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महिलाएं जो एक साथ स्नान करती हैं

सबसे पहले जो मैंने  मेरी आंटी के ब्रेस्ट देखे थे । हम तालाब में नहा रहे थे ।  जब साबुन लगाने के लिए, उन्होंने पानी से बाहर आकर, ध्यान से अपना मुंडू कस कर बांधा। ताकि वो दोबारा तैरने जा सके। तब मैंने खुद की सपाट छाती को देखकर उनकी छाती को देखते हुए, उन चीज़ों के बारे में सोचा, जो सपाट नहीं थीं  और मेरी समझ से भी बाहर थीं।

मुझे अभी भी यकीन है कि अम्मा ने अच्चा से शादी, केवल दादी के घर के चारों तरफ़ बिच्चे तालाबों में तैरने के लिए की थी। उनका छोटा सा घर था। शहर से दूर आमों के पेड़ों के बीच और तीन तालाब से घिरा हुआ। तभी तो  शादी के बाद, मेरे दादाजी वहां बस गए। और जबसे उनके तीनों बेटों की शादी तैराक लड़कियों से हुई, तो घर की औरतें  एक रीत निभाती चली आईं। कि सब साथ में तैरने जायेंगी। हँसेंगी-खेलेंगी और जब पानी के कारण आँख लाल होने लगें, तब मंदिर दर्शन को जायेंगी।

मैं उम्र में छः साल बड़ी अपनी चेची और बाकी औरतों के साथ तालाब तक जाती थी। मैं उस वक़्त छोटी थी। अम्मा ही मुझे नहलाती थी। मैं उनको और चेची को नहाते देखती। पानी की तेज़ धार और कभी कभार पानी वाले साँप, से मुझे बहुत डर लगता था। उस हरे तालाब के पानी में मैं जब भी पैर डालती, तो सारी मछलियाँ मेरा पैर सूंघने आ जातीं । पर मुझे चेची से थोड़ी जलन होती थी। वो पानी में गोता मारतीं और तालाब के दूसरे छोर पे, मुंह से पानी की फ़ुहारें मारती निकलतीं। 

और फ़िर थी ए। ए और मैं साथ साथ ही बढ़े हुए। वो मुझसे एक महीना छोटी ही थी। वो परिवार की लाड़ली थी। और सब चाहते थे कि मैं उसके जैसी बन जाऊँ। वो मेरे बगल में बैठ कर, ये सब हरकतें देखती। और मेरा मन करता कि मैं उसे तालाब में धकेल दूं। मुझे उससे बहुत चिढ़ होती थी। पर मैं उसे अपनी छोटी बहन जितना ही प्यार भी करती थी। जब तक हमें साथ, एक जगह पे निभाना नहीं पड़ता, तब तक हम एक दूसरे को बहुत प्यारे लगते थे।

एक बार गर्मियों की छुट्टी में अम्मा और अच्चा ने मुझे केरल में छोड़ दिया। ताकि वो कुछ दिन आपस में शांति से बिता सकें। वहॉं मेरी आंटी ने मुझे टॉर्चर करने का मन बना लिया। उन्होंने मुझे गोदी में लिया और बालों में तेल से चम्पी की। फ़िर तालाब तक ले गयीं। वहाँ पहुंचते ही उन्होंने मुझे तालाब में डाल दिया और खुद अपने कपड़े उतारने लगी। गर्मी का मौसम था। और अगर मैं खड़ी होती तो पानी मेरी छाती तक ही आता पर फ़िर भी मैं खड़े होने के लिये संघर्ष कर रही थी। आंटी ने चिल्ला कर बोला, 'आर्यु, पैर चलाती रहो, सब ठीक हो जायेगा।' मैं ज़ोर से पैरों को हिलाते हुए किसी तरह तैरने की कोशिश कर रही थी। पर मेरी नाक में पानी चला गया और मेरी सारी कोशिश बेकार हो गयी। आंटी ने बड़े प्यार से मुझे अपनी बाहों में लिया और मेरे चेहरे को सहलाती रहीं जबतक मुझे होश नहीं आ गया। उसके बाद भी मैंने उन लोगों के साथ हर दिन नहाने के लिए तालाब जाना नहीं छोड़ा।

गर्मियों में नहाने का सबसे सही समय सुबह होता है। ए और मैं दोनों ही सारे कपड़े उतार कर पानी में डुबकी मार देते। वो गोल गोल तैरती थी। और मैं पानी के नीचे जाकर उसके पैरों में गुदगुदी करती थी। उधर चेची/बड़ी बहन मेरी आंटी के बगल में बैठ कर कपड़े धोती। पूछने पर आंटी ने बताया कि चेची अब बड़ी हो गयी हैं और अब वो खुद के कपड़े धोयेगी। चेची अब सफ़ेद तौलिया बांध कर नहाने जाती थीं। मैं हमेशा सोचती कि वो ऐसा क्यों करने लगी। बाद में मुझे पता चला कि चेची की सपाट छाती अब आंटी की तरह हो गयी थी। उनके ब्रेस्ट निकल आये थे।

