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"आराम फ़रमाना, ज़ुल्म को जवाब देना जैसा है ।": सुरभि यादव के साथ बात चीत

सुरभि यादव ने 2019 में , 'वीमेन ऐट लेज़र' यानी आराम फ़रमाती औरतें नाम से, एक फ़ोटो-प्रोजेक्ट इंस्टाग्राम पे शुरू किया। इस अनूठे प्रोजेक्ट का उद्देश्य था ,रोज़मर्रा के जीवन में औरतों की आराम फ़रमाती हुई तस्वीरों को कैद करना। सुरभि , ‘साझे सपने’ नाम के एक संगठन की सी.ई.ओ. और संस्थापक हैं । ये ग्रामीण परिवेश की युवा औरतों  को उनके कौशल विकास और रोज़ी-रोटी कमाने के लिए ट्रेनिंग  देता है।

ए.ओ.आई. के साथ बातचीत में सुरभि बताती हैं कि आराम फ़रमाना भी  जेंडर का मामला है, इसके साथ भी राजनीति जुड़ी है । ये भी बताती है कि औरतों के आराम और काम करने पे  ध्यान देने का क्या मतलब है और क्यों वीमेन ऐट लेज़र नाम का प्रोजेक्ट आज की तारीख़ में जरूरी है।

क्या आपको लगता है कि 'वीमेन ऐट लेज़र'/ आराम फ़रमाती औरतों  की तस्वीरों से, आराम पे लोगों की नज़र पड़ेगी? और क्या औरतों  के आराम करने को भी, उनके काम की तरह ही ,नज़रंदाज़ किया जाता है?

वीमेन ऐट लेज़र की कहानी मेरी माँ को याद रखने की कोशिश से शुरु होती है। उनकी छवि मेरे भीतर उनके काम करने को लेकर है। उस समय मैं उनके काम की कदर नहीं करती थी। मैं अपने पापा के काम की कदर करती थी क्योंकि वो ही बाहर जा कर पैसा कमाते थे। पापा ही अलग-अलग तरह के लोगों के साथ बातचीत कर पाते थे। इसलिए मैं माँ के काम पर या तो ध्यान नहीं देती थी या उस काम की इज़्ज़त नहीं करती थी। जब मैं उनके काम की इज़्ज़त ही नहीं करती थी तो उनके आराम करने या ना करने पर ध्यान ही कैसे देती?

आराम करती हुई औरतों की जो तस्वीरें मैं लेती हूँ, उनमें दरअसल अलग-अलग तरह की मज़ेदार चीज़ें होती हैं। पहली कि वो जो उन तस्वीरों में कर रही होती हैं, आपने अपने या अपनी माँ, बहन, बहु या भाभी की ज़िंदगी में, उन चीज़ों को आराम का दर्जा नहीं दिया होगा । ये तस्वीरें उन एक-तरफ़ा छवियों को भी तोड़ती हैं,  जो शहरी लोगों के मन में गांव और वहाँ की औरतों के लिए बनी हैं। उन्हें लगता है ,कि गांव की सभी औरतें एक जैसी होती हैं, वो दिलचस्प नहीं होती, या फिर वो बेहद सतायी हुई होती हैं या एकदम क्रांतिकारी । पर सच तो ये है, कि उनके कई पहलू हैं,  उनमें जटिलताएं हैं। तो अगर लोग देखते हैं कि औरतें सिर्फ़ बैठी हुईं, आराम फ़रमा रही हैं, वो हैरान हो जाते हैं । वो अपने आप में सहज होती हैं, और उनको अहमियत देने के लिए किसी सनसनी ख़ेज़ कहानी की ज़रूरत ही नहीं । और मुझे ये भी लगता है कि इस तरह लोगों को, जैसे वो हैं, वैसे ही देख पाना,  बेहद कूल भी है और ज़रूरी भी ।

इस प्रोजेक्ट में मज़ा भरा हुआ है और ये हमारे दिल के अलग अलग तार भी छेड़ता है, पर  इसके पीछे एक राजनीति की समझ भी है। क्या आप उसके बारे में कुछ बता सकती हैं?

