढ़ ले आया। पीछे देखते हुए, मुझे अब एहसास होता है कि यह मेरा अपना स्त्री-द्वेष था जिसने मुझे यक़ीन दिलाया कि मैं सुंदर नहीं होने वाली थी। मैं बचपन में बदसूरत नहीं थी लेकिन मैंने फिर भी यह निश्चय ले लिया था कि मैं सुंदर नहीं बनने वाली थी। आज, मैं काफी यक़ीन के साथ कह सकती हूँ कि मैं सुंदर नहीं हूँ, और थोड़ा सा सजना-सवरना भी मुझे ढोंगी होने का आभास देता है। मैं स्त्रीत्व का अनादर करती थी। मुझे यह छिछला लगता था। मैं इसे एक अभिनय की नज़र से देखती थी, जहाँ मर्दों पर छाप छोड़ने और उनकी मंज़ूरी पाने के लिए एक बेचारी का पात्र निभाना था, और इस वजह से यह बिलकुल नकली था। मैं उन लड़कों को भी अपमानित करती थी जो इस स्त्रीत्व के प्रदर्शन से आकर्षित हो जाते थे। कभी-कभी मैं सोचती कि मुझे लड़का बनना है ताकि मैं और लड़कों को दिखा सकूँ कि अव्वल नंबर की स्पर्धा में जुटने के बजाय, वह कुछ सकारात्मक रचने के लिए अपने विशेषाधिकार का किस तरह से बेहतर उपयोग कर सकते हैं। मैं उस ताकत को हासिल करना चाहती थी जो शायद नौजवान लड़कों के पास भी थी - दोस्तों के साथ किसी चर्चा में अंतिम राय बनने का, परिवार में सबका लाड़-दुलार पाने का, और उपद्रवी होने की वजह से शिक्षकों के सम्मान और पक्षपात का स्वाभाविक रूप से अपनेआप हकदार बनने का। एक लड़की के लिए दोस्ती के मायने अलग थे; दोस्ती बुद्धिमानी के बारे में नहीं बल्कि सहमत होने और साथ चुलबुलाने की बात थी। परिवार आपको 'एडजस्ट' करना सिखाता है नाकि अपनी माँग आगे रखना, और शिक्षक आप पर आपकी ईमानदारी की वजह से प्यार बरसाते हैं, नाकि आपके शरारती स्वभाव के लिए, क्योंकि वह उन्हें सिर्फ लड़कों में भाता है। मुझे लड़कों से बहुत ईर्ष्या महसूस होती थी क्योंकि वह मुकद्दर के एक साले स्ट्रोक से लड़के पैदा हो गए थे। बेवकूफ़ लड़कों को भी आसानी से पितृसत्ता के फायदे उठाते हुए देख कर मेरा दिल और बैठ जाता था। और आप जानते हैं क्या हुआ? मेरे ख्यालों के रचे षड्यंत्र ने मुझे ही प्यादा बना दिया। और मुझे एक दिमाग वाली लड़की बनने के लिए सारी चालें चलवायीं। 'होशियारी' और 'लड़की जैसा ना होने' को मैंने अपने हथियार बना लिए। मैं बहुत सी चीज़ों के बारे में तनावग्रस्त और आलोचनात्मक थी - और यह सारी की सारी स्त्री-द्वेष की जड़ों में बसी चीज़ें थीं। एक तरफ मैं उन लड़कियों का तिरस्कार करती थी जो अपने स्त्रीत्व को एक साधन बनाकर इस्तमाल करती थीं, लेकिन मैंने उन्हीं को अपने साथियों द्वारा इसी स्त्रीत्व के लिए अपमानित होते हुए देखा। दूसरी तरफ, मैंने लड़कों के साथ बराबरी करने का चुनाव किया, उनकी प्रतिस्पर्धक बनी लेकिन अपनी खुद की लिंग पहचान/जेंडर के लिए एक अन्दरूनी घृणा के साथ, जिसने मुझे ही उन लड़कों से छोटा बना दिया था। मैं उन लड़कों को खारिज और अपने से नीचे दिखाती थी जो होशियार नहीं थे। तो यह तो फिर ऐसा था जैसे समाज के द्वारा बनाये गए नियमों और संकल्पों के दबाव में आकर जीते हुए विद्रोही बनने का ढोंग रचना। स्त्रीत्व का तिरस्कार करने से मेरी किशोरावस्था पर गहरा असर हुआ। ज़ाहिर है, लोगों को मैं लेस्बियन/समलैंगिक लड़की लगती थी, लेकिन मैं किसी लेस्बियन