आशा कौताल दिल्ली में ग्यारह साल तक अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव रहीं। दलित महिलाओं के बीच वो एक सशक्त आवाज बनीं, जिन्होंने युवा दलित औरतों को आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया। 2020 में, उन्होंने अपनी फैमिली में दो नए युवा सदस्यों को शामिल किया और फिर केरल चली गई। उनके काम को देखकर, उनको देख कर, मेरा मन कहता कि प्यार में विशवास रखना चाहिए, और अब, बड़े होने के बाद भी कायम रखना चाहिए । यही वज़ह थी कि मैं उनका इंटरव्यू लेना चाहती थी। वो प्यार के सपने देखती हैं और यही तो वो ख़ासियत है जिससे आप खींचे चले आते हो। एक #grown-ass-woman यानि कि दिलचस्प बिंदास उम्रदराज़ औरत कैसी होती है, क्या सोचती है, मेरे मन में इसकी एक छवि थी। पर आशा से मिली तो वो तस्वीर काफी बदल गयी।
काफी टाइम तक तो मुझे यही लगता था कि एक दिलचस्प उम्रदराज़ बिंदास औरत होने के लिए. ज़ोर-ज़ोर से बातें करना, फ़क-ऑफ कहना और किसी की परवाह ना करना, ज़रूरी हैं। लेकिन आशा ऐसी बिल्कुल नहीं थीं। समझदार औरतें तो मुझे हमेशा से पसन्द रही हैं। लेकिन इनकी समझदारी आम समझ से भी परे हैं। ये बहुत उदार हैं। तो जैसे ही मुझे किसी दिलचस्प बिंदास उम्रदराज़ औरत का इंटरव्यू लेने को कहा गया, तो मन में आशा का नाम सबसे पहले आया। एक कार्यकर्ता के रूप में काफी समय बिताया था, ज़मीनी स्तर पे काम किया था। इन्होंने दलित आंदोलनों में युवा दलित लड़कियों को गाइड किया और चुनौती से भरी परेशानियों को मुश्किल से मुश्किल परिस्थितयों में झेला। इन सबके बीच भी, इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि हर किसी के सवाल का नम्रता से जवाब दिया। इस इंटरव्यू में, हमारे बीच के कुछ सवाल-जवाब हैं। उम्मीद रखती हूँ, कि उनसे हुई बातचीत को मैं दिल में रख, मैं खुद भी किसी दिन एक दिलचस्प बिंदास उम्रदराज़ औरत बन पाऊं।
तो, आपके हिसाब से एक दिलचस्प बिंदास उम्रदराज़ औरत यानि #grown-ass-woman कौन होती है, कैसी होती है?
पहले, एक बड़ा पिछवाड़ा बरकरार रखो, फिर तुम एक #grown-ass-woman बन जाओगी! (हंसते हुए)
मेरा मतलब है, मैं कोई फण्डा नहीं देना चाहती, इन सब बातों को लेके- कि बड़े फैसले कैसे लिए जाएँ, खुली सोच कैसे रखी जाए, वगैरह ।
जब मुझे कलेक्टिव में मेरा रोल दिया गया, मुझे ऐसा लगा जैसे ये मेरा ग्रुप है, मेरे लोग हैं, मेरी बहनें हैं। मुझे उनके लिए वो हर चीज़ करनी थी, जो ज़रूरी थी। AIDMAM के इस सफ़र के दौरान ही, मैं #grown-ass-woman बनी। इसलिए, मुझे लगता है कि एक #grown-ass-woman वो है जो जिस काम से जुड़ी है, उसे पूरे मन से करती है। और आगे आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए, हर हद पार करने के लिए तैयार है। #grown-ass-woman ये समझती है कि उसका वहां तक पहुंचने के सफर की हिस्ट्री, आपके साथ साथ चल रही है l क्योंकि मुझे लगता है कि उस पिछवाड़े की चिकोटी काटने, वो हिस्ट्री वापस आएगी ही।
ऐसा नहीं है कि #grown-ass-woman को दुःख नहीं मिलता है। क्योंकि आपकी हिस्ट्री ही अपने साथ बहुत दर्द लेकर आती है। मुझे लगता है, हम सब जानते हैं कि लाइफ में हर चीज़ के साथ, ये चीज़ भी आती ही है। मैं हमारे 2018 में हुए दलित महिला सम्मेलन को याद करूं, तो कान में वहां की आवाज़ें गूंजने लगती हैं। पराई (ट्राइबल इंस्ट्रूमेंट) की धनक, और फिर वो आपस का शोर, वो चीखना-चिल्लाना। फिर मैं वो टाइम भी याद करती हूँ, जब तुमने हमारे लिए राइटिंग वर्कशॉप का इंतज़ाम किया था। हमने अपनी-अपनी प्रेम कहानियाँ लिखीं। फिर आस-पास बैठ एक-दूसरे की कविताएँ पढ़ रहे थे और खी- खी, और कबड़-कबड़ कर रहे थे।
और फिर वो पल भी, जब हमें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें। हम कमरे में बैठकर बार-बार रो रहे थे। मानो और कुछ करना ही नहीं था। हम नहीं जानते थे कि हमने जो बातें लिखीं और ज़ोर से पढ़ीं, हम उन पर अपनी राय, इसके सिवाय, और कैसे दें।
याद है वो वर्कशॉप जहाँ दिन के पहले हिस्से में हमने ये कहानियाँ लिखी थीं और हम सब बस रो रहे थे, और फिर दूसरे पहर जब मज़ेदार कहानियाँ लिखीं तो हमारा हँसना ही बंद नहीं हो पा रहा था।
हां, बिल्कुल, यही हुआ था!
