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“इस दुनिया में अच्छी तरह से घुल-मिल जाने का मतलब ये तो नहीं, कि सब ठीक है।” – खुला होना, हिम्मत और मेन्टल हेल्थ

सोनल ज्ञानी से हुई बातचीत से कुछ पन्ने!

सोनल ज्ञानी एक फेमस एल.जी.बी.टी.क्यू (LGBTQ) एक्टिविस्ट हैं। उन्होंने कई सारे संगठनों के साथ काम किया है। उनका ख़ास काम परिवारों के साथ रहा है, क्वीयर पहचान को लेके उनकी जो चिंताएं हैं, उनको बातचीत के ज़रिये सुलझाना । वो एक फिल्म निर्माता और डाइवर्सिटी कंसलटेंट भी हैं। वो कई टेलीविजन शो और डाक्यूमेंट्री का हिस्सा रही हैं।  सोनल ने कुछ टाइम के लिए, एजेंट्स ऑफ इश्क़ के साथ भी काम किया था, इसलिए वो हमारी दोस्त भी हैं और हमारी मंडली का हिस्सा भी। सोनल यहां ए.ओ.आई की फाउंडर पारोमिता वोहरा से से बात कर रही हैं: मेन्टल हेल्थ की सामूहिक ज़िम्मेदारी, उनके अपने थेरेपी के सफर और दवाईयों, और अपनी फीलिंग्स पे अच्छे से ध्यान दे पान के बारे में ।  इस इंटरव्यू को और क्लियर करने के लिए ,थोड़ा काटा-छांटा गया है। पा.वो./पारोमिता वोहरा : जब हमने एजेंट्स ऑफ इश्क़ शुरू किया था, तो हमारी वेबसाइट का मेन फ़ोकस सेक्सुअल हेल्थ था। लेकिन धीरे-धीरे, हमने समझा कि अगर हमें मानसिक स्वास्थ्य की बात न की, और वो भी अलग अलग तरीकों से, फिर तो सेक्सुअल स्वास्थ्य की बात करना बहुत खोखला सा था । हमने पिछले कुछ महीनों में (एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद) ये भी देखा है, कि मेन्टल हेल्थ की बातचीत आधी-अधूरी इंफॉर्मेशन की वज़ह से,  बहुत गलत ढंग से दिखाई जा रही है ।  सोनल, आजकल मेन्टल हेल्थ पर जिस तरह से बातचीत हो रही है, उसके बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है? सो.ज्ञा./सोनल ज्ञानी: ये जो कुछ भी आजकल हो रहा है, चिंता की बात है। मेन स्ट्रीम मीडिया और मशहूर हस्तियां जिस तरह मेन्टल हेल्थ को दर्शा रहे हैं, वो सच्चाई से कोसों दूर है। सुशांत सिंह राजपूत का केस भी एक वैसा ही मामला है। इस मामले की रिपोर्टिंग में हमें ऐसी सोच दिखती है जो कहती है कि मजबूत लोग, या वो, जो लाइफ में सफलता देख चुके हैं, उनको मेन्टल हेल्थ के मसले नहीं होते हैं। या ये कि ऐसे लोग बस दूसरों की बातों में आकर मान बैठते हैं कि उनको मसले हैं।  ये बिल्कुल गलत है। मैं खुद दवाईयां लेती हूं। तो जो लोग कहते हैं कि मेन्टल हेल्थ के लिए दवाईयों की ज़रूरत नहीं होती है, और इसे जबरदस्ती किसी पे थोपा जाता है, गलत कहते हैं । दरअसल ये सब देखकर चिंता होती है। पा.वो.: पिछले कुछ सालों में, खासकर जब से दीपिका पादुकोण ने अपनी डिप्रेशन की कहानी शेयर की, मेन स्ट्रीम में मेंटल हेल्थ को लेकर चर्चा बढ़ी है।  जब मैं बड़ी हो रही थी, तब तो ऐसी बातचीत नहीं हुआ करती थी। मैं लकी थी कि मेरी एक फ्रेंड मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ/ थेरेपिस्ट के पास जा रही थी, और उसने ही मुझे उसके बारे में बताया।जब तुम जवान हुई, तो क्या तुम्हारे आस पास के जवान लोग, मानसिक दिक्कतों को लेके थेरेपिस्ट से मिलने की बात करते थे,  ऐसी मदद लिया करते थे? सो.ज्ञा.: नहीं, मोटे तौर पर, आस पास तो वही पुरानी सोच थी कि अगर आप किसी तरह के 'पागल' हैं, तो ही आपको थेरेपिस्ट की ज़रूरत है। मेरे आसपास कोई भी, काउंसलिंग या थेरेपी जैसी चीजों से जुड़ा हुआ नहीं था। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैंने थेरेपी लेट शुरू की। मुझे खुद, थेरेपी को लेकर बड़ी गलतफहमियाँ थीं। जैसे कि अगर कोई दिमागी प्रॉब्लम है, तो ही आप ऐसी जगहों पे जाओगे। थेरेपी शुरू करने से पहले, पूरे तीन साल तक मुझमें  डिस्रेशन के आसार नज़र आ रहे थे,  मैंने उनपे ध्यान ही नहीं दिया। अपनी दिक्कतों को सामने ही नहीं आने दिया। मुझे लगा ये मेरी हिम्मत और कमज़ोरी का हिसाब है। जैसे मुझे अपनी हिम्मत खुद ही बढ़ानी होगी।  