को आकर्षक नहीं लगती - या मुझे तो ऐसा ही लगता था। मुझे बार-बार याद दिलाया जाता कि कैसे मैं बेहतर कपड़े पहन सकती थी या फिर कैसे निष्पक्ष रूप से सुंदर माने जाने के लिए मुझे में लड़कीपन की कमी थी। मेरे माता-पिता भी मेरे लड़कों जैसे बैठने, सोने और बाल कंघी करने के तरीकों पर टिपण्णी करते रहते और इस बात से मुझे और भी क्रोध आता, यह सब मुझे और भी ज़िद्दी बना देता। लड़कियों जैसे बनने के मेरे काफी प्रयत्न नाकामयाब रहे। लड़कियों जैसे कपड़े पहनने के प्रयत्न मुझे बहुत असहज और भेद्य/रक्षाहीन/भावनात्मक रूप से नंगा महसूस करवाते थे। अपने शरीर का ध्यान रखना (एक क्रीम का भी लगाना) ऐसा लगता था जैसे मैं कोई ऐसा बनने की कोशिश कर रही थी जो मैं असल में थी ही नहीं। ऐसा लगता जैसे मैं मर्दों को रिझाने के लिए उनकी नज़रों में खुद को आकर्षक बनाने की कोशिश कर रही थी। मैं अपने अस्तित्व के इस हिस्से को लेकर बहुत संकोची हो गयी और इस सोच की गाँठ को धीरे-धीरे सुलझाने में मुझे आगे चल कर काफी मेहनत लगी। अच्छे से तैयार होना आज भी मेरे लिए जी-निचोड़ देने वाला काम है। मैं सोशियल मौकों पर या फैंसी जगहों पर ज़्यादातर नहीं जाती, क्योंकि इतने ज़ाहिर तरीके से अच्छे कपड़े पहनना और फिर नाकामयाब रहना आपको थका देता है। मैं खुद से जुड़ी लोगों की अपेक्षाओं का हमेशा शिकार बन जाती हूँ। हाल ही में मेरे दोस्त ने मेरी नकली हँसी और बेमज़े वाली मुस्कराहट (किसी ऐसी चीज़ पर जो मज़ेदार नहीं है) पे उंगली उठायी, तो इस वजह से मैंने इस बारे में सोचा कि आखिर मैंने कब इस कमबख़्त आदत को अपनाया? ओह, यह उस क्रश के लिए था जो मुझे १५ की उम्र में हुआ था। मार डालो यार मुझे!
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सुंदरता का कामयाबी से तिरस्कार करने की वजह से मैं अपने आप को अ-लैंगिक तरीके से पेश करते समय सबसे आश्वस्त होती हूँ। यह याद भी दिलाए जाने पर कि मैं एक औरत हूँ, मुझे बहुत असहजता और नाराज़गी महसूस होती है। मैं अपने शरीर को मर्दों की नज़र से देखे जाने से कतराती थी, इसलिए नहीं क्योंकि मैं अपने शरीर से नाखुश थी। लोगों से अ-लैंगिक संधर्भ में बात करते हुए मुझे कुछ हद तक यूं लगता है कि स्थिति मेरे नियंत्रण में है। मैं ऐसी रोमानी बातचीत की संभावना से खुद को छुड़ा लेती हूँ जहां सफल होने के लिए मुझे लड़की की तरह पेश आना होता है। (ऐसा नहीं है कि मैं ऐसी बातचीत का कभी हिस्सा नहीं बनी हूँ, लेकिन वह क्षणित-अनुभव कितना अपमानजनक और समस्यात्मक होता है, यह ग्रन्थस ग्रमपस के लेख में बखूबी व्यक्त किया गया है। यह स्पष्टता मुझे दूरदर्श में ही आकर मिली है।) शायद, अ-लैंगिक पेश आना मेरा खुद से खुद के लिए ही तिरस्कार है इसके पहले कि कोई बेवकूफ लड़का मुझे याद दिलाये कि मैं 'उसकी टाइप' नहीं हूँ। मेरे अंदर की लैंगिकता ने सेक्स के दम घोटू मर्दानगी वाले विचारों को जैसे गोद ले लिया है। किशोरावस्था में, मैं सेक्स की चर्चा सिर्फ लड़कों से करती थी, इस लिए जब सेक्स की बात आती है तो मैंने वही घटिया प्रतियोगी ढाँचे को विरासत में पाया है जिस में लड़कों को बचपन से अनुकूलित किया जाता है। सेक्स असल