मुझे याद है जब मैंने कुछ साल पहले आपको पहली बार देखा था। अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच (ए.आई.डी.एम.ए.एम) के एक सम्मेलन का उदघाटन था। प्रोग्राम का दूसरा भाग शुरू होना था, लेकिन स्टेज पे जो औरतें थीं, वो गाना बंद ही नहीं कर रही थीं, वो भावनाओं में इस हद तक बह चुकी थीं। आप आयोजक थीं, प्रोग्राम समय से चले, ये देखना आपकी जिम्मेदारी थी। लेकिन आपने उनको नहीं रोका। उनका वो छोटा सा उत्सव जारी रहने दिया। जब भी ऐसा कुछ होते देखती हूँ, मुझे आपकी याद आ जाती है। कितना कुछ सीखने लायक है आपमें। आप इतनी उदार दिल कैसे हैं?
यही बात मेरे कुछ दोस्त भी कहते हैं। पर सच मानो मैं ये जानबूझकर नहीं करती हूँ। मुझे किसी और तरीके से जीना आता ही नहीं।
जब मैं AIDMAM में बड़े पोस्ट पे थी, मुझे काफी सारे पावर दिए गए थे। बेशक, संगठन के भीतर हम एक साथ मिलकर बहुत सारे काम कर रहे थे, लेकिन काफ़ी और चीज़ें थीं जो मेरे सिग्नेचर से होती थीं। संगठन के अंदर हो रही चीजों की जवाबदेही मेरी थी: जिन प्रोग्राम का मैं आयोजन कर रही थी, प्रेस में जो भी आर्टिकल मैं दे रही थी! उस पद पर मेरा क्या रोल है, मेरी क्या जिम्मेदारियां हैं, मुझमें वो समझ थी। मैं स्टेज पर चढ़कर उन औरतों को बोल सकती थी "हेलो, अब गाना बंद करो"। लेकिन मैं अपने पावर को कभी इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहती थी। लोग मेरे व्यवहार या प्रतिक्रिया के बारे में क्या सोचते हैं, मैंने कभी उसकी परवाह नहीं की। मुझे पता है कि दलित औरत होने के कारण, हम बाकी औरतों से अलग हैं। हमारी ज़रूरतें भी अलग हैं। हम यकीनन उन जरूरतों को पूरा करने का रास्ता बनाएंगे। लेकिन अपने पावर का इस्तेमाल करके मैं किसी पर कोई रोक लगाऊं, ये तो बेवकूफ़ी ही होगी। ऐसा कुछ करना मेरे दिमाग में ही नहीं आएगा।
अब जब मैं इसके बारे में सोचती हूं, तो मुझे लगता है कि शायद मुझ में बहुत कुछ मेरी मां से आया है। बहुत ही मजबूत, दयालु औरत हैं । लाइफ भर तो मैंने यही चाहा कि मैं अपनी मां जैसी ना बनूं। मतलब, मैं उनसे कितनी अलग हूँ। लेकिन मेरा ये दयालु वाला रूप शायद उनके बड़े दिल से ही आया है।
जब मैं बड़ी हो रही थी, मुझे लगता था कि आज़ाद महसूस करने और अपने फैसले पर भरोसा करने के लिए, ये जरूरी है कि हम कठोर बनें। लोगों पर चिल्लाएं, उनको फ़क-ऑफ बोलें। मुझे नहीं लगता था कि एडल्ट या #grown-ass women दयालु भी हो सकती हैं।
मुझे लगता है कि किसी चीज़ पर आप कैसी प्रतिक्रिया देंगे वो इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप किस माहौल में हैं। अब जैसे अगर आप बहुत सारी सावर्ण/ऊंची जाती की औरतों के साथ काम कर रहे हैं, और उनकी बहुत सारी स्थितियों से गुज़रे हैं, तो आपको गुस्सा आएगा ही। फिर आप एकदम अकड़ कर साफ-साफ अपनी बात सामने रखेंगे, ताकि अगला आपकी बात को सीरियसली सुने। मेरा सबसे ज्यादा टाइम तो मेरे अपने लोगों के साथ ही बीता है। वे सब मेरी अपनी बहन जैसी हैं और मैं उनकी दीदी की तरह हूँ। तो ज़ाहिर है, मैं उनके साथ उदार ही रहूंगी।
AIDMAM काम करने की जगह तो है, लेकिन यहां का सिस्टम थोड़ा अलग किस्म का है। यानि एक तरफ तो आप सबके साथ उनकी बहन बनकर रहती हैं, पर दूसरी तरफ आपको बॉस का रोल भी निभाना है। बॉस बनकर दलित औरतों को जॉब सिखाना है, उनको उनकी पसंद का एरिया चुनने में उनकी मदद करनी है। आप इन दोनों रोल के बीच तालमेल कैसे रखती हैं?
