आप सोच रहे होंगे कि ये कॉस्टर सेमेन्या है कौन? वह दक्षिण अफ्रीका की एक 28 वर्षीय, ज़बर्दश्त फुर्तीली एथलीट है। दो बार ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता और तीन बार विश्व चैंपियन रनर (runner), सेमेन्या 800 मीटर दौड़ वाली कम्पटीशन में भाग लेती है।
हाल फिलहाल में, हर जगह उसकी चर्चा कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ऑफ स्पोर्ट (CAS- Court of Arbitration of Sport) के दिये गए एक फैसले की वजह से है। CAS, स्पोर्ट्स के दुनिया में सबसे बड़ी अदालत है। इस अदालत ने भेदभाव से भरे पुराने रूल का फिर से समर्थन किया है, और कहा है कि सेमेन्या, और उसके जैसी दूसरी महिला रनर वीमेन स्पोर्ट्स (women sports) में भाग नहीं ले सकती हैं क्योंकि वे 'पर्याप्त रूप से महिला' नहीं हैं। क्या हुआ? पढ़ कर सांस फूल गई? यकीन नहीं हुआ ना? आप सोच रहे हो कि...क्या? ऐसा सच में हुआ?
जी हां! CAS का कहना है कि सेमेन्या के शरीर में बहुत ज्यादा टेस्टोस्टेरोन (testosterone) है। टेस्टोस्टेरोन - यानी वो हॉर्मोन जिसको पुरुषों के सेक्स हार्मोन के रूप में जाना जाता है। हॉर्मोन को इस तरह लिंग का आधार देना, ये कैसी बात हुई ! इस बेतुके मामले पर थोड़ी और बात करते हैं।
हालाँकि सेमेन्या जैसी एथलीटों में ज्यादा टेस्टोस्टेरोन का होना एक नेचुरल सी बात है, लेकिन ट्रैक एंड फील्ड इवेंट्स (track and field events) के ग्लोबल गवर्निंग बॉडी - इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एथलेटिक्स फेडरेशन (International Association of Athletics Federations- IAAF) - ने अदालत में तर्क दिया कि इस से उसको दूसरी महिला एथलिट के मुकाबले एक अनुचित फायदा मिलता है। मतलब कि, टेस्टोस्टेरोन के अधिक मात्रा में होने से वो एक तरह से पुरुषों जैसी हो जाती है, और इसलिए महिला के रूप में कम्पटीशन में भाग नहीं ले सकती हैं। IAAF के नियमों के अनुसार अगर सेमेन्या जैसी महिलाएँ किसी कम्पटीशन में भाग लेना चाहती हैं, तो उन्हें कुछ ख़ास दवाएँ लेनी होंगी। जैसे कि गर्भनिरोधक गोलियां या प्रोस्ट्रेट कैंसर (prostrate cancer) की दवाएं! इन्हें खाने से उनमें टेस्टोस्टेरोन का लेवल कम हो जाएगा और वे महिला एथलीटों के रूप में खेल पाएंगी !!
सेमेन्या ने 2018 में सीएएस (CAS) में इन नियमों के खिलाफ अपील की, लेकिन 1 मई 2019 को ये अपील खारिज़ कर दी गई।
सीएएस (CAS) के इस फैसले से बहुत सारे लोग दुखी क्यों हैं?
टेनिस की दिग्गज खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा ने इस फैसले को 'बहुत ही गलत' बताया
और कहा कि’ इस ख़याल का आधार ही गलत है’। और वो अकेली नहीं हैं जिनका यह मानना था। कई वैज्ञानिक (scientist),
बायोएथिसिस्ट (bioethicists), चिकित्सा शोधकर्ता (medical researchers) मानवाधिकार के ग्रुप और कई साथी खिलाड़ियों ने जेंडर टेस्टिंग की आम तौर से आलोचना की है। ख़ास तौर से हाल ही में लिए गए इस सीएएस (CAS) के फैसले की भी निंदा की है।
ऐसा क्यों हुआ, उसके यह कुछ कारण हैं।
यह फैसला आई.ए.ए.एफ (IAAF) जैसे स्पोर्ट्स बॉडीज को जेंडर पुलिस (Gender Police) की तरह काम करने की आज़ादी देता है।
"एथलेटिक्स में दो वर्गीकरण (classification) हैं - एक उम्र का और दूसरा लिंग (जेंडर) का। हम दोनों की पूरी तरह से सुरक्षा कर रहे हैं।" IAAF के अध्यक्ष सेबेस्टियन कोए ने मीडिया के सामने, 2 मई 2019, को ये कहा था।
अदालत ने कहा कि IAAF द्वारा सेमेन्या जैसी एथलीटों को अपने टेस्टोस्टेरोन के लेवल को कम करने के लिए ड्रग्स लेने को कहना भेदभावपूर्ण तो है, लेकिन "महिला एथलेटिक्स की निष्ठा" को बनाए रखने के लिए "ज़रूरी" भी है। हाँ, अदालत वाकई ऐसी बात कह डाली है- कि निष्ठा को बनाए रखने के लिए भेदभाव ज़रूरी है!
