सुधांशु मित्रा द्वारा
यानी कि: अब, मैं अपनी उस उस सोचने के तरीके को कैंसिल करके आगे बढ़ रहा हूँ, जो मैंने खास लड़कों के बीच रहकर पाया था। मुझे लगता है ऐसा करने से मैं एक बेहतर इंसान बन रहा हूँ।
हाल ही में, मैं टिंडर (Tinder), कॉफी मीटस बैगल (Coffee Meets Bagel) और ओके क्यूपिड (Ok Cupid) जैसे एप्प (app) का इस्तेमाल करके डेट्स पे जाने लगा हूँ। मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि डेटिंग स्पेस पर क्या करून, क्या नहीं,और किन तरीकों से अपने डेट्स के साथ बातचीत कर सकता हूँ। मैं अपने उन रिश्तों में नम्रता, सहानुभूति और ईमानदारी लाने की कोशिश करता हूँ। इसका कुछ क्रेडिट मेरे लिबरल आर्ट्स (liberal arts) कोर्स को भी जाता है जो मैंने अभी अभी पूरा किया है और जिससे मुझे आस-पास की दुनिया के बारे में नया जानने और समझने को मिला है। यानी कि, जब हम अधिकार, समानता और पावर के बारे में पढ़ते हैं, और अपने जीवन को उसी रोशनी में देखते हैं, तो मन में बहुत सारे सवाल उठते हैं। हालांकि मैंने ये कोशिश केवल 5-6 महीने पहले ही शुरू की, लेकिन इस छोटे समय में भी बहुत कुछ सीख लिया है। मैंने सीखा कि डेटिंग, सेक्स और रिश्तों के बारे में मुझे असल में कितना पता है (या यूँ कहें कि कितना नहीं पता है !)।
इंजीनियरिंग के दौरान, मेरे पुरुष दोस्तों और मैंने सेक्स और महिलाओं के बारे में बहुत बातें की हैं, लेकिन उस तरीके से जो ना उनके और ना हमारे लिए सही थीं। हमारी बातचीत में अक्सर ऐसे कमैंट्स होते जो औरतों को नीचा दिखाते, जैसे कि वो लड़की कितनी "हॉट" है, कितनी "सेक्स-करने टाइप" है। और कभी-कभी ये कल्पना भी करना कि फलाने के साथ सेक्स करने में कैसा लगेगा। हम एक दूसरे को "हॉट" लड़कियों की तस्वीरें भेजते थे और उन पर कमेंट करते थे। हम लैंगिक (sexist) जोक (joke) भी करते थे, जिसमें लड़कियों के शरीर का कार्टून बनाना या डेस्क पे डूडल करने जैसी चीज़ें शामिल थीं। "बूबस" (boobs) और "एस" (ass) जैसे शब्द तो हम हर समय इस्तेमाल करते थे। और अधिकतर जोक में हस्तमैथुन (masturbation) की बात भी करते थे। हम बात करते थे कि हमने कितनी बार हस्तमैथुन किया होगा, कितने तरीकों से किया होगा, और उन लोगों को शर्मिंदा करते थे जो हस्तमैथुन के बारे में जानते ही नहीं थे। "गेट लॉस्ट" (get lost) या "गो अवे" (go away) के बजाय, हम कहते थे "जाओ हस्तमैथुन करो" ("होडको" (hodko) - जैसा कि कन्नड़ में बोलचाल की भाषा में कहा जाता है)।