आप सामाजिक मुद्दों के बारे में जैसे चाहें वैसे बात कर सकते हैं, है ना? एक समस्या वाली नज़र है जिसमें ये कहा जाता है कि देखो ये बड़ा गंभीर मुद्दा है, आपको ध्यान देना पड़ेगा, चलो सब नाराज़ हो जाओ और एक साथ इसे सुलझाते हैं। ये अत्याचार की नज़र है, दमन की नज़र जिससे मैं दुनिया देखूँगी, जांचूँगी और जानूँगी कि समस्या क्या है, इसका ढाँचा क्या है, वगैरा-वगैरा।

अब, एक दूसरी नज़र है, बहार की। बहार खिलना ये वसंत के लिए एक उर्दू लफ़्ज़ है। यह नज़र आपको मौजूदा बहार को देखने के लिए सही चश्मा लगाने को  कहती है और फिर सवाल करती है कि अगर मैं खुद के लिए बहार रचती , तो वो कैसे दिखती । मैं ये नही कह रही कि इन नज़रों में कोई एक नज़र दूसरे से बेहतर है, बल्कि आपको दोनों की जरूरत है। दोनों का अपना-अपना काम है। बहार की नज़र रखो, तो ग़ज़ब की बात ये होती है कि आप तुरंत सोचते हो कि मैं ये वसंत कैसे बनाऊँ? यानी अत्याचार से बहार की ओर  छलांग लगाने को विकास ही कहेंगे । क्यूँकि इस सोच के साथ आप जो कुछ भी करते हैं, उससे समझ आता है कि आप समस्या सुलझाने की बात कर रहे हैं -इसीलिए ये एक छलांग है।

मुझे लगता है कि 'वीमेन ऐट लेज़र' ऐसी ही  'बहार' है। ये खुशी के, शांति के और सोचने की तस्वीरें दिखाता है, ऐसी तस्वीरें, जिनसे अच्छा लगे। जब आप इन्हें देखते हैं, तो आप भी  इसे पाना चाहते हैं। और जब आप आराम का ऐसा माहौल पाना चाहते हैं, या इसे अपने आस-पास देखना चाहते हैं, आप सोचने लगते हैं कि ये आपके पास क्यों नहीं हैं। यानी बड़ी सहजता से, आपको एक मौजूदा दिक़्क़त ख़ुद ब ख़ुद दिखने लगती है। 

खासकर जब हम कैंसल कल्चर से ग्रस्त सोशियल मीडिया में रह रहें हों, मुझे लगता है कि यह एक प्यारी जगह बन जाती है, जहाँ हम ख़ुद मानने लगते हैं कि हमने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। मुझे बहुत सारी औरतों और यहाँ तक कि आदमियों ने ऐसे मैसेज भेजे हैं। बहुत सारे लोगों ने अपनी निजी भावनाओं के बारे में खुल कर बात की है और उनके मैसेज सतही नहीं हैं।

क्या आप हमें इस बारे में थोड़ा बता सकती हैं कि ये आराम का मुद्दा ‘बहार’ की समझ के साथ कैसे फिट बैठता है?

आराम सताए जाने को तगड़ा जवाब देने जैसा है। सताए जाना / अत्याचार का शिकार होना,  जटिल समस्या है, क्योंकि ये हमारे परिवार, समुदाय और समाज में रोज़ ही होता है। ये अलग-अलग तरह का होता है। जैसे घर के भीतर, बाहर, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि।

अगर आप 'वीमेन ऐट लेज़र' की तस्वीरें देखते हैं तो उसमें संभावना दिखती है। यह तस्वीरें आपको दिखाएंगी कि कोई जगह कैसे दिख सकती है, अगर कुछ ग़ज़ब ही हो जाए, या अल्हड़ और बेफ़िक्र होने का मौक़ा मिले। अगर मैं रीति-रिवाज़ों, जेंडर, जाति, वर्ग से थोड़े समय के लिए ही सही, पर बंधी न होती, तो मेरी ज़िंदगी कैसी दिख सकती है। तो वही बहार है, बसंत है। 

आप 'सांझे सपने' नाम का एक संगठन भी चलाती हैं जो लड़कियों को काम और उनके करियर के लिए तैयार करता है। अक्सर हम आराम फ़रमाने को इसके ठीक उल्टा मानते हैं,  कुछ ना करने की तरह। तो इस सिस्टम में आराम कहाँ और कैसे फिट बैठता है?

