मेरी माँ का चाय के साथ हमेशा छत्तीस का आँकड़ा रहा है, इतना कि हमारे घर में चाय न पीने का बहुत कड़ा नियम था। वो हमेशा कहती थी, कि छोटे बच्चों को और ख़ासकर लड़कियों को बहुत ज़्यादा चाय नहीं पीनी चाहिए। आख़िर चाय में निकोटीन होता है, उससे पेट ख़राब होता है और अगर आप उसे लंबे समय तक उबालते हो, तो वह बदन में बहुत ज़्यादा ख़तरनाक तेज़ाब पैदा करता है। बड़े होते समय हम दूध, रूह-अफ़्ज़ा और कभी कभार एकाध फ्रूटी पी सकते थे। लेकिन चाय के बारे में सोचना भी शैतान से दोस्ती करने जैसा था। अब जो मैं वो दिन याद करती हूँ, तो चाय न पीने के नियम को मानना मेरे लिए ज़्यादा मुश्किल नहीं था। मैं उसे ज़्यादा अहमियत नहीं देती थी। किशोरावस्था और फिर जवानी के शुरुआती सालों में, मैं क़िताबें पढ़ने, दोस्तों के साथ घूमने और भविष्य के सपने देखने में मस्त थी।
स्कूल में मैं क़िताबों से बेहद प्यार कर बैठी। इसलिए जब कॉलेज जाने का वक़्त आया, तो चाहती थी कि उन्हें और डीटेल में पढ़ूँ। मेरी माँ को यह बात मंज़ूर थी। उसने मुझे अपना घर छोड़कर दिल्ली विश्वविद्यालय में हॉनर्ज़ इन लिटरेचर/साहित्य की उच्चा शिक्षा की अनुमति दी, आशीर्वाद भी दिया l
शर्त सिर्फ़ यह थी कि मैं अच्छी लड़की बनकर दूध, रूह-अफ़्ज़ा और फ्रूटी के सिवाय और कुछ नहीं पीऊँगी। तो इस तरह मैंने 18 साल की उम्र में घर छोड़ा। मासूम, जवान और चाय के स्वाद से बिलकुल अनजान। यही उम्मीद थी कि कॉलेज वैसा ही होगा, जैसा मैंने सपनों में देखा था ।
कॉलेज शुरू होने के छह महीनों बाद, मुझे एक बंदा बड़ा पसंद आने लगा। फिर उसने भी मुझे कॉफ़ी पीने के लिए डेट पे बुलाया। लंबा सा था, बॉडी अच्छी थी और थोड़ा भोंदू भी था। इसलिए प्यार के मामले में, मुझ जैसी नौसिखिया के लिए फ़िट्टम फ़िट था। मैंने उसके कॉफ़ी वाले न्योते पे बहुत लंबे समय तक, गहराई से ग़ौर किया। हालाँकि मुझे चाय से दूर रहने की ढेर सारी वॉर्निंग मिल चुकी थीं, पर कॉफ़ी को लेकर तो माँ ने कुछ नहीं कहा था। चूँकि इसपे कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी, मैंने उसके साथ एक कप कॉफ़ी पीना ठीक समझा।
हम मिले। वो ख़ूबसूरत था और मैं जवान। बस फिर क्या होना था, हम बड़े अच्छे दोस्त बन गए। और हमने आने वाले दिनों में ढेर सारी कॉफ़ी पी। उसे दो साल डेट करने के बाद मैं समझ गई, कि इस बढ़िया बॉडी वाले बंदे के साथ बात कुछ बनने वाली नहीं है। काश मुझे किसी ने मेरी जवानी के दिनों में ये बताया होता, कि सबसे पहला बॉयफ्रेंड, आगे की एक तैयारी जैसा होता है। समय के बीतते, उसे छोड़ देना लाजमी है । जिस किसी ने भी हाई स्कूल से चलते आ रहे रोमांस को ईजाद किया, वो शायद खाली पेट पे ढेर सारी चाय पीने से एसिडिटी का मारा रहा होगा। बहुत नाटकीय और दुःखद ब्रेकअप के बाद, हमने एक दूसरे को अलविदा कहा और वो एक्टर बनने का ख़्वाब पूरा करने निकल गया। लेकिन उसके साथ से, अब मुझे कॉफ़ी की लत लग गई थी।
