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मानसिक स्वास्थ्य पर कुछ फंडे और अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

मानसिक स्वस्थ्य पर कुछ समान्य सवालों के सरल जवाब !

मानसिक स्वास्थ्य या मेंटल हेल्थ के क्षेत्र में काम करने वाले प्रोफ़ेशनल्ज़ को बोलचाल की भाषा में श्रिंक कहा जाता है। हमारी तनावपूर्ण ज़िंदगी कई बार हमारी भावनाओं पे असर करती है l मेंटल हेल्थ प्रोफ़ेशनल हमें इन चुनौतियों का सामना करने और हमारे मेंटल हेल्थ को बनाए रखने में मदद करते हैं। अलग अलग तरह के मेंटल हेल्थ प्रोफ़ेशनल होते हैं, जैसे:
  • साइकीएट्रिस्ट या मनश्चिकित्सक की MBBS और मनश्चिकित्सा में MD की डिग्रियाँ होती हैं। उनकी इन डिग्रियों की मदद से वे यह तय कर सकते हैं कि किसी शख़्स को कौनसी मानसिक बीमारी हुई है। वह उस मानसिक बीमारी के लिए दवाइयाँ लिखकर देते हैं और अक्सर अस्पताल में या ख़ुद की प्राइवेट प्रैक्टिस में काम करते हैं।
 
  •  क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की क्लिनिकल साइकोलॉजी ( clinical psychology) में MPhil की डिग्री होती है। वे किसी की मनोवैज्ञानिक जाँच करवा सकते हैं, ये भी तय कर सकते हैं कि कौनसी मानसिक बीमारी हुई है और  थेरपी एक ख़ास तरीके से बातचीत के ज़रिये चिकित्सा भी दे सकते हैं। लेकिन वे दवाइयाँ लिखकर नहीं दे सकते। वे अस्पताल में या ख़ुद की प्राइवेट प्रैक्टिस में काम कर सकते हैं।
 
  •  काउंसलिंग (यानी ख़ास तरह से बातचीत के ज़रिये चिकित्सा देने वाले) साइकोलॉजिस्ट की काउंसलिंग साइकोलॉजी ( counselling psychology) में MA की डिग्री होती है या उस विषय में विशेष डिप्लोमा होता है। जो लोग अपनी भावनाओं के साथ जूझते हैं और जिन्हें उनपर क़ाबू नहीं होता, वे काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट की मदद ले सकते हैं। यह भी दवाइयाँ लिखकर नहीं देते। वे या तो किसी मानसिक स्वास्थ्य के संस्था में काम कर सकते हैं या ख़ुद की प्राइवेट प्रैक्टिस चला सकते हैं।
 
  • मेंटल हेल्थ सोशल वर्कर की ‘सोशल वर्क’ या ‘समाज सेवा’ में डिग्री होती है जिसके अंतर्गत वो मेंटल हेल्थ से जुड़े मामलों में विशेषज्ञता पाती/पाता है। ये समुदायों के साथ काम करते हैं और लोगों को ये समझने में मदद करते हैं कि सामाजिक परिस्तिथियों और सांस्कृतिक मुद्दों का किस तरह से एक इंसान पे दिमागी असर हो सकता है । वे लोगों तक मेन्टल हेल्थ सेवाएं पहुंचाने में भी मदद करते हैं ।
  जैसे अलग अलग डॉक्टर अलग अलग बीमारियों का इलाज करते हैं, वैसे ही साइकोलॉजिस्ट भी अलग क़िस्म के हो सकते हैं।
  •  बच्चों के साइकोलॉजिस्ट ख़ास यह सीखते हैं कि बच्चों और टीनेजर की मदद कैसी करनी है ।
 
  •  साइकोलॉजिस्ट ख़ास तौर पर कपल और ख़ानदान के सदस्यों को थेरपी कैसे देनी है, इसकी ट्रेनिंग ले सकते हैं।
 
  • ऐसे थेरपिस्ट भी होते हैं जो सीखते हैं, कि कैसे लोगों को संवेदनशील रूप से सदमों में से निकलने की मदद की जाए। सदमे के कारण आने वाली तीव्र भावनाओं से निपटने में भी वे इन लोगों की मदद करते हैं।
 
