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लोगों ने मुझे कुछ किलो वजन कम करने के लिए कहा, मैंने शर्म उठा के ख़त्म किया!

मेरे मम्मा ने कहा वो वही छोटा लहंगा खरीद रही हैं और मेरे पास एक हफ्ता था अपना वजन कम करने के लिए।

मैं दस साल की थी जब पहली बार ऐसा कुछ खरीदा जो मेरे साइज़  के हिसाब से छोटा था। वैसे, वो खरीदारी मैंने नहीं, बल्कि मेरी मम्मा ने की थी। हम घर के पास वाले स्टोर में शादी की शॉपिंग करने गए थे। और वहीं मुझे सबसे सुंदर बैंगनी रंग का लहंगा मिला। बिल्कुल वैसा, जैसा मैं सपनों में देखती थी। मम्मा को भी वो बहुत पसंद आया। स्टोर की तीसरी मंजिल पर, हलचल से दूर, उनका लकड़ी का बना छोटा सा ट्रायल ड्रेसिंग रूम था। वहां जाकर वो लहंगा ट्राय किया। लेकिन बस एक ही दिक्कत थी, स्कर्ट थोड़ी ज्यादा टाइट थी। मेरी विशाल  जांघों से तो वो ऊपर चढ़ गया, लेकिन जिप बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मुझे तो रोना आ गया। मन किया कि अपने नाखून घुसाकर कुछ मांस का हिस्सा निकाल बाहर करूं, ताकि उस लहंगे में फिट हो सकूं।  कुछ और खींचा-तानी और पेट को अंदर करने की कोशिश के बाद भी जब क़ामयाबी नहीं मिली, तो मम्मा ने बड़ी निराशा से मुझे देखा। उनकी दस साल की बेटी बारह साल की लड़की के कपड़े में भी फिट नहीं हो पा रही थी।

उस छोटे से ड्रेसिंग रूम में, मम्मा ने कहा कि वो मेरे लिए वही लहंगा खरीद रही हैं और मेरे पास एक हफ्ता था- अपना वजन कम करके, उसमें फिट होने का।

तो मैंने पहली बार डाइटिंग ट्राय की, और एक्सरसाइज़ भी । उस शादी से पहले के पूरे एक हफ्ते, मैंने ट्रेडमिल का भी इस्तेमाल किया।  डिनर के पहले पूरे 20 मिनट मैं उसपे चलती थी। मुझे याद है कि उस 20 मिनट के बाद, मेरे पैरों में जैसे कोई जान ही नहीं बचती थी। पाँव पे खड़े हो पाने के लिए ख़ुद को सम्भालना पड़ता, उसके बाद ही मैं डिनर के लिए लिविंग रूम में जा पाती थी।

उस एक हफ्ते मेरा डिनर था- बस एक गिलास दूध और एक केला। उस हफ्ते का और कुछ तो याद नहीं है, लेकिन बस इतना कि वो लहंगा थोड़ा ढीला ही हो गया और मम्मा को मुझपे बहुत फ़क्र महसूस हुआ।

* * *

ये जो शब्द है- 'मोटा'', मुझे नहीं पता कि उसको कैसे लेना चाहिए। मैं खुद को समझाती हूं कि ये कोई बुरा शब्द नहीं है। बस शारीरिक बनावट को बयां करने वाल एक विशेषण/अडजेक्टिव है। लेकिन फिर भी, चाहे मैं कितनी भी बार इस सोच को दोहराऊं, मुझे इसपर यक़ीन नहीं होता। मैं खुद को मोटी कहती हूँ, तो मुझे बुरा लगता है। क्योंकि मेरे दिमाग का एक हिस्सा हमेशा कहता है - 'तुम्हें मोटा नहीं होना चाहिए।' मोटा होने का मतलब है कि आपके कपड़े कुछ अजीब तरह से फिट होंगे। और डॉक्टर आपकी बीमारी की असली वजह का पता लगाए बिना, आपकी सारी समस्या का दोष आपके वज़न पे डाल देंगे।

मेरे लिए, 'मोटापा' बस एक शब्द नहीं, बल्कि एक हथियार है। मैं उन लोगों के बारे में सोचती हूं जिनका मोटा होना मुझे पसंद नहीं है। कभी-कभी मोटापे के पैमाने पर उनकी तुलना खुद से करती हूँ और उन्हें अपने से थोड़ा ज्यादा मोटा मान लेती हूँ।

जब भी मैं ऐसा करती हूं, ये भी सोचती हूं, कि "ऐसा नहीं होना चाहिए। मुझे या किसी को भी, मोटे लोगों को ऐसे नहीं देखना चाहिए या उनके बारे में ऐसे नहीं सोचना चाहिए।"  लेकिन, क्या सच में 'क्या करना चाहिए', जैसा कुछ होता भी है? क्या ऐसा कोई फ़िक्स लेंस है जिसके माध्यम से ही मोटे लोगों को देखा जाना चाहिए?

