ट्रेन शाम के आसपास एर्नाकुलम टाउन स्टेशन पहुंच रही थी, लेकिन हमेशा की तरह देर से। वीकेंड की छुट्टियों के बाद, मां-पापा के घर से वापस काम पर ले जाने वाली इस ट्रेन का सफ़र यक़ीनन व्याकुलता से भरा होता है। जब हम स्कूल में थे, पापा मेरे बड़े भाई के ज्यादा क़रीब थे। उनको मेरे भाई से कई उम्मीदें और आकांक्षाएँ थीं। बचपन में मैं ज्यादा बात नहीं करता था; ज्यादातर अकेले ही रहता था। लेकिन मुझे याद है जब पापा- आज की तरह ही - उस समय भी मेरे भाई को सलाह दिया करते थे।
वो मेरे भाई को समझाते थे कि अगर कोई उसके खिलाफ़ हिंसा करे, उसपर हावी हो, तो उसे उन लोगों को चेतावनी देनी चाहिए। "जब लोग आपकी बात नहीं सुनते हैं, आपके मामलों में टांग अड़ाते हैं तो आप उनको बल से रोकने की कोशिश कर सकते हैं। ज़रूरत पड़े तो उनपर हाथ भी उठा सकते हैं।" मुझे लगता है कि मैंने भी उस सलाह को दिल से लगा लिया, भले ही आज तक किसी ने भी मुझ पर हमला करने की कोशिश नहीं की।
जब हमारे पास केबल कनेक्शन होता था, हर रविवार की शाम मां-पापा और हम साथ बैठ फिल्में देखा करते थे। वो यादें आज भी ताज़ा हैं। ज्यादातर मलयालम और तमिल भाषा की हर किस्म की फिल्में। कभी कभार, भैया और मेरे कहने पे, अंग्रेजी और हिंदी फिल्में भी चला करती थीं ।
उस वक़्त मैं बॉलीवुड का दीवाना था। मैं केरल छोड़कर, इंडिया के किसी महानगर में घुल मिल के, और बड़ी धारा से जुड़के रहना चाहता था। इंग्लिश से ज्यादा मुझे हिंदी सीखने मैं दिलचस्पी थी। बिना सब-टाइटल पढ़े इंग्लिश फिल्में समझ भी नहीं पाता था। वो तो हाल ही में, मैंने अंग्रेज़ी की प्रतिनिधित्व मानी जानी वाली रचनाओं को पढ़ाना शुरू किया। और तब मैंने हॉलीवुड और पश्चिमी साहित्य को क़रीब से जाना। मेरे लिए ये कोई आसान या नैचुरल झुकाव नहीं था। मुझे लगता था कि शायद ऐसा इसलिए था, क्योंकि जिस वक़्त मैं बड़ा हो रहा था, अपनी मां के ज़्यादा करीब था।
मेरी मां कभी-कभी ही अंग्रेजी में बात करती है। वो 'इंग्लिश विंग्लिश' की श्रीमती शशि गोडबोले की तरह परेशान हो जाती है। लेकिन अपनी मातृभाषा मलयालम में तो वो बातचीत करने और कहानी सुनाने में ग़ज़ब ही कर जाती है।
बड़े परदे पर जो पहली फ़िल्म मैंने देखी, वो थी "अव्वई शनमुघी"। मुझे याद है उस वक़्त मां खूब हँसी थी । मेरा भाई रजनी का बहुत बड़ा फैन था, और शायद आज भी है।
पापा का मानना है कि वो जो वही करते हैं जो दूसरों को करने की सलाह देते हैं। अब मेरा इरादा उनको ग़लत साबित करने या और ठेस पहुँचाने का नहीं है। लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान, वो ज्यादातर घर बनाने में ही लगे रहे। इसलिए, घर की चार दीवारों में बच्चों की ज़िम्मेदारी, माँ पर ही रही ।