गौर से देखो तो इस पूरी घटना में बहुत गंभीर किस्म की तरफदारी की गयी है। महिलाओं को कैसा दिखना चाहिए, उन्हें क्या करना चाहिए और उनके लिए क्या सही है, इन बातों की वकालत करते हुए भी मामले को ऐसे पेश किया जाता है जैसे ऐसी बातें करना बड़ा नार्मल है। सेमेन्या को एक महिला एथलीट के हिसाब से ज़्यादा ही मस्क्युलर (muscular), ज्यादा ही मर्दाना बताया गया। (2015 में सेमेन्या के ऊपर बनाई गयी डाक्यूमेंट्री "टू फ़ास्ट टू बी ए वुमन" – Too Fast To Be a Woman, जरूर देखें।
बात को यूं बयान करने से कि महिला एथलेटिक्स की 'निष्ठा' को बचाने के लिए उसके जैसी एथलीट्स को कम्पटीशन में भाग लेने से रोकना चाहिए, सेमेन्या और उसके जैसी दूसरी महिला एथलिट को धोखेबाज़ और बहुरूपिये के रूप में पेश किया जा रहा है ।
ये यूं पेश करता है जैसे कि वे महिला के भेष में पुरुष हों l इसकी जड़ औरतों को लेकर एक खतरनाक सोच है। हालांकि देखा जाए तो स्पोर्ट्स बॉडीज द्वारा महिलाओं के ऊपर किये गए जेंडर टेस्ट के भेदभाव से भरे इतिहास में, ये बस एक छोटी कड़ी है।
सेमेन्या की स्थिति बयां करने के लिए कई शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें 'हाइपरएंड्रोजेनिज़्म' (hyperandrogenism- एक मेडिकल स्थिति जिसमें शरीर में एंड्रोजेंस बढ़ जाते हैं l
एंड्रोजेंस- ख़ास होर्मोनेस हैं l औरतों में ज़्यादा होने से शरीर में बाल बढ़ सकते हैं, या वेट बढ़ सकता है या फिर पीरियड्स में प्रॉब्लम आ सकती है)- महिला के शरीर में हार्मोन टेस्टोस्टेरोन सहित एण्ड्रोजन (androgens) की मात्रा का ज़्यादा होना- शामिल है। (androgen- जिसके होने से पुरुषों वाले लक्षण शरीर में ज्यादा दिखते हैं) इसे "डिफरेंसेस इन सेक्स डेवेलोपमेंट- Differences in Sex Development" या डी.एस.डी (DSD) भी कहा गया है। और कुछ लोग तो (अभद्र भाषा में) यह भी अनुमान लगा रहे है कि ये इंटरसेक्स (intersex) का मामला है। लेकिन दूसरी कई महिला एथलीट सामने आयी हैं और उन्होंने भी बताया है कि उनकी कंडीशन भी सेमेन्या जैसी है । तो क्या यह सही है कि ऐसी महिलाओं को उस चीज के लिए सज़ा दी जा रही है जो कि असल में पूरी तरह से प्राकृतिक है?
