मैं एक समलैंगिक/लेस्बियन औरत हूँ। और जैसा सबके साथ होता है (चाहे कोई समलैंगिक हो या ना हो) समय के साथ मेरे बेस्ट फ्रेंड भी बदलते रहे हैं। और मैं उनमें से कई के साथ प्यार में पड़ चुकी हूँ। ये विषमलिंगी/स्ट्रेट लोगों के बीच भी आम है। लोकप्रिय फिल्म जैसे 'कुछ कुछ होता है' में भी तो यही कहानी थी। लेकिन आप समझ सकते हैं कि अगर आप समलैंगिक हैं, तो मामला और पेचीदा हो जाता है। और भी गड़बड़ी मच सकती है। दो औरतों के बीच बढ़ती नज़दीकी पर जब लोग कुछ कहते हैं न, तो ताना देकर, मज़ाक उड़ाकर कहते हैं। ऐसा स्ट्रेट लोगों के साथ नहीं होता है।
तो ये जो पहली कहानी मैं सुनाने जा रही हूँ, ये तब की है जब मैं नई-नई जवान हुई थी। जी हाँ, पोस्ट प्यूबर्टी! उस दौरान जितने रिश्ते हुए, उनमें सबसे गहरा यही था। क्योंकि उसके बाद तो मैंने कान पकड़ लिए थे कि "बस, अब हो गया'!', दोबारा नहीं। उस समय तो ऐसा ही लगा था कि मैंने अपना सबक सीख लिया l
तो बात तब की है जब मैं 14 साल की थी। उस समय अपने लैंगिक झुकाव/ अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में, मैं खुद भी नहीं जानती थी। ये तक नहीं पता था कि मुझे उसपर क्रश है। मैं बस उसकी तरफ खिंची चली जाती थी। खुद को समझा चुकी थी कि मैं सिर्फ उसकी दोस्त बनकर रहना चाहती थी। लेकिन हमारी दोस्ती तो पहले से थी...तो फिर मैं और क्या चाहती थी। मतलब... मैं उसके जितने करीब थी, उससे ज्यादा करीब जाना तो मुमकिन भी नहीं था। कम से कम दोस्ती में। फिर भी ऐसा लगता था, जैसे कुछ बाकी है, कुछ कमी है।
जब भी वो मेरे आस-पास होती थी, मेरे मन में तितलियां उड़ने लगती थीं। उसके हर मज़ाक पे मैं हँसती थी। पूरी शाम हम एक दूसरे को मैसेज किया करते थे। तो सही मायने में, हमारी कहानी एक नार्मल टीनएज (teenage) दोस्तों की कहानी थी। मैं उसके लिए दीवानी थी। समझो वो मेरा जुनून बन चुकी थी। वैसे तो उसका घर मेरे घर से थोड़ी दूरी पर था, लेकिन उसके टयूशन क्लास मेरे घर के पास होते थे। जब भी मैं अपने साईकल पर बाहर निकलती थी, तो उम्मीद में रहती थी कि उसकी कार रास्ते में दिखेगी और मैं उसे ‘हाय हेलो!’ कर पाउंगी। मैं उसकी कार पहचानती थी, इसलिए जब भी कोई होंडासिटी दिखती थी, मेरा मन कहता कि वो ज़रूर अंदर होगी।
मेरी कोशिश तो ये थी कि कभी कुछ बयान न हो । लेकिन शायद मेरे हाव-भाव से ये साफ था कि वो मुझे पसंद थी। एक दिन मैं यूं ही किसी बात पे उसे परेशान कर रही थी, जब वो अचानक मेरी तरफ मुड़ी और बोली “क्या तुम मुझ पर फिदा हो बैठी हो? कहीं तुम समलैंगिक (लेसबियन) या द्विलिंगी (बाई-सेक्सुअल) तो नहीं?" उसने मज़ाक में ही कहा। मैं हक्की-बक्की रह गयी, समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ। तो बस हा-हा हंसकर बात टाल दी। लेकिन जब मैं घर वापस गई, तो इस बारे में काफी देर तक सोचती रही कि "क्या सचमुच मुझे उस पर क्रश था?" और तब धीरे-धीरे मैंने ये मानना शुरू कर दिया कि मुझे लड़कियां पसंद हैं। मुझे अच्छे से याद हैं, वो मेरे लिए खुद के अंदर झांक कर देखने और अपने बारे में फैसला लेने का एक खास पल था। मैंने ना जाने अपने आप से कितनी देर तक बातें की। और तब जाकर अपनी सेक्सुअलिटी और अपने रुझान/झुकाव को समझ पाई । उसने उस दिन जो भी कहा, उससे मुझे शर्म नहीं आई, बल्कि उससे तो मुझे खुद को ढूंढने में आसानी हुई। लेकिन हां, इससे ये भी हुआ कि मैं और सावधान हो गई और अपने व्यवहार पे काबू रखने लगी। कंट्रोल्ड रहने लगी।
