मैं 12 जुलाई 1984 को पैदा हुआ। मेरी जन्म की कहानी किसी अजूबे से कम नहीं। मेरी माँ ने 12 घंटे का लेबर झेला। बाकी बच्चे कोख से सर का पीछे वाला हिस्सा बाहर निकालते हुए जनमनाल से निकलते है , लेकिन मैं अपनी माँ के जनमनाल से चहरे के बल निकल गया।
और रहस्यमय तरीके से गर्भनाल मेरे चेहरे पे बंधी हुई थी। वो मेरे चेहरे की विरूपता का कारण बना। डॉक्टर ने किसी भी तरह से मुझे इधर उधर कर के गर्भनाल के तरल पदार्ध को मेरी आँखों में जाने और सर के पास जा कर जमा होने और कड़ा होने से बचाया। दोनों का मुझ पे बहुत बुरा असर होता । या तो मैं हमेशा के लिए आँखों से विकलांग हो जाता या दिमाग में बुरी तरह से दिक्कत हो जाती।
उन चीज़ों की बजाय मेरे चेहरे की विरूपता हुई, जिसकी वजह से मेरा चेहरा एक तरफ से सूज गया। शुरुआत से ही मैंने परंपरागत और आधुनिक, दोनों ही तरह की दवा करने वालों को दिखाया। लेकिन मेरे जन्म की अलग परिस्थितियों ने किसी वजह से परंपरागत कहानियों को ज़्यादा ठोस जगह दे दी। वैद्यों के पास जाना मेरे माँ -बाप के लिए आम बात हो गयी।
अफ्रीका में जब भी कोई ऐसी स्तिथि आती है, तो ' देखने ' या 'जाँच करने '( जैसा कि कहा जाता है) पे बड़ा ज़ोर दिया जाता है । परंपरागत डॉक्टर जिनको ' देसी डॉक्टर' कहा जाता है, उनका काम होता है 'जाँचना' या आध्यात्मिक तरीके से बिमारी के मूल कारण का पता लगाना और फिर उसी हिसाब से जड़ी बूटी की दवाईयाँ तैयार कर के देना और इस्तेमाल करने की हिदायत देना।
मेरी ईसाई पृष्ठभूमि मेरे माँ -बाप को चर्च में प्रार्थनाओं के लिए गयी, जिसे ' डेलीवेरेन्स ' कहा जाता है। उस समय मेरी उम्र लगभग तीन या चार साल की होगी। एक देसी डॉक्टर से दूसरे देसी डॉक्टर, एक रोग विशेषज्ञ से दूसरे रोग विशेषज्ञ , एक पंडित से दूसरे पंडित। मैं अपने माँ - बाप के साथ कई जगह घूमा। विशेषज्ञों ने जैसे जो चीज़ें बोली , वैसा वैसा किया गया। मैं तीन साल का था जब मेरे चेहरे का एक बड़ा ऑपरेशन हुआ।
मेरा पहला ऑपरेशन सफल हो जाने के बाद , मतलब ऑपरेशन थिएटर से ज़िंदा बाहर आने के बाद , दूसरे बड़े ऑपरेशन की ज़रुरत पड़ी। मैंने छह महीने लागोस टीचिंग हॉस्पिटल (LUTH),में बिताये , जहां मेरा पहला ऑपरेशन हुआ। मुझे याद है मेरा बिस्तर कैसे बना हुआ था। मेरी आँख और नाक छोड़ के, प्लास्टर ऑफ़ पेरिस किस्म के पदार्थ से मेरा पूरा बदन बंधा हुआ था। उस दौरान मुझे पाइप द्वारा खिलाया पिलाया जाता था
था। वो मेरी ज़िन्दगी का बेहतरीन अनुभव तो नहीं था ! ( यह याद किस तरह से रखा जाये है ? )
उसी अस्पताल में मुझे दूसरे ऑपरेशन का अनुभव हुआ और पहले की पट्टी और घाव ठीक करने वाली अन्य चीज़ों को सुधरवाने का भी। मुझे सख्ती से कहा गया कि मैं खाली तरल पदार्थ का सेवन करूं और ठीक होने के लिए छह महीने तक दवाओं पे ज़िंदा रहूँ। जैसा कि मेरे पिता ने मुझे बताया , प्रबंधन चाहते थे कि साथ साथ और छोटे ऑपरेशन भी होते रहें। मेरे पिता ने बिलकुल मना कर दिया, क्यूंकि उनको अपने बेटे को खोने का डर था। चिकित्सकों ने बोला कि बड़ा होने पे मैं ठीक हो जाऊँगा। मेरे बायीं तरफ के गाल का सूजा हुआ हिस्सा ' वापिस से सामान्य ' हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
इसी बीच में , मोहल्ले के बच्चों से मुझे तरह तरह की टिप्पणियां मिलने लगीं। कुछ पड़ोसी, बच्चे , यहाँ तक कि व्यस्क भी ऑपरेशन के बाद मुझे स्कूल से वापिस आने के बाद देखते और कहते "देखो उसका बड़ा सा गाल , बहुत सूजा हुआ है " !
