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80 के दशक में, इंडिया में, हमने सेक्स-एजुकेशन पर किताब कैसे लिखी: इंदिरा पंचोली के साथ एक इंटरव्यू

गाव के औरतों के साथ बनी किताब 'शरीर की जानकारी' की अनोखी कहानी!

इंदिरा पंचोली एक कार्यकर्ता हैं जो फेमिनिस्ट/नारीवादी-मानवाधिकार पे काम करती हैं । उन्होंने 25 से भी ज्यादा सालों से गाँव और शहर के बच्चों, किशोरों और औरतों के साथ कई सामाजिक मुद्दों पर काम किया है। वो महिला जन अधिकार समिति (एम.जे.ए.एस) की संस्थापक भी हैं। ये संस्था औरतों द्वारा चलाई जाती है और ये औरतों के ही अधिकार और जेंडर समानता को  सपोर्ट देती है। 

1980 में  'शरीर की जानकारी' नाम की बहतरीन किताब बनी थी, जिसने सेक्स और शरीर को लेके जानकारी देने वाली किताबों को एक नई दिशा दी , इंदिरा पंचोली उस टीम का हिस्सा थीं। उस किताब को कई लोग 'लाल किताब' के नाम से भी जानते हैं। काली फ़ॉर वीमेन (जिनका नाम अब 'ज़ुबान' है) द्वारा पब्लिश की गई ये तस्वीरों से भरी किताब, औरतों के शरीर और उनकी सेक्शुएलिटी की बात करती है। इस इंटरव्यू में, इंदिरा बताती हैं कि ये किताब क्यों और कैसे बनाई गई। इसे उन लोगों तक कैसे पहुंचाया गया, जिनके लिए दरअसल इसे तैयार किया गया था। साथ साथ इसपे भी अपनी राय देती हैं कि साल दर साल, फेमिनिस्ट आंदोलन में क्या बदलाव आए हैं। 

'शरीर की जानकारी' किताब को किस संदर्भ में बनाया गया, क्या आप इस बारे में कुछ बताएंगी?  

1986-87 के दरम्यान, सरकार ने महिला स्वास्थ्य विभाग के तहत, महिला विकास कार्यक्रम (एम.वी.के) नाम का ये प्रोग्राम लागू किया। उस समय जो अकाल फैला हुआ था, उसके राहत कार्यक्रमों में से ही ये एक था। हर जगह,  रोजगार की तलाश में लोग गांव छोड़कर जा रहे थे।

मैं एम.वी.के. की आई.डी.ए.आर.ए (सूचना विकास और संसाधन एजेंसी/ Information Development and Resource Agency) विभाग में शामिल हुई। ये प्रोग्राम यूनिसेफ फन्ड कर रहा था और इसका अनोखा सिस्टम था। इसमें नागरिकों को भी राहत प्रोग्राम चलाने में शामिल किया गया था। महिलाओं के शरीर के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उन्हें अपने शरीर पर क्या अधिकार हैं, वो समझाने का एक हेल्थ अभियान शुरू हुआ। इसमें हमने मजदूर अधिकार, खाने-पीने का अधिकार और काम को, हेल्थ से जोड़ के देखने की कोशिश की ।

उन कुछ सालों में, हम जिन गांवों में काम कर रहे थे, जब वहां की औरतों से बात की, तो महसूस किया कि सारी व्यवस्था जिस भाषा में उनको चीज़ें समझा रही थी, वो उनकी अपनी रोजमर्रा की भाषा से काफी अलग थी। उन औरतों से बातचीत करने के दौरान ही, हमें 'शरीर की जानकारी' किताब बनाने का ख़्याल आया। एक ऐसी किताब जो औरत के शरीर और उनकी सेक्शुएलिटी के बारे में हो।

'शरीर की जानकारी' किताब में क्या-क्या चीज़ें होंगी, ये कैसे तय किया? 

