2008 की बात है, मैं अभी अभी 20 की हुई थी। हाल ही में मेरा भयंकर ब्रेक अप हुआ था और उस हादसे से जूझने के लिए मैंने पक्का इरादा किया कि
1) मैं काम में डूबी रहूँगी और दोस्तों के साथ भी बहुत वक्त बिताऊँगी
2) लड़कों से दूरी रखूँगी, कम से कम अगले दो तीन साल तक। मुझे यूँ लगा कि मैंने बहुत झेल लिया था! ।
मैंने ऐसी नौकरी ढूँढ ली, जिसमें मेरा काफ़ी समय लग जाता, और बचा हुआ समय मैं दोस्तों के साथ बिताती। मैं खुश रहने लगी, यूँ लगने लगा कि मेरा भी महत्व है, थोड़ा यूँ भी लगने लगा कि मैं अजय हूँ, मुझे कोई परेशान नहीं कर सकता।
बहुत सही था! मैंने फिर ऐसा भी कुछ किया जिससे मैं खुद चौंक गई। मैं लड़कों के साथ ‘हुक-अप’ करने लगी!
खूब। दाएँ, बाएँ, सीधे (ये इस बात की बारंबारता का सूचक है, मैं किस रफ़्तार से आकस्मिक रिश्तों में आ-जा रही थी)। मेरा ये रूप मेरे लिए नया था, पहचाना हुआ नहीं था। छोटे शहर की निर्लज, निडर सबला, जो ज़्यादा सोचने से इन्कार कर देती और बस उस पल में जीती- ये नया, नशीला अनुभव था।
अपने दोस्तों के इर्द गिर्द मेरा भावनात्मक जीवन परिपूर्ण लगता था। लड़कों से मुझे पुष्टि मिलती। मेरी मौज थी- मैं 2008 को अपने चक्करों का सिलसिला मानती हूँ।
आकस्मिक रिश्तों में प्रवेश करना आसान था। मैं काम पर बहुत लोगों से मिल रही थी, नये दोस्त बना रही थी।मैं ऐसे लड़कों से मिलती जो मुझे पसंद करते, मेरे साथ वक़्त बिताना चाहते। हम एक दूसरे को अपने नंबर देते, रात रात बात करते ।
और जब हो सके, लोट लिपट करते।एक समय ऐसा था जब मैं ऐसे दो लड़कों के साथ ‘हुक अप’ कर रही थी, जो आस पास की बिल्डिंग में रहते थे। एक साथ नहीं, लेकिन एक ही समय में। मुझे इस बात की मस्ती चढ़ी थी ।
एक और दफ़ा मैं एक ऐसे लड़के के साथ 'रिश्ते' में थी जिसका मन मुझ से शादी करने का था।वो कुंडली इत्यादि मिलाना चाहता था। मैं बस बातचीत और शारीरिक स्पर्श चाहती थी ! वास्तव में, और साफ़ शब्दों में बात कहूँ तो बातचीत से मेरा मतलब है कि मैं चाहती थी कि वो मुझसे बात करने की ज़रूरत महसूस करें।
मैंने कभी फोन नहीं किया। फोन कॉल लिए।और शरीरक स्पर्श से मेरा मतलब है, मैंने कभी संभोग नहीं चाहा।
मैं बस स्लो गियर वाली लोट लपट की इजाज़त देती।
मेरे लिए संभोग नहीं करना एक किस्म की सुरक्षा का सूचक था। मुझे अपने किसी पसंदीदा इंसान के साथ, चार दीवारों में बंद रहना क़ुबूल था, पर इतना नहीं कि मैं अपने शारीरिक स्वकीय का आखरी परदा गिरा दूँ।
कहीं दिमाग़ के कोने में, ऐसा करने से, मैं अपनी भावनाओं को उस सन्दर्भ में निवेशित नहीं कर रही थी।
मुझमें डर था कि ऐसी अंतरंगता की अनुमति दे देने पर, मेरा वो -'कूल गर्ल- जिसे किसी की ज़रूरत नहीं है'- वाला दिखावटी रूप घुल के गायब हो जाएगा। अब मुड़ के देखती हूँ तो लगता है की मेरा वो ‘हुक अप’ करने का दौर आकस्मिक पार्टनर ढूँढने के बारे में कम, और अपने को सत्ता वान महसूस करने के बारे में ज़्यादा था। कि दूसरों को मेरी ज़रूरत पड़े, पर मैं हमेशा उनकी पहुँच के थोड़े बाहर रहूँ। पहले फ़ोन करने से मैं ज़रूरतमंद साबित होती। संभोग कर लेती तो मेरे रहस्यमय रूप के सब भेद खुल जाते। पुरुषों से ध्यान पाने से मुझे बहुत बल मिलता। उनकी अपेक्षाओं से खिलवाड़ करने से, और भी। और चूंकि 'हुक अप' के कोई निर्धारित नियम नहीं हैं, अक्सर आकस्मिक्/ कॅषुयल और सीरीयस की लक्ष्मण रेखाएँ धुंधली पड़ जातीं। ऐसा होते ही, मैं वहाँ से भाग लेती।
मैं किसी भी कीमत में अपने को उस स्तिथि में नहीं छोड़ना चाहती थी। मैं किसी पर भी भरोसा करके अपनी भावनाओं का निवेश नहीं करना चाहती थी.. जो कि ठीक ही है, नहीं? ये अपनी 'चौईस' का मामला है, नहीं?
