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विद्वान रेविन कोन्नेल अपने को शासक मान के चलने वाली मर्दानगी (और मर्दानगी को आम तौर पे ऐसे ही समझा जाता है) के बारे में कुछ यूं कहते हैं : मर्दानगी का ये रूप, रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में, ऐसे व्यवहारों और तरीकों का ढाँचा है जिसमें आदमी को औरत के ऊपर दबाव बनाए रखना है और दूसरे आदमियों (ख़ासकर कोने किए हुए/सताए आदमी - दूसरे समुदाय, जाति या यौनिकता के आदमी) के ऊपर ताक़त बनाए रखनी होती है।
हम देखते हैं कि आदमी अधिकतर अपनी मर्दानगी समझाते हुए कहते हैं कि वही असली मर्द है जो दूसरों पे आश्रित नहीं, जो भावुक नहीं, किसी की परवाह ना करे, आक्रामक हो और किसी काम में ज़्यादा दिल ना लगाए।
मर्दानगी की इस समझ का विकलांग आदमियों पर क्या असर होता है?
और विकलांग आदमियों के तजुर्बे मर्दानगी के खोखलेपन को कैसे सामने लाते हैं ?
असली मर्द खाँचा 1: आदमी किसी पे निर्भर नहीं
“आदमियों के साथ ये एक बड़ी दिक़्क़त है कि हमेशा से चली आ रही मर्दानगी के मापदंड हैं, एकदम स्वतंत्र होना, और हर मदद इंकार कर देना ”
--जोसेफ़ वैंडेल्लो, सामाजिक मनोचिकित्सक (मल्ल , 2019)
विकलांग लोगों को अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए कई सारे लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है।
“जब कोई विकलांग इंसान कमाने लगे, तो उसके परिवार की नज़र उसकी कमाई के हर हिस्से पे टिकी रहती है।”
“काश मेरे पास कोई नौकरी होती तो मैं यूं स्वतंत्र रह सकता। फिर मैं एक लड़की को प्रपोज़ करके, उससे शादी कर पाता ।”
“यूं तो बदन में सब चल रहा है। मैं छड़ी इस्तेमाल करता हूँ, लेकिन कभी कभी गाइड की ज़रूरत पड़ जाती है।”
तो क्या विकलांग आदमी होने का मतलब कुछ कम, या एक नकली आदमी होना हुआ?
क्या कोई विकलांग इंसान कभी भी सही मायने में अपने ही बल पे खड़ा हो सकता है? क्या उन्हें होना चाहिए?
विकलांग आदमियों के लिए मर्दानगी को ऐसी स्वतन्त्रता से जोड़ना, पेचीदा है, ग़ैर-विकलांग आदमियों की तुलना में, कही ज़्यादा पेचीदा । विकलांग लोगों को अपनी रोज़मर्रा की शारीरिक और सामाजिक ज़रूरतों के लिए, कई सारे लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है।
लेकिन यहाँ एक सवाल उठता है: क्या हर कोई अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की जरूरतों के लिए औरों पे निर्भर नहीं ? खाना, देखभाल, बीमारी में ख़याल, इन सबके लिए ? तो ये मर्द की एकदम आज़ादी का ख़याल केवल ख़याली पुलाव तो नहीं?
असली मर्द खाँचा 2: आदमी आक्रामक/ सेक्स में भी आक्रामक होते हैं
कई विचारक ये मानते हैं कि आदमी कोमल, 'औरत जैसे' बर्ताव से बचने के लिए सेक्स को लेके, आक्रामक रोल अपनाते है।
विकलांग आदमियों और सेक्स और यौनिकता की बातचीत के दौरान, ये बात साए की तरह मँडराती रहती है कि वो तो सेक्स नहीं कर पाएँगे । या फिर उन्हें इस नज़र से ही नहीं देखा जाता कि सेक्स से उनका कुछ संबंध हो सकता है ।
“अगर वो नहा रही होती तो मुझसे तौलिया माँगती क्योंकि उसके लगता मैं क्या ही करूँगा। वो मेरे सामने अपनी ब्रा निकाल देती। उसने ठान ही लिया कि मेरा सेक्स से कोई लेना देना नहीं है।”
“मेरी बहुत कम ही लड़कियाँ दोस्त हैं। मुझे लगता नहीं कि कोई मुझे प्यार व्यार करेगी। ज़्यादा उम्मीद नहीं दिखती ।”
“मैंने तो एक बार सोचा पैसे देकर ही सेक्स कर लूँ , लेकिन आशंकाओं के होते, नहीं किया।”
जिन आदमियों का मैंने प्यार, सेक्स और डेटिंग पर इंटरव्यू लिया उनके लिए सेक्स करने की चाहत तो ज़रूरी थी ही, लेकिन कोई भी केवल बस सेक्स करने भर के लिए सेक्स नहीं करना चाहता था और ना ही ख़ुद को मर्द साबित करने के लिए सेक्स करना चाहता था ।
तो अगला सवाल: क्या सेक्स को लेकर आक्रामकता केवल ख़ुद को मर्द साबित करने के लिए है या ये सेक्स का ऐसा तजुर्बा है जिसमें मज़ा आता है और इसका कोई मतलब भी है?