स्कूल छोड़ना मुश्किल था, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि उसके बाद मैं कहाँ जाऊंगी। और वो भी तो कहीं और जाने वाले थी। मुझे उससे दूर जाने का डर था। लेकिन 11th और 12th के टयूशन में हम साथ थे, इसलिए हम दोस्त बने रहे।
स्कूल में 10th के बाद, कोई ये मानने को तैयार नहीं था कि मुझे कोई लड़का पसंद हो सकता था। क्योंकि मैं खुद लड़कों जैसी थी। मुझे याद है, स्कूल के दोस्तों के साथ एक स्लीपओवर (sleepover) पे हम एक गेम खेल रहे थे-ट्रुथ और डेयर - जिसमें पूछे गए सवाल पे या सच बोलना पड़ता है या जोखिम उठाना पड़ता है। और मेरी दोस्तों ने मुझसे पूछा "क्या तुम किसी लड़के को पसंद करती हो?" मैं थोड़ा कन्फ्यूज्ड थी। लेकिन क्योंकि वहां हर लड़की किसी न किसी लड़के को पसंद करने की बात कर रही थी तो मैंने भी सोचा कि एक लड़के को पसंद करने की बात कर दूं। इसपर उनमें से एक ने कहा "भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हें लड़के पसन्द है। हमें तो लग रहा था कि तुम्हें लड़कियां पसन्द हैं।" ऐसे बोली जैसे मैंने उसका कोई प्लान खराब कर दिया हो।
इस ही वजह से उन सबके सामने अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में सच बताने में मुझे काफी वक़्त लगा। मुझे लगा कि ये मेरे दोस्त मुझे अपनाएंगे नहीं, सोचेंगे मैं अजीब हूँ। उन सबकी वजह से मैं अपने आप से भी पूरा सच बोलने को तैयार ना थी।
लेकिन 12th में, मैंने अपनी सेक्सुअलिटी को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया था। और सोच लिया था कि मैं अपनी बेस्ट फ्रेंड को भी अपने बारे में बता दूँगी। मैं तब उसके लिये पहले जैसा महसूस नहीं कर रही थी। वो भावनाएं खत्म हो चुकी थीं। पर क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि शायद वो भी समलैंगिक है, तो मैंने सोचा उसे बताऊं कि मैं भी लेस्बियन हूँ। वो सुनकर काफी हैरान हुई। उसने वैसे बिल्कुल रियेक्ट नहीं किया जैसा मैंने सोचा था। पर कोई बात नहीं, सबको टाइम लगता है। उस दिन के बाद हम और बेहतर दोस्त बन गए, शायद इसलिए क्योंकि अब हमारे बीच कोई पर्दा नहीं था। अब सब साफ था।
वो अब मेरी सबसे अच्छी दोस्त है लेकिन मैंने आज भी उसे ये नहीं बताया है कि कभी उसको लेकर मेरे मन में रोमांटिक फ़ीलिंग थी। उसे लगता है कि मुझे उसपे क्रश था, पर मैं उससे ये बात कभी नहीं कहूंगी l दोस्ती में होता है ना, जब आपकी बात गलत निकलती है और दूसरे का कहा सही, तो चिढ़ मचती है ।
उसके लिए अपनी फीलिंग्स खत्म करने में मुझे 2-3 साल लग गए। मैं समझ चुकी थी कि वो स्ट्रेट है और मेरे लिए वैसा महसूस नहीं करती है। इसलिए उसके पीछे जाने का कोई फायदा नहीं था। है ना? मुझे एहसास हो चुका था कि मुझे आगे बढ़ने की जरूरत थी l क्योंकि जो मैं चाहती थी, वो कभी नहीं हो सकता था। इसके बाद, मैं कभी किसी दोस्त के प्यार में नहीं पड़ी। सिवाय एक और बार...