एक उच्च-मध्यम वर्गीय नायर परिवार में, मर्दानगी या पुरुषत्व से संबंधित बातचीत अक्सर मजाक का विषय होती थी। औरतों की व्यंग्यात्मक तीखी बातें, जो अक्सर बहुत कुछ व्यक्त कर जाती थीं, मीठी पिघलती आवाजों में होती थीं । अक्सर ये कुछ ऐसी गहरी कठोर और प्रस्तावित बातें होती थी जिन्हें जिंदगी भर, पुरानी बातें याद करते हुए भी आप समेट ना पाओगे । वो शब्द आज भी हममें से अधिकांश लोगों के कान में गूंजते हैं। हम, यानी जो ऐसे पुरुषों की श्रेणी में आते हैं जो मलयालम फिल्मों के याद किए जाने वाले पहले एक्शन हीरो, जयन की तरह नहीं बनना चाहते थे। कहने का मतलब ये कि, हम वो मर्द हैं जो बरसों से चली आ रही विशमलैंगिकता को ही सच मानते हुए और पितृसत्तात्मक के विचारों से बने सांचों में नहीं ढले हैं। और ना ही हमें इतनी आज़ादी थी कि सीधी बात करने वाले मोहनलाल या ममूटी जैसे बनें। सुरेश गोपी का रोल तो भूल ही जाओ। हालाँकि, कथित तौर पर, हम किसी का भी फैन बनने को आज़ाद थे।
नायर औरतें सदाबहार हीरो प्रेम नज़ीर को एकमत से पसंद करती थीं। उसके व्यवहार, उसकी अच्छाई की बात करते वो शरमा ही जाती हैं। कम से कम मेरे परिवार और दूसरी 'मल्लू आंटी' मंडलियों में तो यही नज़ारा है। चूँकि इन पारिवारिक मंडलियों में कई तमिल भी शामिल थे, इसलिए एम.जी.आर और कमल हासन को भी काफी प्यार मिलता था। इनमें से बहुत सी आंटियों को 'आकर्षक मर्दों की कहानियाँ' आपस में साझा करना, बड़ा पसंद था।
कुछ साल पहले कन्नूर में एक शादी में मेरी मुलाकात एक बहुत दूर के पारिवारिक मित्र से हुई। उनकी उम्र कुछ 60 पार करने वाली थी या शायद 70 के आस पास की थी। उन्होंने मेरी दूसरी चाची से पूछा कि क्या उनके बेटों की शादी, आने वाले कुछ दिनों में होने वाली है, या नहीं। मेरी चाची ने जवाब दिया; “शादी तो होगी। लेकिन पता नहीं आप तब तक रहोगी या नहीं!" तो हाँ, ऐसे उल्टे-सीधे सवाल-जवाब नार्मल हैं। बल्कि आपसी नज़दीकी दिखाने और क़रीब होने का यही तरीका है, थोड़ा तीख़ा सा, खासकर मलयाली बुजुर्ग औरतों के बीच।
मुझे हमेशा से ऐसा लगता है कि मलयाली लोग मलयालम कम बोलते हैं और व्यंग बोलने पे सारा ध्यान देते हैं ।
मेरे साथ एक मर्द जैसा व्यवहार किया जाता है क्योंकि मेरे चेहरे पर बहुत सारे बाल हैं और मेरी आवाज़ भी, बोला जाए तो, मर्दाना है। मुझे थिएटर प्रोडक्शन और डॉक्युमेंट्री के लिए वॉयस ओवर देना पसंद था। अपनी आमदनी बढ़ाने का एक तरीका जो मुझे समझ में आया था, वो था सॉफ्ट पोर्न फिल्मों के लिए डबिंग कलाकार बनना। भले ही उन्हें दूसरी भाषाओं से ही डब किया जा रहा हो। जहां तक मुझे याद है, दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में फेमस फिल्मों को डब करना, मतलब वो तो हंसी का पिटारा वाला मामला होता था ।
