मेरा पहला प्रेम संबंध १२ वी कक्षा में आरचीज़ कार्ड के समान, एक प्यारा सा रोमांस था। मुझे दूसरी कक्षा का एक लड़का पसंद था, और यह बात मैंने अपनी सहेली को बतायी। जैसा कि अक्सर होता है उसने यह बात उस लड़के को बतायी। और दो हफ़्ते फ्लर्ट करने के बाद, आख़िरकार उसने मुझे साथ बाहर जाने का न्योता दिया।
हमारे सुखभरे और दुःखभरे दोनों किस्म के दिन रहे, लेकिन ज़्यादातर, हमें एक साथ बहुत मज़ा आया। वो बहुत होशियार था, एक अच्छा वक्ता, और एक बेहतरीन इंसान। हमारी बातचीत हरदम दिलचस्प रहती थी। मैं उसके साथ हर किस्म की बात कर सकती थी। जब मेरे ‘पीरियड्ज’ या ऋतुस्रव होते तब मुझे कोई मंगलभाषी इस्तेमाल करने की ज़रूरत नहीं होती। उनके बारे में मैं सरेआम बात कर सकती थी। मैं जो महसूस करती, उसे भी छिपाने की मुझे कोई ज़रूरत न होती। मैं उसे अपनी कविताएं दिखाती और वो मुझे अपना लेखन। अब तक मुझे उसके जितना स्त्रीवादी व्यक्ति नहीं मिला है। हम जब कम बातें करते वो क्षण भी सुहावने होते थे।
जब आप प्रेम संबंध में होते हो, तब लोग आपको एक अलग नज़र से देखते हैं जब आपका पार्टनर कोई गड़बड़ करता है, वो गड़बड़ आप पर लादी जाती है। मुझे याद है, एक बार एक कार्यक्रम में प्रश्न पूछते समय उसने व्याकरण संबंधी ग़लती की। वो एक मामूली सी ग़लती थी, लेकिन लोगों ने मुझे हफ़्तों ताने मारे - “हम जानने के लिये उत्सुक हैं कि तुम ऐसे आदमी को कैसे बरदाश्त करती हो जिसे ठीक से अंग्रेज़ी भी नहीं आती”। वो ‘हाउज़ कप्तान’ था और मैं उसके प्रतिद्वंद्वी हाउज़ में थी। एक बार मैं एक कमरे में बैठी थी और उसने अपनी मीटिंग उस ही कमरे में करनी चाही। और, फिर यही हुआ कि लोगों ने मुझे खलनायिका की नज़रों से देखा, जबकि वो मेरा बाॅयफ्रेंड था जिसने बाहर जाने से इंकार किया था, चूंकि उसे उस कमरे में ही रहना था। ऐसी छोटी मोटी बातें हमें खीझ दिलाती रहीं।
कभी कभी, मैं उससे कहती कि मुझे रिश्ते से अलग थोड़ा अपना समय और थोड़ी अपनी जगह चाहिये, लेकिन ऐसा लगता था कि उसे यह समझने में कठिनाई हो रही थी। मिसाल के तौर पे, इम्तिहान के कठिन समय में वो मुझसे सहारे की अपेक्षा करता। लेकिन जब मैं ख़ुद उलझन में होती हूँ, तब मुझे इर्द-गिर्द की दुनिया से पीछे हटना ज़्यादा आसान लगता है। ऐसा मैं इसलिये करती हूँ कि मैं शांति में सारा पड़ा हुआ काम निपटा सकूँ, और फिर और बातों पर ध्यान दूँ। मुझे ऐसा लगा कि मैं उसकी भावनात्मक रूप से सहायता नहीं कर सकती थी। मैं जब किसी पर गुस्सा होती हूँ, तब मैं पीछे हटती हूँ, सुनी सुनायी पर गौर करने के लिये और फिर बोलती हूँ। परन्तु, वो चाहता कि मैं तुरंत ही उससे बात करूँ। इसलिये, उससे समय या जगह मांगने का मतलब होता था उसे कहना, “ओये, मैं आज तुमसे फ़ोन पर बात नहीं करना चाहती। मैं कल तुम्हें स्कूल में मिलूंगी, और हम तब बात करेंगे”। कभी कभी इसका मतलब होता, “मुझे अगले तीन-चार दिनों तक तुमसे बात नहीं करनी। कृपा करके मुझे तब तक अकेले छोड़ना”। लेकिन वो सदा वहाँ मौजूद रहता। मैं कभी-कभार पीछे हटने की कोशिश करती, ताकि हमारे बीच के प्रश्नों के बारे में अभी बात ना करूँ, लेकिन वो कहता, “नहीं नहीं, चलो उस पर चर्चा करते हैं”।
