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तिगड़म वाली सेक्स या दर्द के साथ सेक्स को थोड़ी ठंड देते हुए

बी.डी.एस.एम. से मैने सीखा की मेरे लिए खुलकर, लम्बी बातचीत करना कितना ज़रूरी है

पाँच साल पहले, जब हम 17 बरस के थे तो UAE/ यूनाइटेड अरब एमीरेट्स से वापस इंडिया आ गए थे । एक लम्बे समय से दूसरों के हाथ पिटाई और दादागिरी , अकेलापन और बेइज़्ज़ती झेलते झेलते, अपने दर्द को बर्दाश्त करना जब मुश्किल हो गया,  तो ख़ुद को चोट पहुँचाने का बहुत मन किया । उस ख़तरनाक चाह से बचने के लिए, हमने  बी.डी.एस.एम. (सेक्स के वे मज़े जिसमें बाँधना, मालिक बनना या वश में रहना , दूसरे या ख़ुद की तकलीफ़ में मज़ा लेना वग़ैरा) करना शुरू किया। 

इस दृश्य का नाम "म्यूजिकल बी.डी.एस.एम है, और इसमें कई लोगों को बी.डी.एस.एम सेक्स करते हुए दर्शाया गया है। उनके इर्द गिर्द कई वाद्य यंत्र है। सभी की आंखों पे पट्टी है, और सभी ने हार्नेस, कफ्सआदि पहन रखे है। कई व्यक्तियों को रस्सियों से बांधा गया है।

दरअसल हम कमज़ोर दिल के होने की शर्म से परेशान हो गए थे । सो  ख़ुद को चोट पहुँचाने लगे । ये सब छोटी छोटी चीज़ों से शुरू हुआ। जैसे ख़ुद को उन जगहों पर मुक्का मारना जो किसी को नज़र ना आयें । लगभग एक साल तक हमने इंटरनेट के तहखानों में ख़ूब समय बिताया : ऐसी बातें खोजने के लिए, जो हमें अपने एहसासों का मतलब समझा सके  । ऐसा लगता था कि हमारा ख़ुद को मारना एक ज़रूरी जकड़न जैसा है । जब हम उस मार के दर्द में जकड़े रहते थे, तो ऐसा लगता था कि इस तरह हम अपनी भावनाओं को पहुंची गहरी चोट से बच रहे थे । वो चोटें इतनी गहरी थीं कि हमको डर लगता था कि हम उनमें डूब जाएँगे। अपने को दर्द पहुंचा के बहलाने से,  हमें अपने मन के भारीपन से थोड़ा आराम होता था। ताकि कुछ वक़्त के लिए ही सही, हम सब कुछ भुला सकें।

तो इस खोज से हमें समझ आया कि देह की तकलीफ़ की हमारी चाहत बी.डी.एस.एम. से जोड़ी जा सकती है। इससे राहत महसूस हुई और  हमने उन सारी कोशिशों पर काबू करना छोड़ दिया जो हम अपने दर्द दबाये रखने करने के लिए करते थे, ताकि किसी से प्यार नहीं, तो कम से कम गरमाहट ही पा सकें।

तो अब हमें हुई अलग-अलग बी.डी.एस.एम. खिलौनो के लिए उत्सुकता: घुड़सवारी का चाबुक,अलग अलग दूसरे चाबुक, वार्टनबर्ग पिनव्हील/चकरी (एक लम्बी डंडी जिसके एक तरफ़ नुकीली चकरी लगी होती है और जिसे देह पर छुआने से कुछ -कुछ होता है), मोम से खेलना, आँखों की पट्टी, बंधन वग़ैरा। इनमें से कुछ, जैसे घुड़सवारी का चाबुक तो हमें काफ़ी मज़ेदार लग रहा था।

जब हम कुछ बीस एक साल के हुए, तो दूसरी तरह की देह की तकलीफ़ों के मज़े लेने लगे जैसे थप्पड़ियाना, निप्पल के कस (उन दिनों इसे कपड़ों की चिमटी से बनाया जाता ) और साथ साथ हम  चाबुकों और मोम के खेल के बारे में दिन में सपने देखने लगे । अब अगर  दिल में दर्द न भी होता, फिर भी हमें लगता  कि इन सब तिगड़म से हमारे भीतर सेक्स जागता है। हालाकी अभी भी हमको ख़ुद पर शक होता था कि कहीं, “ये सिर्फ़ हमारे दर्द और हमारे कमज़ोर दिल की उपज है क्या ?” तो दूसरे लोगों की तरह, हमने भी मुफ़्त के सलाहकार महाशय गूगल से सलाह ली। 

