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माइंडगास्म : सेक्स के खिलौने या डेटिंग ऐप्स मुझे मिलने से रहे । मैं अपने मन से सेक्सी चरस्म्सुख का आनंद पाता हूँ

अर्थराइटिस के बाद, नवीन ने माइंडगैज़्म/मन से चरमसुख पाना कैसे सीखा!

मेरा जन्म भारत में एक ईसाई  फ़ैमिली में हुआ। जहां हस्तमैथुन और सेक्स के बारे में बात करने पर, बचपन से ही बंदिश थी। वो तो भला हो टेक्नोलॉजी का। जब मेरे हाथ में मोबाइल फ़ोन आया तब मैंने सेक्स और उससे जुड़ी बातों को जानना शुरू किया। शुरुआत हुई पोर्न से। पर इससे पहले हस्तमैथुन करना मैंने अपने आप ही सीख लिया था। शुरुआत हुई जननांगो को छूने से। मुझे मज़ा तो बहुत आया पर ये नहीं समझ आ रहा था  कि इतना मज़ा आखिर क्यों आ रहा था।

दस साल का हुआ तो मुझे जुवेनाइल रूमेटॉयड अर्थराइटिस है ये पता चला। इस बीमारी में आपके जोड़ों में दर्द, सूजन और कसापन हर वक़्त महसूस होता है। बीमारी के बढ़ने के साथ मैंने बिस्तर पकड़ लिया। 13 साल की उम्र में स्कूल जाना भी छूट गया था।

किसी भी दोस्त से मिलना भी ख़त्म हो गया। बाहरी दुनिया से मिलने का दरवाजा मेरे लिये बन्द होता जा रहा था। सेक्स को लेके शिक्षा या जानकारी के  लिए भी कोई ज़रिया नहीं था। उस समय मैं सोशल मीडिया पर नहीं था। जिसके कारण मेरे लिये हस्तमैथुन, सेक्स या उससे जुड़ी कुछ भी बातें जानने का कोई रास्ता नहीं बचा ।मेरा ज़्यादातर समय अकेले ही बीतता था। कोई दोस्त था तो वो थी मेरे तन्हाई, उसके साथ दिन कटता । 

उस समय मेरे पड़ोस में एक लड़की थी जिसपे मेरा दिल आया था । 

उस वक़्त मेरे बहुत ही कम दोस्त थे। और उनसे भी सेक्स और हस्तमैथुन की बातें ना के बराबर होती थीं। 

जब मैं सोशल मीडिया पर सक्रिय हुआ, तब जाके मैंने  अलग अलग विकलांग कार्यकर्ताओं के बारे में जानना शुरू किया। इन में से एक विकलांग कार्यकर्ता एंड्रू गरज़ा के सोशल मीडिया के  ज़रिये, मुझे  माइंडगैज़्म/मन से चरमसुख पाने  के बारे में बता चला।

मन से सेक्सी सुख  में अपने जनांगों को छुये बिना, सिर्फ़ फंतासी में जाके और मदमस्त ख़्याल सोचने से ही चरम सुख मिल जाता है। सोशल मीडिया के जरिये मुझे पता चला कि बहुत लोग जो कि गम्भीर रूप से विकलांग हैं, इसी की मदद से हस्तमैथुन कर चरम सुख पाते हैं। और मैं तो इस तरीके का नाम जाने बिना ही, इसे  पहले से ही इस्तेमाल कर रहा था।

मेरी बीमारी और गम्भीर हुई और उसके साथ मेरे हाथों ने काम करना बंद कर दियाअब हस्तमैथुन करना भी मुश्किल हुआ,  तब से लिंग पकड़ना, मुश्किल ही नहीं नामुमकिन ही रहा है। तब मैंने मन से चरम सुख  का तरीका अपनाया। जब भी कोई पोर्न या मादक सीन देखता, तो उसके बारे में फंतासी करने लगता। जिससे मुझे वो आंनद मिलता जो मुझे चरम सुख दिलवाता। हस्तमैथुन के मुकाबले यह तरीका कठिन तो है। क्योंकि जब जूनियर को छू नहीं सकते, तो उसके बिना चरम सुख पाने के लिये काफ़ी फ़ोकस और ताकत की ज़रूरत पड़ती है। पर तब भी मेरे लिये ये एहसास अलग था ।