हमने औरतों के साथ कई वर्कशॉप किये! वहाँ कई टॉपिक्स पर चर्चा होती थी!  हमने औरतों से ये भी पूछा कि अगर कला के सहारे उन्हें अपनी सोच सामने रखनी है, तो वे कैसे रखेंगी! फिर हमने वो तस्वीरें लीं, उनपे थोड़ा काम किया और फिर उनको किताब में शामिल करने की कोशिश की। अगर आप किताब में शामिल की गयी तस्वीरों को  देखोगे, तो उसमें आपको राजस्थान की पारंपरिक पेंटिंग दिखेंगी। एकदम खिली खिली दिखती हैं, वो तस्वीरें।. 

हमने एकदम सरल भाषा का इस्तेमाल किया है। कई तरह की जानकारी के अलावा, हमने कुछ नोट्स भी इकट्ठा किये, जिसमें औरतों को उनकी अपनी जिंदगी, अपने शरीर और अपनी सेक्शुएलिटी से जुड़े अनुभवों को बयां करने को कहा गया। देखो, ये औरतें, जिनके साथ हमने काम किया, वो घर और बाहर मिलाकर पूरे दिन में 17-18 घंटे काम कर रही थीं। उनके पास टाइम ही नहीं था। जब किताब बन रही थी, तब वो और भी बिज़ी हो गयीं। इसलिए, किताब में जो भी जानकारी थी, हमने यही कोशिश की कि जहां तक हो सके, उसको पर्सनल अनुभवों से जोड़ा जाए, ताकि लोग उस जानकारी से , अंदर तक जुड़ सकें। तभी तो अधिकारों और उस सब के बारे में सोचना हो पाएगा। अगर हमारी अपनी सोच इतनी गहरी ना हो, तो अपने अधिकारों की कल्पना करना और उनकी मांग करना, मुश्किल है।

और, किताब का शेप - पन्नों को मोड़ के उन्हें दो परतों वाली फ़्लाप में रचने का आईडिया- ये सब कैसे तय किया?

अरे, ये भी एक दिलचस्प कहानी है! जब 'शरीर की जानकारी' का पहला रूपांतर तैयार हुआ, तो औरतों ने देखा उसमें नंगी औरतों की तस्वीरें थी। बस उन्होंने इसे रिजेक्ट कर दिया। उनका सवाल था कि, "हम इस किताब को भला गाँव में कैसे बाँट सकते हैं?", "दूसरों के सामने नंगी औरतें रखना अच्छा लगता है क्या? उनको घाघरा और दुपट्टा दो!”

 उनके लिए ये लॉजिकल सी बात थी । बाहर घाघरा होता है। फिर जब आप स्कर्ट उठाते हैं, तो क्या दिखता है? फिर जब आप अपनी स्किन काटें, तो क्या दिखता है? फिर हम शरीर के अंदर की प्रक्रिया को बयां करते हैं - जैसे कि मासिक धर्म या और जो कुछ भी होता है। जब मलिका विर्दी ने उनकी राय के हिसाब से, किताब को इस तरह  डिज़ाइन किया, तो मुड़े हुए फ्लैप का आईडिया उनको बहुत रोचक लगा। सब औरतें खुशी से झूम उठीं! नया डिज़ाइन उनको वास्तव में बहुत पसंद आया।

आप जिन औरतों के साथ काम कर रही थीं, उनके बारे में बता सकती है?

