मैं इसे अपनी बैंगन वाली कहानी समझती हूँ - मेरी एग्गप्लांट यानि बैंगन वाली कहानी, कार्टून इमोजी जैसी
मेरी बैंगनवाली कहानी ने दिल्ली में जन्म लिया, जिसका आम तौर पर सभी के लिए सबसे ज़्यादा असुरक्षित, ग़ैरमहफूज़ शहरों में शुमार है, महिलाओं के लिए ख़ासकर |
पूरे दिन काम करने के बाद, मैंने अपने एक दोस्त से मिलने का फ़ैसला किया | मैं सिर्फ़ दफ़्तर के माहौल से बाहर निकलना चाहती थी , सारा दिन भुलाकर अपने मिजाज़ को ठंडा करना चाहती थी | मैंने एक ऑटो - रिक्शा ली , कानों में अपना इयरफ़ोन लगाया, और सफ़र के लिए बैठ गई | पर उस ऑटो ड्राईवर के दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था,और उसने मुझसे सवाल किया |
ऑटोवाला: इसमें गाना भी बजाते हैं ?
मैं: (बेध्यानी में ) हाँजी
ऑटोवाला: (बेसाख़्ता) तभी लोग शादी कर लेते हैं, जीवन के सफ़र में किसी का साथ मिल जाता है , प्यार बनता है |
मैं: हाँजी
मैंने एक गहरी साँस खींची,और शादी-ब्याह की ख़ासियतों वगैरह पर उसकी अनचाही भाषणबाज़ी से किनारा किया पर फिर भी, कुछ कारणों से , मैंने उसकी बातें सुनने के लिए कानों से अपना हेडफ़ोन हटा दिया| शायद, एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते, ये एक अंदरूनी प्रवृति होती है जो अपने आप उभरकर आती है कि अगर आपको ये अहसास हो कि कोई आपसे बात करना चाहता है, तो उसको सुनिए |
मैं: हाँजी ! पर अकेले रहने में भी तो कोई बुराई नहीं है !
ऑटो वाला: प्यार मिलते रहना चाहिए | आपने कभी देखा है जवान लड़कियाँ ,अपने से बड़े मर्दों के साथ क्यूँ रहती हैं ? क्योंकि उनमें ज़्यादा स्टैमिना यानि रहने की शक्ति होती है | ये जो चिंकी यानि उत्तर भारत की छोरियां होती हैं वो हब्शी मर्दों के साथ क्यूँ जाती हैं ? क्योंकि उनका बड़ा होता है | तभी तो वो उनको छोड़ ही नहीं पातीं |
मुझे तब समझ में आया कि जब उसने ‘प्यार’ कहा था तो उसका मतलब सम्भोग से था | उन्हीं बातों के अक्स की वजह से मैंने ध्यान दिया कि कहीं वो ऑटो मुझे मेरे बताए हुए रास्ते से हटकर किसी दूसरे रास्ते पर तो नहीं ले जा रहा| पर वैसा नहीं था |
ऑटो वाला: औरतों को संतुष्ट करना बहुत मुश्किल होता है | औरत आग है ,और मरद पानी | मर्द को औरत को संतुष्ट यानि सैटिस्फाई करना आना चाहिए |
बातों का सिलसिला ज़ाहिर तौर पर असंगत - सा लगने लगा| उससे पीछा छुड़ाने के लिए, मैंने जल्दी से अपने दोस्त को कॉल किया और उससे ख़ूब तेज़ आवाज़ में बातें करने लगी ताकि उस ऑटो चालक को ये पता चल जाए कि मैं सावधान हूँ, अपनी हिफाज़त से परे नहीं|
अपनी मंज़िल के क़रीब आने पर मैंने अपनी कॉल ख़त्म कर दी, इस उम्मीद से कि उस ऑटो वाले को इशारा तो मिल ही गया होगा और अब वो दोबारा मुझसे ऐसी बातें नहीं करेगा|
पर मामला ऐसा नहीं था| उसने अपनी बातें जारी रखते हुए कहा|
ऑटो वाला: आप ही सोचिए , अगर मैं अपनी बीवी को खुश नहीं रख पाया तो वो मुझे किसी और के लिए छोड़ देगी , और सोसाइटी में, समाज में मेरी कितनी बेइज़्ज़ती होगी |
आपको पता है मेरी बीवी को सैटिस्फाई करना आसान नहीं है | कभी - कभी तो रात भर ऊँगली करनी पड़ती है ताकि वो संतुष्ट हो जाए | उँगलियाँ दर्द हो जाती हैं पर मैं इनक़ार नहीं कर सकता | कभी - कभी तो जो लम्बा वाला बैंगन होता है,उससे मुझे अपनी बीवी को सैटिस्फाई करना पड़ता है |वरना वो मुझे छोड़ के किसी और के पास चली जाएगी|
मैं हतप्रभ रह गई वो सब सुनके जो मैं सुन रही थी, पर सुनना भी थोड़ी मजबूरी थी, शायद दृश्यरतिक होकर!
