"हम दोनों के बीच एक अलग ही मेन्टल केमिस्ट्री है।" मेरी एक क्लाइंट- चलो उसका नाम 'ए' रख देते हैं - ने मुझसे कहा। उसने बताया कि वो जिस लड़के को डेट कर रही थी, उसने उन दोनों के बीच एक नई चीज़ शुरू की: दोनों अब एक-दूसरे को बहुत ही इमोशनल मिनी-रैप गाने भेजते थे। लाजमी भी है क्योंकि दोनों लेखक हैं। वैसे तो वो उसको बहुत लंबे समय से जानती है, लेकिन नज़दीकी तब बढ़ी, जब हाल ही में एक काम सबंधी इवेंट में दोनों मिले, और करीब आये। अब, जब भी वो किसी किताब में कोई दिल को छू जाने वाली लाइन या पैसेज पढ़ते हैं, तो उसका वॉयस-नोट/रिकॉर्ड किया हुआ ऑडियो बनाकर एक दूसरे को भेजते हैं। फिर घंटों दोनों की इसपे बात होती है, कि कविता के इस टुकड़े का मतलब, आखिर क्या हो सकता है।
पर इसके अगले सप्ताह, मेरी क्लाइंट थोड़ी बुझी-बुझी सी थी। उसने बताया कि उसका वो दोस्त अचानक ही गायब हो गया है। और वो उससे पूछना भी नहीं चाहती कि वो कहाँ है और उससे बात क्यों नहीं कर रहा है। पहले कभी उसने बताया था कि ये बात उसके लिए बहुत अहमियत रखती है कि वो अपने बच्चों के लिए एक अच्छा पापा बन पाए । मेरी क्लाइंट बोली कि अगर उसके बच्चों के साथ कुछ इमरजेंसी हो गयी हो, या कि उसकी बीवी के साथ, तो वो उनके बीच में नहीं आना चाहती है।
आम तौर पे तो एक शादीशुदा आदमी के साथ रिलेशन बनाने के लिए ही उसे वैंप या 'दूसरी औरत' का दर्ज़ा दे दिया जाएगा। भले ही पेशेवर लोग (जिसमें चिकित्सक भी शामिल हैं) इतना खुलेआम इन नामों का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। लेकिन शायद वो इस बात पर रोशनी डालेंगे कि उसके बचपन में जिन रिश्तों और लगाव को लेकर प्रॉब्लम थी, उन्हीं की वजह से वो एक ऐसे इंसान को चुन रही है, जो कभी “उसका” नहीं हो सकता है। मुझे ये बात थोड़ी अधूरी लगती है । लगता है कि ये कहा जा रहा है कि आदमी का इमोशनल साथ आपको सिर्फ इसलिए नहीं मिल रहा क्योंकि वो शादीशुदा है । यानी इसकी कोई और वज़ह हो ही नहीं सकती? मैंने जब नया-नया काम शुरू किया था तब कुछ पाँच साल पहले एक क्लाइंट के साथ ऐसी ही गलती की थी। तब मेरी समझ मैच्योर नहीं हुई थी। मुझे अपनी अनाप-शनाप सोच से उभरने में थोड़ा वक्त लगा। मैंने घुमा-फिराकर कई तरीके आजमाए, जिससे मेरा क्लाइंट उस शादीशुदा इंसान से दूर हो जाए। लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि मेरी रणनीति काम नहीं कर रही थी। तब मैंने दूसरा रास्ता अपनाया। ये जानने की कोशिश की, कि मेरे उम्रदराज़ क्लाइंट को उस रिश्ते में आख़िर ऐसा क्या नज़र आता था। तब कहीं जाकर मेरे क्लाइंट ने अपने दिल के दरवाज़े खोले। बताया कि उस रिश्ते में ऐसा क्या है जो खास है, किस वज़ह से वो उस रिश्ते को बचाना चाहते हैं। दिल ये कहां देखता है कि किस रिश्ते को समाज अपनाएगा और किसे नहीं। मैंने रिश्तों के बारे में, वो कैसे काम करते हैं, कितना कुछ सीखा है। उन रिश्तों में एक खिंचाव सा होता है। क्योंकि ना ही वो सिर्फ हमें हमारे पुराने घावों की याद दिलाते हैं, बल्कि साथ ही साथ उनपर मरहम लगाने का वादा भी करते हैं। इंसानों को बनाया ही कुछ इस तरह गया है कि उन्हें एक-दूसरे के आस-पास रहना पसन्द है। टूटकर भी प्यार करना पसन्द है। भले ही वो रिश्ते, वो भावनाएं हमारे निजी या सामाजिक ढांचों में फिट ना बैठें।
