टिंडर पर डेटिंग... जी हाँ... आपने सही सुना! सतर्क, सावधान मुझे पता है कि टिंडर और ऑनलाइन डेटिंग में क्या होता है। लेकिन क्योंकि मैं हमेशा से ही रोमांस के रस की प्यासी रही हूँ और ऑक्सीजन की तरह उसे साँसों में भरकर जीती हूँ, मुझे इस ऑनलाइन डेटिंग का कांसेप्ट आर्कषक लगा । एक सदी पुरानी मैं, ऑनलाइन डेटिंग की दुनिया में, किसी विलुप्त हो रहे डायनासोर से शायद कम नहीं ।
सबसे पहली परेशानी ये थी कि ऑनलाइन डेटिंग की बदनाम गलियों में एक अंधी औरत आखिर टिकेगी कैसे! और दूसरी, जो हम सबके अस्तित्त्व पर सवाल उठाती है - एप्प का मिलनहार होना, वो आसानी से हमारी पहुँच में कहाँ है ।
मैंने एप्प को टटोला, कैसे काम करता है समझने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार! लेआउट/बनावट इतना अजीब था। पता ही नहीं चलता था कि आगे बढ़ने के लिए किस बटन को दबाने की ज़रूरत है।
हर कदम पर चुनौती, डर! फ़ोटो कैसे अपलोड होगा, बायो कैसे लिखना है, कुछ भी आसान नहीं लग रहा था। बिना लेबल वाले ढेर सारे बटनों से भरा हुआ एप्प। मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था कि किस बटन को दबाने से क्या होगा। टिंडर और दूसरा एप्प जिसका मैं इस्तेमाल करती थी, आइल/Aisle, दोनों की सेटअप प्रक्रिया इतनी मुश्किल है, कि उसी से पता चल जता है आगे कितना कुछ सिर के ऊपर से जाने वाला है। मुझे याद है मैंने इंडिया में प्रियंका चोपड़ा द्वारा प्रचारित फेमस एप्प 'बम्बल' भी ट्राय किया था। वो तो और भी गया-गुज़रा था ।
पहले स्क्रीन से बंदा दूसरे स्क्रीन पे कैसे जाए, स्क्रीन रीडर पर इसका कोई तरीका नहीं दिख रहा था। उनके फीडबैक वाले पेज पर काफी भड़ास निकाली, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। बस फिर, मेरी आँख से देख सकने वाली दोस्त, जो मेरे लिए महाभारत के संजय जैसी थी, उससे मदद ली।
उसने एप्प देखा और फिर मुझे उसका ब्यौरा दिया। और फिर साथ मिलकर हम इस पागलपन के तरीके समझने लगे। स्कूल जाती लड़कियों की तरह ठिठोली करते हुए, उस पेज पर पूरे दिलो जान से बैठे थे , जैसे बचपन की कोई 'गलत' हरकत करते । बचपन वाली हंसी यूं भी आ रही थी क्यूंकी उस इंटरनेट के पन्ने पे दिल टाइप के चीज़ें जो लगीं थीं । तभी मेरी दोस्त की 15 साल की बेटी, हमारे हाव-भाव को देखकर रुक नहीं पाई और पीछे से झांककर देखने लगी कि आखिर हम क्या खुरापात कर रहे हैं। देखरे ही कान फाड़ देने वाली चीख के साथ बोली… “टिंडर!!! आप दोनों जानते भी हो ये क्या है? ये एक डेटिंग ऐप है... इसपर क्या चाहिए आपको?"
उसका ऐसा बोलना था कि हम और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। बेचारी टीनएजर हैरान थी। वो समझ ही नहीं पा रही थी कि उसकी माँ और मासी, इस उम्र में, डेटिंग एप्प पर आख़िर करेंगी क्या! उसे क्या पता था कि वहाँ उसकी मासी के लिए रोमांच का पूरा स्टेज तैयार हो रहा था।
पूरा एक दिन उसे जानने-समझने के बाद, हमने उस एप्प को आज़माने का मन बना लिया। अब क्योंकि मेरी देख सकने वाली दोस्त इस काम में लगी थी, तो बस एक घंटे में सब सेटअप हो गया और मुझे किसी को पसंद, बहुत पसंद करने या प्रोफाइल पास करने के तरीके भी समझ में आ गए। इस सबके पहले उम्र और डिस्टेंस/(आपकी लोकेशन से कितनी दूरी तक हो वो लोग) की सेटिंग, भी हम भर चुके थे ।
आप सोच रहे होंगे कि बातचीत करने के लिए मैंने लोंगों का चुनाव कैसे किया होगा? रुको अभी हंसो मत... मैंने उनके नाम और उनकी उम्र देखी। अगर नाम दिलचस्प लगता तो बस, मैं आइकॉन दबाकर इंटरेस्ट ज़ाहिर कर देती। मुझे वैसे भी शक्ल-सूरत से क्या लेना-देना? अगर उस इंसान से बातचीत करने में ही मज़ा ना आए, तो उसका हसीन चेहरा और उसका व्यक्तित्व मेरे किस काम का!