सच ये था कि, हम में से अधिकतर लोगों का किसी लड़की के साथ यौन संबंध नहीं था ( लगभग 20 लड़कों के मेरे सर्कल में तो किसी का नहीं)। लेकिन, जिन लोगों ने संबंध बनाए भी थे, वी अक्सर यही बात करते थे कि उन्हें कैसा और कितनी बार "मुखमैथुन" (blow-job) मिला, या कि सम्बंध कौन से लेवेल पे था- सिर्फ किस या शरीर छूने या मुखमैथुन वाले लेवेल पे। या अगर कोई विशेष पोर्न वाली पोजीशन ट्राय की गई थी, या कैसे लड़की ने बड़े पीनिस (penis) की सराहना की। हम उन पोर्न वीडियो के बारे में बात करते थे जो हमने देखे हों, या पोर्न स्टार्स की चर्चा करते थे, या फिर उन पोर्न वीडियो के साइज (गीगाबाइट्स) की बात करते थे जिन्हें हमने तब डाउनलोड किया हो।
लेकिन हमने सेक्स को लेकर हमारी असली भावनाओं के बारे में ईमानदारी से कभी बात नहीं की। जब किसी लड़की के ना कहने से हम अकेला या हताश महसूस करते थे, हम अक्सर दारू की बोतल पकड़ लेते थे। हम सेक्स से संबंधित अपनी अज्ञानता और आशंकाओं के बारे में बात नहीं करते थे, ना ही इस बारे में कि हमें देखभाल, प्यार, और अपनेपन की कितनी ज़रूरत है। हम उन तरीकों के बारे में भी बात नहीं करते थे जिनसे हमारी सेक्स की भूख को थोड़ी शान्ति मिल सकती थी, और हमें इतना ज़्यादा पोर्न में पड़े रहने की ज़रुरत न होती। हम एक अच्छा भर-पूरा रिश्ता बनाने, ईर्ष्या जैसी भावनाओं को संभालने या फिर ब्रेकअप से बाहर आने के तरीकों पर कभी चर्चा नहीं करते थे।
उस समय तो एक बार बच्चे बड़े हो गए तो पेरेंट्स भी उन्हें गले लगाने, पकड़ने या छूकर प्यार जताने से कतराते थे। किसी के नज़दीक होने का अहसास हम लड़कों को तब ही मिल सकता था जब हम सब कंप्यूटर गेम खेला करते थे, बार जाते थे, कॉलेज में घूमा करते थे या किसी कॉन्सर्ट में जाते थे। और अगर किसी के पास गर्लफ्रैंड नहीं है या वो डेटिंग नहीं कर रहा है, फिर तो वो हर तरह के शारीरिक प्रेम से दूर रहता था। किसी भी और तरीके से घुलना-मिलना जैसे कि एक दूसरे को देर तक गले लगाना, हाथ पकड़ना, किस करना, ये सब सेक्स वाली नज़र से देखा जाता था और हमारा होमोफोबिया (homophobia- समलैंगिक लोगों से घबराहट और नफरत) हम लड़कों के बीच ऐसी नज़दीकियों को रोकता था। हम सेक्स के हाव भाव से भरे " गे" (समलैंगिक) संबंधों के ऊपर वीडियो बनाते थे, फेसबुक पे कई स्टेटस और कमैंट्स डालते थे कि कोई कितना समलैंगिक (gay) है या कोई कैसे 'दूसरे' लिंग का है। इस सब का मतलब ये था कि अगर मैं लड़कों के साथ अपनी सेक्सुअलिटी समझना चाहता भी, तो मुझे इन इच्छाओं को लेकर इतना गिल्ट लगने लगता कि मैं शायद खुद भी इस सोच को अपने पास फटकने नहीं देता, किसी और से इस बारे में बात करना तो बहुत दूर की बात है।