मुझे शेक्स्पीयर के ड्रामा, "द टेम्पेस्ट" में कैलीबन बनकर बड़ा मज़ा आया था। नाटक में एक्ट II, सीन 1 में एक लाइन थी, जहां सेबस्टियन गोंजालो को "ओल्ड कॉक"/ बूढ़े लंड कहकर बुलाता है। ब्रिटिश लिटरेचर क्लास के पहले सेमेस्टर में लगभग 40-50 किशोर लड़कियों थीं। उनके सामने बिना शरमाए, चेहरे पर बिना कोई भाव लाये डॉयलोग पढ़ना, शायद एक्टिंग के सबसे मुश्किल प्रैक्टिस में से एक था। पिछली तीन कतारों की लड़कियाँ कुछ ज्यादा ही खुश थीं, खी-खी करके हंस भी रही थीं। जबकि क्लास की ज़्यादातर लड़कियाँ अपने टेक्स्ट में डूबी हुई थीं।
बड़े होने के दौरान फिल्में और उनके किरदार मेरे सच्चे दोस्त थे। मैं उस पहले बूढ़े आदमी के चेहरे पर तमाचा मारना चाहता था, जिससे मैं प्यार करता था।जैसे "चालबाज़" में श्रीदेवी ने अपने तांडव नृत्य के नशे में धुत होकर अनुपम खेर को तमाचा मारा था।
ये फ़िल्मी कैरेक्टर और साहित्य ही हैं, जिनसे मुझे मेरी परिजन मिले । मेरे ज़्यादातर दोस्त, बोले तो आत्मा से, खुद को अकेला/लोनर ही मानते हैं। इसलिए, हमारी लाइफ में साहित्य का बड़ा रोल है। साहित्य दर्द का साथी है। देखो तो ये एक आपसी भाईचारा है, जो हममें दया और सहानुभूति की भावना को मज़बूत करता है।
बाल्डविन और लॉर्डे पिछले कुछ टाइम से मेरे पसंदीदा साथी रहे हैं। जितना उन्होंने मुझे अजनबियों के साथ सहानुभूति रखने में मदद की, उतना ही आम तौर पर लोगों से मिले दुख और निराशा को भूलने में भी। ये उपन्यास, 'जियोवन्नीस रूम" सेक्सुअल आनंद के ज़्यादा अहमियत, सेक्सुअल रूप से अपने घाव भर पाने को देता है । "अपने आप में एक बेहोशी, एक अज़ीब सी हलचल महसूस कर रहा हूँ, जो उस समय मुझमें बहुत ज़ोर से दौड़ रही थी। प्यास से भरी गर्मी, और साथ ही कंपकंपी, और वो कोमल दर्द जिससे लगा कि दिल मुंह को आ जायेगा। इस अचंभे से भरे, असहनीय दर्द से एक खुशी निकली; उस रात हमने एक-दूसरे को वो खुशी दी। तब, ऐसा लगा कि जॉय के साथ प्यार का ये रास रचने के लिए मेरे लिए एक पूरी जिंदगी भी कम पड़ेगी।''
मैं खुद को एक पारिवारिक इंसान के रूप में नहीं देखता। लेकिन मुझे ये भी समझ नहीं आता कि मुझे किस तरह का साथ या इरादा चाहिए जो मुझे आगे बढ़ने में मदद कर सके। जिंदगी का उद्देश्य क्या ये नहीं कि उसे जिया जाए? और जीने का मतलब ही क्या है अगर ना ही प्यार हो, ना ही किस राह जाना है उसकी समझ। जब जिंदगी बस गोल-गोल घूमती दिखाई दे।
मुझे लगता है यही तरीका है खुद को ढूंढने का, प्यार पाने का। मां-पापा का घर छोड़ना, लेकिन एक भारी अनिश्चित मन से, हमेशा एक मुश्किल पल रहा है। दिल में, मन में, घर के हर हिस्से की याद उमड़ने लगती है। क्या प्यार के बिना भी कोई घर बन सकता है?
