"कल्याणम अना येल्लम सेरी अगिरुम" (अगर तुम शादी कर लो तो सब कुछ ठीक हो जाएगा)। ऐसा डॉ. शरदधाम ने मुझे कहा। एक बार नहीं, बल्कि हर बार जब भी मैं झुके हुए डोसा करंडी (करछुल) की तरह दर्द से रेंगते हुए क्लिनिक पहुंचती थी।
स्कूल में, मेरे हमउम्र दोस्त मुझे हर महीने इस लड़ाई गुज़रते देखते थे। उदास से उदास शक्ल बनाकर! मुझे दर्द से राहत दिलाने के लिए वो और कुछ कर भी नहीं सकते थे। ना ही वो मुझसे ये तक पूछ सकते थे कि मैं किस दौर से गुजर रही थी, ना ही सहानुभूति जता सकते थे। यकीनन उनकी दादियों और अम्माओं ने उनको बोल रखा था कि अगर वो मेरा हाल पूछेंगे, भले ही सिर्फ इतना कि "क्या तुम ठीक हो?", तो मेरा दर्द उन पर ट्रांसफर हो जाएगा। इसलिए, वो सिर्फ चेहरे के भावों से अपनी भावनाएं व्यक्त करते थे। अगर उस वक़्त मैसेज का दौर होता, तो वो मुझे उदास चेहरे वाला इमोज़ी भेजते, लेकिन मेरी ओर देखते भी नहीं। क्योंकि शायद मेरा दर्द आंखों से बाहर निकलकर उनको भी बीमार कर देता।
मुझे याद है जब पहली बार मुझे मासिक धर्म हुआ था। उस वक़्त शायद ही कोई दर्द महसूस हुआ था। हर दूसरी लड़की की तरह, मेरा पेट भी उलुन्थु (काले चने) के लड्डू और कच्चे अंडे से भर दिया गया। सभी ने मुझसे कहा कि मुझे एक नार्मल सा दर्द महसूस होना चाहिए। मेरी अम्मा ने कहा कि पेट में चींटी काटने जैसा हल्का सा दर्द होगा।
पहले सामान्य पीरियड के बाद मुझे समझ आया कि होश में रहने से आसान था हमारे बाथरूम के पास थिट्टू (बैठने की छोटी सी जगह) में बेहोश पड़े रहना। और उससे भी ज्यादा दर्द तब हुआ जब अम्मा ने पास बैठकर ये कहा कि ये सब दादी के जीन्स/अनुवंश से मिला था।
अम्मा ने कहा, "इसको झेलने का एक ही तरीका है कि अपनी आंखें बंद करो और मैंने जो मीट बनाया है वो खाओ।"
"मुझे ही पता है कि कैसे मैं एक गिलास चाय या जूस को पेट के अंदर रोक पा रही हूँ।" मैंने जवाब दिया।
कभी-कभी ऐसा लगता था जैसे अम्मा की बात सुनने पर मेरा पेट मुझ पर चिल्ला रहा हो। इसलिए, अम्मा का ध्यान भटकाने के लिए मैं अपने हाथ जोड़ लेती और नौटंकी कर बाथरूम के फर्श पर गिर जाती। उनके नुस्ख़े, जो उन्होंने अपनी जिंदगी में भी अपनाए थे, एकदम सरल थे: "नहाओ, अच्छी तरह खाओ और फर्श पर लोट जाओ"।
मैं उनके नुस्ख़े नहीं अपना पाई, क्योंकि मुझे अपने ही गीले बालों की गंध से नफरत हो गई थी। और कार्थिगा शैम्पू के नाम पर ही दो बार उल्टी कर चुकी थी। एक इडली खाई और कल के टमाटर वाले चावल उल्टी कर बैठी। हमारा बाथरूम इतना ही बड़ा था कि बैठते समय अपने पैर फैला सकती थी।
तीन से चार घंटे तक लगातार अपने शरीर और सिर को बाथरूम के दरवाजे पर पटकने के बाद, मैं धीरे-धीरे अपने पैर हिलाना बंद करती और दर्द पूरी तरह से गायब हो जाता। मुझे आज तक ये पता नहीं चल पाया कि राहत का वो सही पल कब आता है। कैसे उस वक़्त को नोट किया जाए? भले ही दर्द बीच-बीच में कुछ देर के लिए रुकता था, अम्मा उसमें अपनी बातें शुरू कर देती। बोलने लगती कि मैं दूसरी लड़कियों के मुक़ाबले बिल्कुल नॉर्मल नहीं थी। नार्मल दर्द के ऊपर कुछ भी अम्मा के लिए असाधारण ही है।
बात सिर्फ घर तक नहीं रुकी। जब भी मुझे स्कूल में पीरियड्स आते थे, मैं प्रिंसिपल के कमरे में दो कुर्सियों के सहारे लेटी रहती थी और मरने से पहले अपने माता-पिता से मिलने का इंतज़ार करती थी। मेरे क्लास के सभी लड़के मेरी हालत के बारे में जानते थे। किसी ने इस पर जोर-शोर से चर्चा तो नहीं की, लेकिन बार-बार ऐसे हालात देख उन्हें सबकुछ समझ आ गया था। मैं अपने नियमित पीरियड सायकल की अकड़ भी नहीं दिखा पाई।
जिस चीज़ ने मेरे दर्द को असामान्य बना दिया था, वो था मेरे आस-पास किसी का भी मासिक धर्म के दर्द के बारे में बात नहीं करना। उनके हिसाब से उनको बस हल्की सी बेचैनी थी, जबकि मैं तो फर्श पर मरते-मरते बचती थी। मेरी अम्मा या मैंने किसी दूसरी लड़की को पीरियड का ऐसा दर्द झेलते नहीं देखा, जैसा मेरा था। मेरे क्लास की सारी लड़कियाँ इठलाती रहती थी कि उनके लिए तो बस उनके घर का काश्या का पानी ही काफी था, जिससे उनकी बेचैनी दूर हो जाती थी। मेरी अम्मा और मैं तो हर तरीका आज़माकर थक चुके थे।
