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कानून से क्या वैसा इन्साफ मिलता जो मैंने खुद को प्यार से दिया?

जब भी मैं ‘ए’ के बारे में सोचती हूं, तो वो मुझे नहीं लगता कि मेरा उत्पीड़न हुआ है.

सितंबर 2015 की शुरुआत में, मैं इंडिया से निकल एक दूसरे क महाद्वीप शिफ्ट हो गयी । फ्लाइट की उड़ान भरने से पहले तक मैं एक रिश्ते में थी, पर लैंड करते ही, सिंगल बन चुकी थी। वैसे तो मैं एक कमिटेड रिश्ते में थी, एक ही पार्टनर पर पूरी तरह निछावर (बोले तो मोनोगैमस/monogamous)। लेकिन क्योंकि मैं काम के सिलसिले में शिफ़्ट हो रही थी और वापस लौटने का कुछ तय नहीं था, तो हमने समझदारी से काम लेते हुए ब्रेकअप का फैसला किया। (तब हमने ये नहीं सोचा कि रोमांटिक फीलिंग का इतनी आसानी से बंद नहीं किया जा सकता है)।

कुछ महीने , नई जिंदगी में मशरूफ़ निकले, नए देश, परिवेश की आदत डालने में । और फिर एक दिन मुझे लगा कि अब मैं तैयार थी। फिर से डेट पर जाने के लिए पूरी तरह उत्साहित!  उस वक़्त डेटिंग ऐप्स नए -नए आये थे। फिर दिसंबर की एक रात, मेरे फ्लैट में रहने वाले दोस्तों ने टिंडर पर मेरा प्रोफाइल बनाने के लिए मुझे मना लिया। अब क्या-क्या होने का चांस था, वो सोचकर एक गुदगुदी सी हो रही थी।

कुछ हफ्ते बाद, मुझे टिंडर पर 'ए' की प्रोफ़ाइल मिली। एक लंबा, दिल को लुभा जाने वाला गोरा आदमी दिख रहा था। अब तो याद भी नहीं कि उसके बायो (इंट्रोडक्शन) में ऐसा क्या लिखा था, जो मुझे पसंद आया। लेकिन मैंने राइट स्वाइप किया और हमारा प्रोफाइल मैच ही गया।  मेरे प्रोफाइल में ये साफ-साफ लिखा था कि मैं शहर में नई थी (कुछ हद तक) और मुझे ऐसे किसी की तलाश थी जो मुझे आस-पास घुमाए। उसने उसी हिसाब से पहला पासा फेंका। और यहां तक ​​दावा किया कि वो मुझे शहर का सबसे अच्छा सीक्रेट बार भी दिखायेगा। मैं आंखें मूंद उसकी हर बात का भरोसा कर रही थी। कुछ दिनों की मज़ेदार छेड़खानी और हंसी-मज़ाक के बाद, एक सोमवार हमने आने वाले शुक्रवार को मिलने का प्लान बनाया। लेकिन वो शुक्रवार इतना दूर लग रहा था कि क्या बताऊँ! मैं उसके सुंदर ख़्याल से बाहर ही नहीं आ पा रही थी।  मैंने उसे फिर से मैसेज किया। आख़िरकार उसने अपना नंबर दिया और हम व्हाट्सएप पर चैट करने लगे।

जिस शुक्रवार हमें मिलना था, उसके एक दिन पहले, यानि कि गुरुवार को, उसने आधी रात के करीब मुझे पूछा अगर मैं उसके साथ टहलना चाहूंगी। अब मैं तो ठहरी दिल्ली में पली-बढ़ी लड़की। मेरे अंदर तो सावधानी कूट-कूट के भरी हुई थी (अब ये सावधानी पागलपन की हद तक थी या नहीं, ये बताना तो मुश्किल था)। उसके बुलाने पर मैं थोड़ा डर गई। लेकिन मैं उसे पसंद भी बहुत करती थी। तो मैंने झट से एक करीबी दोस्त को मैसेज कर सलाह मांगी।  उसने बाहर मिलने की सलाह दी, ताकि जो भी हो, पर बात एक हद से आगे ना बढ़े। लेकिन बाहर मिलना तो मुझे और खतरनाक लग रहा था। इतनी रात में कुछ भी हो सकता था। तो बस, अपने दोस्त की अच्छी-भली सलाह को नजरअंदाज कर, मैंने 'ए' को घर बुला लिया। मुझे ये लगा कि अगर कुछ भी ऐसा-वैसा हुआ तो मेरे फ्लैट में रहने वाले बाकी दोस्त तो थे ही (हालाँकि तब तक दोनों गहरी नींद में जा चुके थे)।