2017 के एक निबंध में, लेखक  लिखती हैं:

जब भी मैं किसी मोटे दिमाग वाली मोटी औरत को देखती हूं, जो बहतरीन है, उस मोटे तरीके से जो मुझे बहुत प्यारा है, तो मैं उसकी दासी बन जाना चाहती हूं।  मैं उसके पैर और उसके कपड़े के किनारों को चूम लेना चाहती हूं।  उसके दर्द कर रहे कंधों को दबाना चाहती हूं। मेरे नालायक हाथों में दूध का प्याला लेकर, घुटनों पर चलकर, उनके पीछे पीछे जाना चाहती हूं।

मैं मोटापे को उसी तरह देखना चाहती हूं जैसे मचाडो देखती है।  मैं मोटे दिमाग वाली मोटी महिलाओं पे गदगद होना चाहती हूँ । खुद पे गदगद होना चाहती हूँ।

क्या उस छोटी उम्र में, मैं सचमुच मोटी थी? लगा तो मुझे ऐसा ही था। लेकिन अब सालों बाद अपनी तस्वीर देखकर लगता है, उस समय मैं साधारण थी। क्योंकि आज की तारीख़ में मैं चिकित्सकीय/क्लीनिकल रूप से मोटापे से ग्रस्त हूं। वो हालत  जो आपको डॉक्टर की अपॉइंटमेंट लेने में पीछे और ऑनलाइन खरीदारी में काफी आगे ले आती है ।

मचाडो बताती है कि कैसे उनको लगता था कि वो मोटी हैं, जबकि दरअसल वो मोटी नहीं थी। उसकी बात  पढ़ के जैसे एक आह सी निकली- "अरे, बिल्कुल मेरी तरह!"

ऐसे बहुत कम दिन होते हैं जब मैं इस बात से खुश होऊं कि मैं कैसी दिखती हूं, मेरे शरीर का आकार कैसा है। कभी-कभी जब मैं पुरानी तस्वीरों को देखती हूं, जब मैं लगभग 12 साल की थी, तो सोचती हूँ कि अब मेरा वजन उतना ही क्यों नहीं है, जितना तब था।  मुझे पता है, मुझे पता है, एक 20 साल की लड़की का वजन 12 की लड़की जैसा नहीं होना चाहिए। पर कभी कभी मैं अपने आप से ये भी पूछती हूँ कि मैंने अपने शरीर पर ध्यान क्यों नहीं दिया। उसे वो शरीर क्यूँ नहीं बनाया जैसा मैं खुद के लिए चाहती थी।

***

उसका शरीर उसके शादी के गाउन को चीरकर कुछ यूँ बाहर निकल आया, जैसे उसपे कोई रोक ना की जा सके ; जैसे उसकी नदी अब किसी बांध से रोकी नहीं जा सकती थी।

मैंने मचाडो के निबंध को पढ़ने के बाद, 'द लिटिल मरमेड'  फ़िल्म को फिर से देखा। और इस बार, मैंने राजकुमार एरिक के बजाय, समुद्र की चुड़ैल उर्सुला पर ध्यान दिया।

मुझे 20 साल और मचाडो की काफी सारी रीडिंग के बाद ये एहसास हुआ कि उर्सुला असल में कितनी कमाल की है। पूरी फिल्म में सबसे स्मार्ट किरदार वही थी। ना ही पहली नज़र में उसे उस मर्द से प्यार हुआ और ना ही बाद में उस मर्द के लिए उसने खुद को बदला। उर्सुला ने एरियल के भोलेपन का फ़ायदा उठाया और अपनी लाल-लिपस्टिक वाली चमक में शो का पूरा ध्यान अपनी ओर कर लिया। उसका व्यक्तित्व को फिट करने के लिए जैसे एक फ्रेम काफ़ी ही नहीं था। शायद इसलिए उसके विशाल शिकंजे मुझे उसपर सही लग रहे थे। उसका शरीर जैसे कभी खत्म न होने वाला हो, क्योंकि इतना तेज-पन (और कोई बेहतर शब्द मिल नहीं रहा), आख़िर कहां बांधा जा  सकता है!