में मेरे लिए एक ‘टू-डू लिस्ट’ बन गया है। क्या मैंने वह किया है? क्या मैंने यह अनुभव किया है ? अगली बार मुझे यह आज़माना है। मैंने कितनी बार सेक्स किया है? यह अनुभव मेरे लिए कितना दूषित और हानिकारक था। मैं इतनी परेशान हो गयी थी इस बात को लेकर कि मैं एक लड़के की तरह आसानी से हस्थमैथुन नहीं कर सकती थी, और लड़के की तरह जल्दी कामोन्माद नहीं पा सकती थी; मैं सेक्स की ओर इस टेडी नज़र को अपनाने में फँस गई थी । संभोग के लिए मानसिक तौर पर जिस कामुकता की ज़रूरत है, उसपर ध्यान ही नहीं दे रही थी । मैं औरतों द्वारा बनाये गए कितने ही लैंगिक-शिक्षा के वीडियो और कॉलम और किताबें देख/पढ़ चुकी हूँ यह जानने के लिए कि मेरा शरीर कैसे काम करता है और मेरी खुद की लालसा किस तरह पनपती है। इसके बावजूद, मर्द जाति की एकटक नज़र जैसे मेरे सर के पिछले भाग पर जमी हुई है। मैं ऐसे संघर्ष का सामना करती हूँ जहां मुझे यह पता नहीं होता कि मैं किसी पितृसत्ता का प्यादा बन रही हूँ, या फिर लालसा और कामुकता कि यह अभिव्यक्ति मेरी खुद की है। यह शंका भी कि मैं किसी तरह से पुरुषों की सेवा कर रही हूँ , मुझे पूरी तरह से निहत्था कर देता है और मेरी जैसे कामबंदी हो जाती है। किसी आलोकिक सौंदर्य के सामने मेरी असलियत बड़ी बेढंगी लगती है । इसलिए, मेरी काल्पनिक लालसाएं यह माँगती हैं कि मैं हर तरह से, पूरी तरह आत्म-मोह में डूबी रहूँ। असल ज़िन्दगी में, मैं भले ही संशयशील, अनिश्चित और अपनी बेढंगेपन के बारे में ज़्यादा सोचते हुए नज़र आऊं। लेकिन मेरी कल्पनाओं में, मैं बिलकुल वैसी नहीं हूँ। मैं एक ऐसी जगह की कल्पना करती हूँ जहां मैं मुखर हूँ और जानती हूँ मैं क्या चाहती हूँ और उसे बेझिझक माँग कर पा भी सकती हूँ। और इस कल्पना में पूरा ध्यान मुझपर केंद्रित है! खुद को छोड़कर किसी और को खुश करने के लिए किसी तरह का प्रदर्शन नहीं है। लेकिन अपने कामुक जीवन में मैं इन दोनों पहलू को जोड़ नहीं पाती। पुरुषों के साथ समानता के अपने बौद्धिक विशवास और मेरा यथार्थ, जो मुझे मर्दों को लेकर संदेहपूर्ण रहना सिखाता है, और यह भी कि औरतें आदमियों से बेहतर हैं । मैं इन दोनों को एक धागे में बाँध नहीं पाती। यह अन्दरूनी और बाहरी टकराव मेरे निजी जीवन को बिलकुल नहीं सुहाते। ग्रन्थस ग्रमपस ऐसी बहुत से बातें छेड़ती है जिनसे मैं रिलेट कर सकती हूँ। मैं उसके गुस्से को समझती हूँ। फिर भी मैं अपने ख्यालों पर यूं रोक टोक लगाने वाली अंदरूनी पुलिस पर जीत पाने के लिए आशा वादी हूँ। और मैं जो चाहती हूँ और जो असल में है, उनके बीच की दूरी को मिटाने के बारे में भी। इस बारे में जागरूक रहना कि यह सब कहाँ से उत्पन्न होता है और लैंगिकता के बारे में पढ़ना, मुझे अपने अनुभव को सन्दर्भित करने में सहायता करता है। मैं समस्या को अपने से अलग कर सकती हूँ, और अपनी असलियत को अपनाने के लिए मेहनत कर सकती हूँ। मैं वहां पहुँच रही हूँ, मगर धीरे-धीरे।
टेम शीवुल्फ २००९ से झिझकते हुए ब्लॉग करती हुई आ रही हैं। उन्हें हमेशा से सेक्स और लैंगिकता के बारे में बात करने में दिलचस्पी रही है, लेकिन हाल ही में उन्होंने इस बारे में लिखने का साहस जोड़ा।