पर अगर मैं वाकई अपने अंदर झाँक कर देखूँ- मुझे लगता है, ये एक हद तक ठीक था, और फिर नहीं। ये ठीक नहीं था कि मैं औरों की भावनाओं का इज़्ज़त नहीं करती थी। कि मैं किसी के चोट लगने को अहमियत नहीं देती थी। मैं मानती हूँ कि उसे अहमियत देने से मामला सुलझ नहीं जाता, शायद और उलझ ही जाता, और चोट- चोट आख़िर चोट होती है। फिर भी इंसानियत ने नाते, दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना और- दिल से किया हुआ काम होता । ऐसा करने से, मैं किसी रिश्ते का हिस्सा होने का उत्तरदायित्व तो लेती।
अब, इतने सालों बाद, मैं अपने आप से पूछती हूँ, क्या मेरा वो व्यवहार मेरे उस बड़े 'ब्रेक अप' से जूझने का तरीका था? अपनी भावनाओं को आश्रित रखने के चक्कर में, मैंने शायद कई लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाई। पर मैं अपने आप से कई बार ये सवाल करती हूँ कि मुझे औरों को मेरे लिए तड़पते देख कर कोई चैन मिलता था क्या, सिर्फ़ इसलिए की मैं भी किसी के दुख में घायल थी? मेरा बर्ताव काफ़ी हद तक एक अपहरक का बर्ताव था। इस वास्तविकता का बोध होता है तो मैं अपने किए पर काँप जाती हूँ। मेरे 'हुक अप' का ये अंतराल करीब एक साल चला।
मुझे कोई ऐसा मिला जिसे मैं बहुत चाहती थी और उसपर भरोसा भी करने लगी। हमने कुछ साल डेटिंग की और अब शादी शुदा हैं। अब मैं इस बात को एक सरल से द्विवर्ण में नहीं बाँटना चाहती- जिसमें मैं विलेन हूँ और वो सब, मेरे शिकार। बात और पेचीदा है। पर हाँ, मैं अपने ग़लतियों की ज़िम्मेदारी लेना चाहती हूँ। अपनी लापरवाही और संवेदना की कमी के लिए।
किसी के साथ सच में अंतरंग होने का मतलब है अपने सारी वेदनाएँ, कमज़ोरियाँ, और अनिर्विघनता- ‘इनसेक्यूरिटी’- का खुलासा कर देना। ऐसे में, फिसलना आसान है, क्योंकि इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि दूसरा आपके खुलासे को कैसे समझेगा।मेरी इस एक दोस्त को एक बार एक लड़के ने कहा
" तुम्हेंवजन घटाना चाहिए"। मुझे एक बार कहा गया कि मैं "भावनाओं के एक कीचड़" में पड़ी हुई थी , और 'वो सुलझी हुई' लड़की नहीं थी जिसका उसने मुझे जान कर अनुमान लगाया था ।
ऐसे अनुभव हम में से अच्छे -अच्छों को औरों के प्रति रूखा बना देते हैं । पर भला ही ( छुप छुप कर) लोग इस रूखेपन और निंदक मिजाज़ को कितना ही निहारें, ऐसा मिजाज़ आपको उन सब मीठे पलों के अनुभव से वंचित ररखेगा, जो जीवन आपके सामने पेश करता है । मैं सोचती हूँ, बिन बंधन के रिश्ते बढ़िया हैं! कुछ लोगों के लिए वो ही काफ़ी हैं, कुछ औरों के लिए ये जीवन के सफ़र का सिर्फ़ एक मकाम होते हैं। जिसको जो भाए, सो अच्छा । अगर आज वाली 'मैं' उस और जवान 'मैं' को सलाह दे पाती, मैं उससे कहती, मज़े लेते रहो । नये लोगों से मिलो, सुरक्षित यौन संबंध बनाओ और यादें बनाओ । पर हर शख़्स की इज़्ज़त करो और किसी पर बिना सोचे समझे ग़लत राय बनाने के जाल में ना फँसना । ऐसे रिश्ते ढालना जो परस्पर सम्मान की नींव पर खड़े हों, चाहे वो बहुत छोटे समय के लिए ही बनाए गये हों । और सबसे बड़ी बात, चोट खाने से मत डरना। तुम अपने आप को फिर से संभाल सकोगे ।
ईला बंगलोर में रहती है। उसे पढ़ना पसंद है और दिन में तारे गिनना।
मेरा वो साल, चक्करों का सिलसिला था
मैं किसी पर भी भरोसा करके अपनी भावनाओं का निवेश नहीं करना चाहती थी.. जो कि ठीक ही है, नहीं? ये अपनी 'चौईस' का मामला है, नहीं?
लेखन: ईला
चित्रण: देबस्मिता दास
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