आज, हाइपरएंड्रोजेनिज्म (hyperandrogenism) वाली महिला एथलिट जो IAAF के अंदर किसी भी ग्लोबल ट्रैक और फील्ड इवेंट (global track and field event) में भाग लेना चाहती हैं, वे मेडिकल हस्तक्षेप के बिना महिला के रूप में किसी भी कम्पटीशन में भाग नहीं ले सकती हैं। 2013 में, विकासशील (developing) देशों की चार महिला एथलीट हार्मोन थेरेपी (hormone therapy) और
लैंगिक (genital) सर्जरी के लिए फ्रांस गईं ताकि वे कम्पटीशन में भाग लेना जारी रख सकें। ऐसा सुना गया है कि टॉप भारतीय धावक दुती चाँद, जिनके टेस्टोस्टेरोन का लेवल भी ज्यादा था, उन्होंने भी 2015 में CAS में IAAF के नियमों को चुनौती दी थी। उन्हें हार्मोन थेरेपी और "फेमिनाइसिंग सर्जरी (औरत वाले गुणों को बढ़ाने वाली सर्जरी)" का ऑफर दिया गया था।
पयोष्णी मित्रा, जो कि जेंडर की शोधकर्ता हैं, और दुती चाँद की लड़ाई में उनकी मदद कर रही हैं, ने कहा कि ये प्रतिक्रियाएं वाकई में लिंग को अपाहज बनाने के ऐसे हिंसक तरीके हैं जिन्हें समाज ने पूरी तरह से अपना लिए हैं (institutionalized genital mutilation)" ।
हालांकि CAS ने अपने फैसले में ये माना है कि डी.एस.डी (Disorders of sex development- DSD) एथलीटों के ऊपर हार्मोन उपचार करने से खतरनाक साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद, उनका अभी भी यही कहना है कि कोमपेटिशन में भाग लेने के लिए महिलाओं को इस से गुजरना ही पड़ेगा। इस फैसले का असर बाकी सभी महिला खिलाड़ियों पर भी पड़ेगा, क्योंकि ये दूसरी स्पोर्ट्स बॉडीज के लिए एक उदहारण की तरह काम करेगा।
IAAF के अनुसार टेस्टोस्टेरोन की 'सही/एक्सेप्टेड' मात्रा क्या है?
2011 में, IAAF ने एक नियम की घोषणा की। उसके हिसाब से हाइपरएंड्रोजेनिज़्म(hyperandrogenism) वाली महिला एथलीट कम्पटीशन में भाग नहीं ले सकती हैं, अगर उनके खून में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा 10 नैनोमॉस प्रति लीटर (nmol/L) से ज्यादा हो। 2012 में, IOC ने भी इस नियम को अपना लिया।
लेकिन अब, IAAF नियमों के तहत महिलाओं को अपने टेस्टोस्टेरोन के स्तर को 5 nmol/L से भी कम रखना है। IAAF के अनुसार, ज्यादातर महिलाओं में, जिनमें ऊंचे वर्ग की एथलीट भी शामिल हैं, नेचुरल टेस्टोस्टेरोन का स्तर 0.2 से 1.79 nmol/L होता है (पुरुषों में आमतौर पर यह स्तर 7.7 और 29.4 nmol/L के बीच रहता है)।
अच्छा, तो क्या पुरुषों में भी टेस्टोस्टेरोन की एक 'सही/एक्सेप्टेड' मात्रा होती है?
अगर आपको लगता है कि जेंडर टेस्टिंग पुरुषों और महिलाओं दोनों पर एक सामान लागू होती है, तो माफ कीजिये, लेकिन मुझे आप पर हंसी आ रही है!
अगर किसी पुरुष एथलीट् में टेस्टोस्टेरोन लेवल काफी ज़्यादा भी हो, तब भी ये नहीं माना जाता है कि उसको दूसरे पुरुष प्रतियोगियों के मुकाबले अनुचित फायदा मिल रहा है। 2009 में GH-2000 ने कुछ ऊंचे वर्ग के एथलीट्स पर एक रिसर्च किया। इसे आई.ओ.सी (IOC) और यूरोपीय यूनियन द्वारा ग्रोथ हार्मोन रिसर्च सोसाइटी- Growth Hormone Research Society- के माध्यम से फण्ड किया गया था। इस रिसर्च में पाया गया कि पुरुषों और महिलाओं के टेस्टोस्टेरोन की मात्रा में एक ज़ाहिर सा ओवरलैप/परस्परता है। टेस्ट किए गए लगभग 16.5 प्रतिशत पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा 8.4 nmol/L से नीचे थी, जबकि 13.7 प्रतिशत महिलाओं में उसका स्तर 2.7 nmol/L से ऊपर था।
कई लोगों ने बताया है कि महिलाओं में टेस्टोस्टेरोन की जाँच करना एकतरफा फैसला है। कि ऐसा करना तरफदारी ही है। उदाहरण के लिए, तैराक माइकल फेल्प्स, जो एक ऐसे एथलीट हैं जिन्होंने जिस-जिस कम्पटीशन में भाग लिया, हर जगह वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया। फेल्प्स के टखने/एल्बो में डबल-जॉइंट है और उनका शरीर उनके प्रतिद्वंद्वियों (competitors) के मुकाबले काफी कम मात्रा में लैक्टिक एसिड (lactic acid - दुग्धाम्ल) पैदा करता है। लेकिन इसकी वजह से ना ही कभी उन्हें कम्पटीशन में भाग लेने से रोका गया और ना ही कभी इस बात का कोई मुद्दा बनाया गया।