अगर मैं किसी आंख वाले का सिर्फ ये बताने के लिए इंतज़ार करती कि कौन अच्छा दिखता है और कौन नहीं, फिर तो उम्र भर हाथ में मोबाइल लिए बैठी रहती। वो भी बिना किसी एक्शन के! ये प्रोफाइल मैच होने वाला कांसेप्ट भी तो नया था। ऐसे में फ़ोन पे अलर्ट की एक अलग तरह की आवाज़ सुन, मैं तो उछल ही पड़ी थी।
देखने पर पता चला, टिंडर से मैसेज आया था। क्या मैं चौंकी? अरे, बिल्कुल!हाँ, अपनी सारी दूसरी खूबियां बताने के बाद, मैं सबको अपने अंधेपन के बारे में बताती थी। लेकिन कभी किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। और जिन लोगों ने ध्यान दिया, उन्हें यक़ीन ही नहीं हुआ कि मैं जो कह रही थी, वो सच था। मैंने कहा था ना टिंडर के तरीके बहुत ही अजीब हैं? लोगों को ये लग रहा था कि शायद मैं मज़े के लिए बोल रही हूँ कि मैं अंधी हूँ। खुद को रहस्यमय दिखाने के लिए! हद हो गई !
खैर, आख़िर चैट विंडो पर मेरे साथ बात करने के लिए पहला इंसान तैयार तो हुआ। शुरुआत नाम-पहचान और आम हंसी-दिल्लगी से हुई। मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि इसी पड़ाव पे समझ में आ जाता है कि बात आगे बढ़ेगी या नहीं। कुछ तो इतनी पकाऊ बातें करते हैं और कुछ 20 सवाल का खेल खेलने लगते हैं। शुरू की कुछ बातचीत में बिल्कुल यही हुआ। कुछ फील ही नहीं हुआ। दोनों तरफ से घिसे पिटे शुरुआती सवाल, बस । जब जब और जिन-जिन के साथ बात यूं खत्म हुई, मेरे अंदर की घर व्यवस्थित रखने वाली आदत ने, ईसपे यही मानो कि छुटकारा पा लिया। आख़िर फ़ालतू में जगह भर कर क्यों रखना?
अब तक, किसी ने भी मेरी विकलांगता के बारे में बात नहीं की थी। और मैं हर दूसरी बात पे उस गाज़ के गिरने का इंतज़ार करती। किसी को लगेगा कि शायद उनको उस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता होगा, लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने मेरी प्रोफ़ाइल पर ध्यान ही नहीं दिया।
आख़िर बिजली गिरी... मैंने इस आदमी से बात करना शुरू किया जिसने प्रोफाइल पे ध्यान दिया और सीधे मेरे हालात पर सवाल पूछने लगा। मैं इसी का तो इंतजार कर रही थी क्योंकि इस टॉपिक पर तो मैंने पी.एच्.डी की थी। और जिनको इस बारे में समझना था, उनको समझाने में मैं माहिर थी। तो बात नियमित सवालों से शुरू हुई कि मैं कैसे टाइप कर फोन पर सवालों के जवाब दे रही थी। कैसे बिना देखे जिंदगी जी पा रही थी... मेरे लिए कुछ भी नया नहीं था। फिर बातचीत में आया एक विराम! उम्मीद तो थी, लेकिन वो विराम कुछ ज्यादा ही देर तक चला... और फिर उठती भावनाओं पर पड़ी ठंडे पानी की झाड़। "आप कमाल की औरत हैं। बहुत ही साहसी और प्रेरणा से भरी हुई"। क्या आपको गोल गोल चक्कर लेती मेरी बोर हो रही आँखों की आवाज़ आ रही है ?
