हर दो महीने में मैं खुद को मैं गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट(पेट और उससे जुड़ी बीमारियों के डॉक्टर) के ऑफिस के बाहर इंतज़ार करती पाती हूँ। या फ़िर अल्ट्रासाउंड स्कैन कराने के लिये। जहाँ पर कई प्रेग्नेंट औरतों के साथ गटागट पानी पीती रहती हूँ। ताकि मेरे ब्लैडर की स्कैन अच्छे से हो सके।
पहली बार जब मैं किसी स्पेशलिस्ट से मिलने गयी थी तब मेरे हेल्थ की पूरी जन्म कुंडली ले गयी थी। महीनों के टेस्ट रिज़ल्ट्स और रिकॉर्ड्स, ऑनलाइन डॉक्युमेंट से लेकर फ़ाइल सब कुछ।मेरी परेशानी की पूरी राम कहानी सुनाई। और जो मेरे जनरल फिजिशियन की राय थी वो भी। डॉक्टर को मेरे सकैन्स और रिपोर्ट्स देखने समझने में दो मिनट भी नहीं लगे।
उसने थोड़ा खीजते हुए कहा कि मुझे इर्रिटेबल बाउल सिंड्रोम(तनाव के कारण पेट खराब होना) और मैं इसे इतना सीरियसली क्यों ले रही हूँ। एक मिनट तक तो मैं वैसे की वैसे अवाक बैठी रह गयी। इस डॉक्टर की माने तो मेरे महीनों की परेशानी, तकलीफ़ों की वजह कोई और नहीं मैं खुद थी। और वो भी इसलिए क्योंकि मैं खुद को शांत और रिलैक्स नहीं रख सकती थी।
और एक बार फ़िर मैं वेटिंग रूम में बैठी हुई हूँ। बीमार सा फ़ील करती हुई, फुला हुआ पेट लिये वेट करते हुये। सुनने को तैयार कि मैं अपनी दवाइयाँ लेना जारी रखें। और मेडिटेशन ट्राई करें।(मैं दोनों ही तीन साल से लगातार कर रही हूँ।) मुझे डर है कि मैं इंतज़ार करते करते उल्टी ना कर दूं। ध्यान बटाने के लिये मैंने अपने दोस्त को फ़ोन किया। और थोड़ा दर्द कम करने के लिये हॉस्पिटल के वाटर कूलर के पास जाकर थोड़ा रो भी लिया।
इर्रिटेबल बॉवेल सिंड्रोम या आईबीएस एक लंबी समय से चली आ रही बीमारी को कहते हैं जी पाचन क्रियाओं में परेशानी करती है। तनाव और चिंता से ये बद से बद्दतर हो जाती है। जब भी मेरा तनाव का लेवल बढ़ता है, उसी के साथ लक्षण भी बढ़ने लगते हैं। अनियमित और दर्द भरे बाथरूम के चक्कर, पेट में दर्द होना, छाती में जलन होना, और कई सारी दिक्कत होती है। आईबीएस बिन बुलाए मेहमान की तरह कभी भी आ सकता है। इसके लिये तैयार होना मुश्किल ही होता है। ये तब होता है जब कुछ खाने या पीने से एलर्जी हो। एक दिन आप भले चंगे होते हैं, और अगले दिन कुछ खा लिया जो सूट ना किया, बस अगले दिन आप बिस्तर पर लेटे लेटे ये ही सोचते रहते हैं कि मैंने ऐसा क्या खा लिया जो मेरी ये हालत हो गयी।
आईबीएस एक ऐसी बीमारी है जिसके बारे में आप खुलकर बात नहीं कर सकते हैं। क्योंकि ये शरीर के उन क्रियाओं पर फ़ोकस करता है जिसका ज़िक्र करते हुए हमारी नाक भौं सिकुड़ जाती है। ये एक बीमारी है जिसका होना शर्म की बात होती है। और सबसे बुरी बात ये कि यही शर्म अंदर भड़कते हुए तनाव को और ख़राब करता है। और ये चक्र चलता रहता है। जब मुझे अपने लक्षणों से जूझना होता है तो अपना ही शरीर मुझे मेरा दुश्मन लगता है। और मानू भी क्यों ना! जब वो मेरे मुताबिक ही नहीं चलता। तब आप खुद को ही आकर्षक और चाहत के काबिल कैसे महसूस कर सकते हैं?
कुछ लोग सोचते हैं कि 'बीमारी में अच्छा दिखने पर क्यों ध्यान देना? इसकी क्या ज़रूरत है?'