अंग्रेज़ी में डिग्री पाने के बाद भी मेरा साहित्य से दिल नहीं भरा था। मुझे उसकी बारीकियों को और जानना था। इसलिए, दोबारा माँ का आशीर्वाद लेने के बाद, मैंने मास्टर्ज़ प्रोग्राम में दाखिला लिया। मैंने उसे यक़ीन दिलाया कि मैं बिलकुल भी चाय नहीं पी रही थी और जैसे हमने तय किया था, सिर्फ़ दूध, रूह-अफ़्ज़ा और फ्रूटी ले रही थी। मैंने समझा कि चूँकि अब भी कॉफ़ी के बारे में किसी ने कुछ नहीं कहा था, तो उस मामले में मैं अपनी मर्ज़ी की मालिक थी। जैसे जैसे समय बीतता गया, मैं वयस्क जीवन की उलझनों के साथ जूझती चली गई। पढ़ाई के दूसरे साल में, मैं अपने दूसरे आदमी से मिली। मेरे जैसे वो भी साहित्य का दीवाना था और क्या मायने रखता है, क्या नहीं, ऐसी बातें ख़ूब जानता था। वह प्यारा सा था, धीमी आवाज़ में बोलता था और ऐसी बहुत सारी चीज़ों के बारे में जानता था जिनके बारे में मुझे कुछ नहीं पता था। मुझे वो तुरंत पसंद आया। और फिर उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके साथ चाय पीने के लिए जाऊँगी।
यह सुनते ही मैं इतनी घबरा गई, मुझे ऐसा झटका लगा कि क्या बताऊँ। मुझे लगा कि वहीं गिर पड़ूँगी। धीमी सी आवाज़ में मैंने उसे बताया, कि मैंने ज़िंदगी में कभी भी चाय नहीं पी थी। वह यह सुनकर हैरान रह गया। आख़िर दुनिया में ऐसा भी कोई हो सकता है, जिसने कभी चाय न पी हो? बिना किसी बात की परवाह किए, मैंने सब कुछ सच -सच कह दिया । पर उसने मेरी बात इतनी आसानी से नहीं मानी। वो चाय की तारीफ़ करने लगा। उसकी बात का यकीन करो तो, चाय वो अमृत थी जिससे वयस्क लोग फ़ुर्तीले होते हैं। वो कहता कि हम चाय को नहीं चुनते, चाय हमें चुनती है। वो चाहता था कि मैं उसके हाथों से बनी स्पेशल चाय पीऊँ और वो चाय आज़माने, हम उसके घर गए। उसका छोटा, प्यारा सा घर था, जिसकी छोटी खिड़की से अड़ोस पड़ोस दिखाई देता था। घर पहुँचते ही वो चाय बनाने रसोईघर में चला गया। और चाय पीने की मेरी घबराहट को दूर करने के लिए मैं उसकी क़िताबें देखने लगी। दस मिनट बाद, वह रसोईघर से बाहर आया। उसके हाथ में एक छोटा ट्रे था, जिस पर दो बड़े मासूम से प्याले सजे थे और चीनी की एक छोटी कटोरी थी। उसने सही मात्रा में चाय में चीनी मिलाई और मुझे एक प्याला पकड़ा दिया। उस तरल ज़हर, उस भाप वाले भंवर, को मैं देखती रह गई। मैं डर के मारे हिचकिचाई, लेकिन फिर मैंने चाय का पहला घूँट ले ही ली। जब मैंने प्याले से अपनी नज़र उठाई, तो उसका मुस्कुराता हुआ सुंदर, नम्र सा चेहरा मुझे एक और घूँट लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था। मैंने पूरा प्याला पी डाला। हमने सारी रात बात की और मैं रातभर चाय पीती गई। सवेरे तक मैं या तो उससे प्यार कर बैठी थी या ढेर सारी चाय के असर से, नशे में थी।