मैं कॉलेज के पहले साल में थी। होस्टल के सिंगल कमरे में रहती थी। वो मेरे से 4 साल सीनियर थी। मेरी उससे बहुत बनती थी। वो, मैं और उसी होस्टल की एक और लड़की, तीनों काफी अच्छे दोस्त बन गए थे। हम साथ में घूमा-फिरा करते थे। पूरे औरंगाबाद में वही दोनों मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे - या यूं कहो कि पूरे शहर में बस वही दोनों मेरे दोस्त थे। उसके अगले साल मैं मुंबई के एक बेहतर कॉलेज में ट्रांसफर लेना चाहती थी। इसलिए मैं नए दोस्त बनाना और उनसे इमोशनल जुड़ाव नहीं चाहती थी।
हर शाम वो मेरे कमरे में आकर , टाइम पास करती । और मैं वहीं बैठकर पढ़ाई करती । हम ढ़ेर सारी बातें करते । वो मुझसे ऐसी बातें शेयर करती थी जो शायद किसी और से नहीं करती। हमारी तीसरी दोस्त, सेजल, के बारे में हमें लगता था कि वो थोड़े पुराने ख़यालों वाली है । इसलिए हम उसके सामने सेक्स या वैसी चीजों के बारे में खुलकर बात नहीं कर पाते थे। वो मुझसे उस लड़के की बातें शेयर करती थी, जिसे वो काफी पसन्द करती थी। अपने पुराने अफेयर्स के बारे में भी बताती थी। मेरा होस्टल का बेड नार्मल सिंगल बेड था। जब भी हम कमरे में होते थे, हम एक दूसरे के बगल में लेटकर बातें किया करते थे। और धीरे-धीरे ऐसा भी होने लगा कि हम एक दूसरे को थोड़ा चिमट कर लेटने लगे। कभी गले लगकर, कभी एक दूसरे को पकड़कर। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
अक्सर ये नज़दीक आने वाली हरकतें वही शुरू करती थी। और एक तरह से ये एकतरफा ही होता था। मैं अपने आप को कंट्रोल करके रखती थी। हालांकि मुझे मन होता था कि उसकी पीठ थोड़ा और सहलाऊं, उसे गले लगाऊं। मेरी लेस्बियन होने वाली बात तब भी किसी को पता नहीं थी और मैं ऐसी कोई हरकत नहीं करना चाहती थी, जिससे ये जाहिर हो । वैसे भी मैं घबराती थी कि मेरा उसे पकड़ कर सोना शायद मेरे बारे में कुछ बातें जाहिर कर दे। और फिर उसके बाद क्या होगा, सोच कर डर लगता था। खैर, जैसे-जैसे हम नज़दीक आते गए, ये पकड़कर सोने का सिलसिला रोज़ ही होने लगा। नहीं, उसे किसी भी तरह से शारीरिक संबंध नहीं कहा जा सकता था, पर एक दूसरे से चिमटना-चिपकना, हमारी दोस्ती का एक अहम हिस्सा बन गया था।
कभी-कभी तो वो पूरी रात मेरे साथ ही सोती थी, पर अगले दिन ऐसे दिखाती थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। और सच ही तो है, क्योंकि कुछ होता था भी नहीं। हाँ, इन सबकी वजह से मुझमें थोड़ा-बहुत सेक्सुअल तनाव जरूर पैदा हो जाता। मैं शारीरिक रूप से किसी के इतने करीब नहीं हुई थी। इसलिए इस नज़दीकी को हर हाल में बचाकर रखना भी चाहती थी।