जैसे ही 'ए' घर के अंदर आया, मुझे पता लग गया कि वो अच्छा-खासा पी के आया था। उसके प्रोफेशनल काम में कुछ ऐसा हुआ था कि वो परेशान था। मैंने हम दोनों के लिए वाइन निकाली। फिर सोफे पर बैठ, हम काफी देर तक बातें कर रहे थे। लग रहा था कि वही एप्प पे होने वाली बातें-बहस ही आगे चल रही हों । वैसे उसे ज़्यादा वक्त नहीं लगा, मेरी गर्दन के पिछले हिस्से पर अपनी उँगलियाँ डालने और मुझे अपनी ओर खींचकर किस करने में। मुझे उसका ये अंदाज़ बहुत पसंद आया था। ऐसा लगा था जैसे एक तरफ तो वो आगे बढ़कर पहल कर रहा है, पर वहीं दूसरी तरफ खुद को मेरे ऊपर लाद भी नहीं रहा था। कुछ देर तो हम वहीं पर लिपटे- चिपके, फिर उसने ऊपर, मेरे बेडरूम में चलने को कहा। मैं ख़ुशी ख़ुशी राज़ी हो गयी।

मेरे कमरे में घुसते ही जो पहली चीज़ उसने देखी, वो थे दीवारों पर लगे पोलिटिकल पोस्टर्स। सारे पोस्टर्स मेरे वामपंथी (leftist) होने की तरफ इशारा कर रहे थे। मुझे याद है उसने कुछ ऐसा कहा था कि ये सब देखकर वो मेरी तरफ और आकर्षित हो रहा था। मैं जवान थी, किसी की सराहना को तरस रही थी, तो मेरे लिए ये कम आकर्षक नहीं था। हम एक साथ मेरे बिस्तर पर कूद पड़े। मेरे कपड़े उतारने में उसे दो मिनट भी नहीं लगे। बीच-बीच में वो मेरी फिट बॉडी की तारीफ़ भी कर रहा था। इससे मेरी आग और बढ़ रही थी।  मैं उसके साथ पेनिट्रेटिव/भेदक सेक्स नहीं करना चाह रही थी। तो मानो एक मज़बूरी सी लगी कि इसकी भरपाई करने के लिए मुझे उसे मुख-मैथुन/ब्लो-जॉब देना पड़ेगा। यहां मेरी  समझदारी भी काम नहीं आयी।  ऐसा माना जाता है कि मर्दों के अंदर पेनिट्रेटिव सेक्स को लेकर कुछ उम्मीदें होती हैं। आदमियों के भेदक सेक्स की इस उम्मीद को लेके मैं थोड़ी परेशान रहती हूँ, मुझे यूँ लगता है, जैसे हामी ना भरके मैंने कोई गुनाह किया हो । एक अज़ीब सी शर्म महसूस होती है। तो उस समय ब्लो-जॉब देकर उस अधूरी उम्मीद को शांत करने की कोशिश करना मुझे मेरी जिम्मेदारी सी लगती है। और उस दिन भी मुझे यूँ ही लगा। तो बस मज़बूरी मान, मैंने उसका पिनिस/शिश्न अपने मुँह में डाल लिया और चूसने लगी। मैंने देखा उसे बहुत मज़ा आ रहा था। और ये देख मुझे भी मज़ा आने लगा। मुझे लगा जैसे मेरे में इतनी ताकत है, कि मैं एक मर्द को इतने कम टाइम में ही इतने नाज़ुक हालात में पहुंचा पा रही हूँ, इतना आनंद दे पा रही हूँ। मैं जो कर रही थी, करती रही। कुछ देर बाद, उसने अपना हाथ मेरे सिर के पीछे रखा और अपना पिनिस मेरे मुंह के अंदर और घुसा दिया। एक मिनट तो लगा मेरी सांस रुक गयी। वो और जोर से मेरे सिर को अपनी ओर धकेलने लगा, जब तक कि पूरा पिनिस मेरे मुंह के अंदर नहीं गया। और फिर उसने मेरे मुँह के अंदर स्खलन (ejaculate) किया। फिर बिस्तर पर लेटकर, हमने कुछ देर बातें की। मुझे उस बातचीत में भी मज़ा आ रहा था। मैं खुश थी, संतुष्ट थी, थोड़ा चक्कर सा भी आ रहा था। और फिर मैं सो गई। वो भी उस रात वहीं सो गया और सुबह वापस गया।