  • कुछ थेरपिस्ट LGBTQIA+ समुदाय के लोगों के साथ काम करने की शिक्षा पाते हैं। ये थेरपिस्ट इस समुदाय के लोगों की विशिष्ट चिंताएँ और पीड़ाएँ समझते हैं।
 
  •  जो लोग चाहते हैं कि बात करने के अलावा भी किसी क़िस्म की थेरपी हो, वो एक्सप्रेसिव आर्टज़ थेरपिस्ट( expressive art therapist) से मिल सकते हैं। ऐसे थेरपिस्ट पेंटिंग, नाच, नाटक या गाने, यानी कला के माध्यम से लोगों को थेरपी दिलाकर उनकी मदद करते हैं।
  डीकॉलोनायज़ेशन (decolonial approach - केवल पश्चिमी तौर तरीकों और ज्ञान को सबसे सही न मान के,  सन्दर्भों के आधार पे ज्ञान और  समझ के अन्य तरीकों को भी अपनाना) ऑफ़ थेरपी से हम यह बात जानते हैं कि हमारे अनुभवों के अलावा, हम जिस सामाजिक सन्दर्भ से आते हैं, उस का भी हमारी भावनाओं पर असर होता है। ऐसी थेरपी में थेरपिस्ट समझती है कि हर संस्कृति,  परंपरा और उनके सिद्धांत हमारे विचार और अनुभवों पर असर कर जाते हैं। ठीक होने की प्रक्रिया पर भी इनका असर होता है। अमरीका में रहने वाले एक भारतीय नागरिक और एक अमरीकी नागरिक का उदाहरण ले लीजिए। भारतीय नागरिक के संघर्ष अमरीकी नागरिक से अलग होंगे l  इसलिए असरदार होने के लिए, दोनों की चिकित्सा में ये फर्क समझने होंगे और हर एक को उसके सन्दर्भ के अनुसार चिकित्सा देनी होगी । हमारा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य जेंडर, लैंगिकता, जाति, वर्ण, धर्म, नस्ल और राष्ट्रीयता जैसे कुछ संदर्भों पर आधारित है। इन संदर्भों का हमारे ठीक होने की प्रक्रिया पर भी असर होता है।   हम उदास तब होते हैं जब कोई चीज़ हमारी इच्छानुसार नहीं होती या अगर कोई और चीज़ या  शख़्स हमें हताश कर देता है । हमें बुरा लगता है। लेकिन यह उदासी अक्सर थोड़ी देर बाद चली जाती है। दूसरी ओर, डिप्रेशन कई दिनों तक लगातार चलता है। जब हम डिप्रेस्ड  होते हैं तब ऐसे लगता है कि उदासी का काला घना बादल सदा हमारे सर पर मंडरा रहा है। वह सभी जगह हमारा पीछा करता है। इसकी वजह से हम अपने बारे में, अपने सगे संबंधियों के बारे में और दुनिया भर के बारे में बुरा, हताश और नेगेटिव महसूस करते हैं। एंग्ज़ायटी और बहुत ज़्यादा चिंता करना भी कुछ ऐसे ही है - एंग्ज़ायटी की वजह से हम लगातार चिंतित रहते हैं और इसलिए हमेशा सतर्क रहते हैं। मन में ये कल्पना करते रहते हैं कि कुछ बुरा होने वाला है, ‘अगर ऐसा हुआ तो मैं क्या करूंगा…’। लगातार बुरे हालातों के बारे में सोच- सोचकर हम पूरी तरह से थक जाते हैं।   