मैं सिर्फ अकेले रहकर आत्मनिरीक्षण करना चाहती थी, पर यह बात उसके समझ में कभी नहीं आती। ऐसा नहीं कि हमने इन प्रश्नों पर चर्चा नहीं की। हमने की। एक दफ़ा वो मुझसे बोला, “तुम्हें अंतर और अंतराल चाहिये होता है और कभी कभी मैं चिंतित होकर तुमसे बात करने लगता हूँ। इसके फलस्वरूप तुम्हें जो चाहिये वो मैं नहीं देता हूँ और यह बात मुझसे अनजाने में हो जाती है”।
“तुम्हें कितना समय चाहिये”, वो मुझे पूछता। “मुझे पता नहीं”, मैं कहती।
उसे नाटकी ढंग से प्यार का इज़हार करना पसंद था, एकदम बॉलिवुड जैसे। यह बुरी बात नहीं है, लेकिन मैं बहुत शर्माती हूँ, इसलिये मुझे अजीब लगता। उसने मुझे ‘डेट’ या साथ बाहर जाने का न्योता भी मेरे दोस्तों के सामने अपने घुटनों के बल बैठकर दिया था। मेरा जो बुरा हाल हुआ वो मैं ही जानती हूँ! और जिस दिन हमने एक साथ तीन महीने पूरे किये, उसने फिर से वैसा ही, उसी जगह करने की ठानी थी। मैंने उसे कहा, “अगर तुम वैसा करोगे तो मैं अभी इसी वक्त यहाँ से निकल जाऊंगी”।
उसका मेरे दोस्तों के साथ कुछ जमता ना था, और मैं हरदम उनके बीच की बातचीत के रुख को बदलने और सुलझाने की कोशिश करती। मैं मेरा अपना समय मेरे दोस्तों और उसके बीच बराबर बाँटने की कोशिश कर रही थी, मेरे अध्यापकों को ख़ुश रखने की कोशिश कर रही थी, और अच्छे नंबर लाने की भी। मेरे ख़्याल से मैं सब के लिये वो ‘परफेक्ट’ व्यक्ति बनने की भी कोशिश कर रही थी। लेकिन असल में हम दोनों के बीच की दरार की वजह से बात और भी बिगड गयी। मैंने एक बार उसे कहा कि मुझे घुटन सी हो रही है। ग़लत बात कह दी। यह सुनके उसकी रोने जैसी हालत हो गयी, और मुझे बहुत अफ़सोस हुआ। मुझे हर बात में ईमानदारी अच्छी लगती थी, और शायद उस वजह से भी हमारे नाते को थोड़ी चोट पहुंची।
दो महीनों बाद मैं काॅलेज शुरू करने दूसरे शहर जाने वाली थी। हमने आपस में बात की और समझ गये कि हम लंबी दूरी का नाता नहीं रखना चाहते थे। मुझे उन लोगों जैसे नहीं बनना था, जो पूरे समय घर के लोगों के साथ फ़ोन पर लगे रहते हैं, और साथ-साथ नयी जगह को आज़माने की भी कोशिश करते हैं। मेरा यह भी मानना था कि मेरी उम्र में, रिश्ते में शारीरिक मौजूदगी भावुक मौजूदगी जितनी महत्त्वपूर्ण थी। लंबी दूरी का नाता उसके लिये भी अन्यायपूर्ण होता। इसलिए हमने परिस्थिति का सामना करके निर्णय लेने की ठान ली। अप्रैल के उस दिन वो मेरे घर आया।