दिन में मुझे प्राइवेसी मिलती थी। क्योंकि घर वाले सुबह सुबह काम को चले जाते हैं । और फ़िर शाम रात को ही लोग इर्दगिर्द होते हैं । मन से चरम सुख के अलावा मैंने हस्तमैथुन के लिये चीज़ों का भी इस्तेमाल करता हूँ। जैसे टीवी  का रिमोट, किताब, कंघी या पीठ खुजाने वाला डंडा। पीठ खुजाने वाला इन सब में से सबसे बेहतर है, क्योंकि उससे मेरे जूनियर तक पहुंचना आसान होता है। पर जो अपने हाथ का जो सुख है न,  वो इसमें नहीं।

मुझे इन वस्तुओं का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि मैं खुल्लमखुल्ला घर में सेक्स टॉय या वैसी कोई चीज़ घर पर नहीं ला सकता हूँ। और मेरे जैसे लोग, बाज़ार में मौजूद ज़्यादातर सेक्स टॉय आसानी से इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। सबको हक है अपनी सेक्शुअल ज़रूरत और आनन्द का एहसास करने का। ज़रूरी है कि इन सेक्स टॉयज़ को हम विकलांग लोगों के बारे में भी सोच कर बनाएँ । 

एक विकलांग इंसान की डेटिंग जीवन को भी लांछित निगाहों से देखा जाता है। जिससे हमें किसी को भी डेट करने में परेशानी होती है।

ज़्यादातर डेटिंग ऐप्स हमारे लिये बने ही नहीं हैं। मैं अपनी बात थोड़े विस्तार से समझाता हूँ, बम्बल या टिंडर जैसे ऐप्स मेरे लिये बेकार हैं। क्योंकि मेरी प्रोफाइल को प्रमाणित करने के लिये मुझे मेरे हाथों का इस्तेमाल कर सेल्फ़ी लेने को कहते हैं, जो मेरे लिये नामुमकिन है।भारतीय समाज में एक दलित परिवार से आये इंसान के लिये किसी को डेट करना बहुत मुश्किल होता है। ऊंचे और प्रभावशाली लोगों के मुकाबले तो अपना कोई चांस ही नहीं होता है।

मैंने आजतक विकलांग लोगों की डेटिंग जीवन के बारे में कहीं कुछ नहीं देखा है। सोशल मीडिया और कुछ विकलांग कार्यकर्ताओं से जो कुछ जानकारी मिली, उससे विकलांग लोग और उनके रिलेशनशिप से जुड़ी राजनीति समझ आई। धीरे धीरे मुझे कई समाजिक मुद्दों की समझ आने लगी।

कैसे समाज की व्यवस्था कैसे  एक ऐबल  इंसान को अपने सारे फायदा देती है ।  हमारे बीच ये भेदभाव की दीवार है जिसे लांघ कर आम समाज में जी पाना,  हम विकलांगो के लिये बहुत ही मुश्किल  बना दिया जाता है। 

तबसे मेरी ज़िंदगी में दो चीज़ बदल गयी: परेशानियाँ और लड़ना। नहीं, ये सुलझी नहीं, परेशानियाँ अभी भी कायम हैं।

पर अब मैं उन परेशानियों का सामना एक साफ़ सोच के साथ करता हूँ। कि कमी मेरे विकलांग होने में नहीं है, बल्कि इस समाज में है, जो हमें अपना हिस्सा नहीं बनने देता।

लड़ाई अभी जारी है दोस्तों।

पर मुझे अब ये पक्का है कि ये लड़ाई मुझे खुद से नहीं बल्कि, उस धारणा और सामाजिक कलंक के ख़िलाफ़ करनी है जो समाज के ऐबलिस्ट लोगों द्वारा बनाये गये हैं । 

नवीन डेनियल, उपनाम: ही/हिम, एक दलित विकलांग कार्यकर्ता हैं। वो, जहां जहां तक उनकी पहुँच जाती है, अपनी आवाज़ और आर्ट से, हर उत्पीड़न के सिस्टम के ख़िलाफ़ लड़ते हैं। 

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