जैसा तुमने खुद कहा, इन संस्थाओं में, हम नार्मल जॉब की तरह सुबह लॉग-इन/log-in और शाम को लॉग-आउट/log-out नहीं करते हैं। वैसी संस्थाएं जो कि एक स्टेटस-क्यूओ (status-quo- यानि अभी के समाज के रंग-ढंग, भेद भावों को कायम रखते हुए, कुछ ख़ास न बदलते हुए), एक वर्गीकरण (hierarchy) को कायम रखना चाहता है, वही इस तरह की रूप-रेखा और नज़रिया रख सकता है।
हम दलित औरतों के काम करने का तरीका बिल्कुल अलग था। ये प्रोसेस कम्युनिटी के आधार पर होता था। हम साथ ही सीख रहे थे, साथ ही आगे बढ़ रहे थे। जिन भी औरतों के साथ मैंने काम किया है, वो सब मेरी लाइफ के उतार-चढ़ाव के बारे में जानती हैं। भले मैंने खुलकर कभी कुछ नहीं कहा, पर फिर भी ज़रूरत पड़ने पर, उन सबने मेरा साथ दिया, मेरी ज़रुरत में हाज़िर रहीं। तो ये जो पर्सनल और प्रोफेशनल जिंदगी के बीच की एक लाइन है, वो काफी धुँधली है। हम में से कोई भी इन दोनों को अलग नहीं कर पाता है।
क्यूंकि वह बहुत ही निजी है ?
हाँ , हमारा रिश्ता बहुत ही निजी है। मेरी ज़िन्दगी और उनकी ज़िंदगियाँ आपस में कई मायनों में जुड़ी हुईं है।
मेरे इस लीडर बनने के सफर में, जो बात सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण थी, वो यह थी कि पहले मैं, एक बहन होने का किरदार अच्छे से निभाऊं। बल्कि इस बात के लिए मुझे काफी आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। मेरे ग्रुप की बहनें मुझे अकसर बोलती थीं, कि मुझे इतना नरम नहीं होना चाहिए। मुझे थोड़ा सख़्त बनना चाहिए। वो कहती थीं कि मुझे डंडा ले के रखना चाहिए। लेकिन मैंने हमेशा यह समझाने की कोशिश की, कि यहाँ पे हर कोई सिर्फ काम करने के लिए नहीं आया है। ये जगह ,ये ग्रुप उनके लिए सिर्फ एक जॉब नहीं, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा है। इसलिए , हमें उनकी परिस्थितियों और उनके संदर्भ की सोच के चलना है।
मेरी भूमिका शुरू से ही पोषण करने वाली की रही है। मैंने हमेशा बस अपनी बहनों और पूरे दलित समुदाय के विकास के बारे में ही सोचा है। और मैंने हमेशा एक बात मानी है, कि यहाँ हर कोई बाबा साहब के मिशन के लिए समर्पित है और कोई यहाँ कोई ऐसा काम नहीं करेगा जो एक दूसरे या पूरे समुदाय को हानि पहुंचाए। अगर फिर भी कोई ऐसा कुछ करता है , वो खुद ही यहाँ से चला जाए। क्यूंकि हम लोग यहाँ कुछ सोच के आये हैं और हम पूरी तरह से अपने लोग और अपने समुदाय के प्रति समर्पित हैं। और इसलिए ये 'डंडा ले के रखने' वाली बात यहाँ फिट नहीं बैठती।
संस्था की बात करें तो, उस दायरे में मैं लीडर थी l वर्ना मैंने तो खुद को हमेशा इनके साथ कंधे से कन्धा मिला के चलते हुए, और साथ में सीखते हुए ही देखा है।
ऐसे माहौल में काम करने के बाद , क्या आप खुद को ऐसी जगह काम करते देखतीं है, जहा सवर्ण लोगों का दबदबा हो ?