दरअसल मुझे लाइफ में हो रही कई दूसरी घटनाओं की वज़ह से थेरेपी शुरू करनी पड़ी। जब करियर, रिश्ते - सब पर असर होने लगा, तब और कोई रास्ता नहीं बचा। अपने मेन्टल हेल्थ पे काबू पाना मेरे लिए नामुमकिन सा हो गया था। मैंने नौकरी छोड़ दी, क्योंकि मैं उसपे ध्यान नहीं दे पा रही थी। मैंने [आखिरकार] एक दोस्त, जो खुद थेरेपी ले रहे थे, के कहने पर इसे शुरू किया। जो वहां जा रहे थे, उनको ऐसा कोई भयानक डिप्रेशन या परेशानियां नहीं थीं। वो इसे कुछ इस तरह बयां करते थे- “हम थेरेपी ले रहे हैं। इससे सचमुच मदद मिलती है।"  वो लेस्बियन भी थे, जो सेक्सुअल मुद्दों के लिए थेरेपी ले रहे थे। और हां, उनको थेरेपी से फ़ायदा हो रहा था।  मेरे पहले दो थेरेपिस्ट उतने अच्छे तो नहीं थे, लेकिन मैं उनके अलावा और किसी को जानती भी नहीं थी। हालांकि, थेरेपी ने सचमुच मेरी मदद की। और जब मुझे मेरा परफेक्ट थेरेपिस्ट मिला, फिर तो मेरी ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गयी। अब कोई और तो ये आकर नहीं बताएगा कि आपके लिए कौन सा थेरेपिस्ट बेस्ट होगा। ये तो आपको ख़ुद ही समझना होगा, फिर ढूंढना होगा। पा. वो.: तुम्हारी बातों से पता चलता है, कि हर कोई जो मेन्टल हेल्थ के मुद्दों से निपटना चाहता है, उसे डर लगा रहता है कि कौन क्या कहेगा । वो उन मुद्दों को छुपाकर रखना चाहता है। मेन्टल हेल्थ से जूझता हुआ हर इंसान, खुद को जैसे एक तराजू के सामने खड़ा पाता है- उस तराजू की एक तरफ ‘कमज़ोर’ और दूसरी तरफ ‘ताकतवर’ लिखा हुआ है। अब ये तो कोई नहीं चाहेगा न, कि दुनिया उसको कमज़ोर समझे। तो वो अपनी दिक्कत छिपाने लगता है ।जो जेंडर की आम व्यवस्था में एडजस्ट नहीं होते हैं (जैसे कि क्वीयर लोग), उनको आम सोच में नहीं ढलने से, भी दिक्कतें आती हैं । यानी दिक्कत पे दिक्कत ! और आखिर में, तुमने ये भी बताया कि इस तरह घुटकर जीने से, मेंटल हेल्थ पर और भी उल्टा असर पड़ता है। तो, इन सबके बीच, तुम कब और कैसे ये समझ पाई की तुम्हारा थेरेपिस्ट तुम्हारे लिए फिट नहीं बैठ रहा था? सो.ज्ञा.: ये खुद-ब-खुद होता जाता है। पहले ही सेशन में थेरेपिस्ट को जज करना सही नहीं है। लेकिन 3-4 सेशन के बाद, थोड़ा बहुत समझ में आने लगता है। अच्छे थेरेपिस्ट आपको अपनी बनी बनाई सोच  को उधेड़ने में मदद  करते हैं, ताकि आप नए सिरे से सोच पाएं। आपको महसूस होने लगता है कि आप उनकी मदद से परत दर परत, खुल रहे हैं। आप अपनी सोच और अपनी फीलिंग की बारीकियों को देख और समझने लगते हैं।जिस सोच या फीलिंग को खोल के आपके सामने रखा गया है, आप अब उसको लेकर सचेत हो जाते हैं ।इसका असर आपको अपनी ज़िन्दगी पर भी नज़र आता है। लेकिन ये सब काफी धीरे-धीरे होता है। आपको इसे कुछ महीने देने पड़ते हैं। और फिर टाइम के साथ, आपके और आपके थेरेपिस्ट के बीच अपने आप ही एक भरोसे का रिश्ता कायम हो जाता है। ये कुछ तरीके हैं जिससे ये समझना आसान हो जाता है कि आपका थेरेपिस्ट आपके लिए फिट है या नहीं। कभी-कभी, हम अपने काउंसलर/थेरेपिस्ट  पर भरोसा नहीं कर पाते हैं, और इसलिए उनसे खुलकर बात नहीं करते हैं। एक अच्छा काउंसलर इस जानबूझकर या अनजाने में बन पड़ी दीवार को देख पायेगा। और कुछ सेशन में वो ये भी पता लगा लेगा कि ये कौन सी दीवारें हैं, आपको क्या लग रहा है जिसकी वजह से आपने अपने आगे ये दीवार डाली हुई है । अगर वो इन दीवारों को तोड़ने में कामयाब हो जाते हैं, आपका विश्वास जीत पाते हैं, तो उससे यकीनन मदद होती है।  