अपने दो साल लम्बे चले रिश्ते (मेरा सबसे लम्बा रिश्ता) के लगभग तीन महीने बाद, बार में जाके एक लड़के से मिलने का प्रस्ताव मज़ेदार लग रहा था। YouTube और Pinterest की मदद से मैंने अपने पसंदीदा "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता" वाले कपड़े पहने और “कोई मेकअप नहीं” वाला मेकअप किया। मेरी इस “कोई तैयारी नहीं” वाली तैयारी की वजह से मैं तय टाइम से 40 मिनट लेट पहुंची (मेरे लिए इतना लेट होना तो बनता है)। तो उसने मेरी हाल-खबर लेने के लिए बम्बल पर टेक्स्ट किया क्योंकि हमारी बात केवल वहीं हो रही थी।
"क्या आज रात मुझसे मिलने का इरादा नहीं?" उसने लिखा था।
पता नहीं क्यों पर, उसका यूं लिखना शरारती और मज़ेदार लगा। अब आज रात की इस सुहानी मुलाकात में और क्या-क्या हो सकता है, इसकी गुंजाइश बढ़ रही थी। एक सुंदर लड़के के साथ, एक शानदार बार में, रात की सुहानी मुलाक़ात??? आह्हा!
पर पता है क्या कम रोमांचक है? किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना, जिस पर पहले ही बिना सोचे-समझे आपका दिल आ गया हो, और आपको पहली ही बात-चीत में बताना हो कि आपको बाई-पोलर डिसऑर्डर, ऑब्सेसिव कंपल्सन डिसऑर्डर (OCD /जहां बार बार आते विचारों पे नियंत्रण करना मुश्किल हो) और ADHD/ जहां ध्यान देने में बहुत दिक्कत हो, इन दोनों बीमारियों का निदान मिला है, आपसे कहा गया है कि आप दोनों से ग्रस्त हैं । , और आप इस निदान के साथ, पिछले दो सालों से जी रहे रहे हैं।
अपनी पहली मुलाक़ात में किसी को यह बताना भी कोई रोमांटिक बात तो नहीं है कि और उससे भी कम रोमांटिक ? उन्हें ये बताना कि जो प्यारा और खुशनुमा इंसान उनके सामने है, उसकी खुशी, उसके डॉक्टरों ( गिनती में 4 ) के हिसाब से, बस उसकी बीमारी का एक रूप है।
अब तुम इस प्यारे लड़के को ये तो नहीं बताना चाहोगी कि तुम्हारे इस खुशनुमा पहलू के बाद, दुःख और अवसाद भरा दौर भी आने वाला है। ये सुनना तो किसी को अच्छा नहीं लगेगा। ये मुस्कुराहट मिट जाएगी, मेरी भी और मेरे आस-पास के लोगों की भी। इसके अलावा, एक मासूम और अच्छे लड़के को ये कैसे समझाया जाए कि मेरी पहचान मेरे इन अच्छे-खराब दौर से तय नहीं होती? मैं चाहती थी , उस सुहानी मुलाक़ात/ डेट पे वो मेरे साथ रहे , मेरी मानसिक सेहत के साथ नहीं , जो कि मेरे व्यक्तित्व का बहुत ही छोटा सा हिस्सा है। ।
मैं दक्षिण दिल्ली में अपनी मुलाकात की जगह के बाहर पहुंच गई। मैंने भूल-चूक माफ के अंदाज़ में अपने कंधे उचकाए, उसने भी ऐसे कंधे उचकाए जैसे कह रहा हो, "मैं 20 मिनट और इंतजार कर सकता था।" धत। वो मेरी सोच से ज़्यादा प्यारा है। हमने एक सिगरेट फूँकी, अंदर गए, बार में बैठे और दोनों ने आधा-आधा लीटर बीयर ऑर्डर किया। बात-चीत के दस मिनट बाद, हमारे आस-पास के लोग हमें ऐसे देख रहे थे जैसे उन्हें मालूम हो कि हम दो लोग बहुत ही सफल पहली मुलाकात कर रहे थे। हम इस हद तक हँसे कि मुझे लगा कि हम केवल बेहद अच्छे दोस्त ही हो सकते हैं। पहली बार की रोमांटिक मुलाकात इतनी सहज? मैंने अब तक जितनी भी रोमांटिक कॉमेडी देखी है, वो तो यही कहतीं। हमने बार बंद होने तक पिया, वहां से बाहर गए, बाहर फुटपाथ पर बैठे, एक और सिगरेट फूँकी, थोड़ा और हंसे, और गूगल पर वो जगहें खोजी, जहां हमें रात 1 बजे और शराब पीने को मिल जाये। दूसरे बार में जाते हुए, हमने एक दूसरे को गले लगाया, और एक-दूसरे के बदन पर वहाँ तक अपने हाथ फिराए, जहाँ तक हमारे नशे में धुत्त शरीर और हमारा ज़मीर हमें इजाजत दे रहा था। कैब ड्राइवर शर्मसार हो रहा था, पर हमें मज़े आ रहे थे । हमारी ये सुहानी मुलाकात, लॉन्ग आइलैंड आइस टी, एस्से लाइट्स और दिल्ली की सुनसान सड़कों पर मेरे घर तक 15 मिनट तक मस्ती में पैदल चलते हुए खतम हुई।
सब कुछ अभी तक बहुत सही लग रहा है।