फिर वो दिन आया, जिस दिन हमारा डेट प्लान हुआ था। पर मुझे पक्का पता ही नहीं था कि डेट थी भी, या कैंसिल हो चुकी थी। तो मैंने हौले से उसे मैसेज किया कि मैं अब भी वो नामी  सीक्रेट बार देखना चाहूंगी। पर उसने वापस जवाब ही नहीं भेजा। मुझे दुःख तो हुआ लेकिन इतना होश था कि दोबारा मैसेज नहीं करना चहिये। ये निराशा कुछ हफ्तों तक साथ चली। पहले कुछ दिनों में तो इस चाहत की जगह चाहत ना मिलने की जलन बहुत ज्यादा थी। एकदम जानलेवा! फिर धीरे-धीरे ये आग बुझी, और एक सुस्त सी, निराश भावना ने उसकी जगह  ले ली।

फिर दो महीने बाद, अचानक ही एक दिन  टिंडर पर उसका मैसेज आया। और जब मैंने कहा कि मैंने अपनी पहली मीटिंग के बाद ही उसे व्हाट्सएप किया था, तो उसने कहा कि उसने वो मैसेज देखा ही नही। यूँ लगा जैसे वो मिलने को बेताब था। लेकिन मुझे समझ में आ चुका था कि उसे कोई इमोशन से जुड़ा रिश्ता नहीं चाहिए था और इसीलिए वो बकवास से बहाने बनाये जा रहा था। (हाँ फिर भी मेरे लिए,  सेक्स के पहले और सेक्स के बाद उससे की गई बातें, बहुत ही खास थीं।) पर वो सिर्फ सेक्स चाहता था।

आप में से कुछ लोग ज़रूर कहेंगे कि मुझे टिंडर पर सेक्स के अलावा और कुछ मिलने की उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए थी। हालांकि बाद में जो भी चीज़ें हुईं, उससे ये बात भी गलत साबित हुई। वैसे ये जानकर थोड़ा अफ़सोस तो हुआ कि उसे सिर्फ सेक्स में दिलचस्पी थी, पर मैं उस बात को झेल गयी । उस वक़्त मेरी उम्र 20 से कुछ ही ज़्यादा थी, तो मुझे लगता था कि एक मॉडर्न, खुली सोच रखने वाली औरत को तो "सेक्स-पॉज़िटिव" होना ही चाहिए। हां भले ही मैंने इस शब्द का मतलब ही पूरा नहीं समझा। मुझे लगा कि सेक्स पॉज़िटिव होना यानि सेक्स के लिए हमेशा तैयार होना- भले आपकी खुद की चाह एक अलग तरह के रिश्ते की क्यों ना हो। (आज मुझे ये कहते हुए खुशी हो रही है कि अब मैं अपनी चाहतों को नज़रअंदाज़ नहीं करती हूँ। मैंने सीख लिया है कि सेक्स की मर्ज़ी हो तो हाँ बोलो, लेकिन अगर जब और जैसे सामने वाला चाहे, अगर तुम वैसे ना करना चाहो, तो एकदम ना बोलो)  और वैसे भी, मुझे अब उस आदमी में ही उतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी तब थी, जब हम दो महीने पहले, पहली बार मिले थे। हमारा प्रोग्राम नहीं बना क्योंकि वो जिस टाइम मिलना चाह रहा था, वो मेरे टाइम से मैच नहीं हो पाया।