लेकिन हां, कुछ पॉइंट तो बनाये उसने। बेचारे ने काफी कोशिश की अगले और कुछ दिन बातचीत करने की, लेकिन मेरी विकलांगता से आगे वो बढ़ ही नहीं सका। वो उन कुछ लोगों में से पहला था, जिसने मेरी विकलांगता के बारे में सुना और मुझे प्रशंसा के परवान पे चढ़ाया। एक ऐसी ऊंचाई पर, जहां से मुझे ना ही छुआ जा सकता था, और ना ही नीचे लाया जा सकता था।
खुलकर ईमानदारी से बोलूं तो मैं काफी निराश थी, सोचने लगी कि मुझ जैसी एक सक्षम अंधी महिला को कभी कोई डेट मिलेगा भी या नहीं। अब मैं उनमें से तो थी नहीं जो मौका मिलते ही बिना सोचे-समझे बाहर घूमने निकल पड़े। मैं सावधानी बरत रही थी। मुझे पता था कि ये रास्ता ढलान और फिसलन से भरा हुआ था। यहां कीचड़ में कई रेंगने वाले कीड़े थे, जिनसे मुझे बचना था।
फिर आया शादीशुदा मर्दों का दौर, जो "परिपक्व/मैच्युर बातचीत" की खोज में थे। अब ये क्या था? कुछ ने बताया कि वो उबाऊ और बेकार शादियों में फंसे थे और इसलिए साथी की तलाश कर रहे थे। और कुछ बस बात कर रहे थे क्योंकि मैं भी खाली थी। दिमाग से सोंचू तो हाँ, मुझे उनकी सब बातें समझ में आ रही थीं। और मैं ये सोचकर टाल रही थी कि ये उनकी अपनी पसंद है। हालांकि, पूरी औरत जाति की ओरा से उस समय बहुत गुस्सा आया था। ऐसे कई वाकयों के बाद, मुझे कुछ अच्छे लोग भी मिले। जिनसे मेरी मुलाकात हुई और जो मेरे अच्छे दोस्त बने। लेकिन डेटिंग, किसी के साथ नहीं।
टिंडर पर इतना टाइम बिताने और बेकार बातचीत के सिलसिले से थकने के बाद, मैंने दूसरे मुश्किल से समझ में आने वाले डेटिंग एप्प, आइल/Aisle को आज़माने का फैसला किया। यहां भी, कुछ लोगों से बातचीत की। जिनमें से अधिकांश तो दूसरी बार बात करने के लायक भी नहीं थे। ये सब सिर्फ तब तक, जब तक मैं किसी दिलचस्प इंसान से नहीं मिली।
तो आख़िरकार मिला एक इंसान जो मेरी भाषा बोलता था। उसके और मेरे स्वभाव में काफी समानता थी। वो एकदम से मुझसे बात करना चाहता था। मैं घबरा गई। सोच रही थी, इतनी जल्दी यहाँ तक कैसे पहुँच गई। देखो, पता तो मुझे सब है। लेकिन शक़ तो होगा ही ना कि भला कोई ये जानते हुए कि मैं अंधी हूं, आगे बातें किये जा रहा है। तब मुझे एक पुराने दोस्त (मर्द) की याद आयी जिसने एक बार मुझसे कहा था कि मर्दों को इस बात की परवाह नहीं होती कि जिस औरत के साथ वो शारीरिक संबंध बनाना चाहता है वो अंधी है या कुछ और। अब ये कोई अच्छी बात तो थी नहीं। क्योंकि मैं हुक-अप करने वालों में से नहीं थी। मुझे किसी ऐसे इंसान की तलाश थी जो दूर तक साथ चलने वाले रिश्ते की चाह रखता हो।
मैं एक मुश्किल शादी से निकली थी, जिससे उबरने में कई साल लग गए। हालांकि उस अनुभव ने मुझे रिश्तों को एक और मौका देने से नहीं रोका। विकलांगता ने मुझे अकेला कर दिया था और अपना सब कुछ किसी के साथ न बांट पाने के कारण, धीरे-धीरे जिंदगी के प्रति मेरा उत्साह ख़त्म होता जा रहा था। अपने आस-पास के लोगों को रिश्तों में पड़ते, एक साथ, एक जोड़े सा रहते देखकर, दुःख होता था।
शायद इस सोच ने ही मुझे उस आदमी से बात करने के लिए उकसाया। और जैसे ही मैंने बात शुरू की, लगा जैसे जिसका इंतज़ार था, वो वही था। वो हर समय-हर पल, जब भी हम काम ना कर रहे हों, बात करना चाहता था। मन का मोर नाच उठा। अंदर उम्मीद की वह छोटी सी चिंगारी फिर से जगमगा उठी। ऐसा नहीं था कि हर बार की तरह मैं सतर्क नहीं थी। लेकिन साथ के साथ मैंने खुद को इस रोमांच में डूबने दिया। वो मेरे साथ टाइम बिताने और चीज़ें जानने-समझने के लिए उड़कर मेरे शहर आ गया।
चूँकि मैं एक पारंपरिक ढांचे में रचे घर में रहती हूँ, जहाँ मेरे माता-पिता की राय मायने रखती थी, मुझे उनको इस बारे में थोड़ा-बहुत बताना पड़ा। हालांकि उनके रोकने से मैं कौन सा रुकती, मुझे तो उससे मिलने जाना ही था। उनको ये आश्वासन देते हुए कि मैं अपना पूरा ख़्याल रखूंगी, मैं उससे मिलने चल पड़ी।
थोड़ी देर के लिए तो मैं बिना सिर पैर की बातें कर रही थी। लेकिन फिर उसने मुझे कम्फ़र्टेबल कराया। मैं तो उस दिन किसी भी चीज़ के लिए तैयार होकर आयी थी। मैंने खुद को वो सब करने की आज़ादी दे दी थी जो मुझे सेफ लगता या जो मेरा दिल चाहता। बताओ, एक आदमी जो देख सकता है, वो दूसरे देश से उड़कर मेरे साथ, यानी एक अंधी औरत के साथ, टाइम बिताने आया था।उस समय बहुत बड़ी बात लगती थी। वो दो दिन बहुत अच्छे बीते - एक-दूसरे को जानते-समझते, थोड़ी-बहुत शारीरिक नज़दीकियों को महसूस करते और आने वाली कई मुलाकातों के वादे करते!