शुक्र है, तब तक हम लोग मेरे दोस्त के घर पहुँच चुके थे और मैं हड़बड़ा के जल्दी से उतर गई|
मैं ईमानदारी से अपने सुनने की इस क्षमता के उहापोह में जकड़ी हुई थी - कैसे सुनूँ? एक औरत के जैसे या कि एक मनोवैज्ञानिक की हैसियत से| ये बखान मुझे एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते कभी एक दिशा में आगे बढ़ा रहा था, तो कभी एक इंसान होने के नाते मुझे दूसरी, चिंताजनक ओर खींचे जा रहा था |
मैंने अपने दोस्त को इस कहानी के बारे में बताया - और सही कहूँ तो इस कहानी को मैंने अपने कई और मित्रों से बयान की और हर दफ़ा ये हैरत और तवज्जो का कारण बनी| बल्कि कइयों ने तो इसे आगे भी साझा किया| कुछ के ख़याल में वो ड्राईवर दीवाना था तो कुछ ने मुझे ने मुझे पागल क़रार किया| कईयों ने मुझसे पूछा तुम ऑटो से उतर क्यों नहीं गईं? क्या तुम्हें डर नहीं लगा, फ़िक़्र्र नहीं हुई? ज़ाहिर है, वे मेरी हिफ़ाज़त को लेकर परेशान थे| .
मैंने ख़ुद को असुरक्षित,भयभीत या परेशान महसूस नहीं किया था|सच तो ये है, कि मैंने पूरी तरह अपनी सूझ-बूझ पर भरोसा किया और मेरा सहजज्ञान मुझे किसी ख़तरे की घंटी नहीं सुना रहा था| मैं सावधान थी, अपने इर्द-गिर्द के माहौल से पूरी तरह चौकन्नी थी, अपने को अपनी हिफ़ाज़त का यकीन दिला रही थी|
ईमानदारी से कहूँ, उसकी कहानी सुनते हुए मैं कुछ भी अजीब-सा महसूस नहीं कर रही थी| सही मायनों में मैंने उस कहानी को, उसकी दिली हसरतों का एक सच्चा क़ुबूलनामा पाया | हाँ, औरतें आसानी से भयभीत हो जाया करती हैं - कुछ कारणों से - और संभवतः कोई और उसे उलझा हुआ कहकर उसकी रिपोर्ट भी कर देता | पर क्या आप यही बात उस व्यक्ति के लिए कह सकते हैं जो ऐसे ही ख़यालात पर किसी क्लिनिक की चारदीवारी में, किसी अस्पताल के शयनकक्ष में या किसी चिकित्सक के कमरे में विचार - विमर्श करे? इसी वजह से उसने जो कहा, वो मुझे गन्दा या सस्ता नहीं बल्कि “वासनात्मक चाहत” पर एक नेक-सच्ची बातचीत लगी| शायद मुझे उसकी बातें आक्रामक नहीं लगी हों क्योंकि मैं मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर यानि साइकोलॉजी में पोस्ट-ग्रेजुएट हूँ, चाहत, आनंद और दीवानापन में दिलचस्पी के साथ| मैंने हमेशा ही चाहत को इंसानी अस्तित्व के मध्य में स्थान दिया है, महान मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन से परिपूर्ण | ये मेरे लिए क्लिनिक के बाहर क्लिनिक का तजुर्बा था, एक बातचीत जो सिर्फ़ वासना और जिस्म से अलग हटकर चाहत पर थी| अगर एक जगह, यानि क्लिनिक पर, कोई बात मेरे लिए औपचारिक है , वही दूसरी जगह पर ग़लत हो जाती है ... मैं सोच में पड़ गई|
पर फिर भी, मेरी पेशेवर पहचान से आगे, मेरे लिए एक और सवाल भी उठता है, इस वाक़ये के सन्दर्भ से|
वासनात्मक उल्लास पर मैंने बहुत सारे व्याख्यान और सम्मेलनों में शिरक़त की है| हम चाहतों और आनंद के बारे में बंद महफ़ूज़ कमरों में बातें करते हैं पर कभी- भी आम जनता के बीच या किसी खुली जगह पे नहीं| जैसे कि चाहत का जनता यानि ‘जन का’ होने के आधार पर - जनता, यानि एक आदरणीय मूल्यवान विचार जैसी - उस जनता को अधिकार मिल जाता है चाहतों और निजी अहसासों के खुले इज़हार पर रोक लगाने का| हम लोगों को कुछ चीज़ों को सस्ता और गंदा मानने के लिए अनुकूलित कर दिया गया है - और ये मानने के लिए कि वो सस्ती गंदी चीज़ें एक ख़तरे के सामान हैं|
लेकिन मेरी समझ से औरतों के अंदर भी परिस्थितियों के आधार पर इन बातों को तौलने का अच्छा आत्मज्ञान होना चाहिए|चेतावनी या धमकी अपने आप किसी उस अजनबी से नहीं पनपती जो आपसे वासना की बातें कर रहा हो, ख़ासकर तब जब वो अजनबी किसी दूसरे आर्थिक स्तर या जाति का हो, कभी-कभी हमारे स्तर से नीचे |ख़तरा एक ऐसी चीज़ भी है जिसे महसूस करने का हमें इल्म सीखना चाहिए - हमें इस अहसास को सीखना चाहिए अगर हम अगर हम हर आदमी और खुद वासना को दानवीय नहीं मानना चाहते - क्योंकि ख़तरे की वो व्यग्रता तो आपके ड्रॉयिंग रूम में भी महसूस की जेया सकती है, नहीं? ?