“अगर किसी एथलीट का शरीर ऐसा हो, जिसमें 99 प्रतिशत लोगों के मुकाबले टेस्टोस्टेरोन की मात्रा ज्यादा है, तो उसे अनुचित फायदे की तरह क्यों देखा गया? जबकि एक दूसरा शरीर जिसमें 99 प्रतिशत लोगों के मुकाबले लैक्टिक एसिड की मात्रा कम है, उसको उचित माना गया है? नेचुरल तरीके से होने वाली शरीर की कौन सी प्रक्रियाएं और रासायनिक मिश्रण (chemical compounds) ठीक हैं, और कौन से नहीं, ये कौन तय करेगा!” स्पोर्ट्स ब्लॉग एसबी नेशन (Sports Blog Nation) में किम मक्कौले (Kim McCauley) ने लिखा।
भारतीय खेल प्राधिकरण (Sports Authority of India- SAI) के पूर्व महानिदेशक (ex-director general) जिजी थॉमसन, जिन्होंने दुती चाँद के मामले का समर्थन किया था, कहते हैं: “एथलीट् उसैन बोल्ट के पैर सामान्य लोगों के मुकाबले काफी लंबे हैं। वे 100 मीटर की दौड़ 41 छलांग में पूरी कर लेते हैं। उनके साथ दौड़ने वाले प्रतिद्वंद्वी को ये दूरी तय करने में 45 छलांग लगते हैं। तो क्या हमें बोल्ट के भाग लेने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए?"
लेकिन क्या ये सब साइंस की साबित की हुई धारणाओं का हिस्सा नहीं है? नहीं l IAAF का ऐसे नियमों को मान लेना, सिर्फ इसलिए क्योंकि कई लोग इसका समर्थन कर रहे हैं, किसी भी तरह से वैज्ञानिक नहीं है। ये एक किस्म का मनगढंत, बेबुनियाद साइंस है।
ये एक आम सोच है कि हाइपरएंड्रोजेनिज़्म'(hyperandrogenism) महिलाओं को स्पोर्ट्स में एक विशेष फायदा देता है। दरअसल इसके समर्थन में कोई पुख्ता सबूत भी नहीं है। स्पोर्ट्स वैज्ञानिक टिम नॉक्स जैसे कई लोगों ने कहा है कि सेमेन्या एक अच्छी एथलीट है। उन्होंने साथ साथ ये भी कहा कि ये कभी नहीं दिखा है कि अपने साथी एथलीटस के मुकाबले उन्हें कोई बड़ा फायदा मिला हो । उनका प्रदर्शन बिल्कुल उसी तरह का रहा है जैसे दूसरी महिला एथलीटों का। तो फिर बस उनको ही जांच के आम दायरे में क्यों अलग रखा गया है, ये बात अभी तक साफ नहीं है।
आई.ए.ए.एफ. (IAAF) की इस सोच की आलोचना कई वैज्ञानिकों ने की है| इंटरनेशनल स्पोर्ट्स लॉ जर्नल (International Sports Law Journal) ने फरवरी 2019 में एक आर्टिकल लिखा, जिसमें IAAF के आंकड़ों में "भारी खामियों" की ओर इशारा था। उस आर्टिकल ने बताया कि इन खामियों की वजह से "ग़ैरभरोसेमन्द रिजल्ट" आये जिससे "विज्ञान की निष्ठा पे एक काला धब्बा" लग गया। उसमें कहा गया कि IAAF के टेस्टोस्टेरोन सम्बंधित नियम "एक बेबुनियाद वैज्ञानिक आधार पर दिए गए थे"। हाइपरएंड्रोजेनिज़्म वाले एथलीटों को मिडिल डिस्टेंस दौड़ में फायदा होता है ?!- IAAF के इस तर्क को दूसरे लोगों ने भी "पूरी तरह से बेबुनियाद" माना है।
GH -2000 ने एक जांच की, जिसके प्रमुख जांचकर्ता पीटर सोंकसेन थे। उसमें बताया गया कि सामान्य पुरुषों और महिलाओं के बीच टेस्टोस्टेरोन का जो अंतर मौज़ूद है, वह अंतर ऊंचे वर्ग के एथलीटों में लागू नहीं होता है। क्योंकि ऊँचे वर्ग के एथलीटों में ओवरलैप की संभावना होती है। सोंकसेन ने बी.बी.सी (BBC) को बताया, "इस बेवकूफी भरे नियम के कारण IAAF एकदम ही गलत दिशा में जा रहा है।"
दी वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन (The World Medical Association- WMA) ने अपने सदस्यों से कहा है कि वे IAAF के नियमों का पालन ना करें, क्योंकि वो नियम ‘सिर्फ एक ही जांच से इकट्ठा किये गए तर्क’ पर आधारित हैं। और तो और WMA ने कुछ यूं कहा है कि WMA के सोच विचार, उसकी नैतिकता के बारे में हमें जो भी समझ में आया है, IAAF के निर्देश उसके बिल्कुल ही विपरीत हैं।
तो IAAF ये कहना चाह रहा है कि "पुरुष सेक्स हार्मोन" जैसे कि टेस्टोस्टेरोन एक अनुचित फायदा देता है। लेकिन किसमें कौन से हार्मोन है, या कौन से हार्मोन पुरुष के लिए बने हैं और कौन से हॉर्मोन महिला के लिए बने हैं, ये बंटवारा कैसे किया जा सकता है?