सांझे सपने दरअसल वीमेन ऐट लेज़र के ठीक उल्टा है। ये पूरी तरह से करियर बनाने के लिए है। ये गांव की औरतों के साथ काम करने और ये तय करने के लिए है, कि ऐसी जगहों में, जहाँ औरतों, लड़कियों और ट्रांस औरतों के लिए आगे की पढ़ाई के लिए कोई रास्ता नहीं है, वहाँ उन्हें एक करियर खोजने में मदद मिले। करियर के अलावा हम कौशल विकास के काम भी करते हैं, जिससे वो मॉडर्न अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन पाती हैं और नौकरी के बाज़ार में खुद को खड़ा कर पाती हैं।

पर मुझे लगता है कि अगर आपके पास कोई चीज़ समझने का समय नहीं है, या आप जो सीख रहे हैं, उसके अलावा अलग से कुछ समय नहीं है, तो फिर आप कुछ भी नहीं सीख रहे हैं। और आराम वो जगह है, जहाँ जो आपने इकट्ठा किया है, उसे आप आत्मसार करते हैं। कभी भी ना रुकने से, कुछ भी अच्छा नहीं निकलता। लेखिका वर्जिनिया वुल्फ़ कहती हैं कि, "अगर आपने अपने आराम को खो दिया, तो सावधान रहो, आप शायद अपनी आत्मा खो रहे हो।" मुझे लगता है कि हम उसी तरह से बने हुए हैं, इसीलिए आदमी के कामकाजी रहने के लिए नींद इतनी ज़रूरी है। बेशक यह एक अलग बात है कि कौन ऐसा कर सकता है। पर आराम बिल्कुल ज़रूरी है।

आपको क्या लगता है आराम जेंडर से कैसे प्रभावित होता है? क्या अलग-अलग जेंडर के लोग आराम को अलग तरह से महसूस करते हैं?

अगर हम पब्लिक जगहों को देखें, आप कैसे वहाँ पहुँचेंगे या रहेंगे, ये सब पहले से ही तय है, सभी भूमिकाएं पहले से ही बाँध दी गयी हैं । आपको आदमी सड़क किनारे इकट्ठा होते मिल जाएंगे लेकिन औरतें नहीं, है ना? औरतें तब बाहर बाज़ार में जाती हैं, जब उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत होती है। ऐसा नहीं कि वो केवल वहाँ खड़े हो कर बात करने के लिए जाती हों।

उदाहरण के लिए दिल्ली के पार्कों को ही ले लीजिए। वे सुरक्षित जगहें है, लेकिन उनमें खास जगहें भी हैं, जो किसी ख़ास इस्तेमाल में ही आती हैं। जैसे प्रेमी जोड़े पार्क के कोनों में मिलते हैं , या ऐसी कुछ जगहें हैं जहाँ पर आदमी बैठ के पत्ते खेलते हैं या शराब पीते हैं। जब मैं एक औरत होते हुए एक पेड़ के नीचे बस बैठ या लेट भी जाऊँ , तो उसे दुस्साहस माना जाता है। क्यों? ऐसा तो इसमें कुछ भी नहीं है! देखा जाए तो ये  इतनी आम चीज़ है।

हमारे घरों में ये बिल्कुल आम बात है कि मेरे पापा सामने के बरामदे में पैर पर पैर चढ़ा के बैठें और घंटाभर अखबार पढ़ें। अब सोचिए कि ठीक सुबह एक जवान बहू बल्कि माँ या सास भी अखबार खोल के बरामदे में पढ़ने बैठ जाए घंटाभर। यह बहुत दुस्साहसिक होगा! ये एक मध्यमवर्गीय परिवार का हाल है।

आपको क्या लगता है, ऐसा क्यों है?