वैसे जो दो साल मैं उस शहर में थी, हम कभी-कभार मिले। हर बार का, अनुभव वही पहली बार जैसा ही था। हर बार, मैंने उसे ब्लो-जॉब दिया। हर बार उसने मेरे सिर के पीछे अपना हाथ रखा और हर बार मेरी सांस मानो बंद होने लगी। बदले में वो भी मेरे नीचे जाकर मुझे ओरल देता था, मुझे खुश करने की कोशिश करता था। लेकिन उसकी कोशिश मेरे लिए कभी पूरी नहीं पड़ी। मुझे याद है मैंने अपने एक दोस्त के सामने शिकायत भी कि 'ए' के साथ सब कुछ जैसे एक रेस था। एक काल्पनिक अंत वाली दौड़! बस खत्म करना था।  तो हमारा सेक्स भी खत्म होने की दौड़ वाली रेस जैसा लगता । शायद मुझे उसे बताना चाहिए था कि मुझे क्या चाहिए। लेकिन उसके साथ हुई उन मुलाकातों के दौर में, शायद मैं अपनी खुशी के बारे में नहीं सोचा करती थी। मैंने सेक्स की नार्मल विषमलैंगिक सोच को अपना लिया था, कि औरत का एकमात्र लक्ष्य है मर्द को खुशी देना, उसकी चाहत बनना। बस! मुझे हमेशा उसके ओर्गास्म/उन्माद की चिंता रही, ना कि अपनी। 

2016 से 2018, इन दो सालों में #MeToo वाला मूवमेंट आया। लेकिन उससे भी ज़रूरी, मेरे घर के आस-पास मेरी अपनी राजनीति  बढ़ी। मैंने हमेशा खुद को एक फेमिनिस्ट/ नारीवादी के रूप में देखा था। और मुझे हमेशा लगता था कि जो आपकी पर्सनल सोच होती है उसकी परछाई आपकी पोलिटिकल सोच पे भी पड़ती है। लेकिन ये सारी समझ एक नए रूप में मेरे सामने आयी। (बेशक, इस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं है; मैं अभी भी सीख रही हूं और आगे बढ़ रही हूं। हर दिन अपनी फेमिनिस्ट सोच और प्रैक्टिस में कुछ नया देखती हूँ।)

जब भी मैं ‘ए’ के साथ अपने अनुभवों के बारे में सोचती हूं, तो वो मुझे बुरे नहीं लगते| यूँ नहीं लगता कि मेरा उत्पीड़न हुआ है या कि मुझपे किसी क़िस्म का आक्रमण हुआ है । फिर भी, इन गुज़रे सालों में, मुझे ये एहसास हुआ कि उसने जबर्दस्ती मेरे मुंह में अपना लिंग डाला, उसने ज़बरदस्ती, उसे और गहरे धकेला| और मुझे धीरे धीरे ये भी समझ आया, कि कानून की नज़र में ये बलात्कार था| मुझे यह समझने में वक्त लगा कि ‘ए’ ने मुझे वायोलेट किया/सेकशुअल रूप से हानि पहुँचायी है : लेकिन उस तरह से नहीं, जैसे हम वायोलेशन के बारे में सोचते हैं (पहले से तय  और/ या एग्रेसिव) बल्कि इस क़िस्म का वायोलेशन जो कि- आम है| और सेक्स की इस समझ को मानते हुए, अपनी इच्छाओं का खयाल ना करते हुए, मैं भी बहती चली गई|

इस एहसास के चलते मुझे लगा कि मुझे दुख, गुस्सा या तकलीफ़ होगी| लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ| और ऐसा ना महसूस करने के लिए मुझे गिल्ट भी हुआ|आखिर मैं - एक तेज़ तर्रार फ़ेमिनिस्ट, जिसे एक कलीग ने यहां तक कि ‘आतंकवादी’ फ़ेमिनिस्ट का तमगा दे दिया था- ऐसा क्यों महसूस कर रही थी? जब भी मैं ‘ए’ को याद करती, तो एक फ़ोंडनेस के साथ, उसके साथ जवानी के मेरे गुजरे पलों पे अधूरी मुस्कान से साथ, एक अलग ही तरह का नोस्टैल्जिया अपने उस जवान रूप के लिए, जो उन दिनों बस पंप रहा था, जब मैं ‘ए’ से मिली थी । इनसे यह सोच और समझ खत्म नहीं होती कि मेरा बलात्कार हुआ था, बिल्कुल भी नहीं| ये सारी अलग थलग सोच, बस साथ में रहती हैं |

यहां तक कि यह जानने क बाद भी कि ये अनुभव बलात्कार के थे, इंडिया वापस आने से पहले, मैंने  उसे मैसेज कर कहा कि मैं जा रही हूं और क्या वो एक आखिरी बार मिलना चाहेगा| और ये हमेशा की तरह ही था| मुझे लगता है कि मैं, उसके साथ के मेरे अनुभव को एक और बार फ़ील करना चाहती थी-- किसी आकर्षक आदमी से मिलना, किसी बात की परवाह किए बगैर, खुद को किसी और को सौंप देना । वाह जवानी की ज़िंदादिली|