वैसे, मेरी ये आज की तारीख में जो लेखक क्लाइंट 'ए' है, वो अपने इस रिलेशनशिप में काफी खुश है। उसका उस इंसान से शादी करने का कोई इरादा नहीं है। हां, कभी-कभी उसे थोड़ा बुरा लगता है। क्योंकि उस इंसान के पास एक पारंपरिक, आदर्श सा परिवार है, जो उसकी राह देखता है। लेकिन 'ए' रात का खाना अकेले खाती है। तो क्या वो अपनी बनी बनाई जिंदगी छोड़कर, उससे शादी करना चाहती है? शायद ऩही। उसके लिए तो बस ये मायने रखता है वो इसकी सोच, उसके आईडिया को एहमियत देता है। यूं कहो कि उसको एहमियत देता है। वो उसके साथ कभी बेरहम नहीं रहा है। बल्कि वो तो इसे एक गहरी दोस्ती मानकर खुश था। पर मेरे क्लाइंट ने इसे रोमांस का नाम दे दिया, और उसने भी मंजूर कर लिया। शुरुआत के कुछ सेशन में, जब वो उससे नई-नई मिली थी, तो बोलती थी- "मुझे नहीं लगता कि मुझे उसे अपने पास बांधकर रखने की ज़रूरत है। मैं फ्री महसूस करती हूँ। मुझे लगता है कि इस तरह मैं अपने क्वीयर रूप को अपना पाती हूँ। मुझे उससे शादी करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। मैं उसे एक आज़ाद तरीके से प्यार करती हूँ। मेरी खुशी तो बस इस चीज़ में बसी है कि किस तरह हम एक दूसरे की क्रिएटिविटी को मज़बूत करते हैं और एक-दूसरे के अंदर की दुनिया को देख पाते हैं।"
शायद मेरे क्लाइंट का रिश्ता उन वसूलों पर सवाल उठा रहा है, जिसे लेकर हम पैदा हुए हैं। कि क्या रिश्ते बनाने का बस एक ही सही तरीका होता है। उसका रिश्ता अक्सर ऐसे सवाल उठाता है। पूछ बैठता है कि आखिर "सही करने का मतलब क्या है?" और बस फिर घूम कर ये सवाल हमपर, यानी कि थेरेपिस्ट पर, भी आ जाता है कि आखिर "थेरेपी क्या है?" क्या ये लोगों को एक जैसा/ समान बनाने के बारे में है? क्या ये सही और गलत के नए नियम बनाने के बारे में है? वो नियम जो पुराने दकियानूसी नियमों की तरह तो नहीं होते, लेकिन फिर भी अपने तरीके से दवाब डालते हैं और ये तय करते हैं कि क्या सही है और क्या गलत!
मेरी दूसरी क्लाइंट एक कर्मठ टीचर है। अपने स्टूडेंट्स से बहुत प्यार करती है। उनको सवाल पूछने को प्रोत्साहित करती है, अपनी सोच ख़ुद बनाने को कहती है । भले ही वो फिर उसकी बातों पे सवाल उठाएँ । परेशान तो वो तब हुई जब उसके एक पुराने स्टूडेंट के साथ खुद को लैटिन डांस करते हुए कल्पना कर ली। उसे खुद पर हैरानी हुई। उसने खुद को ये कह कर समझाया कि ऐसा शायद इसलिये हुआ होगा क्योंकि 12 वीं क्लास के बहुत से लड़के एडल्ट जैसे दिखते हैं। हां, भले कानूनी तौर पर उनको एडल्ट नहीं माना जाता है। पर इस सफाई के बाद भी वो खुद को अपराधी सा महसूस कर रही थी। "क्या इस तरह की सोच मुझे पीडफाइल (paedophile- वो एडल्ट जो बच्चों की तरफ सेक्सुअल आकर्षण महसूस करने वाली मेंटल विकृति रखता है) बनाता है?" उसने पूछा। अब एक पेशेवर के रूप में तो मेरे लिए बहुत आसान था कि मैं उसे नैतिकता का ज्ञान देती या उसके डर पर ठप्पा लगाकर उसकी इस तरह की सोच को 'काबू करने' के तरीके पे काम करना शुरू कर देती। सच कहूं तो, मेरे दिमाग ने मुझे इन उपायों की ओर खींचा और मैंने ये 'पॉलिटिकली' सही तरीका आजमाने का सोचा भी। लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे रोक दिया। मानो एक आवाज़ आयी - "रुको! चलो देखते हैं कि ये सोच आखिर पैदा कहां से हुई!"