1920 के दशक तक, यह माना जाता था कि महिलाओं में, अंडाशय (ovaries) केवल "औरत" वाले हार्मोन पैदा करते हैं और पुरुषों में, वृषण/टेस्ट्स (testes) केवल 'मर्दों' वाले हार्मोन पैदा करते हैं। इन हॉर्मोन्स से वो लक्षण बनते हैं जिन्हें हम "सेकेंडरी सेक्स विशेषताएं" कहते हैं। यानी कि युवावस्था के दौरान विकसित होने वाली विशेषताएं जिससे इंसान एक आदमी या एक औरत की तरह दिखने लगता है।
महिलाओं में, स्तन और चौड़ी कमर जैसी विशेषताएं दिखने लगती हैं, जबकि पुरुषों में आमतौर पर आवाज में भारीपन, चेहरे पे बाल, हड्डियों का कड़ापन और मांसपेशियों में बढ़ोतरी होती है। 'औरत' वाले हार्मोन को एस्ट्रोजन और 'मर्द' वाले हार्मोन को टेस्टोस्टेरोन का नाम दिया गया है। लेकिन यह जल्दी ही पता चल गया कि पुरुष और महिला, दोनों ही दोनों प्रकार के हार्मोन पैदा करते हैं। फिर भी, हॉर्मोन का किसी एक ख़ास जेंडर से जोड़े जाना एक आम सोच बन गयी है। जबकि ऐसा नहीं है।
कैटरीना कार्काज़िस, जो कि स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में जैव-विज्ञानी हैं, और टेस्टोस्टेरोन - एन अनऑथोराईसड बायोग्राफी (Testosterone: An Unauthorised Biography) की सह-लेखिका हैं, वो कहती हैं कि टेस्टोस्टेरोन को "पुरुष सेक्स हार्मोन" कहना गलत है। क्योंकि ऐसा कहना एक तरह से इस बात पर इशारा करता है कि ये हार्मोन पुरुषों में ही पाया जाना चाहिए। और महिलाओं के शरीर में इसका होना एक तरह से नाज़ायज है। लेकिन महिलाओं के स्वस्थ शरीर के लिए भी टेस्टोस्टेरोन की ज़रूरत होती है। दरअसल ये हार्मोन सिर्फ जेंडर में फर्क को बताने के लिए पैदा नहीं होता है। "[टेस्टोस्टेरोन] की ज़रूरत कई दूसरी चीजों के लिए भी होती है। इसकी भूमिका सिर्फ जेंडर के फर्क, प्रजनन संरचनाओं (reproductive systems) और शरीर विज्ञान (physiology) तक ही सीमित नहीं है", ऐसा कार्काज़िस कहती हैं।
कार्काज़िस का यह भी कहना है कि टेस्टोस्टेरोन को खासकर पुरुषों से जोड़ना एक तरह की सोच है, ये विज्ञान नहीं है।
परेशानी तो ये है कि जेंडर को लेकर आम विचार अक्सर गलत होते हैं, लेकिन समय के साथ वो जड़ पकड़ चुके होते हैं। और देखा जाए तो ये सोच सिर्फ पुरुष या महिला सेक्स हार्मोन तक ही सीमित नहीं है। अपनी किताब, सेक्स इटसेल्फ: द सर्च फ़ॉर मेल एंड फीमेल इन द ह्यूमन जीनोम (Sex Itself: The Search for Male and Female in the Human Genome) में, इतिहासकार और विज्ञान की फिलोसोफर साराह रिचर्डसन ने बताया है कि X और Y क्रोमोसोम्स को जेंडर के साथ जोड़ना कितना गलत और बेबुनियाद है। X को महिला क्रोमोजोम माना जाता है, और Y को पुरुष क्रोमोजोम। इस जड़ पकड़ चुकी सोच को बदलने की ज़रूरत है! माना जाता है कि महिलाओं में क्रोमोजोम का संयोजन XX के रूप में होता है, और पुरुषों में XY के रूप में। ये सोच ना कि सिर्फ बेबुनियाद बल्कि गलत भी है।
