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मेरा पहला स्कूल-वाला क्रश

पहली प्यार की एक जादुई विशेषता है, वो एक ख़्वाब जैसा है; हवा में उड़ती किसी जादुई धूल जैसा।

पहली बार प्यार हो जाने के बारे में एक बात यह है कि आपको उस पल के बारे में इतना कुछ याद नहीं रहता। संवेदनाओं और भावनाओं और रंगों का वह एक धुंधला सा मिश्रण है । नीयान रंग के ढेर सारे धब्बे और मकोड़े भी इसका हिस्सा हैं, आपको बहुत ज़्यादा चक्कर दिलाने वाले, लेकिन बढ़िया ढंग से। आगे जाकर मन उन खाली जगहों को भर देता है जो भावनाओं की उठती लहरों में खो जाती हैं।  मन अब उनकी जगह, संभावनाओं को भर देता है कि अगर ऐसा हुआ होता तो कैसा होता। पर इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं है। प्यार की एक जादुई विशेषता है, वो एक ख़्वाब जैसा है; हवा में उड़ती किसी जादुई धूल जैसा। कांपती हुई, कमज़ोर अपाहिज उँगलियाँ; जबकि आम तौर पर आप बड़ी निपुणता से हाथ चलाते हो। बेमतलब शब्द, जबकि आम तौर पर आप शायरों जैसी बात करते हो। यह बहुत पेचीदा बात है; भावुक पीड़ा का आप सामना कर सकते हो, लेकिन पूरी तरह से स्वास्थ्य शरीर में शारीरिक वेदनाओं का आना ख़ौफ़नाक हो सकता है। लेकिन प्यार वही करता है। सच में, सिर्फ उसका एक ख़याल काफ़ी है, आपके शरीर को उस ख़याल के   नियंत्रण में लाने के लिए, आप पर उसका हावी हो जाने के लिए। मुझे मेरी चहेती पेंसिल याद है, वह हलके हरे रंग की थी। सच कहें तो थोड़ा ज़्यादा ही हलका रंग, और बहुत ज़्यादा हरा भी नहीं। वह इतने अच्छे से चलती भी नहीं थी, बीच शब्द में ही टूट जाती और सहजता से लिखती नहीं थी। सच कहें, तो वह अपने काम में बिलकुल ख़राब थी। मैं शायद चौथी कक्षा में थी, मेरे बाल मैंने बहुत ज़्यादा खींचकर पीछे कसे थे, एक लंबी चोटी में। मेरे बाल अच्छे थे, मेरी माँ और उसकी ज़िद की वजह से उनमें हरदम तेल लगा हुआ रहता था। प्यार तो भूल जाओ, मुझे तो ज़ुबान और व्याकरण की भी कोई जानकारी नहीं थी। मैं उस उम्र की थी जिसमें बालों या कपड़ो के साथ कुछ प्रयोग करने की आप कोई ज़रुरत नहीं समझते हो। जो कपड़ो के ढेर के ऊपर पड़ा हुआ है वही आप पहन लेते हो। जो मन चाहे वह कर लेते हो। और बस, सिर्फ जीना काफ़ी होता है। यह ऐसी उम्र है जहां आपको प्यार के बारे में कुछ पता नहीं होता। आप अक्सर किसी की ओर के खिंचाव को प्यार समझ बैठते हो। अगर देखा जाए, तो प्यार का सिद्धांत, कायनात की दीवारों पर इतने भव्य रूप से और रूमानी रूप से चित्रित किया गया है, कि बच्चे उत्सुक हो जाते हैं, भय से भरे। “यह प्यार क्या है?” “यह प्यार कौन है?” और चूँकि ज़्यादातर उसका जवाब आसानी से दिखता नहीं है, हम कहते हैं, “वह लड़का प्यार है।” मेरे ख़याल से मैंने क्लास की नोटबुक के सिलवटदार पिछले पन्ने का एक हिस्सा फाड़ दिया। जो करीब करीब पूरा मेरे हारे हुए ‘समुद्री और पार’ गेम के चिन्हों से भरा हुआ था, जिन्हें बचाते हुए मुझे कागज़ फाड़ना पड़ा। फिर मैंने कुछ यूं लिखा, “मुझे तुम पसंद हो” और वो भी पूर्ण विराम के बगैर, जैसे कि