मैं कोचुवेली एक्सप्रेस में चढ़ गया। हमेशा की तरह, मुझे मूत्रालय और स्नानघर के बगल वाली बर्थ का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिससे मेरी इंद्रियां अलग-अलग तरंगों पर नाच रही थीं। वो तरंगें जो शरीरों की अचहनीय चीजों को निकालने की कोशिश से उभरती हैं । हर बार एक नई गंध, पुराने गंध पर हावी होती, किसी नए शरीर के नए रहस्य खोलती। दिमाग़ जैसे एक थाली को गोल गोल घुमा रहा था ।
कोई अज़ीब ही वज़ह होगी कि वो पेशाब की गंध मुझे हमेशा उसके बॉक्सर से आती मूत और पाद की दुर्गंध की याद दिलाती। साथ ही साथ निविया मॉइस्चराइज़र की गंध में डूबा उसका शरीर। वो मेरे कॉलेज का हॉट सीनियर था जो उसी ब्लॉक में रहता था। जिस तरह उसने अपने कमरे में नेवी-ब्लू निविया की बोतलों का अंबार लगा रखा था, उसे देखकर तो निविया को सचमुच उसे अपना ब्रांड एंबेसडर बना लेना चाहिए था। वैसे क्या ये गहरा नीला रंग भी मर्दानगी का प्रतीक है? ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगता था। एक छोटे आर्टिस्ट की थोड़ी सी कलात्मक झलक उसमें दिखती थी। हाँ, वो बड़ा आर्टिस्ट नहीं बन सका, क्योंकि उसके इंतेज़ार में उसका फैमिली बिज़नेस जो था । हालाँकि, मुझे यक़ीन है कि वो आज भी निविया का इस्तेमाल करता होगा। मर्दों के बीच आज भी वो क्रीम चल रही है।
सामने वाली ऊपरी बर्थ पर एक लड़का बगल में अपना बड़ा बैकपैक रखकर बैठा था। दुबला-पतला था, चिकने घुंघराले बाल और छोटा चश्मा पहने था। हमने एक-दूसरे की ओर देखा और कुछ पल देखते रह गए। ना ही हम मुस्कुराए, ना ही कोई इशारा किया। फिर मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। कस्तूरी या मटमैले पीले और बैंगनी रंग से धुली नारंगी शाम धीरे-धीरे अंधेरे का रास्ता बना रही थी। फिर वापस जब मैंने अपनी आँखें उस पर दौड़ाईं, वो तब भी मुझे ही देख रहा था। मैं उत्साहित होने से ज्यादा रोमांचित हो उठा। मतलब ऐसे सफ़र में तो ऐसे पल आते रहते हैं। या जब आप क्रूज़िंग कर रहे हो - यानी चल-घूम के कामुक पार्ट्नर की खोज कर रहे हो ।
अब मेरे दोस्त के घर के पास जो मंदिर का तालाब था, वहाँ पे ऐसी क्रूज़िंग करना, ये ऐसा छिपा मामला था जिसकी हर एक को ख़बर थी । पर इसके बारे में सोच के लोगों का जी घबराता था, इसलिए इसपे कोई बात करना वर्जित था । शहर के बाहरी हिस्सों में बसा हमारा मोहल्ला एक गाँव जैसा ही था । वहीं बगल से रेलवे ट्रैक गुज़रती थी। शाम को मंदिर के तालाब में भींगकर आने वाले लड़कों के कान के पीछे से अक्सर सिंथॉल और लाइफबॉय साबुन की गंध आती थी। और उनकी बगल और छाती में पॉन्ड्स या क्यूटिकुरा टैल्क की गंध! देर शाम मंदिर में जले हुए जिंजली तेल, अगरबत्ती और चंदन का उड़ता धुआं मानो उन काले शरीरों पर चिपके हुए गीले पाउडर में मिल जाता था। दबी-दबी सी गंध, जो उस रात और हल्की होती जब चांद पूरे परवान पे होता या जब मंदिर का हर राजसी उत्सव बंद हो जाता।
वो लड़का मेरे बर्थ पर आ गया, और इस बार मुस्कुराया। मैंने भी झट से मुस्कुरा दिया मानो जब से उसे देखा था, इसी बात का इंतजार कर रहा था। हम बातें करने लगे। वो बहुत ही मिलनसार था, और छू-छूकर बात करता था।मैंने भी थोड़ा छूना शुरू किया और फिर अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया। उसने भी अपना सिर मेरे सिर पर रख दिया, जिससे उसे मेरे जननांग छूने में आसानी हो गई।