इंडिया वापस आने के बाद से,  मैं जेंडर और यौनिकता के कानून से संबंधों पर ही काम कर रही हूं| प्रजनन अधिकार, यौन हिंसा और मर्ज़ी जैसे मुद्दों पे| इन मुद्दों पे  मैं बेहद ध्यान देती हूं और ये मेरे दिल के  बहुत करीब हैं| इन सब के बीच, मैं जितना इस बारे में सोचती हूं, उतना ही यकीन हो जाता है कि ‘ए’ ने मेरा बलात्कार किया था (या कम से कम उतना यकीन जितना एक ऐसे माहौल में हो सकता है, जहां रेप का इल्ज़ाम लगाते ही औरत पर बार बार सवाल उठाए जाते हैं और उसे बदनाम किया  किया जाता है-- ये आर्टिकल लिखते हुए भी मैं खुद पर सवाल करती रही)| और तब भी तकलीफ़ या गुस्सा या दुख या शर्म या ग्लानि जैसा कुछ भी नहीं महसूस हुआ| मैंने कभी  नहीं चाहा कि ‘ए’ को किसी भी तरह की कानूनी या सामाजिक सज़ा मिले| भावनात्मक तौर पर मुझे इंसाफ़, या बदला, या किसी भी कार्रवाई की चाहत नहीं है| जब #MeToo हुआ तब मुझे ए को  सोशियल मीडिया पर रेपिस्ट घोषित करने की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हुई (ना ही उन दूसरे लोगों को, जिन्होंने मेरी मर्ज़ी का उल्लंघन किया था, हालांकि आंदोलन के समर्थन में और खुद को सर्वाईवर बताते हुए, मैंने एक पोस्ट लिखी थी)| जो औरतें अपने साथ हुए उल्लंघन के बारे में बोलना चाह रही थीं, मैंने उनका समर्थन किया | आपको लग सकता है आखिर ऐसा क्यों, और मैंने भी इस बारे में काफ़ी सोचा|

‘ए’ ने मेरी व्यक्तिगत सीमाओं को लांघा और मैं मानती हूं कि उसका किया, ग़लत था| उसने मेरे साथ जो किया, मैं उसे उसके लिए माफ़ नहीं करती| लेकिन इस तर्कसंगत, लौजिकल समझ के साथ, क्या मुझे कोई निगेटिव फ़ीलिंग नहीं महसूस होती ? नहीं होती । बल्कि, मैं इसे एक पॉज़िटिव एहसास के साथ रखती हूं-- ‘ए‘ के किए की बात नहीं कर रही, बल्कि उसके बाक़ी गुणों की । ‘ए’ जिस क़िस्म का आदमी था- बेहद स्मार्ट, फ़नी, आकर्षक और मज़ेदार कंपनी । उसके साथ बातें करने में बहुत मज़ा आता था । तो ये पोज़िटिव अहसास  मेरे साथ है  (ये आर्टिकल लिखते हुए भी मैं मुस्कुरा रही थी)| मैं उसकी शुक्रगुज़ार भी हूं क्योंकि वो मेरे सेक्शुअल सफ़र का ज़रूरी हिस्सा था, उसके चलते मुझे समझ आया कि मुझे क्या पसंद है और क्या नहीं, और कैसे कई बार इन दोनों के बीच एक बारीक सा अंतर होता है । और ये भी कि पसंद-नापसंद के  बीच का ये बारीक अंतर अंतर, मेरी निजी  ज़िंदगी, मेरे हाल-चाल और दूसरी कई चीज़ों के आधार पे, बदलता रहता है| ऐसा भी नहीं है, कि मैं ख़ुद को दोषी माँ रही हूँ, कि मैं उस वक़्त ये नहीं समझ पायी थी कि जो हुआ, वो रेप/बलात्कार था ।    ना ही मैं  इस बात से  शर्मिंदा हो रही हूँ कि अब, जबकी मैं ये सब समझ चुकी हूँ, तो मुझे  इसपे ग़ुस्सा क्यूँ  नहीं आ रहा, या गिल्ट क्यूँ नहीं हो रहा | बल्कि, मैं तो खुद के लिए के साथ एकदम कोमल और उदार बना चाह रही हूँ, ताकि मैं इस बात से परेशान ना हूँ कि मैं एकदम से समझ नहीं पायी थी कि वो रेप था, और अब, रेप की परिभाषा समझने के बाद, अपने को  दोषी ठहराने से बचाने के लिए । मैं खुद की शुक्रगुज़ार हूं-- कि जो अनुभव किया, उसको अपने साथ लेके,  आज भी जी पा रही हूँ । यो सारी यादें भी मेरे साथ हैं, और वो सारा द्वन्द भी । ‘ए’ के साथ मेरे रिश्ते ने मुझे सिखाया कि मुझे कैसे रिश्ते चाहिए:  सचेत, सोच समझ वाले, और साझे| उस उल्लंघन के लिए ‘ए’ को सज़ा दिलाने से ज़्यादा, मुझे मेरी आज़ादी प्यारी है - ये शायद लकीर से हट के मेरा फ़ेमिनिस्ट जवाब है| मैं कह्सकती हूं कि अब मैं बड़ी और समझदार हो गई हूं, और शायद ऐसा कुछ दुबारा मेरे साथ नहीं होगा  (ये कहने का यह मतलब नहीं , कि उस समय जो हुआ, वो मेरी गलती थी)|

