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दिल गूगल-गूगल हो गया या कैसे ब्रेक अप के बाद इंटरनेट पर छुप के मैं उसका पीछा करती रही

यह टूटे हुए रिश्ते से आगे बढ़ना है नहीं आसान। मैं एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट पे स्क्रोल करती, उस खोए हुए प्यार की झलक की तलाश में।

 "हम सिर्फ़ एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं, प्यार भी एक बार करते हैं, और फिर छुप  कर...पीछे लगे रहते हैं" । जब भी मेरे जीवन में कुछ महत्वपूर्ण घटता है, तो शाह रुख खान का कोई डायलॉग मेरे दिमाग के किसी कोने में गूँजने लगता है। शाह रुख खान ने मुझे सिखाया कि प्यार करना, उसे खोना, और उसके लिय तड़पना ठीक था। (मैं शाह रुख खान की कही हर बात मानती हूँ). वह अपनी पारो को, परछाईयों में छुपा हुआ, दूर से देखता था  - ज़िंदा था, पर सिर्फ़ नाम के वास्ते। अपनी मोहब्बत के लिए उसकी ज़हरीली तृष्णा को मैं  बहुत खूब समझती थी। २०१२ में मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसे देखकरमेरे दिल की धड़कनें तेज़ हो जातीं थीं। मुझे उससे प्यार हो गया और मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि इस सोने मुंड़े को भी मुझसे प्यार था। मम्मी ने भी काफ़ी बार हमें चाय पे बुलाया। सब ठीक चल रहा था, जब एक दिन हमारी प्रेम कहानी में प्रियंका की एंट्री हो गई। वह मेरी कॉलेज की सहपाठी थी। मुझे मालूम था कि वह अक्षय पर फ़िदा थी, लेकिन अक्षय और मैं उस समय डे़ट नहीं कर रहे थे, इसलिए मुझे अपनी जलन को छुपाना पड़ा। तो जब अक्षय और मैं डे़ट करने लगे, उसका प्रियंका से बात करना मुझे ठीक नहीं लगता। पर मैं उस पे भरोसा करती थी और हर दिन उसकी संगत की मदहोशी में बिताती थी । एक दिन, उसने मुझसे कहा कि वह प्रियंका से प्यार करता है। मैं बस भौचक्का उसे ताकती रही।मैं क्या कहती? जब आप के जीवन का सच्चा प्यार ही आपसे कह दे कि वह आपसे प्यार नहीं करता, तो आप बोल भी क्या सकते हैं? मुझे पता था कि उसे खुश रखने के लिए मेरा उसके साथ ब्रेकअप करना ज़रूरी था। "जा सिमरन, जी ले अपनी ज़िंदगी”। मगर मेरी ज़िंदगी का क्या? उसके ना होने ने मेरे जीवन में एक खालीपन पैदा कर दिया था। ब्रेकअप करना तो एक बात थी, लेकिन उसको जाने देना? वह तो एक अलग ही जंग थी। मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती कि मुझे उसकी कितनी याद आती थी। उसके जाने के बाद मैंने  उसकी मौजूदगी उसकी फेस बुक प्रोफाइल में ढूंढी। हर रोज़, सुबह उठते ही, मैं सबसे पहले उसे स्टॉक (इंटरनेट पे किसी पर निगरानी रखना, उनकी हरकतों को ट्रैक करना) करती/उसकी प्रोफ़ाईल चेक करती। उसकी फ़ेसबुक की तस्वीरों के द्वारा मैं उसकी मौजूदगी के एहसास को जिंदा रखने की कोशिश करती।   पर अब वह भूत भी मेरी आँखों के सामने अपने रंग बदल रहा था। अक्षय को पहले कभी सोश्यल मीडिया के कीड़े ने नहीं काटा था। लेकिन प्रियंका के साथ यह सब बदल गया। हमारे ब्रेक अप के कुछ हफ़्तों बाद ही, उसने प्रियंका के साथ फ़ेसबुक पर अपनी सेल्फ़ीज़ डाली, और उनमें #प्यार और #खुशी के हॅशटॅग उभर कर मेरी तरफ़ आ रहे थे। यह देखकर मैं बिल्कुल टूट गई। उसने मेरे साथ तो कभी तस्वीरें इंटरनेट पे नहीं डाली थी ना? क्या उसने मुझसे कभी #प्यार नहीं किया था? क्या मैंने कभी उसे #खुशी नहीं दी थी/क्या उसने मेरे साथ कभी #खुशी अनुभव नहीं की थी? आखिर मैं इस दर्दनाक नतीजे पे पहुँची - मैं इतनी खास थी ही नहीं "उड़ने की बात परिंदे करते हैं, उसके टूटे हुए पर नहीं" । पर किसी वजह से इस बात ने उसके लिए मेरी तड़प को और हवा दे दी। यह टूटे हुए रिश्ते से आगे बढ़ना है नहीं आसान। मैं एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट पे स्क्रोल करती, उस खोए हुए प्यार की झलक की तलाश में। ऐसे, जैसे कि, स्क्रोल डाउन करके, हमारे साथ बिताए हुए वक्त को फ़िर से जीकर, मैं सचमुच समय की सुई को पीछे कर सकती थी। जैसे कि ऐसा करने से मेरा अकेलापन कम हो जाता। मैंने उसके सोश्यल फ़ीड में पनाह ले ली थी, मेरे लिए यह सच्चाई से बचने का एक तरीका था । लेकिन मेरा दिल अब भी तन्हा था। एक दिन, उसकी इंस्टाग्रॅम फ़ीड़ पे मेरी स्क्रोलिंग मॅराथॉन के दौरान, मैंने गलती से उसकी और प्रियंका की तस्वीर को 'लाईक' कर दिया। मैं इतनी घबरा गई कि मैंने अपना फ़ोन ही फ़ेंक दिया, और उस चक्कर में वह टूट गया। मुझे इस बात की कम चिंता थी कि मैंने अपना फ़ोन तोड़ दिया था - लेकिन टूटे हुए फ़ोन का मतलब था कि अब मैं उस तस्वीर को 'अनलाईक' नहीं कर सकती थी और वह मेरे 'लाईक' को देख सकता था। उस हादसे के बाद, दो दिनों के लिए, मैं उसकी प्रोफ़ाईल से दूर रही। मैंने अपना फ़ोन भी वापस स्विच ऑन नहीं किया। मैं इतनी शर्मिंदा थी कि मैंने उन दो दिनों में किसी से फ़ोन पर बात भी नहीं की। मैं बस बिस्तर में पड़े रोती रही। इस बात के बारे में सोचने से बचने के लिए, मैं टीवी से चिपकी रही। यह बात क्या कम बुरी थी कि उसने मुझे किसी दूसरी औरत के लिए छोड़ दिया था, अब ऊपर से उसे यह भी मालूम हो गया था कि मैं उसके जीवन पर नज़र रख रही थी और उसका सोशय्ल मीडिया पे पीछा कर रही थी। काश मैं वहीं रुक गई होती? अपनी भावनाओं से बचने के लिए, अब मुझपर एक नया जुनून सवार हो गया था - प्रियंका। उसकी प्रोफ़ाईल पर मैंने अपना नया डेरा जमा दिया। प-प-प-प्रियंका मेरी क-क-क-किरन बन गई थी। जब उसकी तस्वीरों पर बस चंद 'लाईक' आते, मुझे बहुत खुशी होती। उसकी अनाकर्षक तस्वीरों को देख मैं बेरहमी से हँसती। वह जो भी करती, मैं उसकी तुलना खुद से करने लगती। उसे समुद्र तट पसंद थे, तो मुझे उनसे नफ़रत थी। उसे अच्छे से तैयार होने का शौक था, मुझे नफ़रत। मैं सोचने लगी क्या अक्षय ने मुझे इसी वजह से छोड़ा था। क्योंकि उसे कोई ऐसी लड़की पसंद थी, जो उसके लिए तैयार होती, मेक-अप लगाना जानती थी, और फ़ैशन को समझती थी। शायद उसकी आँखों में मुझ में लड़कीपन की कमी थी। प्रियंका को स्टॉक करते हुए मेरे आत्मविश्वास ने बहुत बुरी चोट खाई। उसको स्टॉक करने के बाद, मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार मेक-अप लगाया। नतीजा काफ़ी हद तक 'कुछ कुछ होता है' में अंजली के मेक-अप करने की अजीब और असफ़ल कोशिश की तरह था। आखिर मैं बार्बी डॉल जैसी टीना के साथ मुकाबला कैसे कर सकती थी? महीने बीत गए। जैसे ही मैं अपने आप को दर्द की यह दैनिक खुराक देते हुए थकने लगती, इंटरनेट दौड़ता हुआ मेरे पास आता, मुझे उसकी मौजूदगी की याद दिलाने के लिए। हमारे आपसी दोस्त हमें पोस्ट्स में टैग करते, कुछ दोस्त मज़ाक मज़ाक में पुरानी तस्वीरें ढूँढ निकालते, किसी आपसी मज़ाक में । लेकिन सबसे ज़्यादा, खुश जोड़ों के द्वारा पोस्ट की हुई तस्वीरें मुझमें अक्षय की प्रोफ़ाईल फ़िर से देखने की चिंगारी भड़कातीं। लगता तो यूँ था कि कायनात मुझे उसकी ऑनलाइन मौजूदगी की तरफ़ बार-बार भागने के लिए बढ़ावा दे रही थी, जबकि  वह मेरे अंदर ज़हर भर रही थी। "किसी चीज़ को अगर पूरे दिल से चाहो तो सारी कायनात तुम्हें उससे मिलाने की कोशिश में लग जाती है।” शुक्रिया, कायनात। मुझे इसकी बिल्कुल ज़रूरत नहीं थी। हर बार जब मैं उसे ऑनलाइन स्टॉक करती, बहुत रोती। दर्द बर्दाश्त के बाहर था। इससे मेरे काम पे भी असर हुआ, क्योंकि मैं काम के दौरान भी उसे बैठ कर गूगल करती। उसके बाद, मैं काम कर ही नहीं पाती। यह सब एक साल तक चला। यह एक ऐसी जगह पहुँच गया, जहाँ मेरे पास इस बरताव को धीरे - धीरे रोकने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा।  