अचानक ही उसने पूछना शुरू कर दिया कि क्या बैंगलोर में दूसरे कुन्ननमार (कोट्टायम के आसपास मलयालम में समलैंगिक लड़कों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला अपमानजनक शब्द) हैं, जिनसे मैं अक्सर मिलता हूं। मैंने सवाल सुनकर भी अनसुना कर दिया।
फिर क्योंकि हमने शादी और परिवार के बारे में थोड़ी बहुत बात की थी, उसने पूछना शुरू कर दिया कि क्या मैं इसी तरह जीता रहूंगा।
मैंने बोल दिया कि किसी लड़की से शादी करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
वो ये मान ही नहीं पा रहा था। उसने कहा कि वो इतना गंभीर सवाल पूछ रहा है और मैं मज़ाक में ले रहा हूँ। मैंने भी कहा कि मेरा जवाब सही है। भले बोलते समय मेरे चेहरे पे मुस्कुराहट थी, जिसे देखकर शायद वो चिढ़ रहा था। उसे शायद अपने एक हिस्से को दफ़नाना पड़ा होगा । या फिर वो इस सच का सामना ना करना चाह रहा होगा कि हम जिसे एक दौर समझ रहे थे, वो शायद केवल एक दौर ना हो, उससे कहीं बड़ी बात हो ।
उसे मुझे देखकर दिक़्क़त भी हुई होगी क्यूंकी मेरा अस्तित्व उसको ललकार रहा था । मैं अपने नियमों और शर्तों पर जी रहा हूं। मर्दों का कभी न ख़त्म होने वाला अकेलापन। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि इस गुम दुनियां में, हर कोई क्वीयर हो जाता है। पर बहुत कम लोगों को इसका एहसास होता है, और उससे भी कम लोग इसे मान पाते हैं। शायद वो किसी श्रेणी में बंटना नहीं चाहता था, बल्कि बस एक मर्द बना रहना चाहता था। उसने फिलोसोफी में ग्रेजुएशन किया था। हमने कीर्केगार्ड द्वारा बताए गए अस्तित्व के अलग-अलग पड़ावों की बात की। मैंने पूछा कि क्या ये जिंदगी को देखने और जीने की समझ को संकीर्ण नहीं कर रहा ? लेकिन वो ज़िंदगी में नैतिक उसूलों और दृष्टिकोण के महत्व पर जोर दे रहा था। उसके लिए खून के रिश्ते, पारिवारिक संबंध, ज़्यादा मायने रखते थे। हमारे इस लड़के के लिए परिवार से नाराज़ रहने या दूरी बनाये रखने का सवाल ही पैदा नहीं होता था।
हम बर्थ ठीक करके लेटने ही वाले थे। तभी उसने मुझे अपनी बर्थ पर आने को कहा। जैसे ही मैं गया, उसने मुझे फिर से एक नार्मल सभ्य इंसान बनने का ज्ञान देना शुरू कर दिया। मैंने अपना लाल सूती छोटा कुर्ता पहना हुआ था जिसमें लंबे लकड़ी के बटन थे। वो मैंने कमर्शियल स्ट्रीट, मस्जिद रोड से लिया था। बात करने के साथ ही वो मेरे जननांगों को भी सहला रहा था। और समझा रहा था कि कैसे मुझे अपनी मर्दानगी को और अच्छे तरीके से इस्तेमाल में लाना चाहिए। कैसे मुझे छींटदार रंगीन बॉक्सर नहीं पहनना चाहिए, आईलाइनर भी नहीं लगाना चाहिए।
जब हम अपनी बर्थ के नीचे बैग सेट करने की कोशिश कर रहे थे, तभी उसने बैग से मेरी आई पेंसिल को गिरते देखा था। फिर अचानक कहा- मेरा लंड बहुत बड़ा है। अधिकतर समलैंगिक लड़कों को मेरा लंड देखकर आश्चर्य होता है और जो लड़के मेरे पास वापस आए हैं, उनमें से ज्यादातर सिर्फ मेरे लंड की वज़ह से। अक्सर मेरा लंड आसपास वालों के लिए रहस्य का विषय बन जाता है। सुध-बुध भूलकर नाचते डांसर्स जैसे कि शिव या सेंट जॉन्स के नियति के भाले तक को आकर्षित करना। कुछ लोग सूफ़ी प्रेम का दावा तो करते हैं लेकिन लक्ष्य अभी भी वही सदियों पुराना मक्का ही रहता है। इन सब के बाद भी मैं शांत हूँ। मैंने देखा है कि किसी के साथ भले ही हम कम टाइम के लिए रह पाएं, लेकिन उस टाइम में एक ‘भरी-पूरी’ सम्पन्न लाइफस्टाइल के साथ जीना सबसे ज्यादा मायने रखता है।