हम बस नशे की हालत में एक दूसरे के सामने रो सकते थे। कॉलेज में लगभग एक साल बिताने के बाद, हम में से अधिकांश लोग अपने अकेलेपन, दुख, ब्रेकअप या गुस्से का इलाज़ कमरे में रोकर, कविता लिखकर या अपना ध्यान भटकाकर किया करते थे। जबकि हम अक्सर एक साथ घूमा-फिरा करते थे, लेकिन कभी खुलकर बात नहीं करते थे, एक दूसरे को प्यार से छूते-सहलाते नहीं थे, और ना ही अपनी सोच या भावना को ईमानदारी से सामने रखते थे। डर था कि कहीं हँसी ना उड़ जाए, या कहीं लोग इसे सेक्स की नज़र से देखें, हमें शर्मिन्दा ना होना पड़े। हमें नहीं पता था कि पेइट्रआर्कल (patriarchal- सामाजिक सिस्टम जिसमें हर किस्म का पावर मुख्य र्रोप से आदमियों के हाथ में ही होता है) सोच क्या होती है, या कि उसकी वज़ह से लड़कों के बीच प्यार से छूने जैसी अंतरंगता ना के बराबर रह गयी है। ना ही हमने एक दूसरे के साथ इस खालीपन पर चर्चा की और न ही हमारे पेरेंट्स और रिश्तेदारों ने हमें कुछ बताया।
अब, जब मैं डेट्स पे जाता हूँ, तो उस पुरानी मर्दानी सोच का असर साफ दिखता है। अपनी हर पल की भावना को समझने में भी टाइम लगता है, और फिर एक पॉजिटिव तरीके और सूझ-बूझ भरी बातचीत के साथ उसे संभालना पड़ता है। हमेशा एक डर रहता है कि शायद मैं सेक्स में अच्छी तरह से परफॉर्म ना कर पाऊँ और अपने डेट को निराश कर दूँ। और क्या होगा अगर चीजें आगे बढ़ीं और मैं बिस्तर में अच्छा नहीं कर पाया? क्या मेरा पार्टनर किसी ऐसे आदमी के साथ रहना चाहेगा जिसे कोई एक्सपीरिएंस न हो और जो सेक्स करने के तरीके सीख ही रहा हो? क्या मेरा इस मामले में एक्सपीरिएंस ना होना किसी तरह की प्रॉब्लम ला सकता है? ये चीजें हैं जिनके बारे में सोचकर मैं कभी-कभी डर जाता हूँ तो कभी शर्म महसूस करता हूं।
कभी-कभी, यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कहीं मैं अपने डेट्स को, अपनी दूसरी ज़रूरतों से भागने के लिए तो नहीं इस्तेमाल कर रहा हूँ। या कि अपने प्यार और अपनेपन की भूख को सेक्स की भूख तो नहीं समझ रहा हूँ। हमेशा सच भी तो नहीं कहा जा सकता, अगर किसी वक्त मुझे सेक्स में कोई दिलचस्पी नहीं है। और कभी कभी ये समझना मुश्किल हो जाता है कि कैसे अपने डेट को अपनी चाहत के बारे में बताएं... कैसे किसी के शरीर को एक्स्प्लोर करने को जी चाहता है । वो तो भाग ही जाएगी। लेकिन अब जबकि मैंने #MeToo मूवमेंट या फेनिनिसम पर लिखे कई आर्टिकल पढ़े है, मैं इन एक्सपीरिएंस को अलग रोशनी में देखता हूँ, और जानता हूँ कि मुझे नई राह तलाशनी है।
इन सब चीज़ों के बारे में सोचने से, मेरा व्यवहार बदल गया है। हर बार जब मैं किसी लड़की के साथ डेट पर जाता हूं, और हम कोई प्राइवेट जगह पर होते हैं, तो मुझे अपने ऊपर एक अजीब सा प्रेशर महसूस होता है - "पहला कदम उठाने का" या "सेक्स की शुरुआत करने का"। सच में, मेरे लिए ये समझना मुश्किल हो जाता है कि मैं दबाव में आकर सेक्स करता हूँ या सचमुच सेक्स करना चाहता हूँ। मैंने हमेशा ये माना है कि लड़के को ही पहला कदम उठाना चाहिए। मुझे याद है, एक बार मैं सेक्स नहीं करना चाहता था, लेकिन सिर्फ इसलिए आगे बढ़ा क्योंकि बिना इन चोंचलों के डेट का मतलब ही क्या है, है ना?। लेकिन एक बार मैंने पहला कदम नहीं उठाना तय किया। और किसी प्रेशर में ना आकर, हमने एक दूसरे के साथ खूबसूरत समय बिताया, जिसमें हमने बातचीत की और मूवी भी देखी।