छह साल की उम्र में ही मुझे काफी बेइज़्ज़ती महसूस होती थी और अकेलापन लगता था।
मुझे वो शिक्षा मिली जिसके मेरे माँ बाप मुझे लायक समझते थे। घर में काम करने वालों की देख रेख मिली ( मेरे माँ बाप व्यस्त रहते थे) । और पैसों से मिलने वाली अन्य सहायता मिली। अपने साथ वालों के साथ के कठोर अनुभव , यहाँ तक कि स्कूल के टीचर और पड़ोसी के साथ के अनुभवों ने मेरे पर जाने -अनजाने में कभी न मिटने वाला निशान छोड़ दिया।
मेरे बचपन के दिन बेकार और बदसूरत थे। मुझे अभी भी याद है सेकंडरी स्कूल में एक सहपाठी ने 20 लोगों की क्लास के सामने मुझे ' बड़े मुँह वाला लड़का कहा था " । उस लड़की ने हमारी क्लास टीचर की मौजूदगी में ऐसा कहा था और उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। वो पल मुझे पैरों तले धरती खिसकाने वाला लगा और मैंने अपने तिरस्कार की भावनाओं को चुप चाप घोंट लिया।
मुझे सहारा देने वाला कोई नहीं था। मेरा दर्द बांटने वाला कोई दोस्त नहीं था। मेरे माँ बाप हमेशा व्यस्त रहने वाले लोग थे। मैं आंशिक रूप से 14 नौकरानियों की निगरानी में बड़ा हुआ। उनको समझ नहीं आता था कि मेरे दिल पे क्या बीत रही थी। वो बस अपने काम से काम रखती थीं। घर के ज़रूरी काम करना और फिर पैसे ले लेना।
मेरी माँ ने बाद में यह बात स्वीकारी कि उनको और पिता जी को लगता था कि बड़ा हो के थोड़ा कम बुद्धी हो जाऊँगा। पूरे प्राथमिक स्कूल की पढ़ाए से मैं जूझता रहा। बहुत होता जब औसत से थोड़ा कम का स्थान मिल जाता। मेरा अगली क्लास में जाना उतना ही मुश्किल था जितना बाईबल की कहावत में ऊँट का सुई के छेद से निकलना ।
लगातार घर में कोचिंग और स्कूल के बाद पढ़ाई करने के बाद मुझे ये विजय हासिल होती थी - जिसका सारा इंतज़ाम मेरे माँ बाप ही करते थे। सच कहूं तो मैंने प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया।
बिगड़े हुए चेहरे के साथ जीने का मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो हमेशा से ही रहा। अकेले रहना, ज़रुरत से ज़्यादा शर्मीला होना , और चिड़चिड़ा हो जाना मेरी आदत ही बन गयी। मेरा आत्मविश्वास कम होता रहा, क्यूंकि मेरा व्यक्तित्व का विकास रुक गया और वहीं मेरे साथ वालों का व्यक्तित्व लगातार पहाड़ चढ़ता रहा।
स्कूल में नीचा दिखाने की बात को अपने आस पास के वयस्कों को बताने का कोई फ़ायदा नहीं होता था। उनका जवाब होता था : " हमें तंग न करो। तुमसे ज़्यादा भारी बोझा हम ढो रहे हैं "
यह बहुत कष्टदायी और दिल तोड़ने वाली बात थी। यह जवाब बार बार सुन कर अकेलेपन ने मेरे दिल में अपना घर बना दिया। मैं अपनी बात किसी को नहीं बता सकता था। और तब भी , सबसे बड़ी संतान होते क नाते , मेरे छोटे भाई -बहन प्रेरणा के लिए मेरी ओर देखते थे...