मुझे ये भी पता था कि वो थोड़ी होमोफोबिक (जिसे होमोसेक्सयूएल लोग पसंद ना हों) थी। एक बार मेरी मम्मी होस्टल आई थीं और हम बस नार्मल बातें कर रहे थे। उसी बीच उसने कहा, "ये तो किसी लड़की से ही शादी करेगी, देखो ना, बिल्कुल लड़कों जैसी ही है।" मैंने सुनकर भी अनसुना कर दिया। क्योंकि जो बात आपके किसी महत्वपूर्ण रिश्ते को खतरे में डाल सके, उसे अनसुना करना ही ठीक रहता है।
एक दिन मैं बैठकर पढ़ रही थी, तभी उसने पीछे से आकर मुझे पकड़ लिया। मुझे ना जाने ऐसा क्यों लगा जैसे वो मुझे किस करने वाली थी। और मैंने मजाक में कह दिया, "किस ही कर ले, अभी और क्या रह गया है हमारे बीच?" उसने पलटकर जवाब दिया "हाह! मुझे किस करना भी होगा तो किसी लड़के को न करूं? तुम्हें क्यों करूंगी?" उसकी बात से ऐसी चोट लगी, बहुत दर्द हुआ। उसने मुझे इतना छोटा महसूस करा दिया, कि किसी लड़के के सामने वो भला मुझे क्यों चुनेगी। मैंने कुछ जवाब तो नहीं दिया पर पूरी तस्वीर मेरे सामने साफ हो चुकी थी। उसे मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वो बस अपने आराम के लिए मुझे टेडी बेयर बनाकर मेरा इस्तेमाल कर रही थी। और एक तरह से मेरी भावनाओं से खेल रही थी।
कडलिंग- चिमटने-चिपकने का सिलसिला कुछ दिन और जारी रहा। वैसे भी साल खत्म होने वाला था और मुझे वो शहर छोड़ना था। मैं मुंबई जाने के ख्याल से खुश तो थी, लेकिन अपने दोस्तों को (खासकर उसे) छोड़कर जाने का दुख भी था। मुझे ऐसा लग रहा था कि इतनी नज़दीकी वाला रिश्ता शायद आगे फिर किसी के साथ बन नहीं पायेगा। वो भी दुखी थी। दोनों दोस्त मुझे स्टेशन छोड़ने आये। वो आखिरी बार था जब मैंने उसे देखा। हम आज भी साल में एक-दो बार एक दूसरे से बात कर लेते है। हम में से कोई भी एक कॉल लगा लेता है, और फिर हम घंटो अपनी ज़िन्दगियों के बारे में बात करते रहते हैं। उसे आज भी नहीं पता कि मैं लेस्बियन हूँ। उसे लगता है मेरा कोई बॉयफ्रेंड है। हालांकि मेरी एक गर्लफ्रैंड है। उसने खुद ही सोच लिया है कि अगर मैं रिलेशन में हूँ तो किसी लड़के के साथ ही होऊंगी।
मैंने भी उसे नहीं बताया है कि मैं लेस्बियन हूँ क्योंकि वो अब भी उसी कॉलेज में है। और मुझे भरोसा नहीं है कि वो मेरी बात किसी और को नहीं बतायेगी। मुझे ये भी डर है कि जानने के बाद वो बीती बातों को इससे जोड़ने लगेगी। सोचेगी "अच्छा, तब भी वो लेस्बियन थी। तो क्या मेरे साथ होने से उत्तेजित भी होती थी?" और फिर सब अजीब सा हो जाएगा। उसे पता चलेगा तो सचमुच ही सब अजीब हो जाएगा। अभी हाल ही में, हम कई महीनों के बाद बात कर रहे थे और उसने बातों-बातों में कहा, "हाँ, याद है हम कैसे सोते थे तेरे रूम में। क्या-क्या नहीं किया हमने।" सुनकर मेरे दिमाग में जैसे एक घबराई हुई हंसी की लहर दौड़ गई । मैंने मन ही मन कहा- ओह, प्लीज़ उन दिनों की बात ना ही करो।