मुझे हर महीने इस दर्द से गुजरना पड़ता था, जब तक कि वो दिन नहीं आया।
अम्मा पीछे से तेज़ आवाज़ में चिल्ला रही थीं, "अय्य इरु वंदी वितुतु वरा" (मैं गाड़ी पार्क करके आती हूँ)। उनकी तेज़ आवाज़ से पूरे क्लिनिक में दहशत फैल गई। लेकिन, मुझे दर्द के अलावा कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। उस वक़्त मेरा पेट, शरीर के सभी बाकी अंगों के साथ खेल रहा था। मेरा पेट क्रिकेट मैच के मैदान जैसा बन चुका था, एकदम भारी और भरा हुआ।
न तो नर्स की आवाज़, न ही लंबी लाइन से मुझे कोई परेशानी थी। मैं खुद की एम्बुलेंस बन बैठी थी। मरीज़ वाले बिस्तर पर लेटकर मैंने रोना शुरू कर दिया। श्रद्धमा मुझे देखने के लिए दौड़ी आयी। मैं चिल्लाई "अय्यो वालिकुथु"। नर्स ने कहा "पीरियड्स"। फिर मुझसे पूछा "पहला दिन?" मैं चिल्लाई "हम्म"।
एक इंजेक्शन पड़ा। मैं रोई। वो चली गई। मेरे हाथ-पैर ठंडे हो गये। नर्स ने कहा, "ठीक है, तुम जा सकती हो"। मैंने जाने से मना कर दिया और वापस ज्यादा ज़ोर से रोने लगी। अम्मा घर से चादर ले आयी। मैं वहीं आधे घंटे सोई।
क्या?
मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था। मेरा शरीर बिल्कुल शांत हो गया था। मुझे एक-एक पल इस बात का पछतावा हो रहा था कि क्यों मैंने अपनी अम्मा के लेक्चर पर भरोसा कर लिया था कि हर औरत को इस दर्द से गुज़रना होता है। और ये कि इसे रोकने का कोई तरीका नहीं है।
श्रद्धमा ने अम्मा और मुझे कुछ हेल्थ संबंधी टिप देने के लिए बुलाया। वो बिल्कुल नार्मल आवाज़ में बात कर रही थी। उनकी आवाज़ इतनी तेज़ थी कि कमरे में मौजूद हर मर्द (अगर एक भी वहां था), यकीनन उनकी बात सुन सकता था। उनका कहना था कि मेरे दर्द का एक ही हल था- ताकत के लिए हेल्थी खाना खाना।
लेकिन क्या ये नॉर्मल है? मेरी अम्मा ने पूछा। श्रद्धमा ने कहा, “एक बार इसकी शादी हो जाए तो धीरे-धीरे ये दर्द खत्म हो जाएगा। तब तक तो कोई हल नहीं है।” उन्होंने कुछ टेस्ट कराने को कहा और उनसे ये साफ हो गया कि मुझमें किसी तरह की मेडिकल असामान्यता नहीं थी।
उस दिन से, इंजेक्शन लंबे समय तक मेरी आम चीजों की लिस्ट में रहा। फिर सुविधा के हिसाब से मैंने टैबलेट लेना शुरू कर दिया। उन्होंने तो मेरी फ़ाइल भी अपने कंप्यूटर में सेव कर रखी थी।
अब जबकि मेरे पीरियड वाली एकमात्र प्रॉब्लम का हल निकल चुका था, अम्मा को लगा कि बस अब मेरे स्त्रीत्व/फेमिनिटी में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।
मुझे ये तो नहीं पता कि शादी के तुरंत बाद या कि कुछ सालों के बाद ये दर्द पूरी तरह से गायब हो जाएगा या नहीं। लेकिन मैं इतना जानती हूँ कि अब मुझे अपने पीरियड के दो सप्ताह पहले से ही उसकी चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। अब मैं भी इतरा पाती थी कि कैसे पीरियड के पहले दिन भी मैं पूरा टाइम स्कूल में बिना रोए टिक जाती थी।
जिस दर्द को वो असामान्य कहते थे, और जो मेरे लिए सामान्य था, अब उसका अपना एक सायकल है। वो आता है और चला जाता है। जब दर्द चरम सीमा पर पहुंचता है तो टैबलेट खा लेती हूँ, या, कभी-कभी, इंजी (अदरक) वाली चाय पीकर उससे निपटती हूं। सभी अंधविश्वासों, बेअसर उपचारों, फैली हुई रूढ़िवादी धारणाओं के बीच मैंने बस एक काम किया- अपने शरीर को समझा।
मुझे उन आंटियों पर दया आती है जो दर्द की दवा लेने के इस तरीके को आर्टिफीसियल और खतरनाक कहती हैं। मेरी सोच के हिसाब से तो मैं लोगों को उस उपचार के बारे में ज़रूर बताऊंगी जो सही में दर्द पर असर करते हैं।
पवित्रा बी.ए ग्रेजुएट है जो फिलहाल जितना हो सके लिखने की कोशिश कर रही है। अगर किसी कमरे में आपको ऐसी कोई हंसी सुनाई दे जो बाइक स्टार्ट करने वाली आवाज़ जैसी हो, तो शायद वो वही है जो अपने ही जोक्स पर हंस रही है।