घर आते आते मुझे मेरे किए पर हल्का सा पछतावा होने लगा। दिमाग में एक छोटी सी आवाज़ कान में फुसफुसा रही थी - सिर्फ़ चरित्रहीन औरतें चाय पीती हैं। जल्द ही तुम्हें एसिडिटी हो जाएगी, जो तुम्हारे गुनाह का बिलकुल सही सबक होगा । लेकिन मैं इतने ग़ज़ब के आदमी के साथ थी, कि बहुत जल्दी अपराध वाली वो फ़ीलिंग ग़ायब हो गई। कुछ महीनों बाद, हम एक साथ रहने लगे। फिर हर सवेरा भाप करती हुई गर्मागर्म चाय के प्याले के साथ शुरू होता। मेरी ख़ुशी फूले ना समा रही थी। अपना शौक़ पूरा करने के लिए, मैं नेट पर अलग-अलग चाय के मग की विंडो शॉपिंग करती और चोरी छिपे पता नहीं कौन से क़ानूनी, ग़ैर क़ानूनी वेबसाइट से चाय की पत्तियाँ खरीदती। और इस तरह, हर गुज़रते हुए दिन के साथ, मैं उस आदर्श लड़की से बहुत दूर जाने लगी जो अपनी माँ से डरती थी और शैतान से ज़्यादा, चाय से डरती थी। ये जो दो युवा प्रेमियों का युवा रसोईघर था, हमारे उस संसार में माँओं का बस नहीं चलता था ।
जैसे साल बीतते गए, मेरी चाय पीने की आदतों का खुलासा हो गया। जब भी मैं अपनी माँ के घर जाती, मैं चाय पीने के लिए तरसती रहती। मेरा सर भारी होने लगता और मैं चिड़चिड़ी हो जाती। आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया। एक सुबह, जब मैं 25 साल की थी, मैं रसोईघर गई और मैंने ख़ुद के लिए चाय का एक छोटा सा, मीठा प्याला उबाला। इसके बाद जो कुछ भी हुआ, उसका मैंने सपने में भी अंदाज़ा नहीं लगाया था। मेरी माँ और मेरे बीच घमासान लड़ाई हुई। वो बोलीं, कि मैंने उसके उसूल तोड़े थे; कि मैं कमज़ोर और ज़िद्दी थी। वो अब भी मेरी माँ थी, लेकिन मैं वो बेटी नहीं बन पाई थी, जिसकी उसे उम्मीद थी। हमारी लड़ाई ने मुझे हताश कर दिया। मैं टूट चुकी थी। मैंने अपना बोरिया बिस्तर बाँध लिया, सफ़र के लिए फ़्लास्क में कुछ चाय भर दी, अपना सामान उठाया और अपनी माँ के घर से चल दी। दिल्ली में, उस आदमी की संगत में जिसने मुझे चाय से वाकिफ़ किया था, ऐसा लगा कि मेरी जिंदगी की ट्रेन फिर से पटरी पे आ चुकी थी। उस सुनहरी चाय को मेरे होंठों को पहली दफ़े छुए छह साल बीत चुके थे। उन छह सालों में हम दोनों ने ढेर सारी क़िताबें पढ़ीं और आपस में चाय और दूसरे गरमा गरम ड्रिंक्ज़ के नुसखे बाँटे। हमारी ज़िंदगी में आपसी प्यार और सहारा था, इतना कि दूसरों की नज़र लगने का डर था। दुर्भाग्यवश, जैसे सभी अच्छी चीज़ों के साथ होता है, वैसे हमारे प्यार को भी ख़त्म होना था। जब किसी मशहूर नाटक पर पर्दा गिराना पड़ता है या किसी उत्कृष्ट उपन्यास को प्रकाशक नहीं मिलता, तब जो निराशा महसूस होती है हमने भी वही महसूस की। वह पहला शख़्स था जिसने मेरे लिए चाय बनाई थी। लेकिन हमें अपने अलग रास्ते जाने का वक़्त आ गया था। उसने मुझे चाय के बारे में इतना कुछ सिखाया - कैसे अदरक चाय को एक तड़का ही दे जाती है, कैसे जब आप दूध नहीं डालना चाहते, तब शहद और नींबू से काम चल जाता है या कैसे सर्दियों में थोड़ा सा गुड़ डालने से एक लाजवाब मलाईदार मिठास आ जाती है।