एक बार, मैंने अपने डेट से पूछा कि क्या वो किस करना चाहती है, और उसने हाँ कहा। मुझे बहुत अच्छा लगा। हालांकि सब कहते हैं कि सेक्स के पहले ऐसी बातें करना उस पल को बर्बाद कर देता है, मुझे ऐसा लगता है कि बातचीत करके अगर सामने वाले कि मंजूरी ली जाए और हर कदम पे उसके भाव पढ़े जाएं, तो ये और भी सेक्सी और रोमांटिक हो सकता है। और अब तो मैंने ये नियम सा बना लिया है कि सेक्स के पहले और बाद में अपनी फीलिंग्स के बारे में बात करूं। जबकि मैं अभी भी अकेलेपन, हीनभावना, सेक्सुअल इच्छाएं, देर तक गले लगने की चाह, सेक्स का लिमिटेड अनुभव, और अलग-अलग सेक्स पोजीशन की कम समझ के बारे में खुलकर बात नहीं कर पाता हूँ, मुझे ये एहसास हुआ है कि उनके बारे में बात करने से मेरे डेट्स के साथ मेरा रिश्ता और निखरता है।
सेक्स ना करने से या यूं कहें कि सेक्स को बहुत महत्त्व ना देने से मेरे अपने डेट्स के साथ कई अलग तरह के रिश्ते बने, जो आम तौर पर हम एक्सपीरियंस नहीं कर पाते हैं। जैसे कि मेरा एक रिश्ता ऐसा है जिसमें, जब हमें किसी इंसान की फिज़िकल उपस्थिति चाहिए होती है, हम एक दूसरे को कॉल करते हैं, चाहे वो काम करते समय हो, या रात को सोते समय। चूंकि हम दोनों जानते हैं कि हम क्यों मिल रहे हैं और हमने खुलकर उसकी चर्चा की है, इसलिए हम एक दूसरे का साथ दे पाते हैं। एक इंसान की मौजूद की और उसके एहसास की ज़रूरत पूरी कर पाते हैं। ये हमें अगले दिन उतना अकेला महसूस नहीं करने देता और हम कम्पलीट महसूस करते हैं। जब भी हम एक दूसरे को पकड़कर सोते है, उस सुबह एक अलग ही उत्साह और ऊर्जा के साथ काम करते हैं।
आजकल, मैं ऑर्गेज़म (orgasm) को समझने की कोशिश कर रहा है। मेरे अंदर ये सोच कूट-कूट कर भरी थी (खासकर पोर्न वीडियोस से) कि सेक्स का मतलब है मर्द की खुशी। अगर मर्द ने कम (cum) नहीं किया तो वो सेक्स कोई सेक्स नहीं है। ज़्यादातर पोर्न वीडियो में कुछ फोरप्ले होता है, औरतें मुख मैथुन (blowjob) देती हैं, सेक्स की अलग-अलग पोजीशन ट्राय की जाती है (खासकर पेनो-वेजाईनल- penovaginal, जहां पीनिस योनी के अंदर डाली जाती है) और फिर अंत में आदमी उस औरत के ऊपर इजैक्युलेट (ejaculate- वीर्य स्खलित करना) करता है। हाल-फिलहाल में मैंने किसी भी डेट के साथ कम (cum) नहीं किया, और ना ही इसकी जरूरत महसूस हुई है। मुझे सेक्स तब इंटरेस्टिंग लगता है जब मैं अपनी पार्टनर के आनंद