हमारी श्रम की परिभाषा ही इतनी सीमित है,  तो फिर हम आराम को भी वैसे ही देखेंगे। 

हम क्यों नही परिवार में पापा को बोलते हैं कि बच्चों का ध्यान रखो? उनका ऐसा करना इतना स्पेशल  क्यूँ माना जाता है? क्या ये पापा का भी काम नहीं है कि वो अपने बच्चे को गले लगाए और प्यार करे? बच्चों के साथ, बच्चों की भाषा में बतियाना, सिर्फ माँ के लिए तय है, पिता के लिए नहीं। ऐसी छोटी सोच सभी जेंडर के साथ होती है। जैसे हम ये नियमित कर के चलते हैं कि औरतों  के लिए कौनसा श्रम आदर्श है, और आदमियों के लिए कौन सा। वैसे ही दोनों के लिए आदर्श आराम की भी एक सीमित सोच होती है ।

क्या आपने ऐसे उदाहरण देखें हैं जिसमें महिलाएं बँधीं हो गुई होती है, लेकिन वो उन्हीं बंधन वाले संदर्भों में  भी, आराम करने का दावा करती हों?

अगर हम धर्म का उदाहरण लें, तो औरतों के लिए कई आराम करने की जगहें हैं,  खास कर के गैर-मेट्रो शहरों में। आप कुछ ऐसे अनुष्ठान या त्यौहार देख सकते हैं जो तब मनाए जाते हैं जब औरतें गांवों के बाहरी इलाको में जाती हैं, एक पेड़ के नीचे बैठती हैं और शीतला माता या किसी दूसरे भगवान के नाम पर एक धागा बांधती हैं। ये एक पिकनिक जैसा होता है, भले ही वो इसे ऐसे ना कहती हों। पर ये वो समय होता है, जब वो रोज़मर्रा के कामों से दूर, दूसरी महिलाओं के साथ मिल कर गाती और पूजा करती हैं।

यहां तक कि 'माता आने' की यह सोच, इसपे ग़ौर करें : जब देवी आप में प्रवेश करती हैं और आप मानो किसी समाधि में चले जाते हैं। शरीर के सारे कपड़े बिखर जाते हैं, आप अपने शरीर के साथ कुछ भी कर सकते हैं, आप चीखते-चिल्लाते हैं... सच कहें तो ऐसा लगता है मानो आप सारे बंधनों को तोड़ के,  आज़ाद हो गए हों।

या फिर शादियों का उदाहरण लें।  मैं बुंदेलखंड के जिस हिस्से से आती हूँ वहां औरतें अपने ही बेटों या भाइयों की बारात में नहीं जा सकतीं। तो औरतें उस रिवाज में कैसे मज़ा करती हैं? जब आदमी (विवाह स्थल में ) आते हैं, तो औरतें गालियों से भरे गीत गाती हैं। इसे गारी-गाना भी कहते हैं। कभी-कभी वो बहुत बुरा-बुरा गाती हैं! ये औरतें घूंघट में बैठी होती हैं तो पता नहीं चलेगा कि कौन क्या कह रही है।

मैं रीति-रिवाजों या धर्म को बहुत बढ़िया नहीं कह रही। वो तो पितृसत्तात्मक हैं ही। और तो और, औरतों पे कंट्रोल जमाने के लिए उनको यही कहा जाता है कि आप परम्परा निभाने के लिए ये सब करो । और इन रिवाजों का बोझ भी औरतों पर ही अधिकतर थोपा जाता है।

लेकिन मैं इन औरतों से यह नहीं कहने जा रही कि देखो यह पितृसत्तात्मक है और तुम्हें इस जगह में नहीं होना चाहिए। और ये भी तो सोचो कि औरतों के लिए मज़ा करने के लिए और कोई जगह है भी? अगर आपको पितृसत्ता पर बात करनी है तो इस सिस्टम से कहना होगा कि ऐसी रस्में ना रखें । आप औरतों को यह नहीं कह सकते कि उन्हें इस सिस्टम के भीतर चैन नहीं मिल सकता है, और साथ ही उनसे ये उम्मीद करें, कि वो इस सिस्टम को चुनौती भी दें। सिर्फ़ औरतों पर ही इतनी जिम्मेदारी क्यों डाली जाए ? 

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