मुझे कभी-कभी लगता है कि उसके बार-बार इस टॉपिक को उठाने के पीछे शायद कोई कारण है। वो इस लेस्बियन वाले प्यार के टॉपिक को को छोड़ ही नहीं पाती। । अब ये जानना तो मुश्किल है कि क्या उसके अंदर भी कुछ भावनाएं थीं, और इसलिए वो इस संभावना की ओर खींची चली जा रही थी ? या शायद इस ख्याल से ही डर रही थी। या शायद वो लड़कियों की ओर मेरे झुकाव को समझ चुकी थी और चाहती थी कि मैं उसके सामने ये बात मान लूँ। खैर, बात चाहे जो भी हो, मैं खुद को किसी चोट या किसी के होमोफोबिया का शिकार नहीं होने दूंगी । लेकिन हाँ, इस सबसे मेरा टेंशन जरूर बढ़ जाता है।
मैं हमेशा सोचती हूँ - कि बस। अब अपने साथ ऐसा फिर से नहीं होने दूंगी। पर कुछ समय बाद, फिर किसी दोस्त के प्यार में पड़ जाती हूँ। लेकिन भगवान का लाख-लाख शुक्र है, कि अभी मैं जिससे पागलों की तरह प्यार करती हूँ, वो भी मुझे उतना ही चाहती है।
मुझे लगता है कि जब आप एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त होते हैं, तो प्यार में पड़ने की संभावना ज्यादा रहती है। क्योंकि आप एक दूसरे को अंदर से, बाहर से, पूरे तरीके से जानते हैं। और इसलिए अगर ऐसे रिश्ते में दिल टूटता है ,तो चोट भी ज्यादा लगती है। आपको लगता है कि आपके साथ धोखा हुआ है। कि अरे! कल तक तो सब सही था। अब क्या हो गया?
आपकी दोस्त बहुत अच्छी है, और आपको लगता है कि वो आपके लिए कुछ महसूस करती है। ठीक वैसा, जैसा आप उसके लिए करते हैं। पर उसकी तरफ से वो सब कुछ, सिर्फ दोस्ती का इज़हार है। सही मायने में, इसमें किसी की भी गलती नहीं है। दोस्ती की कोई बंधी हुई डेफिनिशन तो है नहीं । अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीकों से अपनापन दिखाते हैं। इससे उलझनें हो सकती हैं । लेकिन अगर आप क्वीयर हैं, तो आपके लिए और बातें भी आड़े आने लगती हैं। अच्छे-अच्छे लोग भी होमोफोबिया की तैश में आकर अपने करीब वालों को अपमानित कर देते हैं, शर्मसार कर देते हैं। तो यहां रिजेक्शन से ज्यादा दर्द इस बात से होता है कि आपकी असलियत को अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं है। रिजेक्शन तो आदमी सह ले, पर यहां ऐसे लगने लगता है जैसे आपकी भावनाओं पर विश्वास ही नहीं किया जा रहा है। उन्हें मान्य ही नहीं समझा जा रहा है।
मुझे अपनी दोस्त से समलैंगिक प्यार हो गया। मुझे लगने लगा है कि हम दोस्ती में जिस तरह प्यार जताते हैं, उस पर एक बार फिर से गौर करना चाहिए l
Does queerness complicate the experience of falling for a friend?
लेख - रितु द्वारा
चित्र - कृपा भाटिया द्वारा
अनुवाद - नेहा द्वारा
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