कार्ड पर लिखा है:
१ मई, १९५८ को, एक नया अधिनियम, जिसे "S.I.T.A - सप्रेशन ऑफ इम्मोरल ट्रैफिकिंग इन वीमेन एंड गर्ल्स एक्ट" लागू हुआ। उसका उद्देश्य: सेक्स वर्कर्स को उनके पेशे से निकालकर, उनको एक नए सिरे से जिंदगी जीने में सहूलियत देना।
उसी दिन हुस्ना बाई नाम की एक सेक्स वर्कर ने इस कानून को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दर्ज की।
भला ये सेक्स वर्कर उस अधिनियम को चुनौती क्यों दे रही थी, जो बनाने वालों के हिसाब से, उसकी भलाई के लिए बनाया गया था?
कार्ड पर लिखा है:
हुस्ना बाई की याचिका
S.I.T.A. ने क्या कहा:
"18 से ऊपर की उम्र का कोई भी इंसान अगर जान-बूझकर सेक्स वर्क करके पैसे कमा रहा है, तो उसे दो साल की जेल हो सकती है और उसपे एक हजार रूपये का जुर्माना लगाया जा सकता है। (ये उनकी ही भलाई के लिए है।)"
हुस्ना बाई को क्या लगा:
" अपने घर में कमाने वाली बस मैं ही हूं। मेरे पास जीवन यापन का और कोई साधन नहीं है। S.I.T.A ने तो मेरे लिए अपने परिवार का भरण-पोषण करना भी मुश्किल कर दिया है। "
हुस्ना बाई ने कहा: सेक्स वर्क उनका काम था। S.I.T.A उनके काम में रोड़ा बन रहा था ।
कार्ड पर लिखा है:
हुस्ना बाई की याचिका
S.I.T.A का ऐलान :
S.I.T.A. धारा 20 (सरल शब्दों में):
" एक मजिस्ट्रेट किसी भी महिला को, जिनके बारे में पता चले कि वो सेक्स वर्कर है, अपने अधिकार क्षेत्र से हटा सकता है। "
हुस्ना बाई बोली :
S.I.T.A, बराबरी के मेरे संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है। साथ में, मेरे व्यापार और मेरे पेशे को अपनाने, और इंडिया के किसी भी हिस्से में आजादी से घूमने या रहने के मेरे संवैधानिक अधिकार पर पाबंदी लगाता है। मैं कहीं भी शांति से नहीं रह सकती, क्योंकि मुझे कभी भी मेरे घर या मेरे काम की जगह से बाहर निकाला जा सकता है। "
अपनी याचिका से हुस्ना बाई सिर्फ कानून को ही चुनौती नहीं दे रही थी - बल्कि पूरे सामाजिक ढांचे पर सवाल उठा रही थी। बोले तो ?
कार्ड पर लिखा है:
सेक्स वर्क सालों से, कानूनी, गैरकानूनी, पुराने तौर तरीके और कलंक - इन सबके बीच, किसी गुमनाम गली में खोया हुआ था।
खुद सेक्स वर्कर, कानून और कलंक, दोनों से बचने के लिए, नाच या गाने को अपना पेशा बताते रहे, क्यूंकी इनपे ये कानून लागू नहीं था ।
हुस्ना बाई ने छिपने से इंकार कर दिया
"मैं सेक्स वरकर हूँ”
कार्ड पर लिखा है:
उन्होंने कानून में निहित "सम्मान" और "सदाचार" की सोच को भी न माना इसके बजाय उन्होंने कानून से सेक्स के लिए सम्मान की मांग की। क्यों?
आर्टिकल १९(१) (जी)
किसी भी पेशे को अपनाने, या कोई व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने के अधिकार की गारंटी देता है।
उस समय कुछ ही औरतें काम करती थर्थी, और सेक्स वर्कर उनमें से एक थी।
हुस्ना बाई का तर्क:
S.I.T.A ने काम करना मुश्किल कर, उनको निष्फल बना दिया।
हुस्ना बाई की मांग:
उनकी पूरी जमात के लिए आज़ादी। कहानी में ट्विस्ट : इस विरोध में हुस्ना बाई अकेली नहीं थीं।
कार्ड पर लिखा है:
जैसे ही हुस्ना बाई ने अपनी याचिका दायर की, इंडिया के कोने-कोने में ऐसा बहुत कुछ होने लगा ।
इलाहाबाद : इलाहाबाद डांसिंग गर्ल्स यूनियन ने ऐलान किया कि वो S.I.T.A का विरोध करेगा।
कलकत्ता : सेक्स वर्कर्स ने भूख हड़ताल पर जाने की धमकी दी।
दिल्ली: दो सेक्स वर्कर, महरू और राम प्यारी, ने भी पंजाब उच्च न्यायालय में हुस्ना बाई की तरह ही याचिका दायर की।
ये पूरे इंडिया के सेक्स वर्कर्स की मिली जुली मुहिम थी । अंदाजा लगाइए कि उस हफ्ते की इन ज़बरदस्त घटनाओं से सबसे ज्यादा धक्का किसे लगा ?