आंदोलन में जो भी औरतें थी, सभी अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही थीं। कहने को तो कोई ये अलग अलग कह सकता है कि- 'औरत और शिक्षा', 'औरत और कामकाज' ...  लेकिन दरअसल जिन औरतों के साथ हम काम कर रहे थे, उनकी लाइफ में सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ था। फिर चाहे वो नौकरी का मुद्दा हो, पतियों से मार खाने का मुद्दा, घर चलाने या सामाजिक संबंधों को निभाने का मुद्दा। लोगों का मानना था कि पढ़ाई-लिखाई और काम, ये दोनों ही औरतों के मुद्दों से अलग थे। लेकिन पूरा नारीवादी आंदोलन ही इस सोच को भरपूर चुनौती दे रहा था।

जब हमने 'महिला जन अधिकार समिति' की पहल की, हमें ये समझ में आया कि गांव में औरतें सेक्शुएलिटी के बारे में अलग ही तरीके से बात करती थीं। हम लोग की सोच, ऊंची जाति की औरतों की सोच तक सीमित थी । उनके लिए सेक्षुअल रूप से पाक होना,  कोई ख़ास मायने नहीं रखता था । हाँ, शादी को ज़रूरी माना जाता । उनके बीच एक कहावत थी, कि अगर हवा चली, तो आप उसकी छुअन से बच नहीं सकते। यानी अगर आप किसी की तरफ आकर्षित हैं, तो आप खुद को रोक नहीं पाएंगे। आप उसके बारे में कुछ न कुछ जरूर करेंगे। पर हाँ,  जाति की सीमाओं का ध्यान रखना है। आप भाग नहीं सकते थे, उस रेखा को पार नहीं कर सकते थे ।

इसलिए, जब हमने ये सोचना शुरू किया कि ये औरतें, अपने घर, समाज और राज्य तक से, अलग-अलग तरह की हिंसा का सामना कर रही हैं, तो इसका विरोध कैसे किया जाए। हम चाहते थे कि वो अपनी सेक्शुएलिटी की भी बात करें, लेकिन उनके लिए सेक्शुएलिटी और शादी एक दूसरे से मजबूती से जुड़ी हुई कड़ियाँ थी। और अगर औरतें घर के बाहर इन बातों की चर्चा करें, तो उनको शक की निग़ाह से देखा जाता। असल में, जब 'शरीर की जानकारी' को बनाने की बात उठी थी, तो उसकी कल्पना एक बायोलॉजी की किताब जैसे ही की गई थी। 

आपने एक बार कहा था कि ये किताब 'शरीर की जानकारी', राज्य और लोगों के बीच की समंदर जैसी दूरी  को कम करने  का भी एक तरीका थी । तो सरकार की तरफ से इसे क्या प्रतिक्रिया मिली?

उस समय जनसंख्या नियंत्रण/ पॉपुलेशन कंट्रोल प्रोग्राम शुरू किया जा रहा था। राज्य ने उन सभी जोड़ों की एक अनुमानित लिस्ट बनाई, जिनकी सर्जरी मजबूरन करानी ही थी। उन्होंने उन औरतों की भी लिस्ट बना ली थी, जिनकी सर्जरी करनी थी। उन औरतों पर ज़र्बरदस्त दबाव था। ऐसे में, हमारी किताब को एक आम तौर पे, एक बायोयोलोजी/ जीव विज्ञान पे जानकारी देने वाली किताब की तरह देखा गया, इसलिए सब ठीक था।

लेकिन, किताब में इससे आगे भी और बहुत कुछ है। एक तो ये बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की बातें करती है। ये बताती है कि औरतें कब और कैसे सेक्शुअल सुख का आनंद ले पाती हैं, कब उनको चोट लगने का खतरा है, कौन से पोजीशन इस सब के लिए सही रहेंगे, वगैरह। उदाहरण के लिए, अगर आप किताब की एक तस्वीर देखेंगे, उसमें सेक्स के दौरान औरत मर्द के ऊपर है। अब मर्दों के औरत के ऊपर होना इतना नार्मल माना जाता है कि मलिका [विर्दी] ने इस आम सोच को पलटने का सुझाव दिया, कि हम इस पोजीशन को उल्टा करके डालें। था तो ये छोटा सा बदलाव, लेकिन इसपे सवाल उठे।