मेरे लिए, मैं इस कहानी पर समय-समय लौटती हूँ, चाहत के मायने समझने की कोशिश में| नैदानिक और अनैदानिक के बीच के फ़र्क़ पर सवाल करने के लिए|
चाहत और आनंद की संस्था का नैदानिक प्रारूप मेरे लिए विरोधाभासी है| एक नैदानिक प्रारूप को सुरक्षित और महत्वपूर्ण समझा जाता है, जबकि अनैदानिक प्रारूप को अपराधी/पागल क़रार दिया जाता है|
व्यक्तिगत तौर पे मेरे पास इस कहानी का कोई निष्कर्ष नहीं है क्यूँकि मैं अक्सरहाँ अपने दोनों आचरणों को व्यक्त करने के विभिन्न स्तरों को समझने के लिए इस कहानी में घूमती रहती हूँ|
सहजज्ञान - यानि आपके पेट की नाभि में टनटनाटी हुई घंटी आपसे कुछ कह रही है| क्या हम सब के लिए ये सीखना मुमकिन है कि हम ये समझें कि वो आवाज़ हमसे क्या कह रही है?
उस वारदात के वक़्त मैं बेफ़िक़्र नहीं थी,लेकिन मैं सतर्क ज़रूर थी| मैं अपनी जगह पे पूरी तरह क़ायम थी, बस उन परम्परागत विचारों से बिलकुल भी हड़बड़ाहट में नहीं, कि किस बात को सस्ता और गन्दा और उग्र भी सोचा जाता है|
तो अब सवाल ये उठता है: क्या हम किसी दुसरे व्यक्ति की तमन्नाओं को बिना किसी ऐसे घृणित नज़रिये से देख सकते हैं जिसमें हमारी ख़ुद की ख़्वाहिशें पहले से ही शक़ के कटघरे में खड़ी हों ?
क्यूँकि मैंने इस तजुर्बे को अपने साथ बिना किसी फ़ैसले के रहने की इजाज़त दी, मैं महसूस करती हूँ कि सेक्स की बातों पर मेरा नज़रिया बदला है या मैं ये कह सकती हूँ कि मेरे लिए एक बदलाव, एक विराम उत्पन्न हुआ है कि क्या सम्माननीय है और क्या नहीं|
यहाँ एक इंसान की अपनी पत्नी को सन्तुष्ट करने की पूर्वचिन्ता थी - क्या ये बिना कामकाज के माहौल में बातचीत का एक जायज़ मसला हो सकता है? बाद में मैंने इस बारे में अपने कई मर्द मित्रों से पूछा| ऐसा लगा कि मर्दों में इस बात का यक़ीन मायने रखता है कि उनका सहवासी सेक्स से संतुष्ट है? उन्हें तसल्ली होती है जब उनके सहवासी वासना से आराम और संतुष्टि पर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं| इज़हार में ही आज़ादी है|
हाँ, ये किसी की रज़ामंदी के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए| पर मेरे लिए, वो एक पल का ख़याल सही था, मेरी अपनी प्रतिक्रियाओं के बारे में भी, न कि सिर्फ़ उस ऑटो ड्राइवर की क्रिया को लेकर| मैं जानती हूँ कि ये सभी के लिए नहीं है - पर ये मेरी बैंगन वाली कहानी थी, और यही मेरा बैंगन वाला सफ़र|
हिना वैद दिल्ली की रहने वाली हैं और मानसिक स्वास्थ्य परियोजनाओं (मेन्टल हेल्थ प्रोजेक्ट्स) पर ग़ैर-सरकारी संस्थाओं (नॉन-गवर्नमेंट ओर्गनइजेशन्स) के लिए कार्यरत हैं|
मेरी “बैंगन” वाली कहानी
व्यक्तिगत तौर पे मेरे पास इस कहानी का कोई निष्कर्ष नहीं है क्यूँकि मैं अक्सरहाँ अपने दोनों आचरणों को व्यक्त करने के विभिन्न स्तरों को समझने के लिए इस कहानी में घूमती रहती हूँ|
लेखन: हिना वैद द्वारा
चित्रण: मैत्री डोरे
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