प्राथमिक स्कूल के बाद की पढ़ाई में मुझे शर्म , बेइज़्ज़ती और नीचा दिखने का एक और पड़ाव झेलना पड़ा । अब यूं होता कि मैं साथ काम करने वालों के मोहक और सुन्दर चेहरों से घिरा रहता, और उससे मेरा दर्द और बढ़ता। एक बार फिर, पैसा होने के नाते मेरे माँ बाप ने मुझे से लागोस , नाइजीरिया के सबसे अच्छे माध्यमिक विद्यालय में भेजा। वो प्राथमिक की बाद की पढ़ाई के लिए एक प्राइवेट संस्था थी। वहा मैं तरह तरह की संस्कृति और धार्मिक पृष्ठभूमि के लोगों से मिला। मैंने वहाँ मामला अपने हाथों में ले के दोस्त बनाने का निर्णय लिया ( कम से कम सहपाठियों से बात तो करनी ही थी ) । फिर मैं दो लड़कों से मिला, - कादरी और एमेका। वो दोनों बहुत ही समझदार किशोर लड़के थे। वो अपनी तरफ से मुझे समझने की बेहतरीन कोशिश करते थे। हालांकि वो उन पढाई में तेज़ लड़को से कहीं पीछे थे, जो मुझ जैसे बिगड़े हुए चेहरे वाले के साथ, पढ़ाई जैसे गंभीर मामले पे बात करने का झमेला नहीं उठा सकते थे।
बदकिस्मती से मेरी और उनकी दोस्ती कम समय ही रह पायी । परिवार के हाल के चलते, उन दोनों ने स्कूल से अपना नाम जूनियर ईयर के दूसरे और तीसरे साल में हटवा लिया। अपने जाने की बात मुझे वो बहुत पहले ही बता चुके थे। और फिर मैं अपनी ही दुनिया में रहने लगा। दिलचस्प बात यह है कि माध्यमिक स्कूल के दूसरे साल में मैं पढाई लिखाई में रूचि लेने लगा। मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि ये बदलाव मुझ में कैसे आया.... कैसे अचानक मैं पढाई में औसत दर्जे से आला दर्जे का हो गया। उस दौरान मेरे पढ़ाई में बढ़िया होने के
गुण की वजह से काफी मोहक लड़के और खूबसूरत लड़कियाँ मेरी ओर खींचे चले आएं। यह अनुभव मेरे लिए सपने सच होने जैसा था।
लेकिन वो वैसे दोस्त नहीं थे जैसा मैंने सोचा था। असल में वो उस चीज़ का फ़ायदा उठाने में लगे रहते थे जो उन्हें लगता था मैं उनको दे सकता था- जो विषय उनको समझने में दिक्कत होती, वो उसकी जानकारी लेने मेरे पास आते थे। लेकिन मैं बस किसी का साथ चाहता था। आख़िरकार , मुझे ऐसा लगता था कि अकेले रहने से अच्छा है किसी के साथ होना। ये चीज़ मेरी विरूपता से जूझने का ज़रिया बन गया।
इन सब के बीच ,अपने बिगड़े हुए चेहरे की परेशानी को ले कर के मुझे परिवार से कोई ठोस सहारा नहीं मिलता।
" जब बड़े हो जाओगे तो तुम्हारा सूजा हुआ गाल खुद ठीक हो जाएगा " उन्होंने मुझे तसल्ली दिलाई।
यह बात तब की है जब मैं 14 साल का था
मैं सब्र से उस समय का इंतज़ार करता रहा जब मैं शीशे में खुद को देखूँगा और कहूंगा ' ये देखो मेरा मनमोहक रूप आ गया और मैं ऐसा ही रहूंगा '
" आपको क्या लगता है ? मैं चेहरे से किस उम्र में ठीक हो जाऊँगा ? " मैं जिज्ञासु हो के पूछता।
" जल्दी ही। हम वादा करते हैं तुम्हारा चेहरा जैसा अभी है उससे बहुत बेहतर हो जाएगा "
लेकिन मुझे एक पक्का जवाब चाहिए था। " लेकिन किस उम्र में ऐसा होगा ? "
उस समय ज़िन्दगी का सबसे बड़ा झटका लगा !