हमने ढेर सारे लेख, पत्रिकाएँ, वेब कोमिक्स, सेक्सी कहानियाँ और ना जाने क्या क्या पढ़ा। गूगल पर खोजने से जो ब्लॉग एकदम ऊपर आ जाते हैं, वो देखे। हमें सी पी मंडारा की लिखी एक उपन्यास माला मिली जिसका नाम था स्पेशल एजेंट। ये बड़ी मज़ेदार और सेक्स जगाने वाली शृंखला थी। हमें यह भी समझ आया कि शायद उपन्यास माला जितना तो नहीं, लेकिन फिर भी बी.डी.एस.एम./ तिगड़मी सेक्स हमें काफ़ी पसंद है। इसके अलावा मैनगागो नाम से एक वेब्साइट मिली जहाँ मालिक/ग़ुलाम वाली सेक्सी कोमिक्स थी। हमें तब समझ आया कि हम क्वीयर रिश्तों को मीडिया में दिखाना चाहते हैं।

अब हम ये तो नहीं कहेंगे कि सीखने के लिए ये सबसे सही जगहें है, लेकिन तीन साल पहले हमारे पास बस यही रास्ते थे। आज भी चीज़ें बहुत बदली नहीं हैं। तो अगर सही तरीक़े के सेक्स की शिक्षा की बात करें, तो उसमें ख़तरे और मज़े, दोनों का संतुलन बैठाना होगा । और उसके लिए हमें ढेर सारे अनुभवी और लाइसेंसी सेक्स थेरपिस्ट, सेक्सोलोजिस्ट मिले हैं। वो लोग भी मिले हैं जो तिगड़मी सेक्स वाली ज़िंदगी जी रहे हैं और सोशल मीडिया पर इस बारे में बता रहे हैं। और ये बहुत सही बात हुई है। 

तो यही वो समय था जिसमें हमें सैडोमैसोचिज़्म (दूसरे की और ख़ुद की तकलीफ़ में मज़ा) के बारे में पता चला। मतलब कोई कैसे एक समय में एक सुख या फिर दोनों सुख , की चाह रख सकता है: सैडिस्टिक (दूसरे की तकलीफ़ में मज़ा लेने वाले) और मैसोचिस्टिक (ख़ुद की तकलीफ़ में मज़ा लेने वाले)  । बिलकुल वैसे ही जैसे हम स्विच हैं, यानि सेक्स के दौरान कभी हावी तो कभी आज्ञाकारी का रोल करना पसंद करते हैं। 

हमने ये सफ़र  शुरू किया था, दर्द और मज़ा लेने के दिन के सपने देखने से, लेकिन जैसे जैसे हमने अपने अंदर की तकलीफ़ पर काम करना शुरू किया, हमने देखा कि हम अपने पार्टनर को भी मज़ा देना चाहते हैं। लेकिन साथ ही उन्हें थोड़ा तड़पाना भी चाहते हैं, उनकी मर्ज़ी के साथ , कभी उनको हद से ज़्यादा आनंद देके, तो कभी थोड़ा वंचित रखके । इससे यह भी सीखा कि ये बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है कि हमारे ये दो हिस्से- बराबर के  हों या उनका संतुलन एक सा बना रहे । और यह भी बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि जब कोई सेडिस्ट या मैसोचिस्ट हो, तो दोनों समय उनका तिगड़मी सेक्स भी एक जैसा हो।

यह भी समझ आया कि बी.डी.एस.एम. पसंद करने का ये कतई मतलब नहीं है कि पहले से हुए अंदर की तकलीफ़ के चलते ही ऐसा हो। जैसा मेरे साथ या फिफ़्टी शेड्स ( आदमी औरत के बीच ऐसे सेक्स के बारे में एक उपन्यास जो खूब चला ) के किरदार के साथ होता है। हमें यह समझ आया कि दर्द, इम्पैक्ट प्ले (मर्ज़ी से सेक्स के दौरान किसी चीज़ से मारना या मार खाना) या तिगड़म वाले सेक्स में शुरू में मज़ा भले ही अंदर की तकलीफ़ के चलते आया हो। ज़रूरी ये है कि तुम यह सब अपनी मर्ज़ी से करो, अपनी और अगले की भी । और ऐसा कुछ न करो जिससे तुमको या किसी और को जिंदगीभर की चोट लग जाए । तब तक सब ठीक है।