हालाँकि, कभी-कभी आपको ऐसा महसूस होगा, कि आपकी और आपके काउंसलर की चाल, मेल नहीं खा रहीं। मेरे साथ भी शुरू में ऐसा हुआ था, जब मेरा एक थेरेपिस्ट होमोफोबिक (यानी जिसे समलैंगिक लोगों से डर और घृणा हो) था। दूसरा पॉलीऍमोरी/ polyamory (प्यार का ऐसा रिश्ता/ऐसा समझौता जहां लोग एक दूसरे की मर्ज़ी से, एक से ज्यादा पार्टनर रखते है) के ख़याल से कन्नी काटता था। मैंने उनको इसके बारे में बताने की कोशिश भी की, पर वो सुनना-समझना चाहते ही नहीं थे। कुछ सेशन में ही अगर आपको महसूस होने लगे कि आप ऐसे मुद्दे हल नहीं कर पा रहे हैं, तो वहां से निकल जाना ही बेहतर है।  और ऐसे में आपको अपने थेरेपिस्ट को भी बता देना चाहिए कि आप किसी और के पास जाना चाहते हैं।   थेरेपी के शुरुआती एक साल में मुझे लगा कि उससे कुछ फायदा नहीं हो रहा था।कि मैं थेरेपी के लिए इसलिए जा रही थी क्योंकि उसके अलावा, मुझे मदद का कोई और ऑप्शन नहीं दिख रहा था। उसी बीच एक दिन मेरे थेरेपिस्ट ने कहा, "थेरेपी दरअसल एक पुल की तरह है। तुम एक छोर से आ रही हो, और मैं दूसरे। चीज़ें तब बदलती नज़र आएंगी जब हम दोनों एक दूसरे से मिलेंगे। और ठीक वैसा ही हुआ। मुझे उसके तरीकों पर भरोसा होने लगा और हां बाद में बहुत फ़ायदा भी हुआ। मैं लगभग 5 साल से उसके पास जा रही थी।  तब से, जब से मैंने अपने को ऐसी हालत में पाया था कि जहां घर से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल लगने लगा  था , बल्कि मैं निकल ही नहीं पा रही थी। मुझे लगता था कि मैं कभी भी, कहीं भी काम नहीं कर पाउंगी। खुद पर मेरा विश्वास बिल्कुल ज़ीरो था। उस समय मैंने अपनी सेक्सुअलिटी को भी दबाकर रखा हुआ था।  फिर एक दिन वो घड़ी आयी जब मैं और मेरी थेरेपिस्ट उस पुल पर मिल ही गए ।  ये सफर तय करने के दौरान, मैं पूरी तरह से बदल गई।  मैंने एक फुल टाइम नौकरी ले ली। सेक्सुअलिटी के मामले में अपने परिवार, रिश्तेदार और यहां तक कि समाज़ के सामने, खुलकर बाहर आई, अपना सच बयान कर पाई ।  पहले तो सपने में भी ये सब नहीं सोच पाती थी। लेकिन आगे चलकर मुझे एहसास हुआ, कि इस थेरेपिस्ट को पॉलीमोरी जैसे टॉपिक पर मेरी मदद करने में हिचक हो रही थी। बस मैं समझ गई, कि आगे बढ़ने का टाइम आ चुका था। आज, अगर मेरी पार्टनर मुझसे कहे कि उसकी थेरेपी चल रही है। तो मैं कहूंगी, "वाह, ये अच्छी बात है।" मुझे ये ही लगेगा कि उस रिलेशनशिप के अच्छे होने के चांस बढ़ जाएंगे। पा. वो.: देखा जाए तो थेरेपी एक मुश्किल प्रक्रिया है। इसमें खुद को एक रचना मानकर, जैसे हम, पढ़ने की कोशिश करते हैं । हम खुद को किसी चीज़ की तरह नहीं, बल्कि एक कहानी की तरह देखने लगते हैं। हमको ये समझ में आने लगता है कि हम को कोई एक रोल निभाते जाने की ज़रुरत नहीं, हमारे बहुत सारे पहलू होते हैं । इससे हमें दूसरों को भी देखने-समझने नें मदद मिलती है। हम अपने दर्द, गुस्से और नाकामयाबी का बेहतर सामना कर पाते हैं।  सोनल, तुम्हारे लिए भी ये सफ़र काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है। है ना? सो.ज्ञा.:  पहला तो ये कि मैंने अपना थेरेपी वाला सफर, में चार पांच साल बिताने के बाद किया डिप्रेशन में चार पांच साल बिताने के बाद शुरू किया। मुझे अब लगता है कि मेरे बचपन में भी मुझमें डिप्रेशन के लक्षण रहे होंगे।  इन चीज़ों के खुलने में और उनको भांप पाने में, वक़्त लगता है। जितने धागे आप खोलते जाते हो, उतना खुद को जानते जाते हो। मुझे ऐसा लगता था कि डिप्रेशन एक कभी ना खत्म होने वाली चीज़ है। फिर मेरी सोच बदली, "ओह, इससे बाहर निकला जा सकता है।" आज मुझे पता है कि मेरा डिप्रेशन क्रोनिक (जड़ पकड़ चुका) है, जिसका मतलब है कि ये कभी-कभी वापस आएगा। तो कभी इसकी दवाई लेनी होगी, कभी थेरेपी तो कभी काउंसलिंग। दूसरी बात ये है कि मेरी लाइफ में अजीब-अजीब तरह की परेशानियां आती रहती हैं। मेरे जेंडर और सेक्सुअलिटी के अलग से तालमेल की वज़ह से, मुझे काफी बेचैनी का सामना करना पड़ता है। अभी कुछ सालों