मुझे याद है एक बार अम्मा ने चेची को अपने कमरे में बुलाया और दरवाज़ा बन्द कर दिया। अम्मा ने उसे पैकेट दिया जिस पर एक अधनंगी औरत की फ़ोटो बनी हुई थी। उन्होंने उसे अबसे ये नई चीज़ पहनने को बोला। चेची ने शिकायत की कि उनका दम घुटता है उसको पहनने के बाद। मानो कोई प्लास्टिक के हाथ उनकी छाती को दबा रहे हैं। मुझे ये बात तब समझी नहीं आयी थी। पर एक दिन चेची का मुंडू नीचे गिरा। ऑन्टी ने उसे और टाइट बांधने को कहा। उस समय मुझे लगा कि मुझे बूब्ज़ बिल्कुल ही नहीं चाहिये। मैं खुलकर बिना किसी बंधन के तैरना चाहती थी।

चेची धीरे से पानी में डुबकी मारती, और थोड़ा तैरने के बाद वापस चली जाती। फ़िर केवल हम और आंटी रह जाते। जैसे जैसे हम बड़े हुए, आंटी हमसे और बात करने लगी थी। वो हमें  ओ. एन. वी. कुरुपू की कविताएं सुनाती। या हम जब नहा रहे होते, तो वो मेरी बहन के साथ अंताक्षरी भी खेलतीं। एक बार वो हमारे साथ नहाने लगीं। उन्होंने तालाब के अंदर डुबकी मारी और चपटा पत्थर उठा लाईं। उन्होंने उसे दो उंगलियों के बीच पकड़ा और तालाब की सतह पर फ़ेंका। वो पत्थर पाँच बार ऊपर नीचे छलाँग लेके, फिर वापस पानी के अंदर चला गया। मुझे लगा कि वो कोई जादूगर हैं। पर उन्होंने हमें भी पत्थर को उस तरह उछालना सिखाया। चेची, मैं और ए नहाने जाने से पहले चपटे पत्थर इकट्ठा करते थे। ये तब तक चलता रहा जब तक गलती से मेरा एक पत्थर सीधा ए की आँखों में ना  जा लगा।

 तालाब में हमेशा ही उथल पुथल रहती थी। जब हम नहाकर निकलते थे, तब तालाब के साँप की बारी आती थी। कछुआ किनारे की जमी काई को खाने निकल पड़ता और किंगफिशर चिड़िया, चालाकी से उन मछलियों का शिकार करती, जो कभी मेरे पैर की चमड़ी खाती थीं। ये उनका घर था। और सब हम औरतों को यही  सबसे अच्छा लगता था।

जैसे जैसे गर्मी बढ़ती गयी, तालाब छोटा होता गया। एक टाइम,  तालाब में रहने वालों को हमारी उपस्थिति ज़ाहिर करने के लिये, आँटी ने पानी को थोड़ा हिलाती। तभी तालाब का साँप भी, तालाब के किनारे से एंट्री लेता। वो गोल गोल पानी में घूमता और फ़िर रुक कर हम सबको घूरता था। उसे हमसे डर नहीं लगता था। ठरकी साँप कहीं का। उससे हमेशा मुलाकात होती थी। जैसे ही बालों में तेल लगाकर कपड़े उतारकर तालाब की सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ते, वो अपना सर निकाल लेता। मानो हमारे नंगे शरीर को देखकर वो उत्साहित होकर अपनी जीभ लपलपाता। हम जब भी नहाने जाते वो ऐसा करता था। ठरकी कहीं का।

महीने बाद तालाब की सफ़ाई हुई और उस ठरकी साँप को कहीं और ले जाया गया। समय बढ़ने के साथ मेरा शरीर भी उन जगहों में बढ़ रहा था, जहाँ मैंने सोचा भी ना था कि कुछ ऐसा  होता होगा । अब मैं खुलकर बिना कपड़ों के नहाने नहीं जा सकती थी। उसी समय आँटी ने अपने पति का लाल मुंडू फाड़ कर मुझे मेरा पहला मुंडू दिया। उन्होंने उससे  मेरे शरीर को ढक दिया। मुंडू का आखिरी कोना उन्होंने ऊपर की ओर ठूंस दिया, ताकि वो हिले नहीं। पर तैरने की उछल कूद के दो मिनट के बाद,  मुंडू किनारे पहुंच गया। आँटी ने फ़िर बांधा और वो फ़िर मेरे शरीर से फ़िसल कर पानी के ऊपर तैरने लगता। आँटी  मुंडू के बंधे होने पर ज़ोर देती। पर मुझे वो मेरे शरीर का हिस्सा कभी लगा ही नहीं। वो मेरे शरीर के ऐसी जगहों पर रोक लगा रहा था जिन्हें मैंने कभी भी रोकने या ढकने के बारे में सोचा भी नहीं था।