पर ध्यान देता हूँ। इस बात पर ध्यान देता हूँ की मेरी हर हरकत का उसके शरीर पर क्या असर हो रहा है, वो क्या जवाब दे रहा है, या उसकी साँसों के तेज होने पर गौर करता हूँ । या फिर वो जैसे-जैसे गाइड करे, बस वो सब करता चला जाता हूँ, बिना ये सोचे कि सब पोर्न विडिओ की तरह क्यों नहीं हो रहा। ऐसा करने से, मैं अपनी ज़रूरतें बेहतर समझ पाता हूँ ,उसपे ध्यान देता हूँ, ना कि इसपे कि सेक्स के बारे में मुझे क्या बताया गया है।
जिस तरह का मैं बन गया हूँ, वो दरअसल मर्दाना सोच को चुनौती देने जैसा है - लेकिन हाँ, मैं इसे जानबूझ कर चुन रहा हूं। इसने मेरे लिए आनंद के नए दरवाज़े खोले हैं और मेरी इंसेक्युरिटीस को ढकने की बजाय उनसे छुटकारा पाने का भी रास्ता दिखाया है, वो इंसेक्युरिटीस जो अक्सर मर्दों में पाई जाती हैं। मुझे अपने
पार्टनर को आनंद देने में सचमुच मज़ा आता है। तो इसका मतलब ये है कि मैं ट्रेडिशनल सेक्स के तरीके ( जिसे मुझे घोट घोट कर पिलाया गया था), को उतना महत्त्व नहीं देता हूँ। मैं अपने पार्टनर को क्लिटोरिअल (clitorial) ओर्गास्म (उंगलियों, हाथ या अपने घुटने से) देने पे ज्यादा फोकस करता हूँ। मैंने अपने पार्टनर के रिस्पांस पर लगातार ध्यान देने का महत्त्व समझा है। उससे पूछते रहना, हर कदम पे उसकी सहमति लेना, धीरे-धीरे आगे बढ़ना और उसे पूरा समय देना ताकि वो खुलकर अपनी प्रतिक्रिया दे सके।
यहां एक और बात बताना चाहूँगा की दरअसल मुझे पेनो-वेजाईनल- penovaginal -सेक्स सही तरीके से आता नहीं है। कई बार मुझे समझ में नहीं आता है कि अपने पार्टनर को अपने इस डर के बारे में कैसे बताऊं। आम तौर पर मेरी पार्टनर ही मुझे गाइड करती है। कभी-कभी मैं इससे शर्मिंदा भी होता हूँ। लेकिन मैंने कभी भी अपने लाइफ में किसी लड़के या लड़की से इस बारे में बात नहीं की। बस अभी कुछ हफ्ते पहले एक दोस्त (लड़का) से मैंने इसकी चर्चा की।
पहली बार, मैंने इस मित्र के साथ इत्मीनान से बातचीत की और मैंने उससे अपनी आशंकाओं,भय और संदेह उसके साथ शेयर किये। हमने अपने पहले सेक्सुअल अनुभवों के बारे में बात की, और इस सच को माना कि हम असल में सेक्स के सम्बंधित कई पहलुओं से अनजान थे। जैसे कि कंडोम(condom) कैसे पहना जाता है, सेक्स के दौरान पार्टनर की सहमति कैसे लेनी है, हमारी पसंद-नापसंद कैसे बतानी है, पेनो-वेजाईनल- penovaginal ( शिश्न को योनी में डाल के) सेक्स कैसे करते हैं, भग-शिश्न(clitoris) और योनि को कैसे खोजना है, और सबसे ज़रूरी बात कि यह कैसे सुनिश्चित करना है कि हम खुद और हमारा पार्टनर दोनों संतुष्ट हों। आपस में बात करते हुए हमें अफसोस भी हुआ कि ना ही हमारे स्कूलों से और ना ही हमारे पेरेंट्स से हमें कभी सेक्स एजूकेशन मिला।