नहीं, अब मैं स्वर्ण लोगो द्वारा चलाई गयी जगह में काम नहीं कर सकती। और न ही दलित मर्दों के साथ काम कर सकती हूँ। हम दलित औरतों को इन्साफ दिलाने के लिए काम करते है। मेरा दिल और दिमाग इस बात की इज़ाज़त कभी नहीं देगा की मैं ऐसी जगह में मर्दों के साथ काम करूँ। मेरे पास इतनी एनर्जी नहीं।
आप दलित औरतों के लिए प्रोग्राम चला सकते हैं। आप उनके लिए बड़े बड़े ग्रांट भी पा सकते है। आप वो प्रोग्राम डिज़ाइन कर के, दलित औरतों द्वारा चलवा भी सकते हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता हमारी लड़कियों और बच्चियों की इच्छाएं और अभिलाषाओं की पूर्ति, उन प्रोग्रामों से होंगी। ख़ास कर के, उन प्रोग्रामों से, जो सवर्ण औरतों या दलित आदमियों द्वारा चलाये जाते है।
मैं अपनी उन बहनों की वजह से ही टिकी हुई हूँ। यह लोग अब मेरे लिए मेरे परिवार जैसे है, एक ऐसा परिवार ,जिसे मैंने खुद चुना है। वो मेरे दिल के हिस्से है और उनमे में अपना अंश देखती हूँ।
#grown-ass-woman यानि कि दिलचस्प बिंदास उम्रदराज़ औरत को ले के, जो मेरे दिमाग में एक और बात आती है ,वो यह है कि उसको पता है कि वो क्या करना चाहती है , और फिर अपने जीवन में आगे बढ़ती है और उस चीज़ को कर ही लेती है। वो किसी की इजाज़त का इंतज़ार नहीं करती। आप देश के किसी और कोने में पैदा हुई हैं , दिल्ली आपके लिए एकदम नयी जगह थी। तो जब आप दिल्ली शिफ्ट हुईं, आपके लिए यह अनुभव कैसा रहा ?
दिल्ली तो मेरे लिए एकदम नया था। मुझे उस शहर के बारे में कुछ भी नहीं पता था। मैं उत्तर भारत में कभी रही ही नहीं थी। मैंने उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान या हरयाणा में कभी काम नहीं किया था। लेकिन फिर मुझे अहसास हुआ कि मैं यहाँ अपने लोगो के लिए कुछ करने आयी हूँ। और अगर मुझे यह मौका मिला है, तो मुझे इसका फ़ायदा उठाना चाहिए।
इसलिए मैंने सोचा, यह कितना भी मुश्किल या कष्टदायी क्यों न हो , मुझे मैच्योर होना पड़ेगा और मोर्चा संभालना पड़ेगा। और मैंने ऐसा ही किया। मैं यह नहीं कह सकती कि जो मांगे मुझसे की गयी थीं , मैं उनके लिए पूरी तरह तैयार थी। लेकिन जहां बात दिल और काम को लेके, मेरी भावनाओ की होती है, वहाँ तो मैं शत प्रतिशत खरी उतरी। मुझे पता था, मुझे यहाँ क्या करना था। मुझे यहां आने से बहुत कुछ बदलना पड़ा, इस जगह, यहां के तरीकों की बिलकुल भी आदत नहीं थी, लेकिन मुझे यह भी पता था, कि यहाँ मैं जो भी करूंगी , मेरे लोगों के लिए जो आंदोलन हो रहा है , उसका उसपे गहरा प्रभाव पड़ेगा।
मैं जिस जगह थी, वहां मेरे पास एक मैच्योर औरत होने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। और जब बात दलित औरतों के आंदोनल की हो, तो कमज़ोर पड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता। मेरी मंज़िल के रास्ते में जो गड्ढे पड़े, वो बहुत ही ज़्यादा गहरे थे। मैं यह नहीं कह सकती कि उन गड्ढों से आसानी से निकल आयी , लेकिन मैं यह ज़रूर कहूँगी कि मैं कॉंफिडेंट थी, क्यूंकि मेरा मन पूरी तरह से मेरे काम में लगा था। मैंने उम्मीद कभी नहीं छोड़ी , और छोड़ती भी कैसे, मैं एक नए सपने का हिस्सा बनने जा रही थी, कुछ नया करने का सपना। तो मुझे अपनी पूरी ताकत उस सपने की ओर लगानी थी। मेरा सफर ऐसे ही रहा है।
मुझे कभी अपना काम व्यर्थ नहीं लगा, हाँ यह ज़रूर लगा कि कुछ नया है करने को, कुछ और भी है, और अपनी ताकत को और ज़्यादा उभारने के लिए ,उस नयी दिशा में जाना ही पड़ेगा। और जो आपके हाथ में है , वो आपको उँगलियों के बीच से फिसलने के बजाय , वहीं जम के रह जाएगा। वह आपके हाथ में टिका रहेगा, क्यूंकि आपने पूरा मन लगा के उसपे काम किया है। और यह मैं सिर्फ अपने काम के लिए नहीं कह रही हूँ , यह बात मेरे खुद के रिश्तों और ज़िन्दगी पे भी लागू होती है।
हमें बचपन में सिखाया जाता है कि हमें जो मिला है उसी में हमें खुश रहना चाहिए। अगर हम ज़्यादा पाने की तमन्ना रखेंगे , तो हम बहुत लालची हो जाएंगे और फिर उसका परिणाम हमको भुगतना पड़ेगा और जो हमारे पास पहले से है , वो भी हमसे छिन जाएगा। और कभी कभी ऐसा भी लगता है क्या फ़ायदा कुछ कर के , क्या रखा है। आपने इस डर को मन से निकाल के हर बार नयी शुरुआत कैसे की ?