ख़ुद को खोजने के इस सफ़र में हमें यह समझ आ गया कि हम कुछ ग़लत नहीं कर रहे हैं। फिर हम उन लोगों की तलाश में लग गए जिनकी चाहतें और इच्छाएँ हमारे जैसी थीं। अब हम सीधे-सीधे असल ज़िंदगी में मिलने वाले लोगों के साथ तो यह पूछ ताछ नहीं कर सकते थे। क्योंकि सेक्स और ‘सामान्य समझे जाने वाले तय तरीक़ों’ से जो ज़रा भी हट के होता है, उसके लिए हमारे समाज में हाय तौबा मची रहती है। 

तो हम अपने ऑनलाइन सलाहकार गूगल के पास गए जिसने हमें Fetlife.com, OKCupid.com जैसे तिगड़मी सेक्स वाले डेटिंग एप्स और बी.डी.एस.एम. टेस्ट्स की ऑनलाइन दुनिया से bdsmtest.org पर पहचान कराई। इन एप्स/ वेबसाइट्स से हमें अपनी जैसी , तिगड़मी सेक्स की ज़िंदगी जीते अलग-अलग लोग मिले, जो अपने-अपने मक़ाम पर थे– कुछ नए-नवेले, कुछ जानकार, अनुभवी गुरु।

बहुत कोशिशों और ग़लतियों के बाद, ऑनलाइन चैटिंग और bdsmtest.org की तिगड़मी सेक्स की लम्बी लिस्ट और परसेंट/ टका/ प्रतिशत (100% स्विच , 95% खुद चोट खाने का शौक , 94% सेक्स के दौरान लटकाए जाने का शौक , 87% वश में रखे जाने का शौक , 75% नए प्रयोग करने का शौक, 42% सब कुछ सीधा साधारण चाहने का शौक, 83% दूसरों को चोट देने का शौक t, 76% हावी होने का शौक, आदि आदि .), की थोड़ी सी मदद से, हमने टेलिग्राम पर एक स्ट्रेट और सीधा साधारण चाहने वाले  इंसान के साथ अपने बीडीएसएसम के सफ़र की शुरूआत की। वो थोड़ा बहुत तिगड़म सेक्स को सरल साधारण सेक्स में शामिल करना चाहते थे, लेकिन पूरी तरह से तिगड़म सेक्स नहीं चाहते थे । उनसे केवल हमारी ज़बान मिलती थी। यह मज़े की दोस्ती कुछ समय तक चली। फ़िर उस व्यक्ति ने हमसे बातचीत बिलकुल बंद कर दी, जैसे हम हैं ही नहीं, हवा हैं । काफ़ी बाद में उन्होंने बताया कि ऐसा उन्होंने “पढ़ाई लिखाई और शहर बदलने” के चलते किया था।

तो ये बिलकुल सही वक़्त था एक सफर पे निकालने के लिए, मालिक/ग़ुलाम के अपने अलग अलग रोल को गहराई से समझने के लिए .।तो पहले की तरह एक बार फिर हम पहुँचे टेलिग्राम और मिले एक मालिक/सैडिस्टिक पार्टनर से।

किसी से उस वक़्त ऑफ़्लाइन मिलने का तो सवाल ही नहीं था, ख़ासकर केरल जैसी जगह पर। और उसपर बड़ी बात ये कि हमें मालूम भी नहीं था कि अपने जिले में हम ये सब कहाँ कर पाएँगे। एक दोस्त जिसके साथ वो 'खास फ़ायदों वाली दोस्ती/FwB थी, वो  दूसरे जिले में था,  और एक और ऐसा यार अब दूसरे राज्य में था । तो सही लोगों से आमने-सामने मेल-जोल बना पाना, एक अलग ही चुनौती थी।