जब नशीले पदार्थों की बात छेड़ी जाती है तब ज़्यादातर लोग असंवेदनशील और आलोचनात्मक बन जाते हैं। इसलिए किसी और को अपनी आदत के बारे में बताना  मुश्किल हो जाता है। कई लोग यह नहीं समझते कि इन पदार्थों की बुरी आदत किसी सदमे, दूसरों की लापरवाही या किसी मुश्किल भावनात्मक अनुभव की वजह से शुरू हो सकती है। इसलिए, थेरपी का माहौल एक ऐसी सुरक्षित जगह है जहां आपकी थेरेपिस्ट समझती है कि आपकी ज़िंदगी में पोषण और देखभाल की कमी की वजह से आपको शायद ऐसे लगता है कि आपके अंदर कोई खाली जगह है, जो इन पदार्थों को लेने से, थोड़ी देर के लिए भर जाती है। थेरपी के दौरान जब आप इन भावनाओं के बारे में बात करती हो, तब ख़ुद को स्वीकार करना और ख़ुद के साथ दयालु होना और आसान हो जाता है। आप समझ जाते हो कि  ये आपकी व्यक्तिगत कमी नहीं है, जिसकी वजह से आपको ये लत लग गयी। दूसरे लोग भले ही इसके बाद भी यह बात ना समझें, पर आप इस बात को गहराई से  जान लोगे और अपने आप को कोसना छोड़ दोगे,  ख़ुद की आलोचना नहीं करोगे।   गूगल पर आप अपने मानसिक स्वास्थ से जुड़ा कोई भी टेस्ट लेंगे तो वो आपको नतीजा भी देगा| पर यह ज़रूरी नहीं कि वो नतीजा सही हो| ऐसे टेस्ट का कोई आधार नहीं होता है| और यह आपकी मदद कम और नुकसान ज़्यादा पहुँचा सकता है| हम समझते हैं कि किसी मानसिक चिकिस्त्सक या सायकोलोजिस्ट के पास जाना महँगा होता है| पर अगर जरूरत पड़े तो गूगल डॉक्टर बनने से अच्छा है, किसी असली डॉक्टर से मिलें| इन्टरनेट से जानकारी हासिल करें , इलाज नहीं   उनके व्यवहार के बदलने से कभी कभी हमें ये इशारा मिलता है कि वो किसी मानसिक परेशानी से जूझ रहे हैं| खाना-पीना, सोना, मिलना-जुलना, सब में बदलाव आ जाता है | यह जानने के लिए कि समस्या कितनी गम्भीर है , किसी साईकायट्रिस्ट या क्लिनिकल सायकोलिजिस्ट के पास जाना आवश्यक होता है|   हम इसमें कैसे मदद कर सकते हैं?अक्सर लोग समाज के डर से, लोगों को खुल के अपनी मानसिक परेशानियों के बारे में नहीं बताते हैं| कि कहीं लोग उनकी मानसिक परेशानियों के बारे में जान के, उनसे पीछे न हटने लगें | क्यूंकि लोग अक्सर ऐसा करते हैं l जबकि इस कठिन समय में हमें उनके साथ हमदर्दी से पेश आना चाहिए| और जान पहचान के किसी अच्छे मानसिक चिकित्सक के पास ले जाना चाहिए   थेरेपिस्ट अपनी प्रैक्टिस शुरू करने के पहले काफ़ी स्पेशल ट्रेनिंग से गुज़रते हैंशायद ये एक वजह हो सकती है| थेरेपी की फ़ीस 50 रुपये से लेकर 4000 रुपये तक जा सकती है| पर यह मत सोच कर चलिए कि आप थेरेपी/चिकित्सक सलाह अफोर्ड नहीं कर सकते हैंबहुत सारे थेरेपिस्ट और संस्थायें हैं, जो थेरेपी फ्री में देते हैं| या अलग अलग लोगों की आर्थिक हालत के अनुसार अलग फीस लेते हैं |या फिर आपके पास जितने पैसे हैं आप उतना ही पे कर सकते हैं| ये समझना भी ज़रूरी है, कि पैसे थेरेपी की क्वालिटी नहीं तय करता है एक तगड़ी फीस का मतलब यह नहीं कि वो बेहतर थेरेपी है| इसका यह भी मतलब हो सकता है कि वो थेरेपिस्ट के पास कई सालों का अनुभव है या उनकी पढ़ाई और उनका काम किसी बहुत ख़ास किस्म की थेरेपी में है l   अगर आप बालिग़/एडल्ट नहीं हैं, और आपको लगता है कि आपको थेरेपी की ज़रुरत है,  तो आपको परेशान होने की ज़रुरत नहींशुरुआत में शायद आपको थेरेपी में जाने के लिए अपने माता पिता की