मचाडो, उर्सुला को कामुक और असभ्य, महत्वाकांक्षी और अभिमानी का नाम देती है। पूरे आर्टिकल में ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा था। तस्वीरों में देखो तो मेरे कंधे हमेशा घुमा के अंदर की तरफ खींचे हुए होते हैं। खुद को थोड़ा छोटा दिखाने की कोशिश में। मैं भी उस मकाम पर पहुंचना चाहती हूं जहां कोई मेरे लिए  कामुक और अहंकारी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करे।

शायद वही शरीर है जो मुझे चाहिए।

***

2021 में, मैं ज्यादातर अकेली ही रही। उस समय मैं जो चाहती थी, कर सकती थी। उस दौरान मैंने अपने शरीर को ज़रूरत से ज्यादा रगड़ा।

अकेले रहना एक तरह से अच्छा था। मैं घंटों एक्सरसाइज़ कर सकती थी। कोई रोकने वाला नहीं था। अपने पैरों के नीचे गुलाबी योगा चटाई बिछाकर, और लैपटॉप पर वीडियो चलाकर, तब तक एक्सरसाइज़ करती, जब तक बिल्कुल ताकत ना बचे। आमतौर इसके बाद कुछ घंटे, मैं हिलने लायक़ नहीं बचती थी। वहीं चटाई पे लेटी रहती और पसीने की परत मुझपर और चटाई पे  चढ़ने देती। वहाँ लेटे हुए जैसे मैं अपने शरीर के हर इंच को महसूस कर पाती थी। अपने शरीर में हुए छोटे से छोटे अंतर को भी भांप पाती थी। मेरा पेट पहले से ज्यादा सपाट हुआ था, बाहें मजबूत लग रही थीं। मुझे लगा मेरा हेल्थ अच्छा हो रहा था।

हालांकि सिर्फ एक्सरसाइज़ काफी न थी, इसलिए मैंने खाना बंद कर दिया।  बेशक पूरी तरह से नहीं, लेकिन तय किया मैं कभी भी दिन में एक या दो बार से ज़्यादा खाना नहीं खाऊंगी। मेरे खुद के बनाये इस वर्कआउट रूटीन और डाइट को चालू रखना काफी आसान था, क्योंकि उस दौरान मुझे चेक करने के लिए कोई आसपास नहीं था। मुझे कभी नहीं लगा कि मैं कुछ गलत कर रही थी। हाँ, मैं अपने शरीर से काफी मेहनत करवा रही थी, लेकिन वो मुझे सही लगा।

मैं इतनी कड़ी मेहनत उस चीज़ को पाने के लिए कर रही थी, जो मुझे हमेशा से चाहिए थी- एक दुबला शरीर! और मैं उसके बहुत करीब भी थी।

वैसे दुबला होने से आपके हाथ कोई जादुई छड़ी नहीं लग जाती है। ना ही सब कुछ डिज़्नी मूवी जैसा मज़ेदार होने लगता है। दरअसल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका साइज़ क्या है, और ये मुझे नहीं पता था। मैंने तो सोचा था कि दुबले होते ही सब कुछ आसान हो जाएगा। मैं परीक्षाओं में बेहतर नम्बर लाने लगूंगी, कम परेशान रहूंगी, लोगों के साथ अच्छा बर्ताव रखने लगूंगी, और आख़िरकार किसी लड़के के लिए आकर्षक बन पाऊंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हां कुछ चीज़ें बदली हैं, लेकिन इसलिए नहीं क्योंकि आज मैं दुबली या मोटी हूँ। 

***

मैं आर्यन को यूँ ही, जाने कौन से  महीने के कौन से दिन में मिली थी, पर मुझे हमारी पहली बातचीत आज भी याद है । ये भी याद है कि हम कैसे दोस्त बने और वो पहली दफ़ा भी, जब मैं उसकी वजह से रोई थी । 

वो और मैं बहुत स्पीड से, एक दूसरे के बहुत क़रीब आ गए । मुझे यूँ लगता कि मैं उसे अपने बारे में सब कुछ बता सकती थी और इससे कोई दिक़्क़त नहीं होगी, क्यूँकि मैं उसे बता रही थी और वो मुझे समझता था । उसने मुझे अनजान डर के गिरफ़्त में, पैनिक अटैक का शिकार देखा था । जब मैं खाना नहीं खा पाती, वो मेरी मदद करता था और मुझे यूँ लगता था  कि मेरी ज़िंदगी को इस इंसान का  ही इंतेज़ार था ।  