तो फिर, हमने मिलकर उसके इस फैंटेसी को समझने की कोशिश की। क्या उसके अकेलेपन से इसका कुछ लेना-देना था? उसकी जिंदगी में चाहत वाले रिलेशनशिप की कमी? क्योंकि शादी तोड़ने के बाद उसको अब तक एक बार भी डेटिंग के लिए भी कोई सही आदमी नहीं मिला था। या शायद, जैसा कि उसने खुद कहा था, "उन लड़कों का इस तरह देखना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है। मैं कभी उनसे नज़र मिलाती नहीं हूँ। मेरी फेमिनिस्ट सोच उनके यूं घूरने की आदत को सही नहीं मानती है। लेकिन फिर भी, जैसे मेरे अंदर की 16 साल की लड़की, जिसे हमेशा लगता था कि वो सुंदर नहीं है- आखिरकार खुद के बारे में उस 16 साल की लड़की, कुछ अच्छा महसूस कर रही है।"
बात यूं शुरू हुई कि कैसे कॉलेज के दिनों में दो खास वज़हों से उसके अंदर फ़ेमिनिज़म का जन्म हुआ। पहला तो ये कि स्कूल में सब उसे बदसूरत बुलाते थे, तो फ़ेमिनिज़म अपनाना, एक तरह से उसका नतीज़ा था। वो ये ऐलान करना चाहती थी कि "मुझे सुंदरता की कोई ज़रुरत नहीं है। मेंरे पास अपने अधिकार के लिए लड़ने की ताकत भी है और वही ताकत मुझे दूर तक ले जाएगी।" दूसरा ये, कि फ़ेमिनिज़म का सिक्का (तेज़ दिमाग, एक्टिविज़म, दुनिया के भ्रम को देखने/समझने का हुनर), शक्ल-सूरत के आधार पे दुनिया को देखने के सिक्के पे भारी पड़ता है। इसके ज़रिए, खुद की और खुद के रिश्तों की एहमियत भी समझ आती है। लोगों की अस्वीकृति (रिजेक्शन) के घाव को ठंडक पहुंचाने का यही तरीका है कि आप अपने अंदर एक अलग दुनिया बना लें, और उसमें दूसरी चीज़ों की परवाह करें, ना कि लोगों के रिजेक्शन की। हालाँकि, इस राह चलते-चलते, कई बार कुछ सोच मन में इस क़दर घर कर जाती हैं कि फिर निकलती नहीं। जैसे कि रिलेशनशिप में किस तरह के बर्ताव को घातक या अपमानजनक कहा जाए। मेरे क्लाइंट ने बताया, कि जब भी अपने एक्स-पार्टनर उसको लेके पोसेसिव होता था, या ईर्ष्या की झलक दिखाता था, तो सच तो ये है कि उसे वो अच्छा लगता था । हालांकि, वो खुलकर ये मान नहीं पाती थी, क्योंकि कॉलेज में जिस फ़ेमिनिज़म को उसने अपनाया था, उसकी सोच स्ट्रिक्ट थी, वो इस क़िस्म के भावों को ग़लत मानती थी । उर वो वसूल कभी-कभी मेरी क्लाइयंट भी ज़ोर ज़ोर से दोहराती थी । तो क्या कभी-कभी, हम अपने अंदर जो सोच बस इसलिए पैदा करते हैं ताकि मुश्किल स्थितियों को झेलने में आसानी हो, वो कड़क बनकर, हम पर हावी हो जाती है? हमें फंसाकर छोड़ती है? ऐसे में क्या उन आईडियाज़/ सोच को नए नज़रिए से देखा जा सकता है?
तो यूँ हुआ कि उसकी उस कॉलेज वाली फ़ेमिनिज़म की सोच ने और साथ साथ, दूसरे मेन्टल-हेल्थ के चिकित्सकों ने भी स्टूडेंट के लिए उसके मन में आई कल्पना के लिए उसे दोषी घोषित कर दिया… तो क्या उनकी बात सही थी ? क्या उसको एक ऐसे इंसान की तरह नहीं देखा जा सकता, जो बदलने की क्षमता रखता है? अगर नहीं, तो इस औरत को अपनी सोच पे शर्मिंदा करना, वैसा ही हुआ, जैसे पहले औरतों को ये कह कर शर्मिंदा किया जाता था कि वो सही नहीं, औरत को जो होना चाहिए, वो उससे कम हैं!