फिर वो बोला कि उसे समझ में आ गया था कि मेरा सारा "वास्तविक" काम काफ़ी हद तक लंड से जुड़ा हुआ होगा। मैंने काम के बारे में जो भी कहा सब झूठ होगा। जिन संस्थानों का मैंने जिक्र किया, वो पागल थोड़े ही थे मुझे नौकरी दें।
मेरा जैसे स्विच-ऑफ हो गया और मैं नीचे आकर अपनी बर्थ पर लेट गया। वैसे नींद तो आने वाली थी नहीं, क्योंकि ये बर्थ अक्सर मुझे जगाए रखते हैं। मेरी बर्थ के सामने और अंदर आने वाले दरवाज़े दके ऊपर से रोशनी सीधे मेरे चेहरे पर पड़ रही थी। मैं क़रीब रात भर जागता रहा।
फिर मैंने मन ही मन सोचा कि मर्दानगी को लेकर जो ये डर या असुरक्षा वाली भावना उठती है, वो किसी और वज़ह से नहीं, बल्कि ठोस समलैंगिक प्रवृत्ति वाले पुरुषों की वज़ह से पनपती है। ख़ुद तो वो अपना सच मानने से इनकार करते ही हैं, साथ ही अपना डर और गम दूसरों पर थोप देते हैं। उनपर जिन्होंने शायद अपना सच मान लिया है या कम से कम खुद को स्वीकार करना शुरू कर दिया है कि वो कौन हैं और उन्हें क्या पसंद है और वो किस रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। ऐसे में इनसे जुड़े हर मर्द के सामने परेशानी खड़ी हो जाती है। यही वजहें हैं जिससे मुझे अपने समलैंगिक संबंधों या यूं कहें कि स्थितियों को मानने या उन पर चर्चा करने में शर्म आती है। या इससे भी बेहतर और समझने में सरल शब्द शायद 'सेक्सकैपेड' (यानि मज़ेदार सेक्सुअल अनुभव) होगा। ये सेक्सकैपेड वही पल हैं जो हमें ज्यादातर शहर के अकेलेपन से भरे जंगलों में मिलते हैं।
उसका नाम जेन्सन है। वो कोट्टायम से है लेकिन बेंगलुरु में मज़बूरी की नौकरी कर रहा है। रात ख़त्म होने से पहले उसने वापस मुझे फिर अपनी बर्थ पर बुलाया। मैं ऊपर गया क्योंकि मुझे कोई खास नींद नहीं आ रही थी और उसका शरीर काफी गर्म था। मेरा इरादा, वो जो भी कहना चाह रहा हो, उसे नजरअंदाज कर सिर्फ उसकी शारीरिक गर्मी पर ध्यान देने का था।
फिर उसने मुझे बताया कि वो हर महीने 10,000 रुपये कमाता है। उसने पूछा अगर मैं उसकी मदद कर सकता था। मैं मुस्कुराया और कहा कि मैं तो खुद अपनी मदद करने निकला हूं। वो नाराज़ हो गया। कहने लगा कि मैं बकवास करना बंद करूं और जो मेरे पास है, खुद को उसके लायक बनाऊं। वो बोला, "जिंदगी ने तुमको महान चीजों के लिए चुना है और तुम अपने कपड़ों और मेकअप पर पैसे लुटा रहे हो?" मुझे समझ में नहीं आया, ना तब ना ही अब, कि उसे क्या जवाब दूं!
जेन्सन के साथ बिताया गया टाइम काफी खास था। वो कड़क प्यार का फैन था। जिसका मैं भी आदी हूँ । घर पर भी हमारी प्यार की प्रेम भाषा ऐसी ही होती थी, विस्फोटक। जब आहत भावनाओं को व्यक्त करने की बात आये, तो बड़े-बड़े ड्रामेटिक डॉयलॉग। घुमा-फिरा कर दरअसल वो उस समय तक कम से कम दो बार से ज्यादा बार मुझ पर चिल्ला चुका था। शुरुआत में सुंदर नज़दीकी का एहसास, जब उसने पूछा कि घर चलाने के लिए मैं क्या काम करता हूं। और जब वो कालिदास और भासा के बारे में और जानना चाहता था। लेकिन जैसे ही उसने आई पेंसिल देखी, वो कठोर सा बन गया। उसके लिए जननांग सहलाना या इधर-उधर छूना, दोस्ती थी। क्वीयर दोस्ती जो सिर्फ स्किन की भूख या वासना को संतुष्ट करना चाहती हो।