राज्य की व्यवस्था को किताब के उन हिस्सों से परेशानी हुई जहां इस बारे में बात हो रही है कि औरतों की चाहत क्या है। बच्चे जनने की प्रक्रिया के बारे में हमने ये लिखा कि कैसे औरतें ये तय कर सकती हैं,  कि उन्हें बच्चे चाहिए या नहीं, या कि कितने बच्चे चाहिए। वो ये भी तय कर सकती हैं कि राज्य की व्यवस्था उनके जीवन में किस हद तक हस्तक्षेप कर सकता है और कहाँ नहीं । हमने ये भी लिखा कि सेक्शुएलिटी को किस तरह अश्लील माना जाता है। कैसे ये कहा जाता है कि उससे औरतें भ्रष्ट हो रही हैं और सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति को नुकसान हो रहा है। 

तो, क्या इस किताब को कभी राज्य से किसी विरोधी  प्रतिक्रिया का सामना भी करना पड़ा ? कभी सरकारी चोट पड़ी ? 

हमने हर गाँव में लगभग 100 किताबें बांटी। इन सभी को एकत्रित कर, जिला कलेक्टर की देखरेख में स्थानीय महिला और बाल विकास विभाग/Women and Child Development Department  में रख दिया गया। उन दिनों  महिला विकास कार्यक्रम और महिला स्वास्थ्य विभाग, काफी दबाव में था। किसी बात का विरोध करना मुमकिन नहीं था।

वर्कशॉप और साथियों की मीटिंग पर रोक लग गई थी।  कलेक्टर के ऑफ़िस  में, इन सभी जमा की गई किताबों को जला दिया गया। जब उन किताबों को आग लगाई गई, मैं खुद वहां मौजूद थी। यहां तक ​​कि व्यक्तिगत धमकियां भी मिलीं और लोगों को जिला छोड़ने के लिए कहा गया।

फिर किताब लोगों तक कैसे पहुंची? इन घटनाओं के बाद क्या हुआ?

हम में से कुछ ने वो संगठन छोड़ दिया और लाल किताब (हम किताब का उल्लेख इस नाम से करने लगे थे) को काली बुक्स के पास ले गए। काली हमारी तरह ही एक नारीवादी/फेमिनिस्ट संगठन थी।  हमने ना ही कुछ मोल-भाव किया, ना पैसे दिए। हमें कोई रॉयल्टी भी नहीं दी गई। पब्लिशिंग हम सब के लिए नया था। नारीवाद आंदोलन में भरोसे के आधार पर ही काम हुआ करते थे।  हमने काली को सिर्फ इतना बताया ,कि ये तीन किताबों की श्रृंखला होने वाली थी, और लाल किताब इनमें पहली थी।

उन्होंने किताब को बेचने के लिए सारी मार्केटिंग की। हमें कुछ मुफ्त कॉपी भी मिलीं - 50 के आस पास।  बाकी हमने ख़रीदीं ।  हमने पैसे जुटाए, किताबें खरीदीं और कई औरतों को मुफ्त में बांट दीं। वो जो कुछ भी दे सकते थे - 2 रुपये, 5 रुपये, उन्होंने हमको दिया। किताब सस्ती थी। पहले करीब 11 रुपए की, फिर 14 की हो गयी ।

लेकिन, कई साल बाद, मैं वापस उसी एरिया [जहाँ किताबें जलाई गई थी] गई। वहीं के एक और मामले पर काम करना था। वहां, 60 से भी ज्यादा आंगनवाड़ी और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की एक बैठक में, मैंने देखा- सबके हाथ में लाल किताब!  मैंने उनसे पूछा, "ये किताब यहाँ कैसे आई?" तो उन्होंने कहा कि वो उनके ट्रेनिंग के समान का हिस्सा था! यूनिसेफ (UNICEF) ने लगभग 10000 किताबें बांटी थीं। सोचो!