कार्ड पर लिखा है:
S.I.T.A को बनाने में जो नारीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थीं, उनको तो बड़ा धक्का लगा ।
“हमने S.I.T.A बनाया, क्योंकि हम इन बेचारी पीड़ितों को बचाना चाहते हैं।”
“हमने उनसे पूछा या नहीं, इसका क्या मतलब है? हम बहतर जानते हैं कि उनके लिए क्या अच्छा है!”
“हर औरत घर की लक्ष्मी ही बनना चाहती है।”
“हुस्ना बाई अपने 'अपमानजनक जीवन' को जारी रखने के लिए संविधान का इस्तेमाल करना चाह रही है।”
S.I.T.A के खिलाफ पूरे देश में जो-जो विद्रोह हुए, सबने मिलके उच्च वर्ग की ऐसी सोच को चुनौती दी। इससे इस बात पर भी रोशनी पड़ी कि आखिर कौन ये कानून बनाता है और वे कानून आखिर हैं किसके लिए। बोले तो, नागरिकों के अधिकारों, और क्या सही है क्या नहीं, पर बड़ी बहस चल रही थी।
कार्ड पर लिखा है:
हुस्ना बाई के मामले की अध्यक्षता करने वाले जस्टिस जगदीश सहाय को "याचिका की पेशी में कुछ ठोस बातें " मिली ।
राज्य इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि संविधान के आर्टिकल 19 (1) (जी) के प्रयोजनों के आधार पे, सेक्स वर्क एक व्यापार है। संविधान के आर्टिकल 19 में 'किसी भी' शब्द का इस्तेमाल, स्पष्ट रूप से ये बयां करता है कि आम तौर पर, एक नागरिक को किसी भी तरह के व्यापार करने की आज़ादी है।
इस आधार पर, S.I.T.A की धारा 20 की संवैधानिकता पर जो आपत्ति उठायी गई, कहना पड़ेगा उसमें कुछ दम है - कि ये इंडिया के किसी भी कोने में आज़ादी से घूमने और रहने के नागरिक के अधिकारों का उल्लंघन करता है।
तो फिर हुस्ना बाई के मामले में आखिरी फैसला क्या रहा?
कार्ड पर लिखा है:
हुस्ना बाई केस नहीं जीत पाई। जस्टिस सहाय ने एक तकनीकी आधार पर मामले को दो हफ्ते में ही खारिज कर दिया: ये कहके कि हुस्ना बाई को S.I.T.A ने फिलहाल कोई आघात नहीं पहुंचाया था । इसलिए इस मामले में कोई भी राय, कानूनी रूप से बाध्य नहीं थी।
लेकिन हुस्ना बाई के कदम ने एक चुप्पी तोड़ दी थी, उनकी याचिका ने आम लोगों की कल्पना को जगा दिया था।
अब क्योंकि ये S.I.T.A से जुड़ा पहला मामला था, मीडिया में इसकी ज़ोरदार कवरेज हुई। इस मामले ने और भी मामलों के लिए दरवाज़े खोल दिए ।
कुछ साल बाद, राज्य उत्तर प्रदेश बनाम कौशल्या देवी के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि S.I.T.A, नैतिक कारणों से ज़रूरी था।
हुस्ना बाई ने पूछा होगा- किसकी नैतिकता?
कार्ड पर लिखा है:
हुस्ना बाई ने एक ऐसा सवाल उठाया था जो आज भी कानों में गूंजता है - आज़ादी क्या है, ये कौन तय करता है?
उनके मामले पर जो बातचीत शुरू हुई, इन कई सालों में उसने असलियत को बड़े सारे नए रूप दिये। उदाहरण के लिए, 2012 में, कलकत्ता में एक सेक्स वर्कर्स यूनियन ने अपने सदस्यों को पर्चे बांटे। पर्ची की शुरूआत, सेक्स वर्कर के व्यापार करने के हक और जिंदगी और आज़ादी के मौलिक अधिकारों को पाने के हक, से हुई।
हुस्ना बाई का मामला इस बात पर रोशनी डालता है कि कैसे संविधान एक गतिशील दस्तावेज़ है।
ये एक ऐसा संसाधन है जिसके आधार पे भारत के नागरिकों ने अक्सर अपने कानूनन हक के साथ साथ, सामाजिक इंसाफ की भी मांग की है।