फिर कुछ बदला और मैं ये समझ नहीं पायी कि उसको ये बात समझ में आयी भी है या नहीं । मुझे ये तो नहीं पता कि क्या वो मुझे चोट पहुँचाना चाहता था । मेरी ये उम्मीद थी कि वो मेरे चिंता करेगा, इस बात से परेशान होगा कि कहीं वो मुझे खो ना दे, और इससे भी  परेशान होगा कि हमारे इर्द गिर्द सब कुछ पहले जैसा हल्का और ख़ुशनुमा नहीं था । 

“मैं तुमसे अट्रैक्ट हूँ, पर उस क़दर नहीं “

उसको लाइक करने में तो मुझे कोई दिक़्क़त नहीं आई, मुझे तो लगता है मैं शायद उसे कुछ ज़्यादा ही लाइक करती थी । दिक़्क़त ये थी कि उसको मिलने के बाद, मैंने ख़ुद को पसंद करना बंद कर दिया था । मुझे ये नहीं पता कि क्या वो मुझे सच में पसंद करता था, या फिर बस ही हुआ कि वो बस बोर हो रहा था और मैं उन दिनों  आस पास थी । अगर मैं सोचूँ कि ये दूसरी वाली बात सच है, तो दिल दहल जाता है, पर हो सकता है कि यही सच है  । क्यूँकि वो अपने बारे में ख़ूब परवाह करने वालों में से था, किसी और की परवाह करना उसके बस में नहीं था । 

हो सकता है ये मेरे दिमाग़ का फ़ितूर हो, या फिर उस रात को पी हुई दारू, पर मुझे उस रात का हमारा पहला किस याद ही नहीं । मुझे बस अपनी कमर पे उसके हाथ याद हैं और वो आँसूँ भी याद हैं जो उसके जाने के बाद मेरी आँखों से गिरे थे । हाँ, इतना ज़रूर पता है, कि यहीं से सब कुछ बदल गया । इसके बाद मैं समझ ही नहीं पायी कि उसके साथ अपने रिश्ते के बारे में क्या सोचूँ, क्यूँकि इसके बाद हम दोस्त ही नहीं रहे, बस ऐसे दो लोग बन गए जिनके बीच और कुछ नहीं था, एक  राज़ के सिवाय  । 

“तुमको तो एक ही चीज़ करना आता है - खाना नहीं खाना “

“मुझे लगता है कि तुम्हारा चहरा तुम्हारे बदन के लिए कुछ ज़्यादा बड़ा है “।

हमारी बात होनी तो बाद में बंद हुई, उसके थोड़े पहले से ही मैंने उससे दोस्ती जताना छोड़ दिया था । यूँ लगा मैं एक ऐसी दोस्ती की याद को पकड़े बैठी हूँ, जो कभी बहुत मायने रखती थी । यूँ नहीं लगता था कि हमारी कोई दोस्ती बची है, कभी- कभी यूँ  लगता था कि मैं महज़ उसकी ड्यूटी हूँ, जो वो किसी तरह निभा रहा है, और उसके काम  तभी आती हूँ जब उसे कुछ चाहिए । 

जब मैंने उसे बताया कि मैं उसे पसंद करती हूँ, उसने बस थैंक यू कहा । मेरे आँसू गिरने लगे और रुके ही नहीं क्यूँकि मैं  ऐसे आदमी के प्यार में पड़ गयी थी जो  रत्ती भर भी मेरे प्यार के लायक नहीं था  । 

उसके आस पास रहने से भी मुझे घुटन होती थी लेकिन मैं फिर सोचती थी कि शायद जब आप किसी को चाहते हो, तो ऐसा ही लगता है । जब मैं थोड़ी और छोटी थी, एक बार मेरा पाँव एक बांबी - चींटियों के घर - पे ग़लती से पड़ गया था और बदले में चींटियाँ मेरे पाँव पे चढ़ाई करने लगीं थीं। आर्यन के साथ समय बिताना कुछ वैसा ही था जैसे चींटियों की एक सेना मेरे पाँव पे चढ़ गयी है । 