उस वक़्त मुझे लगा कि अगर कोई बदलाव होना है, तो उस बदलाव के  ख़िलाफ़ उठने वाली आग की मार किसी ना किसी को खानी पड़ेगी । 

और मर्दों का क्या? क्या वो 'शरीर की जानकारी' पढ़ रहे थे?  उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?

मर्दों के तो औरतों को लेके अपने मन गड़त विचार हुआ करते थे। जैसे कि औरतें खुलकर अपनी भावनाएं नहीं बताती हैं, कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है या वो क्या कहना चाहती हैं, कोई नहीं समझ सकता है। ऐसे में, अगर औरतें खुलकर बोल भी दें, कि उनको क्या पसंद है और क्या नहीं, तो भी पुरुष उसको शंका से ही देखेंगे। सोचेंगें औरतों ने ये सब कहाँ से सीखा, या उनका कहीं किसी और के साथ कुछ चल तो नहीं रहा। यही वजह  है कि औरतें सुख/आनंद की बातचीत से दूर ही रहती हैं।

जो वर्कशॉप होती थीं, उनमें, औरतों के शरीर और उनकी सेक्शुएलिटी की बात करते समय, किताब में दिए वैज्ञानिक तर्क-वितर्क लिए गए। औरतों के अधिकारों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया गया। तब इनको बेहतर समझने के लिए औरतें किताब घर ले जाने लगीं। अपने पतियों से उसकी बात करने, उनको भी वो सब समझाने लगैं, जो किताब में था। फिर अगर पति अच्छे से सुनना-समझना चाहता, तो वो औरतें हमें बोलतीं,  कि या तो हम, या शायद हमारा कोई पुरुष वालंटियर उनके पति से बात करे।

और मर्द, वो खुलकर सवाल भी नहीं पूछते थे। उनको बस जानकारी चाहिए थी । हाँ, अगर उनके साथ कोई औरत होती, तो वो कहती कि ये समझाओ, वो समझाओ। तो असल में औरतें जो कुछ भी अपने पतियों को बताना चाहती थीं, वो उस पल का इस्तेमाल कर, बतला देती थी। वो चाहती थीं कि मर्द सुनें कि औरतों को क्या चाहिये।

आज हमको शायद ऐसा महसूस हो कि इस किताब में ट्रांसजेंडर या इंटरसेक्स या किसी और क्वीयर पहचान को शामिल नहीं किया गया है।  लेकिन, जब आप इस पर काम कर रही थी, तो क्या ऐसी बातचीत सामने आई?

ऐसा नहीं है कि हमने इन चीज़ों के बारे में बात नहीं की। लेकिन उस समय, इन मुद्दों को उठाना बहुत मुश्किल था। काफी समय के बाद तो राज्य व्यवस्था और सरकार  ने इस तरह की बातचीत को स्पेस दी थी। हम समझ गए थे कि अगर हम उन बातों को भी शामिल करने की सोचें, तो झट से पलटवार होगा। हमें उसका डर था।

लेकिन हां, हमारे बीच यकीनन कुछ ऐसी साथी थी जो लिव-इन रिलेशनशिप (बिना शादी के साथ रहना) में थी और खुद को विषमलैंगिक (हेटेरोसेक्शुअल ) से अलग मानती थीं। गांव में भी ऐसी औरतें थी। शादी के बाहर या शादी के साथ-साथ उनके गुप्त सम्बंध हुआ करते थे। उनका कहना था कि अगर घर पर कोई नहीं है और तब आपने कुछ पकाया, खाया और बर्तन धो डाले, तो भला किसे पता चलेगा? अपना खाना खाओ और खुश रहो, नहीं?  गाँवों में बड़े-बुजुर्गों को भी इस बात से तब तक कोई आपत्ति नहीं थी जब तक कि आप राज़ को राज़ रख पाते हैं।