उसे छोड़ना मेरी ज़िंदगी का सबसे चुनौती भरा काम था। मैं तूफ़ान से लड़ते हुए जहाज की तरह थी, साहिल की खोज में। तब मेरे तहस नहस हुए दिल को माँ की याद आई। ख़ुद से जूझती और थरथराती हुई, मैं घर लौटी। मैंने मेरे घर को त्याग दिया था और इसलिए मेरे पैर मेरे घर का सही रास्ता नहीं खोज पा रहे थे। बहरहाल, मेरी माँ ने मुझे आसरा दिया। मैं डिप्रेशन से गुज़र रही थी। मुझे एक डॉक्टर के पास ले जाया गया और उन्हें तुरंत बताया गया कि मुझे उबाली हुई कड़क चाय पीने की ख़राब आदत थी। कभी-कभार तो खाली पेट पर भी। डॉक्टर ने भौंहे दबाईं, निराशा दिखाई, अपने प्रिस्क्रिप्शन से कुछ दवाइयाँ निकाल के, नई दवाइयाँ डाल दीं। एक महीने तक मैं घर पर रही। इस दौरान मेरी माँ मुझे हर शाम को सिर्फ़ एक छोटा प्याला चाय देती और साथ में दूसरे, ग़ैर-ख़तरनाक गरम ड्रिंक्ज़ पर, ढेर सारा ज्ञान। अब तक मैंने पी एच डी के लिए दाखिला ले लिया था, मेरी उम्र तीस पार कर चुकी थी और दिल्ली मुझे वापसबुला रही थी। मैंने दोबारा बोरिया-बिस्तर बाँधा और अपनी माँ को कसम दी कि मैं एक अच्छी लड़की बनकर दूध, रूह-अफ़्ज़ा और फ्रूटी के सिवा और कुछ नहीं पीऊँगी। चाय से मेरा नाता ख़त्म हो चुका था। कॉफ़ी मुझे इस तरह से धोखा कभी नहीं देती। मैंने ख़ुद को ठीक करने के लिए वक़्त निकालने का निश्चय किया। मुझे पी एच डी का थीसिस भी लिखना था और एक साल तक मैंने वही किया।
एक दिन मैं कुछ दोस्तों के साथ बाज़ार में देर शाम तक बैठी थी। ट्रैफ़िक के गोल चक्कर के ठीक उस पार, एक चाय का ठेला था। देर तक उबाली हुई कड़क चाय की महक हमारी ओर आने लगी, तो मैंने खुद पे काबू बनाये रखा। और सामने क्या देखती हूँ, एक आदमी टिमटिमाती आँखों से मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था। एक छोटे से प्याले से चाय पी रहा था। साँझ के आसमान में डूबते सूरज की धुँधली सी रोशनी में उसका चेहरा चमक उठा। मैं भी उसे देखकर मुस्कुराई और वो हमारी ओर आया।
वो शर्मीला और शांत था। बुदबुदाते हुए उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं चाय पीना चाहूँगी। दूसरी दफ़े चाय पीने के ऐसे न्योते को हाँ कहना मेरे लिए मुश्किल न था। मैं जानती थी कि मुझे क्या करना था । दिल्ली के एक मामूली से बाज़ार में ट्रैफ़िक के छोटे चक्कर के उस पार चाय के ठेले पर मैं अपनी लाइफ के तीसरे और आखिरी आदमी से मिली, जिसके साथ ज़िंदगी भर चाय पीना, मेरी क़िस्मत में लिखा था।
मेरी माँ अभी भी मेरे रिश्ते के साथ बहुत ख़ुश नहीं है और चाय के मामले में वह अभी भी सख़्ती से पेश आती है। लेकिन मैं इस उम्मीद में जीती हूँ कि समय के साथ वह आख़िरकार समझ जाएगी कि ये बड़े होने का अहम् हिस्सा है कि आप एक ऐसा गरम पेय ढूंढें जो ख़ास आपको सूट करता है ।
सेवली रिसर्च स्कॉलर है जिसे ड्रामेबाज़ होना पसंद है, पंजाबी गानों पर नाचती है और आलू खाने या चाय पीने का मौका, कभी नहीं छोड़ती।
मेरी मम्मी ने कहा बन्दों के साथ चाय कभी न पीना
मनाही से आगे मनमर्ज़ी चलायें तो क्या चाहतों की चाय और मीठी लगती है ?
लेखन : सेवाली
चित्र : रोहित भासी
अनुवाद : मिहीर सासवडकर
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