तो इन नए ऑनलाइन मालिक और हम में बस इतनी ही बात एक सी थी कि हम दोनों एक ही देश में रहते थे और बी.डी.एस.एम. में हमारी पसंद मिलती-जुलती था। इसके अलावा हमारे बीच मीलों की दूरी थी। तिगड़मी सेक्स, फ़ेटिश (सेक्स का नशा जब किसी चीज़ से  या बदन के किसी और अंग से चढ़े, गुप्तांग से नहीं), मर्ज़ी, हदें, सुरक्षित शब्द, सेक्स के बाद ख़याल रखना  और तमाम ऐसी ही चीज़ों पर हमने वो सारी बातें कीं जो दो 'खास फायदे वाली दोस्ती' निभाने वाले कर सकते हैं। ढेर सारी बात करने के बाद, हम धीरे धीरे देर रात फ़ोन पर बात करने लगे या विडीयो कॉल करने लगे। थोड़ी देर में एक दूसरे को अपनी ख़ुद मिट जाने वाली तस्वीरें भेजने लगे। और फिर इंटरनेट की सुरक्षा के लिहाज़ से पूरी तरह से छुपी हुई चैट करने लगे। इन बातों से हमें एक दूसरे के बारे में, एक दूसरे की पसंद, चाहत, स्वाद वग़ैरा के बारे में पता चला। जैसे कि गाँड़मस्ती, ‘सर' बुलाए जाना वग़ैरा, लेकिन हम ये सब कहने के लिए ना तो पूरी तरह तैयार थे और ना ही हममें उतनी हिम्मत थी।

ये था तो काफ़ी मज़ेदार लेकिन हम अपनी इच्छाएँ, पसंद और हमारे लिए देह का हक़ और उसकी हद का मतलब क्या है, ये खोजने के शुरुआती दौर में थे।

साथ साथ हमें हर रात को यूं भी लगता कि यहाँ कुछ असहज सा हो रहा है, पर हम ये समझ नहीं पा रहे थे कि ये क्या है । क्यूंकी वो- यानी 'मालिक' वही सब कर रहे थे जिसकी हम सहमति दे रहे थे , वो हमारे से कोई ज़बरदस्ती भी नहीं कर रहे थे, तो हमने मालिक से इस पे कोई बात नहीं की ।

उस वक़्त अपने भीतर चल रही इस धुंधली सी आवाज़ को नकार कर मालिक को अपने साथ एक नज़रअंदाज़ी का खेल खेलने के लिए हामी भर दी। शर्त थी कि बिना हमारी बेइज़्ज़ती किए या हमें उनका पालतूबनाए, ये करना है । क्योंकि हमारी तरफ़ से इन दो बातों के लिए साफ़ ना थी। अब उस ऑनलाइन मुलाक़ात में हम अंत तक बने तो रहे, लेकिन छूटते ही एकदम बिखर से गए।

“लेकिन क्यों? सब कुछ तो ठीक चल रहा था।” बी.डी.एस.एम. के उस तय कर बनाए हुए ढाँचे के साथ ऑनलाइन चैट और बातचीत के बंधनों ने उस पूरे अनुभव को बनाया था। उस वक़्त बिखरते हुए, रोते हुए, हमें एहसास हुआ कि इसके चलते सालों-साल के अकेलेपन, गर्मजोशी की कमी और तकलीफ़ उभर कर सामने आ रही थी। नेगलेक्ट प्ले उस ताबूत की आख़िरी कील थी जिससे बचपन की अंदर की तकलीफ़ फिर से हरी हो गई। हमारी वो यादें उभर आईं जब १३ साल तक हमारे साथ पढ़े दोस्तों ने हमें बार बार पराया किया था, उनसे अलग रखा था। इस नीरसता से उबरने के लिए एक बहुत लंबा सफर तय करना पढ़ा। उसके बाद ही कोई मिला जिससे हम अपनी ये बातें साझा कर पाये । उस रिश्ते के बाद भी ये नीरसता फिर आ जाती । इस पूरे सफर में कभी हम अपनी भावनाओं के आगे बर्फ हो जाते, या फिर उनका फायदा भी उठाते । इससे उस गहरे अकेलेपन की याद आई जिसके चलते लगता था कि हम टूट जाएँगे। इसके लिए हमारी मम्मी भी ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने जीतोड़ मेहनत कर हमें ख़ुद के पैरों पर खड़ा होना सिखाया। और पापा भी जो या तो थे नहीं और जब थे तो हमें नीचा ही दिखाते रहे।

जब ये सारी यादें लौटीं, हम वक़्त ख़ूब रोए और अपने मालिक से कट गए। उनसे सब कुछ ख़त्म कर दिया। उस वक़्त हमें ऐसे मामलों से निपटना ही नहीं आता था। केवल भागना आता था। अब जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो समझ आता है कि ये हमारे और हमारे मालिक के लिए कितना ग़लत था।

इस बी.डी.एस.एम. की दुनिया और सेक्स/शरीर की खोज से थोड़े वक्त दूर जाने से हमको समझ आया कि हम किस चीज़ से “असहज” हुए थे। और वो क्या था जो हमारे अंदर भरता ही जा रहा था और जिसके चलते रिश्ते का वो ज़रूरी लेकिन खराब अंत हुआ।