असली मर्द खाँचा 3: आदमियों को किसी चीज़ का मोह नहीं होता।
ऐसा हो सकता है कि कुछ आदमी इस खाँचे में फिट होना चाहें लेकिन जिन विकलांग आदमियों से मैंने बात की, वो अपनी कोमलता और नाजुकता बयान करना चाहते थे, संवेदनशील और भावनात्मक इंसान बनना चाहते थे ।
“कभी कभी सब कुछ छोड़ देने का मन करता है।। मतलब आप कमा रहे हो लेकिन किसी को इसकी कोई क़दर नहीं है। वहीं तुम्हारी जगह कोई ‘नॉर्मल’ इंसान है, तो उसे सब पूछते हैं।”
“एक ने मुझे बोला कि अगर तेरा पैर ठीक रहता, तो वो तुझे लाइन देती। इसके बावजूद मैंने उस लड़के से दोस्ती रखी।”
तो मर्दानगी के लिए ये सवाल: किसी से लगाव न रखने और अपने भाव ना दिखाने से भले ही पितृसत्ता में एक आदमी को थोड़ी अहमियत मिलती हो, लेकिन क्या पूरा समाज इसकी कीमत नहीं चुकाता? हम जिन नाज़ुक पहलुओं का बयान कर रहे हैं, वो तो उन आदमियों में भी हैं जो विकलांग नहीं है, लेकिन क्या वो सिर्फ़ उन्हें इसलिए छुपाते हैं ताकि अपनी अहमियत बनाए रख सकें?
खाँचा 4: आदमी सख़्त होते हैं और उन्हें मेलजोल नहीं चाइए होता।
विकलांग आदमियों के लिए ऐसे खाँचे में फिट बैठना आसान नहीं है, जो कहे कि वो कुछ फील न करें और सब कुछ शांति से लें । जबकि परिवार और समाज में उनकी बड़ी ज़लालत मलालत होती है।
“मैं भी तो उन्हें /अपने परिवार को ढाँढस देता हूँ। मैंने देखा है कि मेरे विकलांग दोस्त अपने परिवारों को बहुत ज़्यादा इमोशनल सपोर्ट देते हैं ।”
“लेकिन घर-परिवार के फ़ैसलों में मुझसे कोई कुछ नहीं पूछता क्योंकि मुझे कमतर मानते हैं।”
विकलांग लोगों का ये देखभाल करने का गुण उनकी दोस्तियों में भी झलकता है। वो दुनिया और रोज़मर्रा के रिश्तों में अपनी जगह, इन दोनों चीजों के बारे मे गहरी सोच रखते हैं और बहुत संवेदनशील भी हैं ।
तो ये रहा सवाल समाज के लिए: आपको चाहिए तो एक ‘संवेदनशील’ आदमी, लेकिन जब यही संवेदना किसी विकलांग आदमी में मिलती है तो आप इन्हें उस चाहत भारी नज़रों से नहीं देखते। आख़िर क्या कारण है? (कहीं ये हृष्ट पुष्ट लोगों के फायदे में आपका भेद भाव तो नहीं ?
खाँचा 5 - तो हम आदमियों की रेटिंग कैसे करें ?
ये देखें कि विकालंग आदमी ख़ुद को कैसे नम्बर देते हैं ?
“क्या पता यार … मैं तो ख़ुद को कम से कम 8 नम्बर दूँगा। विकलांग होने के काट लो दो। वरना आख़िर मुझमें क्या कमी है? लोग अक्सर बोलते हैं, भाई तू कितना इंस्पायरिंग है… लेकिन जब बात डेट करने की आती है तो मैं अचानक से व्हीलचेयर वाला हो जाता हूँ। ये सब तुम्हें विकलांग होने के लिए ख़राब महसूस कराते हैं। अरे मैं क्या कर सकता हूँ उसपे ध्यान दो ना। मेरी बॉडी है, हर दूसरे दिन जिम जाता हूँ, बोलचाल में ठीक हूँ, अच्छी नौकरी है… और सेंसिटिव भी हूँ… कभी किसी को चोट नहीं पहुंचाई है …”
और क्या चाहिए?
तो ये आख़री सवाल: आदमी क्या है? ख़ाली खाँचों का घेरा ? मोह, विचार और प्रेम का एक सफ़र?
वो इंसान कैसा होता है जिसे कोई चाहे? वो जिसे हमें चाहना सिखाया गया है? भले ही उसकी “मर्दानगी” हमें चाहत की एक प्यारी दुनिया से दूर ले जाती है? उस दुनिया से दूर जहां चाहत में आपसपना हो सकता है, जहां हँसी, कमज़ोरियाँ, नाजुकताए हैं, जहां हमें कुछ छुपाने की ज़रूरत नहीं, जहां जोश भरी चाहत के साथ, संवेदना भी है ?
क्या पितृसता चाहत को समझने की हमारी क़ाबिलियत को विकलांग बना देती है?
ये हुआ सही सवाल।