में मैंने खुलकर मान लिया है कि मैं पोलयमोरोस हूँ। लेकिन जैसे ही आप समाज के बनाये नियमों से अलग कुछ करते हो, आपका सफर आसान नहीं रह जाता। लेकिन मैंने खुद को बदलने के बज़ाय, उन मुश्किलों से निपटने का फैसला किया। बस उसी फैसले पे टिकी हूँ। जो कोई भी नार्मल मानी जाने वाली चीज़ों से अलग कुछ करेगा, उसके सामने परेशानियां तो आएंगी ही। कुछ पुराने नासूर भी इन परेशानियों को हवा दे सकते हैं। जैसे कि मेरे पुराने होमोफोबिया (समलैंगिक से डर, नफ़रत) वाले अनुभव। उस समय मुझे लगता था कि मैं इसी बर्ताव के लायक थी, क्योंकि मैं क्वीयर थी। इस समाज की सोच से अलग थी! जब मेरे पहले ऑफिस में मैं जम नहीं पाई,  तो मुझे लगा कि इसकी वजह भी मेरी सेक्सुअलिटी हैं। बस, इसलिए दूसरे ऑफिस में मैंने कभी भी अपनी पर्सनल लाइफ और सेक्सुअलिटी के बारे में बात नहीं की। पहले मैं खुद को रोकती थी, "ओह, मुझे और सहनशील बनना है, मजबूत होना है।" इस सबसे खुद निपटना है। लेकिन अब नहीं! अब तो मैं कहती हूँ, "कमज़ोर हो, तो क्या हुआ। रोने का दिल करे तो रो लो।" तो, आज मैं ये हूँ।  पता नहीं, आपने कभी ऐसा फील किया है या नहीं, पर मुझे ऐसा लगता है कि बचपन में टाइम हाथ से निकलता जाता है, कभी बैठकर सोचने का टाइम नहीं मिलता। फिर हम बड़े हो जाते हैं, ज्यादा सोचने लगते हैं। और इससे तनाव पैदा होता है। टाइम के साथ आपको आपको समझ में आने लगता है कि आपको कौन सी बातें बेचैन करती हैं।" मेरे मामले में देखो, तो पुरानी चीज़ें बार-बार सामने आती है। फिर जैसे कोई पूछ रहा हो कि ऐसे कैसे इतने सालों बाद आपको इस चीज़ से इतना फर्क पड़ रहा है। अभी तो आप बिलकुल ठीक लग रहे हैं। सुशांत भी तो बिलकुल ठीक था, आप भी बिल्कुक ठीक हो। लेकिन कभी-कभी कोई चोट मानो आपके स्किन के अंदर घुस जाती है। ज़रा सा कुरेदो, तो वापस हरी हो जाती है। बस यही मेरा चैलेंज है। बहुत सारी पुरानी गुत्थियां अभी भी उलझी हुई हैं, खुली ही नहीं हैं। मैं अक्सर ये कहकर बढ़ जाया करती थी कि "ओह, ये मेरी गलती है। चलो छोड़ो जाने दो।" बिना सुलझाए मैं हर प्रॉब्लम को कहीं न कहीं पार्क करके, आगे चलती गई। ये सोचकर कि इससे लिए जिंदगी को रोक तो नहीं सकती। लेकिन अब अचानक जिंदगी बेहतर होती नज़र आ रही है और प्रॉब्लम को पार्क करना मुश्किल लग रहा है। अब मुझे उनको सुलझाना होगा। क्योंकि आज मैं एक अच्छे मुक़ाम पे हूँ, जहां इन गाठों को खोलना मुश्किल तो लग रहा है, लेकिन ज़रूरी भी।  पा.वो.: बर्ताव में लचीलेपन की बात करें तो, कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि हम बिल्कुल दूसरे छोर पे पहुंच जाते हैं। ये कहते-कहते कि, "ओह, हमें हमेशा मजबूत रहना चाहिए", हम कमज़ोरी का जश्न मनाने लग जाते हैं। जबकि दरअसल हम ये बताना चाहते हैं, कि अपने बर्ताव में लचीलापन लाने के लिए कभी-कभी कमज़ोर या बेबस फील करना लाजमी है। खुद में लचीलापन लाने के इस सफ़र में, हम हमेशा के लिए कमजोर तो नहीं होना चाहते। ना ही अपने आप से दूर जाना चाहते हैं, जहां खुद का ख़्याल रखना ही मुमकिन ना हो । हम तो ऐसी ज़गह पहुंचना चाहते हैं ,जहां हमारे इमोशंस में भी एक लचीलापन आये, है न। ताकि हमें पता चले कि कब पीछे हटना है और कब खुद को संभालने के लिए दुनिया के सामने आना है। सो.ज्ञा.: हाँ, और कैसे खुद का बैलेंस बना के रखना है।  पा.वो.: बिल्कुल! मैंने नोटिस किया है कि आम तौर पे लोग जिस चीज़ को ''सुसाइडल/आत्महत्या वाली फीलिंग'' (suicidal feeling) के नाम से बुलाते हैं, तुम अलग ही शब्द इस्तेमाल करती हो 'सुसाइडल आइडिएशन/सोच” (यानी सुसाइड की सोच की शुरुआत, या उसका पनपना )। इनमें तुमको क्या फरक दिखता है? सो.