जब हमने एक साथ बैठ के इसपे सोचा, तो हमें ये समझ आया कि इस तरह एक सोच को ही हक़ीक़त मानना, हर बात का सही ग़लत पता रहना, सब कुछ इतना सुलझा हुआ होना, एक तरह से हमको कचोट रहा था, बाँध रहा था । जब ज़िंदगी में स्यापा चल रहा हो तो इन थोपे गए विचारों (नए या पुराने) की कमीयों को समझने से, अपने को एक आज़ादी सी महसूस होती है। और शायद दूसरे की परिस्थिति समझ पाना भी आसान हो जाता है। इसके बाद साथ मिलके, जिंदगी में वापस चाहतों को लाने के तरीके भी सोचे जा सकते हैं। या फिर जो सोच घुटन महसूस कराए, उसे या छोड़ देना चाहिए, या कम से कम, हल्के में लेना चाहिए… ये भी सीखा जा सकता है।
और मेरे लिए, एक चिकित्सक के रूप में देखा जाए तो, जैसे-जैसे मैं इन तय किये हुए दायरों से बाहर निकल रही हूँ, अपने क्लाइंट्स के अनुभवों को समझने की कोशिश कर रही हूँ l 'सशक्तिकरण' /empowerment क्या हो सकता है, इसको लेके एक नई समझ उभरी है । आखिर कोई भी चीज़ सशक्त (और इसलिए फेमिनिस्ट) कैसे हो सकती है, अगर वो ख़ुद ही एक क्रूर नियम बन जाए? शायद सशक्तिकरण उस आज़ादी का दूसरा नाम है, जिसमें बदलते परिवेश के आधार पर नई चॉइस बनाने का मौक़ा मिले?
मेरे सहयोगी और 'गुफ्तगु' के को-फाउंडर, आर्यन ने भी कुछ ऐसा ही अनुभव किया था जब वो एक हेल्पलाइन के लिए काम कर रहा था। उस हेल्पलाइन में ईमेल भेजने का भी ऑप्शन था। "क्लाइंट ने हेल्पलाइन पे एक ईमेल भेजा, जिसमें उसने अपने भाई के साथ हुए सेक्शुअल अनुभव के बारे में बताया। पर उसके दुःख और परेशानी की वजह अलग थी: वो ये थी कि उसका भाई नए शहर में शिफ्ट हो गया था, उससे ज्यादा ताल्लुक़ नहीं रख रहा था और उसे उतनी एहमियत भी नहीं दे रहा था। जिस काउंसलर ने मेरे से पहले वो ईमेल देखा, उसने मर्ज़ी/कंसेंट और अनुचित व्यवहार/अब्यूज़ पर रोशनी डालते हुए जवाब दिया। इशारा इन्सेस्ट (सगे-सम्बन्धी के साथ सेक्शुअल रिलेशन) की तरफ था। लेकिन जब मैंने वो ईमेल पढ़ा, तो मुझे उसमें कुछ खोने का दुःख और विश्वासघात की भावनाएँ भी दिखाई दीं । उसे अपने भाई का स्पर्श, उसकी नज़दीकी और उसका इमोशनल सपोर्ट याद आ रहा था। उसकी नज़र में वो अपने भाई के साथ एक ऐसे रिश्ते में था, जिसमें वो उसके प्यार में पागल था। एक तरह से उसकी 'पत्नी' की ही तरह। उसे उस रिश्ते से अपनापन और प्यार मिलता था। उसके हिसाब से वो एक ज़ायज़ रिश्ता था, जहां दूर हो जाने पर उसके भाई को भी उसकी उतनी ही याद आनी चाहिए थी। लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं हुआ। अब उसे ऐसा लग रहा था कि उसका इस्तेमाल किया गया, उसपर ध्यान नहीं दिया जा रहा और किसी को उसकी ज़रूरत नहीं। वो शोक मना रहा था- शायद इस बात का, कि जिस नज़र से वो अपने भाई को देखता था, उसके भाई ने उसे वैसे कभी नहीं देखा।