इसलिए जब 1985 में स्पेनिश हर्डलर (hurdler- बाधा दौड़ की खिलाड़ी) मारिया जोस मार्टिनेज-पैटिनो को बोला गया कि उनको एक महिला होने की मान्यता नहीं मिल सकती है क्योंकि उनमे X और Y दोनों क्रोमोसोम हैं, तो उन्हें अपनी खोये सम्मान और जगह को पाने के लिए सालों तक लड़ना पड़ा। और जब तक ये लड़ाई खत्म हुई, तब तक उन्होंने एथलीट के रूप में अपने सबसे कीमती साल खो दिए थे। लेकिन उन्होंने ये साबित कर दिया कि उनके शरीर में Y क्रोमोसोम का होना एक कभी कभी होने वाला जेनेटिक सिंड्रोम था। और भले ही उनके खून में टेस्टोस्टेरोन का लेवल काफी ज्यादा था, लेकिन उनका शरीर इसके प्रति असंवेदनशील (insensitive) था और इसलिए उससे उनके शरीर पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। यानी कि उन्हें कोई विशेष फायदा नहीं मिल रहा था। (द लांसेट - The Lancet, नाम के साप्ताहिक जर्नल में, खेलों में जेंडर प्रमाणीकरण पर उन्होंने एक आर्टिकल सह लेखक के रूप में लिखा है। उसे जरूर पढ़ें।)
कई लोग यह भी कह रहे हैं कि सेमेन्या जैसी महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार जातिवाद के कारण किया जा रहा है।
कुछ लोगों का कहना है कि सेमेन्या को परेशान (IAAF करीब एक दशक से इनके पीछे पड़ी हुई है) सिर्फ इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि वह जेंडर के संबंध में एक रूढ़िवादी सोच पे खरीनहीं उतर रहीं हैं। बल्कि इसलिए भी क्योंकि वो गोरी औरतों को लेकर जो एक आदर्श बनाया जाता है, उसमें फिट नहीं आतीं। कुछ का मानना है कि सिर्फ उन महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है जो विकासशील (developing) देशों से आई हैं।
इंटरसेक्स (मध्यलिंगी) एक्टिविस्ट और इंटरसेक्स जस्टिस प्रोजेक्ट (Intersex Justice Project) के संस्थापक, पिजों पडोनिस ने कहा, "मुझे लगता है यह सब इसलिए हुआ क्योंकि कॉस्टर ‘गोरी’ महिलाओं से काफी तेज़ दौड़ती है और वो उनको धूल चटा देती है।" कुछ लोग यह भी मानते हैं कि व्यक्तिगत कारणों से भी सेमेन्या को निशाना बनाया जा रहा है।
क्या IAAF का सेमेन्या के साथ ये व्यवहार एक अकेला ऐसा मामला है?