" मैं नहीं जानती। मैं कोई भगवान थोड़ी न हूँ " मेरी माँ ने जवाब दिया। चुभने वाली बात थी। मुझे अभी भी याद है।
" अच्छा " , मैंने इस बात को कभी फिर से नहीं पूछने का निर्णय लिया।
माध्यमिक स्कूल जारी रहा और मेरे पास और लोग आने लगे , दोस्ती के लिए नहीं, बल्कि मुझसे मदद मांगने के लिए। मैं फिर भी परेशान नहीं हुआ ; मुझे उनके काम आने की और प्रेरणा मिलती। लेकिन मैं उन लड़कियों से एक हाथ की दूरी बना के रखता, जो मुझे पसंद थीं।
मैरी वो लड़की थी जिसने मेरे साथ रिश्ते में रहने का प्रस्ताव ठुकराया। हम अकेले खड़े थे और हमारे बीच ये बातें हुई।
मैं : मैं तुमसे कुछ पूछना चाह रहा था।
मैरी ( जिज्ञासु हो के ) : क्या मतलब है तुम्हारा ?
मैं ( मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा ) जानती हो.... मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ।
मैरी : मेरे बारे में क्यों सोच रहे थे ?
मैं : मैं तुम्हारा साथ चाहता हूँ।
मैरी : किस लिए ?
मैं : प्यार के लिए ( उसका हाथ पकड़ते हुए )
मैरी : मुझे माफ़ करना लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती । मुझे लगा तुम कोई ज़रूरी बात करने के लिए मुझे अपने पास बुला रहे हो। ( उसने मेरा चेहरा देखा। मैं उसके हाव भाव से समझ गया )
मैं : ठीक है। माफ़ी मांगता हूँ ( निराश हो के सर हिलाते हुए )
मैरी : मुझे जाना है। ( मेरा हाथ छुड़ा के वो चली गयी )
मैं : ठीक है
मैं निराशा के साथ चला गया।
वो उन खूबसूरत लड़कियों में से थी जो समय समय पे मुझसे गणित में मदद मांगने आती थी , जिस विषय में वो कमज़ोर थी। ये तब तक चलता रहा जब तक माध्यमिक स्कूल ख़तम नहीं हुआ। अफ़सोस की बात है कि मैं पूरे स्कूल के दौरान उसके साथ किसी भी तरह की नज़दीकियां नहीं बढ़ा सका। स्कूल ख़तम होने तक उसके साथ कोई और बात चीत नहीं हुई।
वो पहली और आखिरी बार था जब मैं प्यार मोहब्बत के पीछे भागा। असल में उसके बाद कोई प्यार मोहब्बत जैसी चीज़ थी ही नहीं। उसके बाद मैरी से भी कोई बात चीत नहीं हुई।
साल 2001 और 2003 के बीच में नाइजीरिया में सीधा यूनिवर्सिटी, यहाँ तक कि पॉलीटेक्निक में भी एडमिशन लेना मुश्किल था। माध्यमिक स्कूल के बाद अगर माँ बाप या रिश्तेदारों को दाखिले का " छोटा रास्ता " न पता हो तो बच्चे सालों तक उच्च शिक्षा के संस्थानों में दाखिला लेने के इंतेज़ार में घर बैठ रहते थे। ऐसे में, मैंने बढ़िया प्रदर्शन के साथ माध्यमिक स्कूल 2001 में पास किया।
मैंने यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने के लिए जॉइंट एडमिशन और मैट्रिकुलेशन बोर्ड की परीक्षा का दो साल तक इंतज़ार किया।