मानती हूँ कि बीमारी में अच्छा दिखने पर फ़ोकस नहीं होना चाहिये। पर दूसरा सवाल ये उठता है मैं बीमार कब होती हूँ। क्योंकि कभी कभी मेरा ज़्यादा टाइम बीमार होने में ही निकल जाता है। कई सारे इंसानों मैं भी कॉन्फीडेंट महसूस करना चाहती हूं। मैं भी चाहती हूँ कि लोग मुझे चाहें। पर जब मेरी ज़रूरत से ज़्यादा एनर्जी आईबीएस के लक्षणों को रोकने में निकल जाती है या फ़िर इस चिंता में कि वो वापस कब आ जायेंगी। तब खुद को या दूसरों को चाहना थोड़ा मुश्किल हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि आईबीएस अपने साथ नहीं ऐसी डाँवाडोल स्तिथि लाता है। वो तो पहले से मौजूद बेचैनियों और बीमारियों के पहाड़ पर थोड़ी और परेशानी डाल देता है। आईबीएस से बढ़ने वाला तनाव अपने आप कुछ देर में ख़त्म नहीं हो जाता है। लगातार होते हुए पादों के साथ वो अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाता रहता है।
जैसे बात जब अपने पार्टनर के साथ अंतरंग होने की आती है तो कुछ सवाल अपने आप मेरे ज़ेहन में पैदा होने लगते हैं- क्या मेरा पार्टनर मुझे फ़ुले हुए पेट हो कर भी पसंद करेगा? लगातार डकार करने से मैं कम आकर्षक लगूँगी? ओलिंपिक रेसर की तेज़ी से मेरी बाथरूम जाने वाली कला उनको पसंद आयेगी?
जब भी मैं डेट पर जाती हूँ और मज़े करना चाहती हूँ, मेरे दिमाग का एक भाग केवल यही सोचता रहता है कि मेनू में सबसे सेफ़ चीज़ क्या है ऑर्डर करने के लिये। ताकि आईबीएस के लक्षण अचानक से ना हेलो हाय करने आ जाएं और सब गुड़ गोबर कर दें। जब आपका आपके शरीर पर कंट्रोल नहीं होता है तब लोगों से घुलना मिलना, करीब होना और सेक्स करना बहुत ही मुश्किल होता है। क्योंकि कितना भी चाह कर आपका शरीर आपके ख्यालों के साथ ट्यूनिंग नहीं बिठा पाता है। मेरी एक अलग लड़ाई खुद की उस सोच से भी है जो मुझे ये विश्वास दिलाती है कि इस शरीर को कोई प्यार नहीं कर सकता है। मुझे इसको प्यार करना ही है क्योंकि ये मेरा है।
एक बार मेरे पार्टनर का जन्मदिन आने वाला था। बस ठीक उससे एक दिन पहले मेरे पेट के अंदर ज्वालामुखी फ़ट के बाहर आने को तैयार होने लगा था। आधी रास्त के जन्मदिन के सेलेब्रेशन में मैं कुछ भी ठीक से नहीं खा पाई। मुझे इतना बुरा लगा कि मेरे पार्टनर का जन्मदिन और मैं एक केक का टुकड़ा भी खा सकी। ठीक से खुशी भी नहीं मना पाई। पार्टी तो लम्बी चली थी पर मैं अपनी परेशानी लिये जल्दी ही सोने चली गयी।
एक बारी एक डेट पर गयी थी। जिसका अंत हम हम दोनों का साथ में मेरे बिस्तर पर होना था वो मैंने अकेले टॉयलेट पर बिताई। क्योंकि जो खाना मैंने खाया था वो मेरे पेट को बिल्कुल भी नहीं जंचा। और उसको निकालने के दोनों द्वार खुल ही नहीं रहे थे।
फ़िलहाल मैं और मेरा पार्टनर लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप में हैं। दो साल के बाद हम एक साथ ट्रिप प्लान कर रहे हैं। और मेरी तो डर के मारे जान ही निकली जा रही है। क्या पता कब मेरा पेट हमारे इस प्यार भरे मिलन में पेंच लगा दे। सामान पैक करने से ज़्यादा मैं दवाइयां सोच समझ कर पैक कर रही हूँ। तूफानी वहीं करेंगे जहाँ टॉयलेट होगा!