"पढ़कर उसके दर्द का एहसास हुआ। उसका पहला प्यार, पहला सेक्शुअल अनुभव, अपने क्वीयर चेहरे से पहला आमना-सामना, और छोड़े जाने की तकलीफ़। मैंने उसके सारे इमोशन्स को जायज़ मानते हुए और इस बात का क़रार करते हुए, उसके ईमेल का ज़वाब दिया। मैंने लिखा कि उसके उस रिश्ते ने ही तो उसे अपने क्वीयर होने का एहसास कराया था। तो हां, उसके खो जाने का दुःख होना लाज़मी था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये सब कैसे हुआ, लेकिन इस पहले अनुभव में क्वीयर होने के उस अकेलेपन को समझने का मौका तो मिला। वो रिश्ता 'असामान्य' या अलग होने की उस फीलिंग को आपस में बांटने का एक तरीका भी तो था। भले ही बाद में पता चला कि वो बस कुछ पल तक टिकने वाला एक बुलबुला था। पर इसका मतलब ये नहीं है कि वो बुलबुला ख़ास या प्यारा नहीं था। उसके लिए तो वो एक फेयरी-टेल जैसा था। तो सब खो जाने पर उसका दुःखी होना ज़ायज़ था। तो जब कोई इस फैंटेसी को तोड़ता है (क्वीयर होने के ये कुछ साइड-इफ़ेक्ट हैं), दूर चला जाता है और आपको सब कुछ भूल जाने के लिए कहता है, तो अचानक ही दुनिया का वो, बहुत कुछ नकारता हुआ, बदसूरत चहरा सामने आता है । शॉक लगना तो लाज़मी है। मैंने अपने ज़वाब में यही समझाने की कोशिश की।
"हालांकि," आर्यन ने कहा- "मुझे इस तरह से चीज़ों को नहीं लेने दिया गया । संगठन और मेरे सीनियर साथियों ने बताया था कि मुझे वैसे रिश्ते को इन्सेस्ट/एब्यूज़ वाला लेबल ही लगाना था। ताकि सेफ्टी और नुकसान को कम करने पर ध्यान दिया जा सके। किसी प्रॉब्लम वाले रिश्ते को 'बढ़ावा' देना सही नहीं था। उन्होंने कहा कि इसका क्वीयर होने से कोई लेना-देना नहीं था और मैं बस एब्यूज़ को सामान्य बनाने की गलती कर रहा था।
हेल्पलाइन भी कभी कभी, सही ग़लत को इस पार या उस पार का दर्जा देने लगते हैं । वो कुछ तय किये हुए दायरों में रहकर सॉल्यूशन निकालते हैं। ये इसलिए होता है कि उनका काम अक्सर आयी हुई बला को किसी तरह टालने पे निर्धारित होता है । हालांकि, इस तरह का सॉल्यूशन, क्लाइंट के लिए एक फ़ैसला जैसा हो जाता है। सही-गलत की एक पत्थर में गड़ी हुई सोच, जो कि क्लाइंट के उन जिये हुए अनुभवों पर सवाल उठा देता है। इस तरह उस क्लाइयंट की अपने समझ, परख और मर्ज़ी पे सवाल उठते हैं । और ये सोच जाता है कि इस तरह उस क्लाइयंट को कुछ सही सिखाया जा रहा है, उसकी मदद की जा रही है ।
ये दुःख की बात है कि पेशेवर ग्रुप और संगठनों कई बार ऐसा रवैय्या अपनाते हैं । हम यही सब सीखते हुए बड़े होते हैं कि सामाजिक रूप से क्या ठीक है और क्या नहीं (जैसे कि इन्सेस्ट ठीक नहीं है, शादी के बाहर रिश्ता बनाना ठीक नहीं हैं)। आगे की कोई भी सीख हमें इन बातों को भूलने नहीं देती। बल्कि हमारा ध्यान इस तरफ़ किया जाता है कि कोई अगर इन बातों को नहीं मान रहा है तो क्यों! और कैसे उनको वापस लाइन पे लाया जाए । "नैतिकता का आतंक" हमारे अंदर भर दिया जाता है। हमें ऐसा महसूस कराया जाता है कि समाज की व्यवस्था किसी की वज़ह से हिल गई है और उसे वापस सही रास्ते पे लाना हमारी जिम्मेदारी है। और ये उस क्लाइंट/मरीज़ की सेफ्टी के लिए ही है। हालांकि, ज्यादातर क्लाइंट/मरीज़ चाहते हैं कि हम उनकी बात सुनें, उनकी उलझी हुई सच्चाईयों की बातें । हमें उनको सुनने की ज़रूरत है ना कि उनको ठीक करने की। तो, यहां दायरे धुंधले हो जाते हैं - क्या हम यहाँ नैतिकता को लागू करने के लिए आये हैं ये कि जिसे पीड़ा है, उसकी भलाई करने?