मेरी सभी मानसिक बीमारियाँ एक साथ मिलकर मुझे यह बताने लगीं कि यह सब मेरे दिमाग का फितूर था। कि मैं बस सपने देख रही थी। मेरे जैसे लोगों को, जिन्हें तीन रोगों का निदान मिला हो, इस तरह की सुहानी मुलाकातें नहीं मिलती हैं। हमें केवल थोड़े वक्त के लिए राहत मिलती है। “मैं भी क्या-क्या सोचती रहती हूँ” इस खयाल से इन मुलाकातों का अंत होता है, फिर मैं रोते रोते सो जाती हूँ, बम्बल पर लगातार स्वाइप करते हुए, और एक 25 साल की होने के नाते, थोड़ी और नोर्मल ज़िंदगी की खोज करते हुए।
लेकिन मैं जानती हूँ कि सच में, ये सब हुआ था, मेरे साथ हुआ। मेरे गवाह वो भीड़ थी, दोनों बार के सर्वर थे, एक कैब ड्राइवर था, और जब हम घर पहुंचे तो मेरी रूममेट और उसका बॉयफ्रेंड भी थे ।
ये भी हो सकता है कि और भी चीजें हुई हों, पर मुझे लगता है वो सब बस मेरे दिमाग़ का फ़ितूर था। जैसे जब उसने मेरे रूम में मेरी तस्वीरों से अपनी नोटबुक में मेरा चित्र बनाया या जब उसने यह कहते हुए कि “हम एक जैसे लग रहे हैं”, एक प्रिंटेड शर्ट पहनी ताकि मेरे कुर्ते के साथ उसकी शर्ट कि मैचिंग हो सके। उस रात की याद अभी भी मेरी आँखों के सामले धुंधली है, जब हम भीड़ भरे डांस फ्लोर पर घंटों नाचे थे, और मुझे पक्का यकीन तो नहीं है लेकिन शायद उसे तब जलन हुई थी, जब मैंने खुद को थोड़ा बचाने के लिए "रिश्ते को सामान्य रखने" के नाम पर किसी और को चूमा था। क्या मैं अवसाद में थी और मुझे सब कुछ डूबने से बचाने वाले एक लंगर की तरह लग रहा था, या उसने वाकई में मेरे सर पर चूमा था, मेरी बांह पर काटा था, और मुझे कमर से इस तरह पकड़ कर गले लगाया था जो अभी भी, कहीं भी, मेरा सर घुमा देता है, जब चाहे-अनचाहे वो यादें मुझ पर छाने लगती हैं?
जब तुम्हारी दवाएं तुम्हारे बदन और दिमाग को क़ाबू करें, जब तुम्हारी थेरेपी के नोट्स तुम्हारे जीवन का रास्ता तय करें क्योंकि तुम हर चीज को 'बाद में देखने' के नाम पे, एक, खांचे में डाल देते हो, क्योंकि तुम्हें अपनी भावनाओं पर भरोसा नहीं... जब तुमको अपने गुस्से से डर लगता है, और जब तुम्हारे पास ये भावनाएं साझा करने के लिए कोई नहीं होता है... ऐसे हाल में तुम "अपने दिमाग के पागल ख़यालों" और सच को अलग- अलग नहीं कर पाओगे । मुझे नहीं पता कि मैं प्यार करने, गले लगाने, चूमने या पास खींचे जाने के लायक हूँ भी या नहीं।
जैसे पता था, वो ख़ुशी की लहरों का दौर ख़त्म हो गया और अवसाद के गहरे बादलों का दौर शुरू हो गया।
बस कुछ ही दिनों में, वो अपनी पहली डेट पर जो एक आकर्षक, बिंदास लड़की थी, वो सिकुड़ कर मेरे कमरे में, आगे-पीछे लुढ़कने वाली, रोती-पीटती हुई एक गेंद में बदल कर रह गई। खुद को नुकसान पहुँचाना बढ़ गया और जीने की इच्छा कम हो गई। जैसे जैसे मैं इस गहरे अवसाद में तेज घूमती गई, उतनी ही तेज़ी से मैंने उस प्यारे लड़के को मुझ से दूर जाते देखा।
“क्या हुआ'', मैंने अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े पूछा। घबराहट के दौरे के बाद दवाई की अधिक खुराक लेने के चलते मुझे आई०सी०यू० में भर्ती किया गया (मेरे अस्पताल के पर्चे से मैंने ये जाना)। यह उस पहली जादूई मुलाकात के दो हफ्ते बाद की बात है।
“अरे, मुझे किसी को (खासकर कि जिसके साथ मुझे इतना मज़ा आता हो) इतने उथल-पुथल से गुजरते हुए देखने की आदत नहीं है और इससे मुझे बहुत अजीब लग रहा है। मुझे माफ करना... मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें ऐसा कुछ लगे... लेकिन शायद मुझे ऐसा लगने लगा कि कहीं मैं भी तुम्हारे साथ ना डूब जाऊँ,'' उसने जवाब दिया। अब ये तो सही बात लग रही है, कोई धुंधलका नहीं है।
"समझ सकती हूँ" मैंने जवाब में टेक्स्ट किया और आई०सी०यू० में मॉनिटर की बीप करती हुई और अन्य मरीजों के खांसने की आवाजों के बीच सोने के लिए करवट बदल ली। ये समझाने के लिए मुझे किसी और की ज़रूरत नहीं है। मेरे जैसे तीन -तीन बीमारियों के निदान वाले लोग, इस सच्चाई के साथ जीते हैं। मैं इसे बदलने वाली कौन होती हूँ? मैं इस पर शक करने वाली कौन होती हूँ?
श्रेया दिल्ली में एक विकलांग क्वीयर पत्रकार हैं। मेरी रुचि सामाजिक न्याय सम्बन्धी फीचर और जेंडर के नज़रिये से, लंबे लेख लिखने में है। मैं एक सहानुभूतिशील लेखक हूं जो पत्रकारिता की नैतिकता और आंकड़ों को बहुत महत्व देती है।