मैंने एक टैटू बनवाया है जिसपे लिखा है ' Not all who wander are lost’ मतलब हर वो शख्स जो भटक रहा है , इसका मतलब यह नहीं कि वह खो गया है। मेरी ज़िन्दगी में इतने उतार - चढ़ाव आएं है, कितनी चीज़े ख़तम हुई और कितनी चीज़े दुबारा शुरू हुई। लेकिन मुझे एक बार भी नहीं लगा कि मैं खो गयीं हूँ। क्यूंकि जैसा मैंने कहा , मैं बस अपने काम के प्रति समर्पित थी।
AIDMAM में अपने रोल से पीछे हटने या यह कहे के किसी दूसरे रोल में शिफ्ट होने के पीछे कई कारण थे। कई सालो तक आंदोलन में आगे आ के काम करते -करते मैं थक गयी थी। मैं अपने लोगो के लिए काम करने से नहीं थकी थी। मेरा ध्यान और ताकत अब उन चीज़ो की तरफ ज़्यादा लग रहा था, जिससे मेरे लोगो का या हमारे मिशन का भला नहीं होना था।
मैं अब आंदोलन मे औरतों के प्रति हो रहे भेदभाव, बल्कि औरतों से नफरत, के खिलाफ लड़ते लड़ते थक रही थी। मैं संस्थान और सिस्टम के ढांचों का सामना करते करते थक गयी थी । मैं उन पुराने ख्यालात और सिस्टम से लड़ते लड़ते थक रही थी जिनसे हमारे लोगों को आगे चल के कोई फ़ायदा नहीं होना था। तो मैंने अपनी ताकत को ऐसी जगह लगाना चुना, जिससे हमारे लोगों के संघर्ष में इज़ाफ़ा हो, ये पहलू उस संघर्ष में विस्तार लाये, जो काम हम कर चुके हों, उसे और बढ़ा पाएं। इस सोच ने मेरे डर को बाहर निकाला। अब मुझे यह नहीं लग रहा था कि मैं कुछ पीछे छोड़ रही हूँ। और न ही मुझे यह लग रहा था, कि मुझे खुद को वापिस घसीटना है , क्यूंकि जो मैं बड़े पैमाने पे करना चाहती थी, उसके ज़रूर कई और भी तरीके थे, हमें विकल्पित ढांचों की ज़रुरत थी।
और यही वो समय था जब जब मैंने अपना दिल- ओ- दिमाग पूरी तरह से उस विकल्पित ढाँचे को ढूंढने में लगा दिया। एक ऐसा विकल्प जो मुझे अपने लोगों को आगे बढ़ाने में और मदद करे। मुझे इस बात का ले के तो पक्का विश्वास था। तो मैंने पीछे हट के काम से ब्रेक ले लिया और चीज़ों को चीज़ों को थोड़ी देर अपने गति से तैरने दिया, उन्हें चलने दिया। मैं कुछ देर ठहर गयी, और इस तरह, मैंने अपने को नए सिरे से सोचने का मौक़ा दिया l
लेकिन यह बात हर परिस्थिति पे लागू नहीं होती। जब बात रिश्तों की या ज़िन्दगी में अन्य चुनौतियों की होती है, तो जो बात तुमने कही, कि बचपन में हमें जो कहा जाता है, वो ज़िन्दगी में काफी उथल पुथल मचा के रख देती है।ये सच है, मेरी ज़िंदगी में भी ये हुआ l
तो अभी आप अपनी ज़िन्दगी के किस मोड़ पर है ?