मेरे दोस्त ने बताया कि उसने इंटरनेट से कंडोम पहनना, सेक्स करना और औरतों को खुश करने का तरीका सीखा था। हमने ये बात भी की कि कैसे 24-25 सालों तक हस्तमैथुन करने के बाद सचमुच का सेक्सुअल संबंध बनाना: इससे सेक्स पर असर ज़रूर पड़ता है। (कुछ पोज़िशन्स में सेक्स करने से वीर्य जल्दी बाहर आ जाता है- यानी इजैकुलेशन जल्दी हो जाता है- और इसलिए, ऐसे में आदमी बिस्तर पर कम देर 'टिक' पाता है। दरअसल उन्हें किसी विशेष तरीके से हस्तमैथुन (masturbation) करने की आदत होती है। कभी -कभी तो कुछ लोगों को हस्तमैथुन की इतनी आदत होती है कि उन्हें वही ज्यादा पसंद आता है और सिर्फ उसी से वो इजैकुलेट कर पाते हैं।
हमने इस बात पर भी चर्चा की कि जब सेक्स की बात आती है तो हम पर "परफॉरमेंस" का भी दबाव रहता है। मैंने उस से कुछ ऐसा शेयर किया जो पहले किसी से नहीं किया थ । हाल में ही, जब मैं एक औरत के साथ था, तो जैसे ही मैंने कंडोम पहनने की कोशिश की, मेरा इरेक्शन (erection) चला गया, और ऐसा ही फिर से हुआ जब मैंने पीनिस उसकी योनि में डालने की कोशिश की।
मेरे दोस्त ने पूछा कि ऐसा क्यों हुआ, और फिर कहा कि शायद यह तनाव की वजह से हुआ होगा। मुझे लगता है कि मेरे खुलकर बात करने से उसमें भी शेयर करने की हिम्मत आ गयी। उसने बताया कि कैसे उसने इंटरनेट से बिस्तर पर लंबे समय तक बिना इजैकुलेट करे, टिके रहने का तरीका सीखा था। ज़ाहिर सी बात है, अगर आप अपने पार्टनर को खुद से पहले कम (cum ) कराने में सफल हो जाते हैं, तो आपका कॉन्फिडेंस बढ़ जाएगा, और फिर आप आसानी से आगे बढ़ सकते हैं। उसने मुझे बताया कि एक हफ्ता ऐसा भी था जब उसे बहुत जल्दी इजैकुलेशन हो जाता था, और उसे इस वजह से बहुत शर्म आती थी। लेकिन इतना कहते ही वह मुस्कुराने लगा और बताया कि उसने अपने जादुई आकर्षण (mojo) को जल्द ही वापस पा लिया! और उसके बाद वो बिस्तर पर लंबे समय तक टिकने भी लगा था। उस वक़्त मैं खुद को यह पूछने से रोक नहीं पाया कि क्या उसने कभी इस पर अपने पार्टनर की राय जानने की कोशिश की? और क्या उसने अपने पार्टनर से पूछा कि उसे असली आनंद लंबी चलने वाले इंटरकोर्स से मिलता है या किसी और तरीकों से? उसने बताया कि उसने अपने पार्टनर से इस बारे में बात की थी, और उसके जल्दी इजैकुलेट हो जाने वाले दिनों में उसकी पार्टनर ने उसे काफी संभाला था और समझाया भी था कि इसमें शर्मिंदगी वाली कोई बात नहीं है। और हमें ये भी पता चला कि भले ही पोर्न वीडियो मर्दों के आनंद पर ही फोकस करते हैं, लेकिन असली ज़िंदगी में हम दोनों को अपने पार्टनर्स को उनका मनचाहा सुख देने में ज्यादा आनंद महसूस होता है।