अपने पार्टनर की सेक्स करने की चाह को पूरा ना कर पाने का अलग ही बुरा लगता है। जब आप खुद हर समय किसी न किसी वजह से स्वस्थ नहीं रहते हैं। कभी कभी मेरे पास मेरे काम को एनर्जी देने के बाद किसी और चीज़ के लिये कुछ बचता ही नहीं है। क्योंकि उन्हीं पैसों से तो आती है मेरी दवाइयां और टेस्ट्स। पहली बार जब बीमार पड़ी थी तब से ही मेरी सेक्स ड्राइव भी कम चली थी। और जब महीनों के टेस्ट्स और दवाइयों के बाद जो परिणाम आया,उसके बाद भी। मुझे कुछ भी करने का दिल नहीं करता है। सिवाय अपनी फ़ूटी किस्मत पर रोने के। मेरा पार्टनर ने मेरा बहुत सपोर्ट किया। पर मैं समझ सकती हूँ कि उसके लिये हर रात खाने के बाद पूरे घर दौड़ लगाना ताकि जो खाया है उससे निकाल सकूँ। ऊपर से नहीं तो पीछे से। जिससे मुझे आराम मिले।
बहुत से ऐसे लोग हैं जो ऐसी लगातार होने वाली बीमारी से जूझते हैं। वो और विकलांग लोग आपको बताएंगे कि सबसे कठिन होता है इस सच्चाई को मानना कि आप कभी अच्छे नहीं हो सकते हैं। आप बस इसको मैनेज कर सकते हैं। और जब ज़रूरत पड़े तो नापतोल कर ही रिस्क ले सकते हैं। मैं अभी भी अपने शरीर को अपनाने की राह पर हूँ। पर हर बार ऐसा नहीं होता है। मैं अक्सर खुद को कोसती हूँ। क्योंकि जहाँ मैं लाइफ में एक कदम आगे लेती हूँ वहीं आईबीएस मुझे दो कदम पीछे धकेल देता है। मैं इस सिचुएशन के साथ तालमेल बना कर ज़िंदगी जीने की कोशिश करती रहती हूँ। पर मुझे इस बात का भी डर लगता है कि समय के साथ ये हालात बुरा होने वाले हैं। मेरे खुद के शरीर को चाहने के मायने बदलते रहते हैं। इसीलिए खुद को प्यार करनर की राह में मैं उन सब विज्ञापनों के द्वारा खूबसूरती के मापदंड को नकारती हूँ। जो सिर्फ़ ख़ास तरह के बॉडी को ज़रूरतमंद और किसी काम का समझते हैं।
आपके जैसे ही परेशानियों से जूझ रहे फ़ेमस लोगों के बारे में पढ़ कर या सुन कर बीबी मदद मिलती है। हाल में सामंथा इर्बी और हन्ना वीटों मेरी पसंदीदा हैं। जिस तरह वो अपने शरीर को लेकर अंदर तक हिला देने वाली सच्चाई के साथ ह्यूमर का इस्तेमाल करती हैं, वो मुझे बहुत पसंद है। इसके कारण मुझे अटपटे स्तिथियों में अपनी बॉडी पर रोने की बजाये उससे प्रभावित होती हूँ। जैसे मुझे अपना स्टूल टेस्ट देने के लिये अस्पताल के छोटे से बाथरूम में ओलिंपिक लेवल वाला शरीर का लचीलापन दिखाना पड़ता है। मैं ख़ुद हैरान हो जाती हूँ कि वाह मेरा शरीर ये भी कर सकता है।
अपने शरीर को उसके हिसाब से चलाने से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ है। अब मैं सोच समझ कर कभी कभी कुछ ऐसा भी खा लेती हूँ जो मुझे पसंद आता है। ये जानते हुए कि कल पेट में बहुत गड़बड़ होगी। पर इसी का नाम तो ज़िन्दगी है ना, बेबी!
मैं खुद को ये बताने की और उस दुनिया में जीने की कोशिश कर राशि हूँ जहाँ मैं ताकतवर और सुंदर हूँ जब मैं अपने शरीर की ज़रूरतों को समझती हूँ। और चीज़ें अपनी तरीक़े से करती हूँ। मैं खुद को बार बार याद दिलाती हूँ कि हार का मतलब सज़ा नहीं होती है। ये तो बॉडी और माइंड के लिये सिग्नल का काम करता है। जो तब सिग्नल करता है जब मुझे अपनी बॉडी का ख़्याल रखने का समय आता है। तो बताओ, ऐसी बॉडी को मैं प्यार नास करूं तो क्या करूं?
दर्शना का जन्म 1990 में हुआ था। और वो एक पोएट और राइटर हैं जो कोची, केरल में रहती हैं। इनके लिखे हुये आर्टिकल्स द अलिपोर पोस्ट, फेमिनिज़्म इन इंडिया, योर स्टोरी, फ़ोर सीज़न्स मैगज़ीन, वीमेन'स वेब, टिंट जर्नल और बेंगलुरु रिव्यु में फ़ीचर हो चुके हैं। खाली समय में उन्हें किताबें पढ़ना और स्क्रैपबुकिंग करना पसंद है।