ज्ञा.: आम तौर पर हम अपनी फीलिंग को जानते हैं, समझते हैं। ये हमारी बॉडी में बेचैनी पैदा करती है। फीलिंग हमें हिंट देती है कि आगे क्या होने वाला है। वैसे मेरे पर्सनल केस में, सुसाइडल सोच का मामला ऐसा था जहां आगे क्या होगा ये समझ में नहीं आ रहा था। कुछ साल पहले ऐसा भी वक़्त थाजब मैं खुद को नुकसान पहुंचाना चाहती थी। पर उस टाइम जैसे मैं अपने आप को, अपनी बॉडी से अलग देखती थी। अपने आप से जैसे एक अलगाव महसूस करती थी, जैसे ये जो हो रहा है, मेरे साथ नहीं हो रहा। और ये किसी तरह के दुःख या उदासी की वज़ह से नहीं था। खुद को नुकसान पहुंचाने की सोच तो मेरी थी, लेकिन जब वो नुकसान मेरी बॉडी सह रही थी, तो ऐसा लगता था जैसे वो किसी और की बॉडी के साथ हो रहा था। और मन में वो सोच जब आती थी कि खुद को नुकसान पहुंचाना है, तो मैं ये भी सोचती थी, कि अरे बस सोच ही तो रही हूँ, ऐसा कुछ करूंगी थोड़े ही! पर अगले ही पल वही करने भी लगती थी। तो ये जो इंसान खुद को ही खुद से अलग कर लेता है, ज़रूरी नहीं है कि उसे खुद को भी ये पता चल पाए। इतनी साफ-सुथरी, समझ में आने वाली फीलिंग ही नहीं हो रही होती! जिंदगी अच्छी-भली चल रही थी, फिर भी पिछले कुछ दिनों ऐसा हुआ,कि ऐसे ख्याल बार-बार आ रहे थे। मुझे समझ में नही आ रहा था कि क्यों और कैसे! इसलिए मुझे अपने मन को कहीं और लगाना था। दरअसल आपके ख्याल और आपकी भावनाएं, दोनों एक दूसरे से अलग हो सकते हैं। धीरे-धीरे आप अपनी उन फीलिंग्स को पहचानने लगते हैं जो कि आपको आत्महत्या की सोच की तरफ ले जाती है। (मुझे भी अब उनको पहचानना आसान हो गया है) ये फीलिंग्स खासकर उदासी से निकलती हैं, और कहती हैं- "मुझे अब जीने का कोई शौक नहीं है"। हाँ, अब मेरी हालत बेहतर है, लेकिन मैंने ऐसा वक़्त देखा है जब मुझे इन फीलिंग्स को समझने और पहचानने में मुश्किल होती थी।  लेकिन फिर जब वो विचारों का दौर आता था, मन में बस एक ही प्लानिंग चलती थी, कि खुद को कैसे नुकसान पहुंचाया जाए। पर फिर मैं सोचा करती थी, "सिर्फ प्लान ही तो कर रही हूँ। सब करते हैं। कोई सोचता है कि आज अगर मैं मर गया तो क्या होगा, लोगों को कुछ फ़र्क पड़ेगा क्या! ऐसे ही कई लोग कई चीज़ें सोचते हैं, जो बस सोच बनकर रह जाती हैं।" लेकिन, दरअसल ऐसा नहीं था। और मुझे ये तब तक कुछ महसूस नहीं हुआ, जब तक कि मैं पूरी तैयारी के साथ एक कमरे में, खुद के साथ कुछ करने के इरादे से नहीं पहुंची।  शुक्र है, कि उसी समय कोई आ गया और मेरी सोच वहीं रुक गयी। ना ही मुझे कुछ एहसास हुआ, ना ही कुछ मालूम चला। इस पूरे प्रोसेस में फीलिंग की कमी थी, इसलिए मैं इसे ख्याल का नाम दे रही हूँ। इसमें आप अपने आस पास के माहौल से, होशो-हवास से, परे हो जाते हो। अब अगर ये ख्याल न होकर आपकी फीलिंग होती, तो आप उसे अपने हिसाब से घुमा सकते थे। फ़ीलिंग बेहतर होती है, क्योंकि उसके ज़रिए आप खुद को खुद से जोड़ कर देख पाते हो। पा.वो.: ये तुमने बहुत एहम और दिलचस्प अंतर की बात की। बहुत से लोग तो इस बारे में जानते भी नहीं है। कहने का मतलब ये है कि दुनियां भले ही फीलिंग्स की कद्र ना करती हो, उसे गलत समझती हो, पर आपके लिए ये ज़रूरी है। यही आपको अपने अनुभवों से जोड़ती है। और अगर आप उन फीलिंग्स को दबा लेते हो, तो ये एक आदत बन जाएगी और फिर आप खुद ही नहीं समझ पाओगे की दरअसल आप क्या फील कर रहे हो। उस वक़्त आप अपनी कल्पना की एक दुनियां बना लेते हो, बिना समझे कि ये आपको कितना नुकसान पहुंचा सकता है।  एक और बात जो तुमने बतायी, वो ये कि इस सफ़र में दवाईयों ने तुम्हारी काफी मदद की। पर तुमने ये दवाईयां हमेशा तो नहीं ली हैं। तुमने कब तय किया कि तुम्हें दवाई लेनी चाहिए और दवाईयों के साथ एडजस्ट करना कैसा रहा। सो.