मैं वही सोच रही थी, कि AIDMAM छोड़े हुए 2 साल हो गए है और उन 2 सालो में क्या हुआ।
लेकिन कसम से, मैंने कभी खुद को बेकार या फ़ालतू नहीं समझा। मैंने कभी खुद से यह सवाल नहीं किया कि मैं कर क्या रही हूँ। मुझे यह सोच के शान्ति मिलती है कि मैंने जो भी काम वहां पर किया , वो अभी तक वह सही से चल रहा है , और उसका परिणाम दिखता है। और इस समय जब मैं कुछ नया करने का सोचती हूँ तो मुझे पता है वो जैसा भी है, वहां सवर्ण लोगों और दलित आदमियों से लड़ लड़ के काम करने से तो सौ गुना बेहतर है। सच में बेहतर है।
भले ही मैं मैदान पे नहीं हूँ लेकिन यह वहा जा के अपनी पूरी ताकत को निचोड़ने से तो अच्छा ही है। और इस बात का तो मुझे पूरा यकीन है। मैंने वहां होना चुना है जहां होने से मेरा भला हो रहा है , यह बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ।
और यह इसलिए भी सही है, क्यूंकि जो चीज़ें मैंने इन दो सालों में सीखी हैं, वो मेरे मेरे लिए एक औरत, एक दलित औरत और एक इंसान के तौर पे काफी लाभप्रदायक रहीं। जो इन दो सालों ने मुझे सिखाया , वो आगे चल के लम्बे समय तक दलित महिलाओ के काम आएगा। मेरे, आपके, हम सब के लिए।
अगर हम अपने बच्चों और उनके बच्चों के लिए एक नयी दुनिया चाहते हैं, तो हमें वो याद रखना होगा, जो बाबा साहेब ने सालों पहले कहा। अभी हम उसके आस पास भी नहीं है, लेकिन कम से कम मुझे यह तो पता है, उस दुनिया तक पहुंचने के लिए मुझे कौन सा रास्ता नहीं अपनाना है। यह सारी बातें ज़हन में रख के लगता है, मैं जहां हूँ, वो जगह मेरे लिए सही है।
इस समय आपकी अपने लिए क्या ख्वाइशें है ?
मैं चाहती हूँ मैं जब तक हो सके, स्वस्थ रहूँ। बच्चों और ख़ास करीबी लोगो से घिरी रहूँ। ख़ास कर के वो लोग , जिनको मैंने अपना परिवार माना है।
बच्चों ने मुझे काफी कुछ सिखाया है , मैं ये सोचती हूँ, कि वो कैसी दुनिया के वारिस होंगे ? क्या ये पित्तृसत्ता वाली दुनिया होगी, उनकी अपनी पहचान क्या होगी? उनके जीवन का हिस्सा होते हुए, हम बड़े लोगों का क्या रोल हो सकता है, हमारे पास उनके लिए क्या करने की शक्ति है ?
मैंने शुरुआत अपने जिन हिस्सों के साथ की, वो हिस्से जो उन औरतों के साथ जुड़े, जो लीडर थीं, और हमारे इस संघर्ष की सारी बहनों के साथ.. इन बच्चों के ज़रिये मैं अपने उन हिस्सों से जुडी रही l। हालांकि मैं यह बात नहीं जानती कि जैसी पोषण देने वाली मेरी भूमिका, मेरी बहनों के बीच थी, बच्चों के बीच मेरी भूमिका वही है या कुछ और।
मुझे ऐसा लगता है आगे चल के यह सारे संगठन खत्म हो जाएंगे , हो सकता है राजनीति बदल जाए FCRA (Funding Contribution [Regulation] Act) भी न रहे , या फंडिंग भी न बचे। लेकिन जो साथ रहेगा वो होगा हमारा एक दूसरे के साथ जुड़ा रिश्ता।
आंदोलन से हट के , इस संगठन से हट के , आप अपने खुद के लिए क्या चाहती है ?
मुझे लगता है, प्यार के मामलों में मैं काफी बेपरवाह हूँ। मुझे बस प्यार हो जाता है। मैं हमेशा से ही ऐसी ही रही हूँ। मुझे लगता है मेरा सार ही यही है। यह उम्र के साथ बिलकुल नहीं बदला। और मुझे नहीं लगता कभी बदलेगा भी।
यह कितना भी पागलपन लगे या कितना भी खतरे से भरा लगे , मेरे लिए यह ख़ास है और मैं इसे खोना नहीं चाहूंगी। मैं ऐसी ही रहना चाहती हूँ।
बढ़ती उम्र की वजह से अब मुझे न तो किसी के प्रति रुझान होता है , और न ही मुझे यह बात मानने का मन करता है कि मुझे कोई चाह भी सकता है। अब मैं इन मामलो से खुद को बचा के रखती हूँ। अब मैं वैसी नहीं हूँ जैसे 20 - 30 की उम्र में थी। आपका क्या अनुभव रहा है ?
