ऐसा कब था आखिरी बार कि आपकी किसी ने ऐसी तारीफ की थी कि आपको याद रहे? मेरी की थी एक लड़के ने जिससे मेरा टिंडर पे मैच हुआ था। सात साल, तीन बार दिल टूटने के बाद , और एक रिश्ता खत्म होने के बाद भी किसी की की गयी तारीफ उसका मुकाबला नहीं कर सकती।
टिंडर पे उसकी फोटो सबसे अलग थी क्यूंकि उसमे वो किसी गाँव में था, ऐसा लाग रहा था उसको अपने जड़ों से जुड़े रहने की चाह है। लेकिन उसके बायो से लग रहा था वो एकदम शहरी बाबू है , जो अपने जोश से पूरी दुनिया पे कब्ज़ा कर ले।
बहुत ही खूबसूरत भ्रम था या मैं फिर से किसी ऐसी इंसान के साथ प्यार में डूबने की कल्पना कर रही थी जो अंत में मुझे निराश ही करने वाला था।
हम बारिश के दिन मिले। वो- लम्बा , बहुत ही ज़्यादा हैंडसम , सुलझा हुआ। मैं - छोटी , खूबसूरत ( बिलकुल ) , उलझी हुई। ऐसा नहीं था कि मैं घबरा रही थी। बारिश का दिन था , यानी फर्श आम दिन के मुकाबले ज़्यादा फ़िसलाऊं था जिसका मतलब था कि उसकी वजह से मैं अपनी बैसाखी के साथ फिसल सकती थी। लेकिन अपने उस डेट पे फिसलने के बाद।
उसे मेरी विकलांगता का पता था। लेकिन वह पहली चीज़ नहीं थी जो उसको मेरे बारे में पता चली थी। मैं खुद से पूछती रही कि क्या यही वो वजह से जिससे वो मेरे प्रति आकर्षित हुआ। वो शाम अच्छी कॉफ़ी और बेहतरीन बात चीत के नाम थी। मुझे याद है हमने काम के बारे में बात की , फिर मौसम के , और फिर पुणे के ट्रैफिक के बारे में। वही इधर उधर की बातें। फिर हमने बात की कि कैसे हम एक चक्रव्यूह में फसें हुए है जिससे हम बाहर ही नहीं निकलना चाहते। उससे बाहर निकलना तब आसान होगा जब हमें एक सही इंसान मिलेगा और उस इंसान का मिलना कितना मुश्किल है। क्या ? क्या वो मेरे लिए कोई इशारा था ?
खैर, चलने का समय हो गया था और समय हो गया था मेरी कल्पनाओं पे पानी फिरना का। एक महीने पहले मेरे काम करने वाला पैर भी टूट गया था। अभी कुछ दिन पहले ही मेरी कास्ट को निकला गया था। और बारिश हो रही थी। इसका मतलब था बाहर मुझे आम के मुकाबले दुगने सहारे की ज़रुरत थी।क्या मुझे नहीं पता था कि इस विकलांगों के प्रति भेद भाव करने वाली दुनिया में खुद को और भी ज़्यादा मजबूर पाऊँगी ? मुझे पता था। क्या मुझे लगा इसी कोई फर्क नहीं पड़ेगा ? हाँ।
इसमें मेरी कोई गलती नहीं है कि मुझे ऐसा नहीं लगा। हम जैसे ही मैच हुए , हम बस तीन तीन तक लगातार बिना किसी ब्रेक के बस अपने फ़ोन से चिपके ही रहे। तभी उसने मुझसे वो शब्द कहे जो अभी भी मुझे मुस्कराहट दे जातें है। ' तुम बस कुछ और ही हो , तुम्हे पता है ? '
हाँ शायद मैं सच में कुछ और ही थी। और शायद हमेशा ही कुछ और रहूंगी इस विकलांगो से भेद भाव करने वाली दुनिया में। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मिलने के कुछ दिन बाद ही हमारी बात चीत कम होने लगी। मुझे उसी समय लग गया था यह ज़्यादा दिन चलने वाला नहीं है , जब वो मुझे रिक्शा तक छोड़ने आया था। मेरे तरफ से कुछ 'हाय हेलो' और उसकी तरफ से कुछ सुस्त जवाब के बाद, मुझे लगा कि बस अब समय आ गया है कि मैं इस उम्मीद में बैठना बंद करूँ कि वो ' मिस्टर कुछ और ' होगा। और शायद , मैं उसको दोष भी नहीं दे सकती। बस इतना कर सकती हूँ , कि अगली बार जब वो मुझे दिखे , तो अपनी बैसाखी के साथ उससे टकरा जाऊं। एक लड़की सपने तो देख सकती है न ?
श्वेता मंत्री MBA , लेखिका , विकलांगो के प्रति भेद भाव के लिए आवाज़ उठाने वाली कार्यकर्ता , और स्टैंड -अप कॉमेडियन है। वो विकलांगो के हक़ के लिए ब्लॉग , फीचर , डॉक्यूमेंट्री , जागरूकता अभियान, आर्ट , और स्टैंड अप कॉमेडी के ज़रिये आवाज़ उठातीं है।