इसलिए, हमने इस तरह की बातचीत के लिए बिना सीधे-सीधे कुछ लिखे, स्पेस दिया है। किताब में आपको ऐसे कुछ संकेत मिलेंगे। मैं मानती हूँ कि दूसरी सेक्शुएलिटी और दूसरे जेंडर्स के नाम और उनकी समझ काफी बाद में आयी। ये हम लोगों के लिए एक नई सोच का हिस्सा थी। 80-90 के दशक के आखिर में, जब हमने इस किताब पर काम शुरू किया था, तब ये बातें खुलकर नहीं हुआ करती थी।  इसको अब 30 साल हो गए हैं। पिछले 10-20 सालों में, इन बातों की समझ सामने आई है और लोग इसके बारे में खुलकर बात करने लगे हैं।

इस नारीवादी आंदोलन में सेक्शुअल एजुकेशन और रिप्रोडक्शन/प्रजनन के इंसाफ को लेकर आपका सफर काफी लंबा रहा है। आपको क्या लगता है, इन सालों में क्या बदलाव आए हैं, और क्या बदलने की जरूरत है। 

पहली बात तो ये कि बिना किसी हेल्थ प्रोग्राम के प्लान और अनुभवी टीम के, हम वो सब कर नहीं पाते जो हमने किया। लेकिन मुझे लगता है कि उस समय से अब तक में एक गैप है। यकीनन काफी इनफार्मेशन आ रहे हैं । लेकिन इन सब को औरतों के अनुभवों, युवा लड़कियों के अनुभवों से जोड़ना, उनके असर को समझना, एक समुदाय बनाना- मुझे लगता है आज की तारीख़ में इसकी कमी है।

कई ग्रुप हैं, जो समुदाय और सेफ स्पेस की बात करते हैं। लेकिन वो इसे कैसे बनाते हैं, कहां बनाते हैं? उदाहरण के तौर पर, देखा जाए तो उनक अपना घर भी अक्सर, औरतों को एक निजी स्पेस नहीं देता है  । हम जिन गांवों में काम करते थे, वहां आपके परिवार के सदस्यों का आपके साथ वर्कशॉप के दौरान आना और बैठना आम बात थी। हमें उनको भी शामिल करने का तरीका ढूंढना होता था। आप जो कर रहे हो, उनको उसका हिस्सा बनाना ज़रूरी था। ताकि वो आपका काम समझ सकें, उसे बिना सोचे खारिज़ ना कर दें। इस तरह आपके  आस पास, आपको सपोर्ट करने वाले काफी लोग बनने लगेंगे । इंटरनेट जितना सशक्त हो सकता है, उतना ही ख़तरनाक भी। टेक्नोलॉजी से जुड़ना और उसे समझना जरूरी है। लेकिन समुदाय की जगह कोई नहीं ले सकता है।

दूसरी बात, आज हम अलग-अलग उम्र के लोगों के साथ काम कर रहे हैं।  लाल किताब में भी हमने अलग अलग एज ग्रूप के बारे में बात की, लेकिन उसमें इसे एक पीढ़ी की तरह दिखाया गया है। एक फ़्लो था बचपन से अडल्ट  होने तक के सफर के बीच । आज हम हर उम्र के लोगों को अलग-अलग वर्ग में बांटकर काम करते हैं। 

बाल अधिकार समूह, महिला समूह, किशोर समूह, युवा समूह - उन सभी के लिए ज़रूरी है कि वो  आवाज उठाएँ । लेकिन अगर हम इतने ग्रुप में बंट जाएंगे तो बड़ी व्यवस्था को चुनौती नहीं दे पाएंगे।  पितृसत्ता, पुरुषत्व, सामाजिक व्यवस्था और उसके मानदंड, और राज्य - इस पूरे बड़े ढांचे को चुनौती देने के लिए ये जरूरी है कि हम सब साथ मिलकर उन मुद्दों को सामने लाएं। अकेले हम ज्यादा दूर नहीं जा पाएंगे।

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