अनुमति लग सकती है(वो इसलिए क्योंकि आप पैसों के लिए तो उन पर ही निर्भर हैं )| पर उनका आपके सेशंस में बैठना ज़रूरी नहीं है| अगर मामला बहुत गंभीर हो, तभी उनको बुलाया जा सकता है| जैसे अगर आप खुद को या किसी और को किसी तरह की हानि पहुंचाने की सोच रहे हों, तो|  आपके अविभावक/ गार्डियन होने के नाते उनको शायद यही बात साईंन करके जमा करनी होगी| पर इसका मतलब यह नहीं कि वो आपके थेरेपिस्ट से आपके सीक्रेट्स या आपकी निजी बातें पूछ सकते हैं| वो बातें आपके थेरेपिस्ट के पास सेफ रहेंगी |     कोविड के प्रकोप के कारण अब थेरेपी ज़्यादातर ऑनलाइन ही होती है| उसके भी अपने फायदे और नुकसान हैं| जो लोग ट्रेवल कर  थेरेपिस्ट के पास खुद जा कर सलाह नहीं ले सकते, या कतराते हैं , उनके लिए ऑनलाइन से ये सब थोड़ा आसान हो सकता है| पर चूंकि हम आमने सामने एक रूम में बात नहीं कर रहे होते हैं, तो कभी कभी इसमें निजीपन कम लगता है| पर आपका थेरेपिस्ट इस बात का पूरा ख्याल रखेगा कि ऑनलाइन के हालात में भी, आप अपनी बात करने में सेफ महसूस करें|     खुद का ख्याल रखने का मतलब है, अपने लिए समय निकाल कर, खुद की देख रेख करना| खुद के प्रति दयालु होना| हर दिन की गहमा गहमी में हम हम अपने दिमाग को आराम देना भूल जाते हैं| मानसिक स्वास्थ शारीरिक स्वास्थ की तरह नहीं है, अक्सर बाहर से दिखता ही नहीं | पर दोनों को ही बराबर देखभाल की ज़रुरत होती है| इसकी देखभाल करना बहुत आसान भी है| ढंग का खाना खाने से, पूरी नींद होने से, एक्सरसाइज करने से, अपना मनपसंद गाना सुनने से, ज़रुरत की मात्रा में पानी पीने से, सोशल मीडिया और काम से ब्रेक लेकर अपने परिवार और चाह्नों वालों के साथ समय बिताने से, आप खुद का ख्याल रख सकते हैं| ऐसा करने से आप अपनी भावनाओं का ख़याल करना सीखते हैं, अपने से सहानुभूति रखना सीखते हैं | जो हम अक्सर भूल जाते हैं    सोशल मीडिया और हमारे मानसिक स्वास्थ का अजीब रिश्ता है| सोशल मीडिया कभी हमारा मनोरंजन करता है, उत्साह से भरी बातें बताता है, सही दिशा की ओर प्रेरित करता है| तो कभी दिमाग का दही बना डालता है| आप जब भी सोशल मीडिया पर लोगों के पोस्ट्स देखें तो याद रखें कि अक्सर सारे लोग सोशल मीडिया पे, दुनिया के सामने, अपना सबसे खूबसूरत चेहरा प्रस्तुत कर रहे हैं| आप उन एकाउंट्स या लोगों को फॉलो करें, जो आपको प्रेरित करते हैं, आपको खुद के बारे में अच्छा महसूस कराते हैं और आपका मनोरंजन करते हैं| उससे आपकी दिमाग की शांति बनी रहेगी| उन टॉपिक्स को फॉलो करें जो आपको ज्ञान दें, ना कि उनको जो दिमाग को परेशान कर दें| इसका मतलब यह नहीं कि  आप राजनैतिक और सामाजिक असलियतों से बिल्कुल ही बेखबर रहें| इनके बारे में जानकारी रखें, पर उनके बारे में पढ़-पढ़  कर खुद को लाचार ना समझें|    जब ऐसा लगता है कि हमारा कोई लक्ष्य नहीं है, तो इस फीलिंग से मन अक्सर बहुत भारी होने लगता है l ऐसा