इस दौरान घर में बैठे बैठे, मैं अपनी माँ के छोटे बिज़नेस में काम करने लगा। वो चावल, फलियों , कसावा के लच्छों ( जिन्हे यहाँ गार्री बोला जाता है ) और अन्य चीज़ों का व्यापार करती थी। उस समय ज़िन्दगी की एक और कड़वी सीख मिली। ग्राहक मेरे बिगड़े चेहरे को अच्छे से निहारते थे और दया प्रकट करते थे ( बोल के या इशारों में ) । मुझे यह समझ आता था कि वो मेरा भला ही चाहते थे लेकिन मुझे यह अच्छा नहीं लगता था। मुझे बस सहन करना सीखना था।
मेरे माँ बाप के पैसे कम होते जा रहे थे। उस समय मेरी उम्र सोलह साल की थी और मुझे पता था कि चीज़ें वैसी नहीं हैं, जैसे हुआ करती थीं। हमारा रहन सहन का स्तर बहुत तेज़ी से नीचे आ गया था। उस वक़्त घर में रहते हुए मैं सोचने लगा कि विदेश जाने से मेरी परेशानी हल हो जायेगी। शायद अन्य डॉक्टर या विशेषज्ञ मेरी विरूपता को ले के मेरी मदद कर पाएं। बार बार अपने निश्चय और इच्छा के विरुद्ध, मुझे फिर से इस बातचीत को छेडना पड़ता था ।
" क्या आप किसी को जानती हैं जो मेरे केस को देख पाएगा ? मेरा बाया गाल अभी भी सूजा हुआ है " । मैंने अपनी माँ से पूछा।
" मुझे बिलकुल भी नहीं पता !" , ये जवाब था ' और मेहरबानी कर के मुझ से ऐसे सवाल मत पूछा करो " । जब तुम यूनिवर्सिटी में जाओगे और ग्रेजुएट होगे , तो तुम नौकरी कर के अपने इलाज के लिए पैसे बचा लेना " । उन्होंने जवाब दिया। कड़वाहट उनके चेहरे पे लिखी हुई थी। जितना सोचा था उससे भी ज़्यादा कठोर जवाब दिया उन्होनें।
ये बात साफ़ थी कि मुझे अब खुद ही चीज़ें करनी होंगी। मैंने कई एन जी ओ से मदद की गुहार लगायी लेकिन मेरी अपील को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। मुझपे कभी ध्यान नहीं दिया गया।
मुझे व्यावहारिक होना सीखना पड़ा और बेकार बातें जो लोग मेरे सामने और पीठ पीछे बोलते थे, उनको नज़रअंदाज़ कर के अपनी विरूपता का सामना करना पड़ा। मैं ही अपना साथी रहा , बचपन में , किशोरावस्था में और जवानी में। इस ज़ख्म के निशान रह गए।
मैं ज़्यादा से ज़्यादा जैविक भोजन करके स्वस्थ रहने की कोशिश करता हूँ और अपने सूजे हुए गाल के बारे में ज़्यादा न सोचने की कोशिश करता हूँ। जैसे जैसे ज़िन्दगी चलती है ,जैसा मेरा शरीर है, उसे वैसे ही अपनाते हुए , मैं अभी के लम्हे में जीने की कोशिश करता हूँ। आख़िरकार , लोग बोलते हैं " यही ज़िन्दगी है " ।
मिस्टर बेन , जैसा की लोग इन्हें प्यार से बोलतें हैं , प्रकाशित कवि, नाटककार, निबंधकार, बच्चों के लेखक, उपन्यासकार, गीतकार और वौइस् ओवर आर्टिस्ट हैं। ये लागोस, नाइजीरिया में रहते हैं और इन्हें घूमने फिरने, पढ़ने और लोगों से मिलने का शौक है।