***

कपड़े तो हर साइज़ में आते हैं, पर किसी वजह से लोगों को लगता है कि मौजूदा बड़े साइज़ को ख़रीदने से बहतर यही होगा कि आप अपना ही साइज़ को बदल डालें । 

मेरा ये कहना थोड़ा ढोंग सा ही लगेगा क्यूँकि मैं ख़ुद ऐसे कपड़े ख़रीदती हूँ जो मेरे लिए छोटे हैं । मुझे यूँ लगता था कि जब और लोग इस सब में शामिल हैं, तो इस बात पे टिप्पणी करना और आसान हो जाता होगा, पर सच तो ये है कि जब भी कोई मुझसे ये कहने की कोशिश करता है कि मुझे अपने साइज़ के कपड़े ख़रीदने चाहिए, तो मैं तुनक जाती हूँ । ये केवल कपड़ों के मामलों में नहीं होता, अगर कोई मेरे वेट पे कुछ कह दे, या मेरे खाना खाने की आदतों पे, मुझे बहुत अजीब लगता है । यूँ लगता है कि एक शर्म की पतली परत ने मुझे ढक दिया है, उस तरीक़े से, जिस तरह एक्सर्साइज़ के बाद पसीने की एक पतली परत आपको ढक देती है । मैं हमेशा इन सवालों के जवाब में अपनी सफ़ाई देने लगती हूँ, ये बताने लगती हूँ कि मैंने उस दिन ख़ास वो ड्रेस क्यूँ पहनी है या क्यूँ मैं एक डबलरोटी के टुकड़े की जगह दो टुकड़े  खा रही हूँ । 

अब जब मैं मम्मा के साथ शॉपिंग को जाती हूँ, वो ऐसे कपड़े ही चुनती हैं जो मेरे लिए बहुत ज़्यादा बड़े हैं । ये बदलाव कब आया, मैं सही से तो नहीं  बता पाऊँगे, पर मुझे ये पता है कि ये धीरे धीरे हुआ । मुझे ये कहा गया कि मुझे ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जो मेरे बदन को ना छुएँ, जो मेरे मोटापे से ना चिपकें । अब मुझसे ये उम्मीद रखी जाने लगी कि मैं अपने को ढक के रहूँगी, भेष बदल के चलूँगी, ताकि कोई ये बता ही ना पाए कि मैं वाक़ई में मेरा साइज़ क्या है । 

मम्मा और मैं मेरे बर्थ्डे की शॉपिंग कर रहे थे, जब मुझे अपने लिए लिनेन की नीले रंग की बढ़िया पैंट मिली । उसका फ़िट एकदम बराबर था, पर मम्मा को लगा कि उनमें मैं जो कुछ  हूँ, वो कुछ साफ़ साफ़ दिख रहा था  । जब हम बिल के काउंटर पे पहुँचे, उन्होंने दो साइज़ बड़ाकर उस ही  पैंट की माँग की । उनको लगा ये बड़ा साइज़ मेरे लिए सही फ़िट बैठेगा, उनके हिसाब से जो कुछ ढकना ज़रूरी था, वो ढक जाएगा । सच ये है कि मैंने वो पैंट कभी पहनी ही नहीं, क्यूँकि वो मेरे कूल्हों पे टिकती ही नहीं, और मुझे हर वक़्त इस चिंता में रहना पड़ता है कि इनको कैसे पकड़कर ऊपर रखूँ, कहीं ग़लती से गिर गयीं तो अगले को परेशानी होगी । 

बड़े होते हुए मैं अपने को, अपने से बहुत छोटे साइज़ के कपड़ों में फ़िट होने की कोशिश करती रहती थी । और अब मुझे कहा जाता है कि बड़ा साइज़ लो, अपने को छिपाओ । यानी यही बार बार  कहा जा रहा है कि ‘तुम फ़िट नहीं होती’ ‘तुम फ़िट नहीं बैठती ‘।

एक लम्बे समय तक, मेरी कल्पना थी कि काश,  मैं डिज़्नी की राजकुमारी बन जाऊँ । फिर मुझे उर्सला से प्यार हो गया, उसके हर चीज़ में अति होने से । पर सोचती हूँ अगर मैं ये भी और वो भी, थोड़ा थोड़ा दोनों ही बन पाती तो कैसा होता? अगर मेरे बदन को ये सुख मिलता कि वो कभी फैले पाता, कभी सिकुड़ पाता, अपने को बदल पाता  । कौन कहता है कि मेरे बदन को या ये या वो ही होना होगा । शायद ये सब कुछ ही है । 

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