मैं प्यार के मामलो में इतना हिसाब-किताब नहीं कर सकती। शायद यही कारण है कि कई बार तो मैं इस चक्कर में मुँह के बल गिरी हूँ। दिल के टूटने वाले दौर में भी मैं यूं ही गोता लगा लेती हूँ। लेकिन वो अलग कहानी है। जब मुझे प्यार हो रहा होता है या होता है , मैं सारा टाइम बैठ के यह नहीं सोचती कि कहीं यह शख्स बदल न जाए, या मेरे पीठ पीछे मुझे धोखा न दे दे , या कि ये मेरे साथ अच्छा बर्ताव करेंगे या नहीं। ये - वो, दुनिया भर का, मैं कुछ नहीं सोचती।
यही तरीका है प्यार करने का….
हाँ। यही तरीका है प्यार करने का। नहीं तो सोचो, बस लिस्ट ले के बैठे रहो और देखते रहो उस शक्श में क्या है और क्या नहीं। मुझे यह सब करना नहीं आता।
यह बात हमें बार बार सुननी चाहिए। ख़ास कर आज कल के टाइम में, जब कोई खुद को चोट नहीं पहुँचाना चाहता और और इसलिए हम अपने को प्यार से भी बचा के रखते हैं।
जब मैं 22 -23 साल की थी तब जिससे मैं प्यार करती थी, उसको मैंने एक एक्सीडेंट में खो दिया। मेरे ख्याल से उस घटना ने मेरी दुनिया ही बदल दी। उस समय लगता था, कुछ भी मुमकिन नहीं है। लेकिन अब मैं पीछे मुड़ के देखती हूँ, तो लगता है कि किसी एक घटना से आपकी ज़िन्दगी के मायने नहीं बनते। आपकी ज़िन्दगी तो कई घटनाओ और दुर्घटनाओं से मिल के बनती है।
अगर आपको किसी चीज़ की तमन्ना है , आप उस चीज़ के पीछे जाएंगे। और फिर प्यार तो बहुत ही ही मधुर होता है। कमाल का! अभी भी उसमें वही सनसनी होती है, वही जूनून, वो मीठापन, वो बारीकी - वो सब, वो देना भी और वो लेना भी। पर मुझे लगता है उम्र भी आपको कुछ देती है। मुझे लगता है कि अब मैं खुली बाहों से प्यार को स्वीकार करती हूँ, पहले यूं नहीं कर पाती थी। पता नहीं क्यों , क्या पता 40 के बाद ऐसा ही होता होगा। 40 के बाद ज़िन्दगी की कुछ चीज़े बड़ी खूबसूरती से बदलती है, और कुछ चीज़ें ऐसी भी हो जाती है जो कभी आपने सोचा भी नहीं होगा। मुझे लगता है 40 के बाद मुझे ज़्यादा प्यार मिला है।
तो मैं कहूंगी कि हाँ, मैं अब भी प्यार में वैसे ही जम्प मारती हूँ जैसे पहले मारती थी l पर तब के देने और पाने में और आज मेरे लेने और प्यार पाने में बहुत अंतर है l
कभी ऐसा हुआ है कि लगा कि अब आपको किसी से प्यार नहीं रहा?
हाँ , मुझे लगता है, ऐसा हुआ कि प्यार की वो भावना नहीं रही, पर ऐसा नहीं हुआ कि उन इंसान से ही मुंह मुड़ गया । मैंने कभी उनका बुरा नहीं चाहा। मैंने कभी किसी इंसान को अपनी ज़िन्दगी से बाहर नहीं निकाला , न ही ब्लॉक किया, न उसको कैंसिल किया। माने जो भी लोग कहते हैं, मुझे वो सब कहना आता नहीं।
ऐसी कौन सा पल या परिस्थिति थी जब आपको अपने आप पे फक्र हुआ हुआ हो ?