ज्ञा.: पहले तो मैं दवाईयों के बिल्कुल खिलाफ़ थी। मुझे लगता था कि उससे मेरी सोच बदलने लगेगी, मैं जैसी हूँ वैसी नहीं रह पाउंगी। आप ये अंदाज़ा कैसे लगाते हो कि कौन सी चीज़ आपके लिए काम कर रही है और कौन सी नहीं। या किससे बुरा असर पड़ रहा है मेरे पहले काउंसलर ने मुझे एन्टी-एंग्जायटी (anti-anxiety- मेन्टल बेचैनी कम करने की) दवाई दी। जब मैंने वो खाया, मुझे लगा कि उसने बस चीनी की गोलियां बनाकर दे दी हैं, बोले तो प्लेसिबो (placebo- जो दवाई जैसा दिखता है पर होता नहीं है)।  मेरा दूसरा थेरेपिस्ट अच्छा था। उसने दवाई के बिना इलाज़ शुरू किया।  लेकिन कुछ साल बाद ही मेरे सुसाइड वाले ख्याल मन में आने शुरू हो गए। कब? मुझे पता भी नहीं चला। और तब मैं दूसरे मनोचिकित्सक से मिली, जिन्होंने साफ-साफ कह दिया कि मुझे दवा लेने की ज़रुरत थी। मैंने भी खुलकर कह दिया कि मैं दवाई नहीं लेना चाहती हूं। तो उन्होंने पूछा कि मैं कब से थेरेपी ले रही थी। मैंने बताया कि 7-8 साल हो गए थे। तब उन्होंने समझाया कि अगर मेरा डिप्रेशन इतने सालों में भी खत्म नहीं हुआ था, तो ज़ाहिर सी बात थी कि मुझे दवाई की ज़रूरत थी। तो उन्होंने दवाई दी। लेकिन मुझे ऐसा लगा कि उन्होंने मेरी हिस्ट्री जाने बिना, मुझे मेरी बेचैनी के लिए काफी भारी दवाईयां दे दी। और साथ के साथ नींद की गोलियां भी! उन्होंने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि दवाई के साथ थेरेपी चलनी भी ज़रूरी थी। एक तो मैं दवाई लेने के लिए पूरी तरह से तैयार भी नहीं थी, और दूसरा, उनकी दवाईयां सही भी नहीं थी।  बॉम्बे से बंगलौर आने की एक बड़ी वज़ह ये थी कि मैंने सुना था यहां काफी सारे पोली सपोर्ट ग्रुप (ऐसे ग्रुप जो पोलिएमोरी मानते- समझते हैं और एक दूसरे को सपोर्ट करते हों) और थेरेपिस्ट थे। लेकिन यहां आने के बाद कुछ भी अच्छा नहीं लगा।  फिर जब मेरे सुसाइड वाले ख्याल चरम सीमा पे पहुंच गए, तो मेरे नए काउंसलर (जिन्होंने दवाई के बिना इलाज़ शुरू किया था), उन्होंने किसी मनोचिकित्सक से मिलने के लिए कहा। उनके साथ मैंने थेरेपी के काफी साल बिताए थे, इसलिए उनकी बात मान ली। वो टाइम ऐसा था जब डिप्रेशन वापस आ चुका था और समझना मुश्किल हो रहा था कि उसे ठीक करने के लिए क्या करना चाहिए। तो मैं मनोचिकित्सक से मिली। उसने कहा, "ओह सोनल! ऐसा लगता है तुम्हारे मन में बहुत सारे ख्याल हैं। और उनके बोझ से तुम थक चुकी हो। इसलिए मैं तुम्हें कुछ ऐसी दवाएँ दूंगी, जो विचारों को कम करेगी।"  मैं थोड़ा चौंक गई, "विचारों को कम करेगी, मतलब?" खैर मैंने दवाई लेनी शुरू की, और मेरी जिंदगी बदल गई। ये कुछ ऐसा था मानो आप लैपटॉप पर काम कर रहे हैं, और वहां 400 विंडोज खुली है। आप कभी इस विंडो पे जाते हो कभी उस विंडो पे। लेकिन फिर अचानक सेटिंग बदल जाती है और सिर्फ 10 विंडो खुले होते हैं। उस टाइम तक मैंने तनाव दूर करने के वही घिसे पिटे नुस्ख़े सुने थे- 'गहरी सांस लो', 'योग सीखो', 'तुम अपनी सोच पे क़ाबू कर सकते हो", वगैरह! लेकिन दवाई लेने के बाद मैं समझ चुकी थी कि मेरे जैसे इंसान के लिए बिना दवा के सोच को काबू करना मुमकिन ही नहीं था। वैसे तो कहा जाता है कि धीरे-धीरे दवाईयां बंद कर देनी चाहिए। लेकिन मैं ऐसे लोगों को भी जानती हूं जिनको शायद जिंदगी भर दवाई लेनी पड़े। आज मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैंने 10 साल पहले ही काउंसलर की बात मानकर दवाई लेना शुरू कर दिया होता, तो शायद ज़िन्दगी के ये 10 साल कुछ अलग ही होते। मुझे ऐसा लगता है कि मैंने जो खोया, वो सिर्फ इस वज़ह से, क्योंकि मैं अपने ख़्याल पर काबू नहीं कर पाई, खुलकर सांस नही ले पाई, अपने आप को वापस नहीं ला पाई। दवा के साथ-साथ और भी कई चीज़ें बदल जाती हैं। जैसे कि मुझे लगता है कि मेरे दिमाग की चीज़ें संभाल सकने की ताकत कम हो गई है। पहले मैं अपने दिमाग से 300 विंडो ऊपर-नीचे कर पाती थी, लेकिन अब ये नंबर काफी हो गया है। हालांकि हाँ, अब मैं उनको ज्यादा अच्छे से, ज्यादा मज़े से संभाल पाती हूँ। इससे मेरी जिंदगी बेहतर हुई है। अब जब भी मेरा मन बेचैन होता है, मैं दूसरों से इस बारे में बात कर पाती हूँ। मेरे पार्टनर और माता-पिता के साथ, यहां तक कि मेरा खुद का खुद के साथ जो रिलेशन था, वो बदल गया है।  