हम यूं ही बैठे रहे, हाथ मलते हुए। मैंने कहा, “हमें सच्चाई का सामना करना पड़ेगा। मुझे नहीं लगता कि इसके बाद हम दोनों को साथ रहना चाहिये”। मैंने उसे बताया कि मुझे कैसे शहर छोड़कर दुनिया देखने का मन है, और नये सिरे से शुरुआत करने का भी। वो इसके बारे में बहुत परेशान था। मुझे दुःख हुआ कि वो इतना परेशान था। शुरू में उसने मेरा विरोध भी किया। उसने कहा कि वो मुझसे प्यार करता था और हमें साथ रहना चाहिये। हमें तो एक साथ चट्टाने चढ़नी थी, इत्यादि इत्यादि। तब तक, मैं समझ गयी थी कि हम ‘प्यार’ के बारे में बात करने के लिये तैयार नहीं थे, और यह भी कि मैंने उसे ‘आय लव यू’ पूरी तरह से सोच समझकर नहीं कहा था। मुझे पता था कि फ़ोन पर हमारा नाता कितना ही अच्छा हो, बाद में बात बिगड़नी ही थी। “हम ज़्यादा बात क्यों नहीं करते?” मेरे जाने के बाद यह शिकायत दोहरायी जाती। हमने लंबे दूरी के नाते के बारे में चर्चा की - हफ़्ते में कितनी बार हम एक दूसरे को फ़ोन करेंगे? हमारा नाता कैसे चलने वाला था? अगर हम किसी और से प्यार कर बैठे तो क्या? पूरी चर्चा के बाद मैंने कहा, “दिसंबर से हम इसके बारे में सोच रहे हैं, लेकिन तुम्हें पता है कि यह होने वाला है। इसका विरोध करने की कोशिश मत करो”। उस रिश्ते में रहकर हमसे जो ग़लतियाँ हुई थीं वो हमने स्वीकार लीं । हमारा नाता उसको कैसे आगे बढ़ने से रोक रहा था, इस बात पर भी हमने चर्चा शुरु की। उसे यह बात शुरु से पता थी, लेकिन उसने हमारे नाते को जैसे जकड़ कर रखा था। इसलिये, हालाँकि उसका मन नहीं मान रहा था, आख़िर उसने इकरार किया कि वो सही बात थी।
स्वभावतः, हम दोनों बहुत दुःखी थे और हम रोए भी, लेकिन बात कभी हद से बाहर नहीं पहुंची। हमने तय किया कि हम दोस्त बने रहेंगे, लेकिन कुछ समय के लिये हम दोनों के बीच का माहौल बहुत अजीब था। जब मैंने शहर छोड़ा, तब उसने मुझे ढाँढस देने वाले मेसेज भेजे जिनमें लिखा था, “मैं हूँ, तुम्हारे लिये। गुड लक”। इसके बाद भी, हम एक दूसरे के लिये हमेशा मौजूद रहे।
जब हमारा ‘ब्रेक-अप’ हुआ तब मैंने थोड़ा सा चैन भी महसूस किया। मुझे नहीं पता कि ऐसा लगने से क्या मैं बुरी इंसान बन जाती हूँ। लेकिन सच बात तो यह है कि हमारे जीवन में इतना सब हो रहा था कि ब्रेक-अप होने से मुझे थोड़ी राहत मिली।
ब्रेक अप के बाद, सबने कहा कि हमारे नाते में मैं ‘खलनायिका’ थी क्यों कि मैंने उसका दिल तोड़ा था, और मुझे हमारा नाता यूं तोड़ना नहीं चाहिये था। इसके विपरीत, मेरे जान पहचान के कुछ लोगों ने, जिनसे मैं इतनी बात भी नहीं करती थी, कहा कि मेरा निर्णय सही था, चूंकि उन्हें वो शुरु से नापसंद था। मैंने इन सभी बातचीत में शामिल होने से इंकार किया। इस पूरे नाटक से अलग, हमारा ब्रेक अप कितना सभ्य था।