पिछले साल मैं कुछ महीनों के लिए उस ही शहर में थी| एक शाम अपने प्राइमरी पार्टनर के यहां जाते हुए, मुझे यूं ही ‘ए’ का खयाल हो आया; शायद मैंने राह चलते किसी को देखा हो जो उसके जैसा दिखता हो|


एक अजीब इत्तफ़ाक कुछ यूं हुआ, कि अगली सुबह जब मैंने अपना टिंडर चेक किया तो उसका एक मैसेज था| तीन साल पहले जब मैं शहर छोड़ के आई थी, उसके बाद से हमने बात नहीं की थी, और मैंने उसे ये भी नहीं बताया था कि मैं वापस आ गई हूं| उसने मिलने के लिए पूछा| मैंने हां तो कर दी लेकिन कोई समय नहीं बताया| बिज़ी होने के चलते, एक बार फ़िर हम नहीं मिल पाए-- लेकिन उसने दो-तीन बार मैसेज किया और अपना नम्बर भी दिया (शायद वो भूल गया था कि 2 साल पहले से ही मेरे पास उसका नम्बर है)|

मैं बहुत व्यस्त रही और शहर छोड़ने से पहले उससे मिल नहीं पाई| लेकिन जब भी मैंने उससे मिलने के बारे में सोचा, मन ने कोई कड़ा विरोध नहीं किया| था तो बस…एक अनिश्चितता, पक्की तौर पे तय नहीं कर पाना| आखिरकार  समय अपनी गति से चला और मैं उससे नहीं मिली| और एक बार फ़िर मैं इस बात पे चौंकी, कि मेरे मन में उसकी कोई बुरी यादें नहीं थीं| और मुझे लगता है, अगर कल मैं उससे मिल सकूं, तो तुरंत ‘ना’ नहीं कहूंगी| शायद हाँ भी ना कहूं, लेकिन तुरंत ना तो नहीं कहूंगी|