मेरे सचेत स्वभाव ने उसे पहले ही बता दिया कि मैं पहली मुलाकात में सेक्स नहीं करने वाली थी। बोलने के बाद मुझे खुद पर हंसी आयी, इस तरह की रोक-टोक पर। क्योंकि ज़ाहिर सी बात थी कि वो इतनी दूर सेक्स के लिए ही आया होगा । हां, बस सेक्स के लिए इतनी दूर आना कुछ ज़्यादा होता, लेकिन मुझे यक़ीन है कि उसने मुझमें ज़रूर ऐसा कुछ देखा होगा जिससे आकर्षित हुआ होगा।
हम दोनों ने ये ज़ाहिर किया था कि हमें शादी में कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन दोनों ही एक लंबे और समर्पित रिश्ते की तलाश में थे। जब उसका मेरा रिश्ता था, उस दौरान, मैंने रिश्तों के मनोविज्ञान और साथ के बारे में बहुत कुछ और पढा।
मेरे भीतर के किसी गहरे कोने से ये आवाज़ हमेशा आयी कि भाई सपना ही इतना सुंदर हो सकता है। ये अहसास सच होने में ज़्यादा टाइम नहीं लगा। उसका सफर कुछ यूं रहा, मेरे साथ शिफ्ट होने की चाह रखते -रखते, वो मुझे दूर जाता गया । मुझे घबराहट होने लगी, डर लगने लगा। अकेले रह जाने का खौफ़्फ़ फिर से उभर कर सामने आने लगा। अब ये दिल टूटने का पहला मौका तो नहीं था, लेकिन कोई अचानक से लाइफ से बाहर निकाल फेंके, तो दर्द तो होगा ही।
पहले वो अंतर्राष्ट्रीय छुट्टी की जगहों पे अपने यारों के साथ रहते हुए, मुझे किसी भी समय फोन करता, ज़ोर देता कि मैं उससे बात करूँ, और फिर धीरे धीरे वो सब कुछ बंद ही करने लगा । फोन कॉल कम होने लगे, और दूर दूर रहे और जब वो आखिरकार फोन करता, तो यही कहता कि बहुत व्यस्त है । मुझे याद है कि मेरे दिमाग में वो सारी चेतावनी चमक उठतीं, जिनके बारे में मैंने मनोविज्ञान में हाल ही में पढ़ा था । चेतावनी कहती कि आखिरकार वो मुझे अनदेखा ही कर देगा, जैसे कि मैं एक भूत हूँ, कोई सच्चाई नहीं । और यही हुआ । मैं ये नहीं कह सकती कि मैं चकित हुई । हाँ, बहुत दुखी, परेशान ।
तो मसला वही हुआ कि मैं लायक नहीं । मेरे अपाहिजता फिर से मेरे रिश्ते की संभावना के आड़े आ गई । बहुत समय तक बहुत दर्द हुआ, क्यूंकी हम दोनों एक दूसरे के चाँद से बन गए थे, एक दूसरे की धरतीयों के इर्द गिर्द कुछ चार महीनों से यूं ही मँडरा रहे थे । क्या मैंने गलत किया था ? एक और बार रिश्ते की उम्मीद में, अपने को यूं खुला छोड़ दिया ? जबकि मायूसी मिली ? इस बात की खुशी है कि मैंने अपने को बिलकुल नहीं कोसा, क्यूंकी मुझे पूरा यकीन था कि मैं इस राह पे क्यूँ निकली थी । तो ये तो तरक्की हुई । समझ गई कि इससे मन भर चुका था ।
अपने फोन पे लगे सारे डेटिंग अप्प्स तो मैंने अनिन्स्टाल कर डाले और सारे सबस्क्रिपशन डिलीट कर डाले और ये ठान ली कि अब मुझे ऑनलाइन आशिकों की खोज ही नहीं करनी । ऐसा लगा जैसे मैंने अपने को खुशी की उम्मीद से एक डोरी के बांधा हुआ था, जबकि वो खुशी मिलने का कोई चांस नहीं था । सो अब वो डोरी काट दी ।