किसी के साथ इन चीजों के बारे में बात करने से मुझे काफी राहत मिली।घर लौटने के बाद, हम दोनों ने एक-दूसरे को मैसेज (text) कर के बताया कि ये सारी बातचीत और एक दूसरे के साथ समय बिताना कितना बढ़िया रहा और काम भी आया।
इस बातचीत से मुझे ये भी लगा की अगर अपने पुरुष मित्रों से खुलकर ये सारी बातें करनी हैं, तो पहल मुझे ही करनी होगी।अगर मैं इस डर से चुप हो जाऊं कि सामने वाला मुझे कमज़ोर समझेगा, तो फिर तो कोई बात होगी ही नहीं। मेरे एक्सपीरियंस में पुरुष खुद से आपस में ये बात करते ही नहीं हैं ।
अभी, ऐसा लगता है जैसे कि मैं अपनी सेक्स, प्यार और लगाव- के इर्द गिर्द घूमने वाली ज़रूरतों की खोज में हूँ और उनको समझने में टाइम लगा रहा हूँ- यानी एक बढ़िया तरीके से टाइम बिता रहा हूँ। और ये भी पहली बार हुआ है कि मैं अपनी उम्मीदें, अपनी फीलिंग्स, डर, सेक्स के प्रति संदेह, सहमति - ये सारी बातों से जूझ रहा हूँ। और मेरे खुद के साथ और मेरे जीवन से जुड़े हुए दूसरे मर्द और औरतों के साथ अपने रिश्ते को एक रचनात्मक तरीके से निभा रहा हूं। मुझे ये भी एहसास हुआ है कि कैसे अपने अकेलेपन से सही तरीके से जूझने चाहिए। हम एक असली मर्द होने के चक्कर में, शुरू से ही, फिजिकल टच की , किसी के पास होने की, प्यार की और अपनेपन की चाहत को, पोर्न, शराब/तम्बाकू, गेमिंग (gaming) और खेल-कूद में दबा देते हैं। अपनी ज़िन्दगी के अलावा बाकी सभी चीज़ों के बारे में दूसरे मर्दों के साथ बातचीत कर लेते हैं और सेक्स के दौरान भी अपने पार्टनर की भावनाओं को अनदेखा कर देते हैं। मैंने सीखा है कि नारीवाद (feminism) का मतलब अच्छाई, सहानुभूति और खुद के साथ-साथ दूसरों के लिए भी अपनापन रखना होता है। ये सब करने से शायद मैं 'सच्चा' मर्द नहीं कहलाऊँगा, खासकर उन बिल्कुल टेढ़े-मेढ़े मापदंडों के अनुसार, जिनके साथ मैं बड़ा हुआ हूँ। लेकिन इससे मैं यकीनन एक बेहतर - और शायद एक खुशमिज़ाज इंसान बन रहा हूँ।
सुधामशु एक 26 वर्षीय cis -male हैं (यानी ऐसा कोई मर्द जिनकी अपनी पहचान उस पहचान से एकदम मिलती है, जो उसे जन्म के समय, उसकी शारीरिक रचना के आधार पर दी गई थी।) वो अभी भी सेक्सुअलिटी के विस्तार (स्पेक्ट्रम) की खोज कर रहे हैं और इनमें नारीवाद की धारणा भी धीरे धीरेजागने की कोशिश कर रही है । ये बैंगलोर में रहते हैं और प्रोफेशनली एक शोधकर्ता हैं।
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मेरे पुरुष दोस्त और मैंने अक्सर सेक्स की बात की, लेकिन उससे संबंधित अपनी असली फीलिंग्स के बारे में कभी नहीं।
मैं अपनी उस उस सोचने के तरीके को कैंसिल करके आगे बढ़ रहा हूँ, जो मैंने खास लड़कों के बीच रहकर पाया था। मुझे लगता है ऐसा करने से मैं एक बेहतर इंसान बन रहा हूँ।
लेखन : सुधांशु मित्रा
चित्रण : आलिया सिन्हा
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