नहीं, यह एक आदत है जो काफी समय से मौजूद है। एक प्रथा जो सालों से चली आ रही है।
- 1936 में, अमेरिकी एथलीट हेलेन स्टीफेंस पर बर्लिन ओलंपिक्स में मेडल जीतने के बाद आरोप लगाया गया था कि वह एक पुरुष हैं। कई अजीब-अजीब टेस्ट के बाद ही उन्हें महिला घोषित किया गया।
- 1946 में, IAAF ने महिला एथलीटों के लिए ये अनिवार्य कर दिया कि उनको अपने महिला होने का प्रमाण पत्र देना पड़ेगा। दो साल बाद IOC ने भी यही नियम अपना लिया।
- 1966 में, IAAF ने यूरोपीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप में सभी महिला एथलीटों का एक ऐसा परीक्षण शुरू किया, जिसमें डॉक्टरों का एक पैनल एथलीटों के जननांगों (genitals) का निरीक्षण करता था। कुछ दो साल चलने के बाद इस नियम पे रोक लगाया गया।
- 1967 में, अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (International Olympics Committee- IOC) ने Y क्रोमोजोम का टेस्ट करने के लिए एथलीटों के चीक स्वाब्स (cheek swabs- गाल के अंदर का तत्व जिससे DNA टेस्ट हो सकता है) लेना शुरू किया। और बाद में, IAAF ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया। पोलैंड की ओलंपिक एथलीट तेज़ धावक/स्प्रिंटर ईवा क्लुबुकोव्स्का 1967 में उस टेस्ट में फेल हो गईं। उन्होंने इस फैसले को चुनौती तो दी, लेकिन IOC और IAAF ने उसे नहीं माना। 1968 में, उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। तब जाकर, उस साल, इन परीक्षणों में बदलाव किया गया। लेकिन दूसरी सात महिलाएं 1972 से पहले इस टेस्ट में फेल हो चुकी थीं।
- 1988 में, IAAF वापस विसुअल (visual) टेस्ट्स कराने लगा।
- आखिरकार IAAF ने 1992 में, और IOC ने 1999 में हर तरह के जेंडर टेस्ट को खारिज़ किया। लेकिन ये अधिकार अपने पास रखा कि अगर कहीं कोई संदेह पैदा हो तो टेस्ट किया जायेगा।
- 2006 में, भारतीय धावक/रनर सांथी सौंदराजन ने 2006 के एशियाई खेलों में जीत हासिल की। लेकिन जेंडर टेस्ट में 'फेल' हो गयीं। हालांकि बाद में उस फैसले को बदला गया और वो टेस्ट में पास हुई, फिर भी इस पूरी घटना का उनके करियर पर बहुत बुरा असर पड़ा। यहां तक कि कई बार उन्होंने आत्महत्या करने की सोची। भारतीय खेल अधिकारियों ने उनके शरीर की जांच की थी और बिना असली कारण बताए उनके ब्लड सैम्पल्स भी लिए थे। (एथलेटिक्स साउथ अफ्रीका, जो कि सेमेन्या के देश में एथेलेटिक्स की गवर्निंग बॉडी है, ने भी 2009 में यह झूठ कह कर उनका जेंडर टेस्ट करवाया कि यह बस एक औपचारिक डोप टेस्ट है।)
- भारतीय खेल प्राधिकरण (The Indian Sports Authority of India- SAI) ने चांद को भी टेस्ट में फेल कर दिया था। 2014 में उनकी जानकारी के बिना SAI ने उनका हाइपरएंड्रोजेनिज़्म का टेस्ट किया था और उसके आधार पर उनको आने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने से रोकने की कोशिश भी की थी। चांद, CAS में उस नियम के खिलाफ खड़े हुईं । इस के बाद IAAF के नियमों को दो साल के लिए रोक भी दिया गया था। “मेरे अंदर जो कुछ भी है वह नेचुरल है। मैंने डोप नहीं किया है। तो मुझपर या मेरे जैसी दूसरी महिला एथलीटों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए," चाँद ने कहा था।
- यहां हमें एशियन गेम्स की स्वर्ण पदक विजेता पिंकी प्रमाणिक के केस को भी नहीं भूलना चाहिये। शांति सौंदराजन वाली घटना के बाद उनके जेंडर पर संदेह होने के कारण, उन्हें खेल से बाहर कर दिया गया था। और कुछ साल बाद उन्हें और गहरे सदमे से गुजरना पड़ा : जब उनके ऊपर बलात्कारी होने का आरोप लगा था, उस ही दौरान उनका वो वीडियो पब्लिक कर दिया गया, जिसमें डॉक्टर उनकी जांच कर रहे थे।
जेंडर टेस्ट्स, सबसे पहले तो, एक बेबुनियाद वैज्ञानिक सोच पर आधारित है। दूसरा, उनके कारण लंबे समय तक उन महिलाओं ने अपमान सहा है, जिनके जेंडर पर संदेह किया गया है। इस तरह की सोच का उनपर बहुत ही बुरा असर पड़ा है।
और तब क्या होगा अगर आप एक ट्रांसजेंडर (विपरीतलिंगी- transgender) हैं? क्या आपको स्पोर्ट्स में करियर बनाने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए?