मैं उसकी खुश्नुमा जीवन से अपने दुखी जीवन की तुलना करते-करते थक चुकी थी। उस शारीरिक हानि से थक चुकी थी जो मुझे मेरे इस बरताव से पहुँच रही थी - मेरी आँखों के नीचे काले घेरे थे और मेरा चेहरा मुंहासों से भर गया था। मैं थक कर चूर हो गई थी। मुझे पता है कि यह सब सिर्फ़ मेरी अंतहीन इंटरनेट की स्क्रोलिंग की वजह से नहीं हुआ था, मेरा दिल का टूटना मुख्य वजह थी। लेकिन स्क्रोलिंग एक नशे की तरह था जिसके दुष्प्रभाव मेरे पूरे जीवन पर होने लगे थे। आख़िर बेइन्तहा थकान मेरे रुकने की वजह बनी। जैसे-जैसे मैंने स्टॉकिंग से नाता तोड़ा, वैसे-वैसे मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया। मैं कसरत करने लगी और नये दोस्तों से मिलने लगी।माना कि एक लड़के ने मुझे डेट ना करने का फ़ैसला किया था, इसका मतलब यह नहीं था कि मुझमें कोई कमी थी। मेरी माँ और बहन - और उनके लगातार  स्नेह - ने भी मेरी सहायता की। माँ की नज़रों से यह बात छुपी नहीं थी कि मैं दुखी थी, लेकिन हमारा रिश्ता कभी इतना खुला नहीं था। लेकिन वह जानती थीं, जैसे माँओं को हमेशा पता होता है, कि मैं एक बुरे और कठिन वक्त से गुज़र रही थी। मेरे ब्रेक-अप के पहले कुछ महीनों में, माँ ने मेरा पसंदीदा खाना बनाया - कचौड़ी, कांदा पोहा, फ़िश करी, और रसमलाई। यही एक तरीका था जिससे मैं ठीक तरह से, पेट भर के खाना खाने को राज़ी होती। उन्होंने मेरा शारीरिक रूप से ध्यान रखा ताकि मैं मानसिक रूप से बेहतर होने पे अपना ध्यान केंद्रित कर सकती। दीदी को पूरी कहानी मालूम थी क्योंकि वह मेरी सबसे अच्छी सहेली है। वह मेरे साथ समय बिताने के लिए काम से घर जल्दी आ जाती। जिन दिनों मैं हौसला खो कर रोने लगती, वह मुझे अपनी बाहों में समेट लेती। वह मुझे फ़िल्मों के लिए बाहर ले जाती। जब माँ के धैर्य का बाँध टूटने लगता, तब दीदी सुलह करने के लिए खुद ही हमारे बीच आ जाती। आखिर में, मैं अक्षय के लिए कम बेचैन रहने लगी, उसकी तलाश भी कम करने लगी। मैं समझ गई कि मैंने अक्षय को तो खोया था, लेकिन उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि मैंने अपने आत्मविश्वास को खो दिया था। मेरी उसके लिए तड़प अपने आप ही कम होने लगी। मेरी 'सर्च हिस्टरी' ने आखिर अक्षय का नाम दिखाना बंद कर दिया। जब मैं पीछे मुड़ कर देखती हूँ, मुझे लगता है कि मैं इस परिस्थिति को थोड़े अलग तरीके से संभाल सकती थी। लेकिन यह तो मैं आज एक स्वस्थ-चित्त होने की वजह से कह पा रही हूँ, उस समय तो पागलपन सवार था। कभी-कभी, जब मैं इसके बारे में अकेले बैठ कर सोचती, तो मुझे अजीब लगता कि मैंने यह सब इतनी बेशर्मी से किया था। असल में, विचित्र लगता है। मैं अब बिल्कुल बदल चुकी हूँ। लेकिन अब मुझे लगता है कि जब मेरा मानसिक स्वास्थ खतरे में था, तब आत्मसम्मान का कुछ महत्च नहीं था। मैं वापस यह गूगल-वाला पागलपन नहीं करूँगी क्योंकि अब मैं समझदार हो गई हूँ। लेकिन मैंने जो भी किया, मैं उसके लिए शर्मिंदगी महसूस करने से इंकार करती हूँ।   मेरी ज़हरीली गूगलिंग ने मुझे यह समझने में मदद की , कि हाँ, मैंने एक ऐसे व्यक्ति को खो दिया था जिससे मैं प्यार करती थी, लेकिन बदले में मैंने खुद को भी तो पा लिया था। "कभी-कभी जीतने के लिए कुछ हारना भी पड़ता है...और हार कर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं" । अनुराधा डिसूज़ा एक शेफ और बेकर हैं। उनको बड़े बन पसंद हैं और वो झूठ नहीं बोल सकतीं।
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