1. सेक्सीनेस की तासीर — इंतज़ार!
वो गुमख़्यालियों के दिन थे और उन दिनों का एक ही बिचारा साथी था - वो टू इन वन जिसमें रेडियो के साथ-साथ टेपरिकॉर्डर भी था। अभी घर में इतनी संपन्नता नहीं आई थी कि हर कमरे में एक टीवी होता। बल्कि एक कलर टीवी और एक वीसीआर (जो 1989 में हमारे घर की शान बना) पर पूरा मोहल्ला हक़ जताया करता था। इश्क़ तब आँखों-आँखों में हुआ करता था। बारह से सोलह के बीच कई इश्क़ हुए, कई छूटे। जिन्हें देखकर दिल अपनी रफ़्तार भूल जाया करता था, उनमें से तो कईयों के तो नाम भी आज तक मालूम नहीं। टीनेएज की दहलीज़ पर कदम रख रहे उस जेनरेशन का ये एन्थम सॉन्ग था, जो हम सैन्यो के अपने टूइनवन पर लूप में सुना करते थे। ये गाना सुनते-सुनते हम सब इस उम्मीद में जवां हो गए कि एक न एक दिन कोई चॉकलेट हीरो ज़रूर मिलेगा, जिसके साथ स्कूल के किसी ट्रिप पर हम रास्ता भूल जाएंगे। किस्मत ने एक मौका दिया भी तो हम वो मौका गंवा बैठे। न जूही चावला की तरह लंबे बालों की चोटियां खोलने की अदा आती थी तब, न अल्का याज्ञनिक-सी आवाज़ थी। आज भी ये लगता है कि कोई एक कमबख़्त लम्हा इस क़दर हसीन मिले तो हम आज के आज फिर से गुम हो जाएं। फिलहाल यूट्यूब पर देख-देख कर बढ़ती हुई उम्र और घटती हुई ज़िन्दगी को तसल्ली दिया करते हैं। :)
2. सेक्सीनेस की तासीर — हॉटनेस!
उम्र का एक दौर वो भी आता है जब बाहर की दुनिया से ज़्यादा सच्ची भीतर की आवाज़ें लगती हैं। भीतर से एक ऐसी ही आवाज़ यकीन दिलाती थी कि एक मिस्टर इंडिया है कहीं जो गायब ज़रूर है लेकिन लापता नहीं है। इधर चित्रहार में श्रीदेवी स्क्रीन पर अपनी नीली शिफॉन साड़ी मे उलझी हुई हवाओं और अटकी हुई बारिश को झटक-झटक कर बाहर फेंकती, और उधर हम अपने ख़्यालों में किसी गुमशुदा प्रिंस चार्मिंग के साथ बॉल डान्स कर रहे होते। ये और बात है कि अपनी कल्पनाओं में भी हमने ये सुनिश्चित कर रखा था कि ए) उसकी मूंछें न हो बी) सिर पर टोपी न हो सी) जिसे कम-से-कम अनिल कपूर से बेहतर नाचना आता हो! (वैसे मैं इस बात पर भी कम से कम एक घंटे बीस मिनट की बहस कर सकती हों कि श्रीदेवी से सेक्सी बॉलीवुड में कोई हीरोईन नहीं दी। ओके, मधुबाला और वहीदा को छोड़कर। अच्छा चलिए, माधुरी दीक्षित पर भी अग्री करते हैं। लेकिन श्री तो श्री है। ख़ुद देख कर तय कर लीजिए।)
3. सेक्सीनेस की तासीर — इश़्कियाना!
फ़िल्म देखते हुए इस गाने को बड़े स्क्रीन पर देखने के बाद मैंने इसे यूट्यूब पर कभी नहीं देखा, सिर्फ़ प्लेलिस्ट में लूप में डालकर बार-बार सुनती रहती हूं। इस गाने को 'ओंंकारा' के ओमी और डॉली के बीच के इस बेपनाह लेकिन बदकिस्मत, ट्रैजिक इश्क़ से जुदा करके सुना या देखा जाए तो श्रेया घोषाल और विशाल भारद्वाज की आवाज़ों में एक ग़ज़ब की केमिस्ट्री है। विशाल की ठहरी हुई, स्थिर आवाज़। श्रेया की मीठी, निश्छल आवाज़। आवाज़ों की हरकत ऐसी कि दोनों के बीच का भरोसा अपना-सा लगता है। गुलज़ार का लिखा हुआ ये एक गीत यकीन दिलाता है कि इश्क़ का होना जिस्म और रूह की ख़्वाहिशों का एक ही रिश्ते में घुलना-मिलना है। जिसके साथ धूप के पीछे नंगे पैर दौड़ने की चाह हो और जिसकी करवटों से छील जाने का अफ़सोस न हो उसके साथ गुज़ारा गया एक लम्हा कई बेमानी ज़िन्दगियों से अनमोल होता है।
4. सेक्सीनेस की तासीर — फैंटेसी!
जून की जलती दुपहरी में डीटीसी की खचाखच भरी हुई एक बस में नौकरी की तलाश में भटकते हुए मैंने रेडियो पर ये गाना पहली बार सुना था। आस-पास सबकुछ ठहर गया था जैसे, किसी एक ड्रीम सिक्वेंस की तरह। अचानक कहीं से आ गए बादलों के टुकड़े की तरह एक ख़्वाहिश बग़ल में आ बैठी थी। फिर पूरा सफ़र ट्रांस में कटा था। कितना कम कहते हैं हम, कितनी कम जताते हैं ख़्वाहिशें! ऐसे में एक लड़की कहे कि चलो, तुमको लेकर चलें... और फिर वहां से एक के बाद एक ख़्वाहिशों के सफ़हे खुलते जाते हों... ऐसा शायद महेश भट्ट की किसी फ़िल्म में ही मुमकिन होता है।
5.
सेक्सीनेस की तासीर — बोल्ड!
और ये आख़िरी गाना... एक रिसॉर्ट में अपने रईस मां-बाप के साथ छुट्टियां मनाने आई बेबी (जेनिफर ग्रे) को रिसॉर्ट का डांस इंस्ट्रक्टर जॉनी (पैट्रिक स्वायज़) एक परफॉर्मेंस के लिए मैम्बो सिखा रहा है। दोनों के बीच की कशिश का पोल कुछ बदन की थिरकन खोलती है, और कुछ आंखें - हंग्री आंखें! 1987 की फ़िल्म 'डर्टी डांसिंग' हमने चुपचाप देखी थी, वीसीआर पर छुपकर। डर्टी डांसिंग का साउंडट्रैक खरीदा भी तो उसका कवर छुपाते फिरते थे। नब्बे के दशक में जब हम बड़े हो रहे थे तो 'डर्टी डांसिंग' को पॉर्नोग्राफी की तरह ट्रीट किया जाता था। लेकिन इरॉ टिका और पॉर्नोग्राफी में क्या अंतर होता है, और जिस्म के रिश्ते में जब रूह घुली हो तो किस तरह दो शरीर प्यार करते हैं, ये समझना हो तो उसके लिए डर्टी डांसिंग देखना चाहिए, ज़िन्दगी में कम से कम एक बार।
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