नहीं, हालांकि यह अलग-अलग देशों के स्पोर्ट्स बॉडीज (और अलग-अलग तरह के स्पोर्ट्स बॉडीज ) पर निर्भर करता है, और इस पर भी कि उनके अपने नियम क्या-क्या हैं? 2003 से 2016 तक, IOC के निर्देशों के तहत, अगर किसी कम्पटीशन में भाग लेना है, तो ट्रांसजेंडर एथलीटों को सेक्स रीअसाइनमेन्ट सर्जरी (sex reassignment surgery) और कम से कम दो साल तक हार्मोन थेरेपी से गुजरना पड़ता था। सेक्स रीअसाइनमेन्ट सर्जरी ऐसी सर्जरी होती है जिसमें उन अंगों को विकसित करने पे ध्यान दिया जाता है जो एक ट्रांसजेंडर में पुरुष या महिला में से जिनके लक्षण ज्यादा हो, उस तरह उनका शरीर बनाया जा सके।
2016 की बात करें तो, अब सर्जरी की जरूरत नहीं है। लेकिन टेस्टोस्टेरोन लेवल को 10 nmol/L से नीचे बनाए रखने के लिए पुरुष-से-महिला ट्रांसजेंडर एथलीटों को कम से कम एक साल के लिए हार्मोन की दवाइयां लेना अनिवार्य है।
महिला-से-पुरुष ट्रांसजेंडर एथलीटों को हार्मोन लेने की कोई जरूरत नहीं है।
रिटायर हो चुके मिक्स्ड मार्शलआर्ट फाइटर फॉलन फॉक्स, साइक्लि चैंपियन राशेल मैककिनोन और डुथलॉन (duathlon- रनिंग और साइकिलिंग स्पोर्ट्स) एथलीट क्रिस मोसियर सफल ट्रांसजेंडर एथलीटों के उदाहरण हैं।
तो अब केस्टर सेमेन्या का क्या होगा?
स्विस फेडरल ट्रिब्यूनल (Swiss Federal Tribunal) में अपील करने के लिए उसके पास 30 दिन का समय है। और ऐसी खबर है कि वो उसमें अपील करने जा रही हैं। लेकिन एपी न्यूज (AP News) का कहना है, "आजतक शायद ही किसी जज ने वर्ल्ड स्पोर्ट्स कोर्ट के फैसले के खिलाफ कोई राय दी हो।"
एक बयान में, सेमेन्या ने कहा: "मुझे पता है कि IAAF ने हमेशा मुझपर ही खास रूप से निशाना साधा है। एक दशक से IAAF ने मुझे कमज़ोर करने की कोशिश की है, लेकिन असल में इस सब के कारण मैं और भी मज़बूत हो गयी हूँ। CAS का फैसला मुझे रोक नहीं पायेगा। मैं एक बार फिर उठूंगी और दक्षिण अफ्रीका और दुनिया भर की युवा महिलाओं और एथलीटों को प्रेरित करती रहूंगी।”
जेंडर को और अच्छी तरह से समझने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक्स/links की मदद ले सकते हैं।
हॉर्मोन्स की जानकारी:
साराह रिचर्डसन द्वारा लिखा-
सेक्स इटसेल्फ: द सर्च फ़ॉर मेल एंड फीमेल इन द ह्यूमन जीनोम- Sex Itself: The Search for Male and Female in the Human Genome
चयनिका शाह, राज मर्चेंट, शल्स महाजन, स्मृति नेवेटिया द्वारा लिखा -
नो ओटलॉज़ इन द जेंडर गैलेक्सी- No Outlaws in the Gender Galaxy
रेबेका एम जॉर्डन-यंग, कैटरीना कारकाज़िस द्वारा लिखा- टेस्टोस्टेरोन: एन अनऑथोराइजड बायोग्राफी-
Testosterone: An Unauthorised Biography
द जेंडरब्रेड पर्सन- The Genderbread Person
जी इमान सेमलार द्वारा लिखा-
कॉस्टर सेमेन्या बनाम IAAF- बीलीविंग दैट टेस्टोस्टेरोन इज़ अ सुपरह्यूमन हॉर्मोन इज़ अ मस्क्लिनिस्ट मिथ-
"Caster Semenya vs IAAF: Believing that testosterone is a superhuman hormone is a masculinist myth"
कॉस्टर सेमेन्या, हॉर्मोन को लेकर गलतफहमियां और कुछ अटपटे, दोहरे मापदंड!
Is everything we think we know about gender wrong?
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