“रेप” हमेशा एक नेगेटिव शब्द है| हम सबको बताया जाता है कि  किस तरह से इसे भयानक  निगेटिव तौर पर देखें| हमें बताया जाता है कि रेप “कभी ना मरने वाली शर्म”, यानी मौत से भी बद्तर ज़िंदगी है| और इसलिए अगर हमारे साथ वयोलेशन/सेक्शुअल उल्लंघन हुआ हो, तो हमको भी ऐसा ही फ़ील करना होगा ।  प्रगतिशील बातचीत में हम ये बोल सकते हैं कि जिसके साथ बलात्कार हुआ है, उस पीड़ित का कोई फ़िक्स वर्णन नहीं है, उसे कैसा होना चाहिए, क्या लगना चाहिए, ये भी फ़िक्स नहीं | फ़िर भी हम रेप के अनुभव और सर्वाईवर के एहसासों में बारीकियाँ देखने से कतराते हैं | कानूनी और सामाजिक ढांचे रेप विक्टिम पे अपनी सटी हुई सोच बना लेते हैं- बिना उनसे पूछे कि वो क्या सोचते हैं। शायद इस वजह से ही, अन्य समाज भी ऐसा सोचता है ।  रेप की कड़ी सज़ा देने की हमारी ख्वाहिश कई बार इस बात पर ज़ोर देती है, कि रेप के सर्वाईवर की फ़ीलिंज़ वैसी ही हों, जैसे कि हमने अनुमान लगाया है । लेकिन असल ज़िंदगी इतनी साफ़ और स्पष्ट तो नहीं होती| जैसे, कई लोग अपने रेपिस्ट से प्यार भी  करते हैं, या इसलिए प्यार करते हैं कि वो उनके परिवार से हैं या वो उनके साथ , बड़े हुए हैं| ऐसे एहसास को जगह ना देने से, हमारी वजह से ऐसे लोगों को ,दोहरी शर्म का सामना करना पड़ता है|उनकी ये कोमल फ़ीलिंज़, उनके साथ हुए उल्लंघन या हिंसा की सच्चाई को ख़त्म नहीं कर देता । अब अगर हम इस बात की ज़िद करते रहें कि रेप या उल्लंघन के पीड़ितों को वही चाहना चाहिए, जो कि क़ानून की मर्ज़ी है… तो ये कैसा न्याय होगा, जिससे पीड़ित को अपने बारे में हल्का फ़ील कराने के बजाए, शर्मिंदा किया जाए ?

एक वकील होने के नाते, मेरे लिए ये बात कहना आसान नहीं| हमारी दुनिया, तर्क और रैशनैलिटी वाली क़ानूनी चर्चा से भरी है | लेकिन हमें साथ ही, भावनाओं के लॉजिक और सच के बारे में सोचना होगा| जब हम उस तरह से सोचेंगे, तब हमारे जवाब रेप विक्टिम को बेहतर महसूस कराने के लिए होंगे ना कि समाज को, जो अपने हिसाब से तय करता है कि रेप या उल्लंघन की कहानी किस तरह की होनी चाहिए| क्या हम कानून पर ध्यान दे रहे हैं या पीड़ित की ज़रूरतों पे? मेरे अपने अनुभव और काम में , मैंने यह समझा है कि “न्याय” का अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग मतलब होता है| मेरे खुद के मामले में , मुझे ख़ुद इसपे सोचना पड़ा कि कि मुझे मुझे किस बात से तस्सल्ली मिलेगी, मुझे क्या चीज़  “न्यायसंगत ” लगेगी । ये समझ पाने के लिए,  मैं अपने अनुभव के साथ फ़ेमिनिस्ट जद्दोजहद करती गयी| मुझे ये समझ में आया कि इस सब में पित्रसत्ता  का कितना बड़ा हाथ है । इस समझ से मेरी  पर्सनल ग्रोथ हुई। और धीरे धीरे (ये काम अभी जारी है ) मैंने आपे को सेक्स के उन तौर तरीक़ों से दूर किया, जिनमें औरतों की चाहतों को अहमियत नहीं दी जाती । ये सब मेरा अनुभव रहा । किसी और औरत के लिए, रेपिस्ट का अपनी गलती मानना, न्यायसंगत बात  हो सकती है | कोई और ये चाह सकता है कि उसके बलात्कार करने वाले को माफ़ी माँगनी पड़े, उसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए। कोई और थेरपी करना चाह सकता है | ये भी हो सकता है कि कोई रेप करने वाले को  कानूनी तौर पे,  सज़ा दिलवाना चाहे|

मैं ये किसी अनुभव को झुठलाने के लिए नहीं लिख रही, बल्कि इस पूरी बतचीत में और जगह बनाने के लिए इस उम्मीद से लिख रही हूं, कि न्याय का एक व्यापक और असरदार सफ़र तय होगा| रेप एक बहुत घिनौना हादसा होता है, और  इससे गुज़रना और बच के निकलना बहुत तकलीफ़देह | लेकिन क्या साथ ही, मेरे जैसे लोग ,जो इससे गुज़रे हैं,और जिन्हें शर्म या ग्लानि या दुख महसूस नहीं होती, उनके लिए भी जगह बनाई जा सकती है ?

 

‘एम’ दिल्ली से वकील हैं लेकिन अब भी दुनिया में अपनी जगह तलाश रही हैं| उनका ख़ास हुनर यही है कि वो फ़ेमिनिज़्म पर जम के बोलती हैं । पर मज़े के लिए, वो पढ़ती, नाचती और अकेले सफ़र करती हैं|

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