इंडिया में जिस हिसाब से मेन्टल हेल्थ के प्रॉब्लम हैं, डॉक्टर 15-20 मिनट से ज्यादा नहीं लगाता है, और सीधे दवाई दे देता है। मैं लकी थी कि मेरे मनोचिकित्सक ने पहले कुछ घंटे मेरे मुद्दों को समझने में लगाये। फिर जाकर दवाई दी। मुझे पता है कि कभी-कभी आपको शायद दवा की जरूरत ना हो। कोई ज़बरदस्ती करे, वो भी ठीक नहीं है।  कभी-कभी पागलपन को लोगों के ख़िलाफ़ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। जैसे किसी को भी 'पागल' या 'मानसिक रूप से विकलांग' बोलकर उसका लेवल गिराया जा सकता है। लेकिन दवाई सचमुच आपके काम आ सकती है। और सच कहूं पारोमिता तो मैंने खुद से पहले किसी को भी इतने आराम से ये कहते नहीं सुना है कि हां मैं अपनी मेन्टल हेल्थ के लिए दवाई ले रही या रहा हूँ। मुझे याद है एक बार मैंने एक इंस्टाग्राम देखा था, जिसमें लिखा था कि अगर आप दवाई ले रहे हो, तो उसमें कोई शर्म की बात नहीं है। बस इतना ही देखा, और...! पा. वो.: तुम सही कह रही हो। चाहे थेरेपी हो, या काउन्सलिंग, या दवाईयां- हर किसी का इलाज़ एक तरीके से नहीं किया जा सकता है। और यही चीज़ बॉडी पर भी लागू होती है। कोई किसी इलाज़ से ठीक होता है तो कोई किसी और से। मुझे लगता है ये कोविड एक अलग ही तरीके से हमें इस सब के बारे में सोचने के लिए मज़बूर कर रहा है। ये ऐसी बीमारी है जो हर किसी पर अलग तरीके से असर कर रही है। अलग-अलग पॉपुलेशन के लिए इसके अलग-अलग रूप हैं। तो हमारे शरीर को भी अलग-अलग चीजों के लिए अलग-अलग इलाज़ की ज़रूरत हो सकती है। लेकिन अपने मेन्टल हेल्थ के इलाज़ की खोज़ खुद करना मुश्किल नहीं है? ए.ओ.आई पर ये भी पढ़ें:
  1. मेन्टल हेल्थ संबंधी अक्सर पूछे जाने वाले सवाल, आपके कुछ खास अपने सवाल, आपकी दुविधा... जिनके ज़वाब एक मनोवैज्ञानिक ने दिए हैं।
  2. मेन्टल हेल्थ रिसोर्स की लिस्ट
सो.ज्ञा.: एक सोच ऐसी भी है कि अपने मेन्टल हेल्थ के लिए पूरी तरह से मैं खुद जिम्मेदार हूँ। ये ऐसा सफर है जो मुझे मेरे थेरपिस्ट के साथ अकेले ही करना चाहिए। और ये भी, कि अपना ध्यान रखने के लिए खुद अकेले अपने अंदर झांककर देखना चाहिए।  सबसे पहले तो जो लोग मेन्टल हेल्थ के मुद्दों से जूझ रहे हैं, उनको मैं ये कहना चाहूंगी कि ठीक है, खुद पर ज़्यादा बोझ मत डालो। हमारे मेन्टल हेल्थ चैलेंज सिर्फ हमारी जिम्मेदारी नहीं हैं, बल्कि उसकी एक सामूहिक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। इस दुनिया को और हेल्थी बनाने के लिए, हम सबको मेन्टल हेल्थ केअर वालों के साथ काम करना चाहिए। ऑफिस पॉलिसी हो या सोशल पॉलिसी, सब पर मेहनत करनी चाहिए। क्योंकि हम एक ऐसी दुनियां में रह रहे हैं जो दरअसल बीमार है। आप यहां अच्छे से सेट हो गए हो, इसका मतलब ये नहीं कि आप बिलकुल ठीक हो। हमारे आस-पास का पूरा माहौल हमारे लिए किसी न किसी तरह के तनाव पैदा करेगा। अब अगर आप किसी ऐसे समाज में रहते हो, जो कि आपको समान नहीं समझता है या आप उसके बनाये नियम के खिलाफ़ जाते हो- पॉलिटिकल या किसी और तरीके से भी, तो तनाव तो पैदा होगा ही। पर इसके लिए खुद को गुनहगार मान लेना गलत है। समझो कि ये एक इको-सिस्टम (ecosystem- यहां सिस्टम के सारे हिस्से एक दूसरे पे निर्भर हैं) है, और आप उसमें योगदान दे रहे हैं।  खुद पर काम करना बहुत ज़रूरी है। एक अच्छे, पेशेवर मेन्टल हेल्थ थेरेपिस्ट के पास जाने से मदद मिलती है। इसके अलावा हमें अपने समुदायों से भी सपोर्ट लेना चाहिए। और समुदाय से मेरा मतलब सिर्फ एल.