अब भले ही ये हमारे दिल के दुखों का असर रहा हो। या इसकी वजह ये हो कि हम एक लेखक हैं, जिसका ध्यान शब्दों और बातचीत पर रहता है... हमें सेक्सी खेल का वो रिश्ता बनाने के बाद जिस तरह के देखभाल की ज़रूरत थी, वो हमारे पार्टनर से अलग थी। यानि हमें कितना समय चाहिए था या किस किस्म की देख भाल ... बिलकुल वैसे ही जैसे लोगों के प्रेम की भाषा और सीखने के तरीक़े अलग अलग होते हैं। हमारे पार्टनर को रिश्ते बनाने पे बदन के देख भाल की आशा थी, और हमको, हमारी भावनाओं की देखभाल की आशा थी । इसके अलावा हमें यह भी समझ आया कि भले ही हमें बी.डी.एस.एम. वाले समय में ख़ूब मज़ा आता हो, लेकिन हमारे जैसे लोगों के लिए जिनके दिल की चोट कुछ ज़्यादा ही गहरी है, उसके बाद की देखभाल ज़्यादा ज़रूरी है। इसके अलावा हमें यह भी समझ आया कि हमारे लिए रिश्ते के बाद की देखभाल का मतलब है, हमारे साथ खुलकर, लम्बी बातचीत। अब चाहें इसमें कितना भी वक़्त लगे या ये सेक्स का वो खेल खेलने के कितना भी बाद हो ।

ये भी समझ में आया कि हमें, हल्के फुल्के सेक्स करने पे भी, बाद की देखभाल की ज़रूरत है। ये भी कि हमें तो सीधे साधारण सेक्स वाले समय में थोड़ा सा तिगड़म वाला सेक्स या सैडोमैसोचिज़्म जोड़ देना चलेगा । बजाय इसके कि एकदम फाड़ू दबाव और झुकाव वाले सर/मैम/ मालकिन/ मालिक का खेल। एक दूसरी बात ये भी, कि हमारे शुरुआती अनुभव में, एक इंसान ने बिलकुल हमको नज़रअंदाज़ कर दिया था, जैसे हम हवा थे, और अगले के साथ हमारा अनुभव कुछ ज़्यादा ही तगड़ा था । ये सोच के हँसी भी आई और दिमाग़ भी खुला।

आज सेक्स के दौरान, या उससे पहले के मज़े के टाइम, शरीर में कहीं कहीं थोड़ी सी तकलीफ़ में हमारी खास मस्ती है। ये हम कभी कभी अपने पार्टनर के साथ करते हैं। इसके अलावा रस्सी या मोम से खेलना, आँखों पे पट्टी बाँधना, चरमसुख की आख़िरी मंज़िल तक पहुँच कर रूक जाना, एक से अधिक लोगों के साथ रिश्ते वग़ैरा भी हमारी पसंद के तिगड़म हैं। ज़ाहिर है इनमें और इनके बाहर भी हमारी ढेर सारी पसंद और चुनाव हैं जिन्हें हम और खोजना और समझना चाहते हैं। लेकिन एक चीज़ तो बिलकुल क़ायदे से समझ गए हैं कि खुलकर, लम्बी बातचीत करना कितना ज़रूरी है। ख़ुद से और अपने पार्टनर से ईमानदार होना भी ज़रूरी है। भले वो रिश्ते के पहले हो, बाद में या बहुत देर में। और इन सब बातों को अपने सेक्स, प्यार या दोस्ती के रिश्ते में आज़मा कर हमनें देखा कि इन सबका कितना बढ़िया असर हुआ है। और इन रिश्तों में शामिल सभी लोगों के लिए ये काम किया है और सही से हो पाया है। इसने हमे सिखाया कि ईमानदारी से बातचीत हमारे काम में कितना ज़रूरी औज़ार या हथियार हो सकता है। और इसके सहारे हम एक बेहतर कल बनाने के लिए बदलाव ला सकते हैं।

रेशमा अनिल कुमार एक क्वीयर न्यूरोडाईवर्जेंट (जिनका दिमाग़ जानकारी को आम तरीके से नहीं, बल्कि अलग,खास तरीके से ढालता है  ) जेंडर समता, एलजीबीटीक्यू+ अधिकार और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकार के कार्यकर्ता, वक्ता और लेखक हैं। वे यूथ के बोल कलेक्टिव में यूथ पौलिसी  चैम्पियन हैं और जेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज़ में परास्नातक कर रहे हैं।

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