वह ख़याल मुझे सिर्फ तभी के तभी आया था। एक अनिर्णायक, अनिश्चित, अचानक, टूटा हुआ लेकिन अर्थपूर्ण, सच्चा और मासूम ख़याल। बस वही था। मुझे याद है वह छोटा सा कागज़ मोड़ते हुए, और उसे उस लड़के की लकड़ी की मेज़ में रखते हुए जो मेरी मेज़ से तीन फ़ीट की दूरी पर थी। वह एक छोटे से सफ़ेद सिलवटदार कागज़ जैसे था, फेंकने लायक। कोई दूसरा इंसान उस कागज़ को नज़रअंदाज़ कर देता और समझता कि वह फेंकने लायक चीज़ है। लेकिन, वो कोई ऐसा वैसा इंसान थोड़े ही था। मुझे वह मेज़ साफ़ याद है, गहरी भूरी, जो सूर्य की रोशनी में और भावनाओं के बवंडर में करीब करीब महोगनी जैसे दिख रही थी। चमकती सतहें और हलका भूरा रंग, अंदर से खुरदुरा जिस कारण लगता था कि उसपर काम अधूरा छोड़ दिया गया था। जैसे कि सिर्फ बाहर का हिस्सा मायने रखता था। लकिन उस उम्र में, बड़े दुर्भाग्यवश यही सच था। मुझे यकीन है कि अगर आपने उसे अचानक पूछा होता कि उसके बगल में कौन बैठा करती थी, उसे वह चमकते मुँह और गंदे, छिले हुए हाथों वाली लड़की याद नहीं आती - बहुत ज़्यादा बाहर खेलने के कारण गंदे हाथ। मुझे याद है साथ में किताबें पढ़ने के लिए मैं रुकी रहती, एक साथ प्रोजेक्ट करने के लिए और ऐसा कुछ भी करने के लिए जिस कारण उसे अपनी मेज़ मेरी मेज़ के करीब सरकानी पड़ती, ताकि शायद से मैं उसकी आँखों में झाँक सकूं और उसकी छोटी सी नाक देख सकूं। और सबसे ज़्यादा, मुझे अपने छोटे पेट में ढेर सारी तितलियों का एहसास याद है, जब उसे मेज़ मेरी ओर ढकेलनी पड़ी। कुछ तीन मिनट बाद, मेरी साफ़ बेवक़ूफ़ी और बेशर्मी की क्रिया की गंभीरता को मैं अचानक समझ गई। उसकी मेज़ के अंदर मैं वह कागज़ देख सकती थी, जिसकी ओर उसने ध्यान तक नहीं दिया था, बेपरवाह होने के नाते। वह मेरी उल्टी दिशा में मेज़ के ऊपर मुड़कर बैठा हुआ था, कुछ दोस्तों से बात करते हुए, जब मैंने उछलकर उसकी मेज़ से वह कागज़ निकाला। मुझे याद है कि कैसे वह मेरे हाथों में बहुत ज़्यादा वज़नदार लग रहा था। मुझे याद है कि उसकी आँखें चंद लम्हों के लिए मेरी ओर मुड़ी, और फिर वह ना देखने की अवस्था पर लौट गई। ध्यान ना देने की। मेरे नारंगी यूनिफार्म की जेब में मैंने वह कागज़ डाल दिया। उसे मैंने फिर तब देखा जब मेरा यूनिफार्म धुलाई से वापस आया, पहले जैसे स्वच्छ और सफ़ेद, एकदम नया - कोई हरे धब्बे नहीं। मेरी रूमानी दुर्घटना के सभी निशान मिटे हुए, जैसे कि वह कभी हुई ही नहीं। जैसे कि वह सब मेरी कल्पना थी। कुछ रातों मैं इस याद को चुनौती भी देती हूँ। मुझे यकीन है कि वह घटना नहीं हुई। किसी और रात वह सब कुछ इतना साफ़ दिखाई पड़ता है, मानो कल ही की तो बात हो। मुझे पीछे मुड़कर देखना, मेरे मासूम अवतार की ओर देखकर थोड़ा खिलखिलाना पसंद है, कैसे प्यार आज़माने के लिए आतुर। “अगर मैंने वह कागज़ उधर ही छोड़ा होता, तो क्या होता?” मैं सोचती हूँ। फिर मेरा मन फटाफट उस मुकाम से लौटने को याद करता है। फिर मैं सोचती हूँ, सो तो होना ही था, चूँकि वह प्यार नहीं था।था क्या ?
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