हमारे ब्रेक अप के बाद, कुछ गलतफ़हमियाँ ज़रूर रहीं थी। उसने हम दोनों के एक मित्र से सहायता ली। शहर छोड़ने के पहले जब मैं उस मित्र से बात कर रही थी, तब उसने कहा, “तुम्हें उसके साथ वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये था”। उसने मुझे यह बात नहीं बतायी कि वो उसके साथ समय बिता रही थी, और उस समय मुझे यह समझ नहीं आया कि आख़िर उसने मुझसे ऐसा क्यों कहा था। उस बात का दो और दो चार मुझे ख़ुद जोड़ना पड़ा।
अगले कुछ महीनों के दौरान, जब मैं बाहर थी, मुझे लगता कि मुझे अपने ब्रेक अप को और ध्यान से संभालना चाहिये था। इसलिए, जब मैं सर्दी की छुट्टी में वापस आयी, तब हम दोनों फिर मिले और सभी बातें स्पष्ट कीं।
उसके बाद मेरे कुछ और भी ब्रेक अप हुए हैं, और वो इतने ख़राब थे कि क्या बताऊँ। एक लड़का, जिससे मेरा रिश्ता रहा, वो ब्रेक अप को टालता रहा। मुझे यह कहने के बाद कि हमें बात करनी चाहिये वो दूसरे शहर भाग गया, मुझे कई दिनों तक इंतज़ार में रखा, और फिर बोला, “ओ, मैं तो भूल ही गया था”। जब ब्रेक अप किया भी, तो बस यह कहकर कि हमें ब्रेक अप कर लेना चाहिये, और शायद आइंदा से एक दूसरे के साथ बात नहीं करनी चाहिये (क्योंकि वो अपनी पुरानी प्रेमिका से वापस जा मिला था)। मेरे पहले ब्रेक अप के समय ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ था। वो इक तर्फा मामला बिल्कुल भी नहीं था। हम दोनों ने बात की और एक दूसरे की बात सुनी। मैं सचमुच उसे मूल्यवान समझती हूँ। दो लोगों का अलग होना कैसे अच्छा और पारस्परिक हो सकता है, इस बात की वो मिसाल सा है।
अब, जब भी हम मिलते हैं, हमारी बातचीत बहुत ही सहज होती है। हम ऐसे बात करते हैं जैसे कि उन आठ महीनों के उतार चढ़ाव हुए ही नहीं, और मुझे लगता है कि ऐसा इसलिये है कि हमारा ब्रेक अप इतने आराम से हुआ। कुछ अरसे बाद भी, मैंने महसूस किया कि वो अब भी शायद मुझे थोड़ा चाहता था। मेरी सहेली का कहना था कि चूंकि मैं नये शहर गयी थी और नये लोगों से मिली थी, मेरे लिये ब्रेक अप का सामना करना और आसान था। वो कहीं नहीं गया, उसके दोस्त वहीं के वहीं थे, और उनकी बातचीत में वो मेरा ज़िक्र करते रहते। मेरे ख़्याल से, हमारा ब्रेक अप उसके लिये कई तरीकों से कठिन था। लेकिन अब, जब हम एक दूसरे से इतना नहीं मिलते, फिर भी हम एफ बी पर दोस्त हैं और एक दूसरे को ‘मीम’ में टॅग करते हैं। तो सब ठीक है। उससे पता चलता है कि सब ठीक हैं।
नंदिनी एक ‘ह्यूमॅनिटीज़’ की छात्रा, कलाकार और भरतनाट्यम विशेषज्ञा है। जब वो अपने इर्द-गिर्द की औरतों का हौसला नहीं बढ़ा रही होती है (और अदिती मित्तल के बारे में भावुक नहीं हो रही होती है), वो अपने कैंपस की राजनीति में सक्रिय रूप से हिस्सा लेने में व्यस्त रहती है।
मेरा पहला ब्रेक-अप बिल्कुल भी फिल्मी नहीं था
हम यूं ही बैठे रहे, हाथ मलते हुए। मैंने कहा, “हमें सच्चाई का सामना करना पड़ेगा। मुझे नहीं लगता कि इसके बाद हम दोनों को साथ रहना चाहिये”।
नंदिनी द्वारा
चित्रण: तेजश्री इंगवले
अनुवाद: मिहिर
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