भारीपन ,जिससे हमारी सारी खुशी दबने लगती है| जब ऐसा फ़ील हो तो सबसे ज़रूरी बात याद रखनी चाहिए कि ये सब एक बुरा समय है, ज़रूर गुज़र जाएगा, बीत जाएगा| ऐसी सोच रखने से आप खुद को आगे बढ़ने के लिए आशा की किरण दिखाते हैं | आपको कोई बहुत तूफानी काम नहीं करना है| एक छोटा सा लक्ष्य हो सकता है, जैसे अपने लिए एक छोटा सा पौधा खरीदना और फिर उसका ध्यान रखने का निश्चय करना| उस उगते हुए पौधे की देख रेख करना आपको अच्छा फ़ील करा सकता है| कम से कम कुछ देर के लिए ही सही| इस बहाने आप खुद की भी देखभाल करना शुरू कर सकते हैं| क्योंकि आपके ऊपर एक पौधे की ज़िम्मेदारी है| छोटी छोटी बूंदों से ही आशा का घड़ा भरता है| दूसरे लोगों के लिए, दूसरी चीज़ें काम आती हैं| कुछ लोगों के लिए उनके पालतू जानवर का ख्याल रखना उनकी ज़िन्दगी का लक्ष्य बन जाता है| कुछ लोगों के लिए अगली सुबह उम्मीद की किरण ला सकती है| थेरेपी की मदद से आपका दर्द कम हो सकता है, और वो घाव भर भी सकते हैं | आपके अन्दर उम्मीद की किरण धीरे धीरे जग सकती है|     हर समय खुश रहना नामुमकिन होता है| हमारे इमोशंस लहरों की तरह होते हैं| वो कभी ऊपर और कभी नीचे होते रहते हैं| पर याद रखो कि वो हमेशा गुज़र भी जाते हैं | हर वक्त खुश रहने की जद्दोजहद में आप बाकी के इमोशंस कैसे फ़ील करोगे? एक स्वस्थ दिमाग की निशानी होती है, आपके अन्दर उठने वाले सभी प्रकार के इमोशंस को समझना, फील करना| और जो इमोशंस थोड़े भारी होते हैं, उन्हें संभल कर समझना| बदलते इमोशंस तो ज़िन्दगी का हिस्सा हैं| इस बात को मान लेने से आपका मानसिक स्वास्थ बेहतर रहेगा|    ट्रौमा ( trauma) कोई एक भीषण घटना या कई घटनाओं के कारण हो सकता है| इसका असर आपके इमोशंस और मानसिक स्वास्थ पर पड़ता है| किसी का ट्रौमा बड़ा छोटा नहीं होता है, इसकी तुलना नहीं करनी चाहिए | यह आपकी ज़िन्दगी का  एक हादसा हो सकता है, जिसने आपकी ज़िन्दगी बदल दी | या हादसे जितनी बड़ी नहीं, पर लगातार होने वाली बातें, जो गहरा असर छोड़ती हैं, जैसे बार बार दिल का टूटना, माता पिता का आपको नज़रअंदाज़ करना, आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचना... ऐसी घटनाओं से भी ट्रौमा  हो सकता है|  बचपन में हुए ऐसे हादसों को हम कई बार भूल जाते हैं| क्योंकि यह बहुत दर्द भरे होते हैं| बेचैनी, ज़रुरत से ज़्यादा चौकन्ना होना, डिप्रेशन, बचपन की यादें, बॉडी में दर्द, किसी चीज़ पे ध्यान न दे पाना, ड्रग्स की लत लगना, इत्यादि... ट्रौमा के लक्षण होते हैं|   अपने आस पास के लोगों में अगर हमें ये लक्षण दिखें और हम इन्हें पहचान पाएं, तो हम उनकी मदद कर सकते हैं|  अपने खुद के लक्षणों को पहचान कर,  हम थेरेपी के द्वारा, अपने ट्रौमा का बेहतर तरीके से सामना कर सकते हैं| और उससे जुड़े हमारे इमोशंस को अच्छे से समझ सकते हैं|     
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