जी.बी.टी. समुदाय नहीं है, बल्कि हमारे बनाये गए दूसरे समुदाय! चाहे वो हमारी औरतों वाली मंडली हो या कि सोशियल समुदाय। मैंने देखा है कि लोग अपने हेल्थ को बेहतर करने के लिए आध्यात्मिकता और धर्म का इस्तेमाल भी करते हैं। तो सबसे जरूरी ये है, कि आप ये समझ पाओ कि आपके लिए कौन सा नुस्ख़ा काम कर रहा है। दूसरी कुछ चीज़ें जिनसे मुझे मदद मिली है, वो है म्यूज़िक और आर्ट। लोगों की डाक्यूमेंट्री और बायोग्राफी देखने से मुझे ये पता चला, कि मेरी जिंदगी में दोस्त नहीं थे, तब हिस्ट्री के पन्नों से ऐसे साथी मिले जिनकी कहानी मेरी कहानी से मिलती थी। जब काउन्सलिंग नहीं था, तो लोग इन मुद्दों के बारे में कैसे बात करते थे? जी हां, कहानियों से!  पा.वो.: कोरिया के इंटरनेट पे स्ट्रीम करने वाले ड्रामा। कोरिया के ड्रामा! मुझे एक बार ये कहना ही था।   सो.ज्ञा.: हाँ। तो खुलकर रहो, आज़ाद! खूब पढ़ो, दोस्तों से और बातें करो, और ऐसे दोस्त बनाओ जो आपके साथ ईमानदार रहें। मेरे लिये जो सबसे जरूरी चीज रही है, वो ये कि मैं धीरे-धीरे और संवेदनशील होना सीखूँ। धीरे-धीरे ऐसी निर्णय की शक्ति बना लूँ कि बिंदास कह सकूं- "ठीक है, ये मेरे से नहीं होगा," या "इसके लिए मुझे किसी की मदद चाहिए।"  "क्या आप इसमें मेरा सपोर्ट करोगे?"  धीरे-धीरे आगे बढ़ने से मुझे और मजबूत होने का मौका मिला है। पा.वो.: तुमने यहां जो कहा है, दरअसल वो मेन्टल हेल्थ का एक अहम नया पहलू है।  जिसे हम मनोसामाजिक (psychosocial) स्थिति कहते हैं। यानी ऐसा नहीं है कि हमारा मेन्टल हेल्थ हमारे आसपास की दुनिया से अलग है।  बल्कि, हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जो जेंडर, जाति, सेकशुआलिटी और  सफलता की सीढ़ियों पर सबको खड़ा करती है और आंकती है। और इस परीक्षा से हमें अकेले ही निपटना पड़ता है। मुझे लगता है कि तुम ये कहना चाह रही हो कि आर्ट कई अलग-अलग अवस्थाओं को एहमियत देती है। आर्ट हमारे दुःख को भी कीमती कर देती है।   आर्ट हमारी भावनाओं को शुद्ध करती है। सो.ज्ञा.: और इसलिए कभी-कभी एक काउन्सलिंग रूम भी वो असर नहीं कर पाता है, जो कि शायद एक गाना कर दे। पा.वो.: हाँ, और एक दिल के करीब तक जाने आर्ट, हमारी भावनाओं का आईना ही तो होता है।  मैं उन चीजों के बारे में भी सोच रही हूं जो तुमने अभी बताईं। वो जेंडर पहचान या सेकशुआलिटी, जाति या वर्ग, जिसे समाज से अलग समझा जाता है। या वैसे जॉब/काम, जिनको नीची नज़र से देखा जाता है। ये सब हमें नाख़ुश करते हैं और धीरे-धीरे हमारे हेल्थ पर भी असर करते हैं।  इसलिए, हम सबको ये समझना चाहिए कि यहां दो चीजें साथ-साथ चलती हैं। हमें उन समुदायों को ढूंढना है जो हमारी कद्र करें। किसी पॉलिटिकल वादों की फांस में फंसकर उनको ना चुनें, बल्कि समुदायों की असली पॉलिटिक्स में घुसकर देखें कि वहां आपकी क्या ज़गह है। वो आपको खास समझें और आपकी मदद करें।  ये बहुत अच्छी बात है कि तुम अपने मुश्किल अनुभवों के बारे में खुलकर पब्लिक में बात कर रही हो। बहुत कम लोग ही ऐसा कर पाते हैं। आज जिस तरह से लोग मासिक धर्म के बारे में नॉर्मल तरीके से बात करते हैं, मुझे लगता है हमें मेन्टल हेल्थ मेडिकेशन और थेरेपी को भी उस जगह तक पहुंचाना चाहिए। और आसानी से ये कहने की हिम्मत होनी चाहिए कि "मुझे अभी अपने थेरेपिस्ट के पास जाना है" या "मैंने अपनी दवाई बदली है इसलिए कुछ अच्छा फील नहीं हो रहा है, क्या मुझे कुछ दिन की छुट्टी मिल सकती है!" इन चीज़ों को नार्मल बनाने के लिए और खुद में अच्छा फील करने के लिए हम सबको साथ मिलकर काम करना पड़ेगा। इसलिए, थैंक यू! पूरा इंटरव्यू यहां देखें: https://www.instagram.com/tv/CGNAfKbJOAy/?utm_medium=copy_link
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