कुछ साल पहले तीन महीने की एक फ़ेलोशिप के लिए नीदरलॅंड्स गयी थी। फिर मैं कोलंबिया यूनिवर्सिटी गयी थी बाबा साहेब के लेक्चर में स्पीच देने , और फिर लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में गयी थी। मुझे याद है मैं सोच रही थी 'माये गॉड बाबा साहब आये थे यहाँ सालों पहले' मैं सोच रही थी कैसे उन्होंने इतना कुछ कर लिया और मैं क्या कर रही हूँ। तो मैं खुद से अक्सर बोलती कि मैं कुछ करूंगी। भले ही वो छोटी चीज़ हो , लेकिन मैं रुकूंगी नहीं।
जब हम AIDMAM की तरफ से किसी यात्रा या सफर पे जाते, तो हम कहते यह सफर उस इन्साफ के कारवां से जुड़ा हुआ है, जो हमे बाबा साहब ने दिया है। वो इसे इतनी दूर ले के आएं है। उन्होंने कहा 'इसे जितना आगे ले के जा सकते हो जाओ, लेकिन कुछ ऐसा मत कर देना जिससे यह वापिस पीछे आ जाए। यह बात मेरे दिमाग में हमेशा रहती थी।
दिल्ली और अपना रोल छोड़ने के करीब करीब एक साल साल पहले तक मैं काफी उत्साहित थी क्यूंकि मैं जानती थी मुझे उस आंदोलन के लिए क्या करना है , जिसका मैं हिस्सा थी और हूँ। मुझे पता चल गया था कि आखिर कमी कहाँ है। सिर्फ आंदोलन में नहीं , बल्कि एक दलित लीडर के तौर पे, मुझमें और मेरी बहनों में भी। मुझे समझ आ गया था कि मुझे अपना योगदान कहीं और देना है।
और मुझे पता था मैं ये कर सकती हूँ, और इस लिए मैंने वहां से निकलने का फैसला किया। मुझे लगता है, वो मेरे लिए बदलाव का पल था। वहां से बाहर आने के बाद मुझे पता था, मैं अपनी ज़िन्दगी से कुछ भी बाहर नहीं करने वाली। बल्कि मैं कुछ ऐसा बनाऊँगी जिससे यह आंदोलन और भी ज़्यादा मजबूत होगा। और तब से मैं अपनी ज़िन्दगी में यही करने की कोशिश कर रही हूँ।
लेकिन हाँ , मेरे छोड़ने के दो हफ्ते के अंदर ही ,लॉकडाउन लग गया। फिर यह महामारी आ गयी। दलित महिला समुदाय में कितनी मुश्किलें आयीं और फिर मैं खुद दिमाग और शरीर से इतना थक गयी थी। मेरा लम्बा इलाज चला और थेरेपी भी। लेकिन अब मैं खुश हूँ और आत्माविश्वास से भरी हूँ।
मैं जितनी बार आपसे बात करती हूँ , खुद को और मज़बूत ही होता देखती हूँ। अब मैं खुल के जियूँगी और प्यार करूंगी। मैं यहाँ कुछ सवालों के जवाब ढूंढ़ने आयी और आपने मुझे जवाब से बढ़ कर मुझे कुछ दिया। ..
मेरे लिए यह बातचीत, बीते समय की तस्वीरों और आवाज़ों से भरी है। मेरे सामने वो सारे पल आ के खड़े हो गए जो हमने साथ बिताये थे। हम कैसे साथ में चाय बनाते थे और कई कप साथ में पी जाते थे। वो अदरक वाली चाय.... वो दिल्ली की सर्दी। हमने कितनी सारी चीज़ों के जश्न साथ में मनाये। ज़िन्दगी में पहली बार इतने सारे बर्थडे केक काटना , साथ में रहना और एक दूसरे के कपड़े पहनना। मुझे लगता है इस बातचीत से मुझे दलित औरत के तौर पे अपने काम और अपनी निजी ज़िन्दगी, दोनों में वापिस झाँकने का मौका मिला। मेरे खुद की ज़िन्दगी का सफर हमेशा से इसमें शामिल था। यह बहुत शानदार रहा। जैसे जैसे आपकी उम्र बढ़ती है , आप अपनी ज़िन्दगी में प्यार के लिए शुक्रगुजार होते है, आप अपने काम से खुश होते है। आपको लगता है कि आपकी ज़िन्दगी सही चल रही है।
हाँ बिलकुल। मैं बस दिल से यही दुआ करती हूँ कि आप हमेशा प्यार करें , आपको हमेशा प्यार मिले , रोज़ रोज़ हो , हर साल हो। आपकी ज़िन्दगी से कभी प्यार ख़त्म न हो। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है
बेरे दारी इल्ला ( और कोई तरीका नहीं )
बेरे दारी इल्ला
बेधड़क दिल, साथी बेजोड़ - आशा कौताल से विजेता कुमार की मुलाकात
आशा कौताल दिल्ली में ग्यारह साल तक अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की महासचिव रहीं।
लेख: विजेता कुमार द्वारा
चित्रण: शिखा श्रीनिवास द्वारा
अनुवाद: नेहा और मंजरी द्वारा
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