वो एक स्ट्रैट लड़का था जिसको काफी दिनों से अच्छा इजक्यूलेशन/ स्खलन अनुभव नहीं हुआ था। उसका प्री-कम (स्खलन से पहले निकलने वाला तरल) काफी मात्रा में अपने आप ही बाहर आ गया था। मैं उसे चाटना चाहता था, और उसे जोर से किस करना चाहता था। लेकिन वो पहले से ही मेरे कोमल किस या किसी भी तरह के प्यार-दुलार को नकार चुका था। मेरी चटकीली फूलों सी नाज़ुक छुअन को उसकी मर्दाना प्रवृति बर्दाश्त नहीं कर पाई। बंगलौर की सुबह की चिलचिलाती ठंडी हवाओं ने जल्द ही हमारा स्वागत किया।
मुझे लग रहा था कि शायद वो अपना नंबर मुझे देना चाहे, या मेरा मांग ले। लेकिन जब तक सब लोग उठे, वो मेरी तरफ देखना भी नहीं चाहता था और उसने अपने फोन से एक बार भी सिर नहीं उठाया। जाहिर है, मैंने हमेशा की तरह कुछ जल्दी ही, इतनी उम्मीद बांध ली। ये जब तक रहा, अच्छा ही था। आख़िर हर चीज़ तो यहां आती- जाती ही रहती है।
जब मैं दूसरी बार उसके बर्थ पर गया, तो जैसी कि मुझे उम्मीद थी, हमने आपस में अपने बदन की गरमी बाँटी थी । लेकिन उसने अपनी बेचैनी और अपना चिड़चिड़ापन, मेरे अंडकोष को मोड़कर और मेरे लंड की चमड़ी को ऊपर-नीचे करके निकाली। मैंने उसे किस और हल्की छुअन से, प्यार से वश में करने की कोशिश की। लेकिन उससे वो और कर्कश और आक्रामक बन गया था । बाद में, उसने कहा कि क्योंकि मैं टीचर हूँ, मुझे थोड़ा सम्मानजनक होना चाहिए। मुझे फॉर्मल रहना चाहिए, मर्दाना और इज़्ज़तदार बनना चाहिए ताकि लोग मेरी बातों पर ध्यान दें और मेरा सम्मान करें। मुझे ऐसी भूमिकाएं नहीं निभानी चाहिए जो मैं निभा रहा हूं। क्योंकि उससे जहां भी मैं जाऊंगा, मुझे हंसी का पात्र बनाया जाएगा।
मैंने उसे बताया कि मैं ज़िंदगी में जहां हूं, उससे ज्यादा तालमेल बनाने के लिए फिल्मों और दूसरी कहानियों के अलग-अलग किरदार निभाता हूं, इससे मुझे अपने उस पल की सच्चाई का बहतर अंदाज़ा लगता था । मैंने उसे बताया कि उस वक़्त मैं थलायण मंथराम से श्रीमती सुलोचना थैंकप्पन था । उसने कहा कि मैं पागल हूं और वो उस दिन के बाद से मुझसे बात नहीं करना चाहता।
मुझे के.आर. पुरम स्टेशन पर उतरना था और वो कैंटोनमेंट में उतरने वाला था, क्योंकि उसका घर एम.जी। रोड के करीब था। नीचे उतरने से पहले, मैंने अपनी आई पेंसिल निकाली और अपनी आँखों पर थोड़ा मेकअप किया। सुबह की धुंध में काज़ल थोड़ा फैल गया था। फिर मैं उसे देख मुस्कुराया, उसका हाथ पकड़ा और कहा, "कानम" (फिर मिलेंगे)।
अगली बार जब मैं उसी के.आर. पुरम रेलवे स्टेशन गया, तो मैंने उसे इंस्टाग्राम पर खोजा और उसकी प्रोफ़ाइल देखी। वो उसपर एक्टिव नहीं था। मैंने उसे फॉलो रिक्वेस्ट डाला और मैसेज डालकर उसका हालचाल भी पूछा। कई साल हो गए हैं और उसने अभी तक मेरा मैसेज नहीं देखा है। हाँ, उसने मेरा फॉलो रिक्वेस्ट मंज़ूर किया है । लगभग हर हफ्ते वो अपने शरारती नवजात बच्चे- जोई की तस्वीर पोस्ट करता है। जेन्सन जैसे ही, उसके बाल भी घुंघराले हैं।
विभु साहियता, कविता, फिल्म और राइटिंग के टीचर हैं। किसी दिन पूरी तरह से लेखक बनने की चाह रखते हैं।