मुंडू हमारे परिवार में लड़की के औरत बनने की शुरुआत की निशानी मानी जाती थी। पर मैं नहीं चाहती थी कि मेरे बूब्स मेरे अंकल के मुंडू के नीचे छुप जाएं। मैं जैसे ही तालाब में डुबकी मारती, वो मेरे पैरों में फंस जाता। और तैरने में परेशानी होती। वो पानी में मेरे पैरों की लचक और ताक़त को ही कम कर देता । उसके बाद मुझे कभी बिना कपड़े होने की इजाज़त नहीं मिली।

ऐसा लगता था जैसे औरतें एक दूसरे के सामने बिना कपड़े होने से डरने लगी थीं। जैसे वाक़ई  स्तन का और कोई काम नहीं हो सकता था। या  शरीर में दूध बनाने वाली मशीन या फ़िर अनजान मर्दों की घूरती नज़र सेंकने का सामान। मुझे मेरे बढ़ते बम्स की गोलाई और छाती की झुलाई से बेहद ख़ुशी होती थी। पर मुआ मुंडू उनके और पानी के बीच आ जाता था। और जब भी मेरे पीरियड्स होते, तालाब पे जाना मेरे लिये मना हो जाता।

जब भी मेरे पीरियड्स शुरू होते, मुझे घर का सदस्य या औरत माना ही नहीं जाता था। घर की हर चीज़ से मुझे अलग कर दिया जाता। इन सब हरकतों पर मुझे अपने औरत होने पर बहुत गुस्सा आता था। जिसके कारण मैं कभी भी एक औरत होने की खूबसूरती का अनुभव सही मायने में समझ न सकी।

लेकिन एक दिन पीरियड्स के कारण, मेरे पेट में काफ़ी दर्द हो रहा था। मुझे तालाब में तैरने का मन किया ताकि थोड़ा आराम मिल सके। आँटी की गैरमौजूदगी में, मैंने बिना मुंडू के तालाब में डुबकी लगा दी। और उफ़नते पानी की लहरों की हर बूंद को अपने शरीर पर महसूस किया। मेरे शरीर का हर एक हिस्सा जो दर्द से छटपटा रहा था, पानी के छूते ही, मेरे मुंह से आराम की आह निकल गयी। मेरी योनि से जैसे ही पुराना गन्दा खून वाली टिशू निकला, आस पास की सारी मछलियों उसे  खाने की कोशिश करने लगीं। उस तालाब ने मेरे अंदर की औरत वापस जगा दिया।

पर मुझे अकेला महसूस हो रहा था। सांप, कछुए, मछलियाँ अपनी आवाज़ निकाल वहां होने का सुबूत दे रहे थे पर उनकी आवाज़ों में मेरे परिवार की औरतों वाली बात नहीं थी। मैं खुद को अकेला महसूस कर रही थी, लग रहा था जैसे किसी को मेरी ज़रूरत नहीं ।

धीरे धीरे हम सब बढ़े हो गये। घर के साइड में ही नये बाथरूम बन गये। उधर तालाब के पानी का स्तर बढ़ गया। हम औरतें दुबारा कभी एक साथ नहाने नहीं गयीं। अगर हम नहाने का प्लान करते भी, तो कभी साथ में नहीं गये। पत्थरों पर गंदी अंडरवियर थीं। और उस ठरकी सांप का भी बहुत बुरा अंत हुआ।

मैं तालाब की सीढ़ियों पर खड़ी होकर उस हरे तालाब को देख रही हूँ। जिसका पानी हथेलियों  में लेने से, पानी का असल रंग दिखता है। मेरा मुंडू बांधने के लिये कोई नहीं है, तो मैंने सबसे बड़ा वाला पहना और ख़ूब टाइट बाँध लिया। मैं पीठ के बल तैरने लगी। ऊपर उड़ते नीले किंगफिशर को देखने लगी। जो मेरे अध खुले बूब्स को घूर रहा था। 'ठरकी जानवर सबके सब' ये सोच कर मैं पलट कर तैरने लगी। मुंडू अपने आप खुल गया और मेरी एड़ियों पर जा फँसा। ऐसा लग रहा था मानो उसके भार से मैं डूब रही हूँ। मेरे पास कुछ भी सहारा नहीं था। अपने बिल में से उस ठरकी सांप के हँसने की भी आवाज़ सुनाई दे रही थी।मैं पानी के अंदर बाहर करने लगी। मेरे कानों में पानी जा घुसा।  सूरज की रोशनी धीरे धीरे कम होती जा रही थी। हरा पानी अब काला हो चला था। तभी दूर से मुझे आवाज़ सुनाई दी, "आर्यु, बस पैर मारती रहो, कुछ नहीं होगा।" तो मैंने वही किया। उस आवाज़ का पीछा करते करते मैं किनारे तक आ गयी। जब मैंने पानी से भरी आँखे खोलीं,  तो मुझे कोई नहीं दिखा।

നാകാൊ നേലിെിെന േകാനാരായണൻ കോു േപായ് (चार पैरों वाली नांगेली औरत का कोलू नारायणन द्वारा अपहरण(चार पांव वाला नांगेली मेंढक(नांगेली एडवा समुदाय के होते हैं) का नारायणन सांप द्वारा अपहरण)

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