इन कई सालों में, मैंने अपने साथ पे निर्भर रहना सीखा है ( चाहे मन कहे भी कि और साथ मिल जाता), मैं अपनी रोमांटिक किताबों में खुशी ढूंढ लेती हूँ, और उन किताबों के ज़रिये थोड़ी बहुत रोमांटिक ज़िंदगी के आनंद ले लेती हूँ । इस सबसे किसी का साथ होने की चाह तो नहीं मरी है, पर शायद मैं ये स्वीकार कर पायी हूँ कि शायद वाकई कभी कोई न हो ।
देखा जाये तो मैं किसी को ढूंढ पाने के लिए और कहाँ जा सकती हूँ ? जगहें पहुँच से दूर हैं, साथ के लिए करीबन कोई नहीं, और आगे का रास्ता काफी अकेला सा लगता है । जब मैं पढ़ती हूँ कि लोग इस बात से अचंभित होते हैं कि कोई बिना शारीरिक करीबी के, महीने निकाल देते हैं, (साल की बात तो करो भी मत)- तो मैं पढ़ के उस बात पे मुस्कुरा पड़ती हूँ, जिसे सिर्फ मैं जानती हूँ । इससे मैं एक दूसरे रस्ते पे निकल पड़ी- अपने को आनंद देने की खोज में । ऐसा नहीं कि ये रस्ता मेरे लिए अंजान था, पर हमेशा ये उम्मीद रही कि किसी के साथ साझा करने को मिलेगा । एक झप्पी, किसी दूसरे के बदन से मिलती मीठी गर्मी, और ये खबर कि अगले को भी मुझसे ऐसी ही नर्म गरम फीलिंग मिल रही है । तो फिर मैं सेक्स के खिलौनो/ सेक्स टोयीस की खोज में निकल पड़ी । उन दिनों वो इतनी आसानी से नहीं मिलते थे । और कोई विलायत जाने वाले से ये कहना कि प्लीज़ मेरे लिए ये खोज निकालना- मैं तो पूछते हुए ही लोटपोट हो जाती थी । लोग झेंप जाते, लाल पीले होके मना कर देते या थोड़े अचंभित हो जाते । ये सब करते मुझे कुछ मज़े भी आए । एक ऐसे बहादुर भी मिले जिंहोने अपने सामान में उस खियालौनों को, फलां ढिका का नाम देके, छिपा दिया, और मेरे लिए ले आए ।
जब मुझे पता चला कि ये खिलौने अब यहीं पे ऑनलाइन मिलने लगे हैं, तो मैंने काफी सारे अपने संग्रह में जोड़ दिये, और अब मैं अपनी ही खुशी पाने लगी हूँ । ऐसे किसी को ढूँढने की कोशिश, जो आपको अपने असल रूप में अपनाए, यानी ऐसे इंसान के रूप में जो विकलांगता के साथ जी रहा है, जो औरों की तरह, ज़िंदगी में हिस्सा लेने के काबिल है... ऐसे साथी को ढूँढने की कोशिश से तो बस टेंशन और निराशा मिलती हैं । उसका क्या फ़ायदा? अब मैं तो उनको ये नहीं कहने वाली कि मैंने अपनी आशाएँ अपने तक ही सीमित रखी हैं । और ये करते हुए मैं बिलकुल पक्के तौर पे कह सकती हूँ : मैं उन दूसरे मक़ामों पे गई हूँ, मैंने वो सब किया है और उस सब से सीखा भी है ।
विकलांगता पे सलाहकार और वक्ता, पायल विकलांगता के साथ जीने पे लिखती हैं । उनके रचे पॉडकेस, रसोई के रहस्य, पुरस्कृत रहा है । उन्हें पढ़ने से प्रेम है, वो अपनी रसोई में बड़े सारे प्रयोग करना और नई जगहों पे जाना पसंद करती हैं ।