मुझे पिछले 12 साल से पीरियड्स हो रहे हैं और समय के साथ साथ, मेरी तकलीफ और दर्द, दोनों बढ़ते ही गए हैं । जब पहली बार मेरे पीरियड्स आये, तो कुछ चिपचिपा भूरे रंग का पद्दार्थ निकला। मुझे कुछ समझ नहीं आया के यह क्या निकला , लेकिन मैंने जल्दी से किसी को बिना बताये , उसे साफ़ कर लिया। लेकिन फिर मुझे याद आया के उस साल मेरी काफी दोस्तों के पीरियड्स शुरू हुए थे और हो सकता है, मेरे भी हो गए हो । और फिर मम्मी ने भी तो कहा था के यह तो कुदरती है और सभी औरतों को होता है , इसमें शर्म की कोई बात ही नहीं है। जब मैंने मम्मी को बताया तो पहले तो उन्हें यकीन नहीं हुआ । लेकिन फिर भी उन्होंने मुझे पैड लगाना सिखाया और मुझसे कहा के जो भी हो, थोड़े देर में वापस बताना । जब उन्होंने खुद देखा, तो उन्हें यकीन हुआ, के मेरे पीरियड्स सच में शुरू हो चुके हैं । फिर उन्होंने मेरी एक आंटी को फ़ोन लगाया और दोनों सोने के कंगन लेने, बाज़ार चले गए ।
हाई स्कूल में पेट में ज़बरदस्त दर्द उठने की वजह से जब मैं रोई, तो हैडमास्टरनी ने मुझे अपने पास बुला के मुझे डांटते हुए कहा 'अब तुम बच्ची थोड़े न हो , तुम एक औरत हो चुकी हो और तुम्हे अब दर्द बर्दाश्त करना सीख लेना चाहिए। ऐसे ही रहा तो बच्चा कैसे पैदा करोगी'। वहां मेरी जान निकल रही थी और उन्हें बच्चा सूझ रहा था । मैं रो रही थी लेकिन इस बात पे हैरान भी थी कि औरतों से कैसे दर्द सहने और बच्चा करने की उम्मीद की जाती है। टीचर ने मम्मी को फ़ोन कर के झाड़ा और बोला के उन्होंने मुझे पीरियड के भयानक दर्द को सहजता से सहने की तमीज़ नहीं सिखाई थी और उन्हें मुझे तुरंत स्कूल से घर ले जाना चाहिए ।
घर आ के मम्मी ने मुझे गर्म कांजी और पैरासिटामोल की टेबलेट दी। मुझे यह सोच के काफी बुरा लगा के मेरा शारीर खुद से वो दर्द नहीं झेल पाया। बुरा तो लगा ही , साथ में शर्म भी आयी के मैं इतनी कमज़ोर पड़ गयी कि मुझे पेन-किलर्स की ज़रुरत पड़ गयी। जब मेरी अम्मा यानी दादी ने मुझे घरेलु नुस्खे आज़माने की सलाह दी, तो मैंने तुरंत हामी भर दी और कड़वे करेले का जूस, अदरक की चाय , मेथी का पानी और आमले का जूस पीने लगी। लेकिन पेन-किलर्स से दूर रहने में अभी भी डर लगता था। एक दिन जब मेरी एक आंटी ने मुझे चक्कर खा के बाथरूम के फ्लोर के फर्श पे बैठे हुए पाया, तो मैंने उनसे झूठ बोल दिया कि मैं फिसल के गिर गयी थी । कुछ साल बाद, मैंने पैरासिटामोल की जगह, जादुई गुलाबी गोली, यानी आइबूप्रोफेन /Ibuprofen लेना शुरू कर दिया। जब मैं दर्द के मारे बस बिस्तर पे करवटें बदलती रहती, तो यह गोली मुझे खड़ा करती और काम काज करने लायक बनाती।
जिस साल मेरा स्कूल खत्म हुआ, उस साल से मेरे PMS (प्रेमेंस्ट्रुअल सिंड्रोम : यानी महीना चालू होने से कुछ दिनों या हफ्ते पहले से जब बदन में कुछ लक्षण शुरू हो जाते हैं, सूजन/ दर्द , मूड में बदलाव जैसी तकलीफें होने लगती हैं ) के लक्षण भी अजीब होने लगे। कुछ तो बड़े मज़ेदार होते थे, जैसे मैं एक दिन 20 मिनट तक सिर्फ इसलिए रोई क्यूंकि मेरे पर्दों का रंग लाल था। और एक दिन मैं इसलिए रोई, क्यूंकि मेरी अलमारी पूरी बिखरी पड़ी थी और जो चीज़ मुझे चाहिए थी, वो मिल नहीं रही थी। और जो बाकी लक्षण थे , वो इतने मज़ेदार नहीं थे- जैसे पीरियड्स के आने से पहले माइग्रेन का दर्द होना जिन्हें मेडिकल टर्म्स में 'मेंस्ट्रुअल माइग्रेन (migraine: भयानक, रहस्यमय सर दर्द) ’ कहा जाता है। कई बार तो यह माइग्रेन अटैक इतने बुरे होते थे कि मैं बस बिस्तर पे पड़ी रहती और अपने अंधकारमय ख्यालों में इतना डूब जाती थी कि बस उम्मीद की कोई किरण ही नहीं नज़र आती थी। और कभी कभी मैं खुद को संभाल भी लेती , लेकिन लोगों के ज़ोर से हँसने और तेज़ उजालों से मुझे बड़ी दिक्कत होती थी। मुझे सबसे ज़्यादा आश्चर्य तब होता था ,जब लोगों को यह लगता था कि मेरा माइग्रेन सिर्फ मेरी कल्पना है। 'क्या तुम्हें सच में लगता है कि तुम्हे माइग्रेन है, हो सकता है टेंशन की वजह से सर दर्द हो रहा हो?’, ‘क्या अँधेरे में बैठ के नाटक कर रही हो। सर में दर्द ही तो हो रहा है', ' पेनकिलर ले लो न '। कई साल तक तो लोगो की फ़ालतू बातों से बचने के लिए, मैंने पेट खराब और बुखार तक का बहाना बना दिया। कभी कभी तो मुझे यह भी लगने लगा, शायद मैं ही झूठ बोल रही हूँ और मेरी दर्द और तकलीफ सिर्फ मेरी एक कल्पना ही है।
मेरी आँखे तो तब खुली जब हमारे एक बहुत ही काबिल इंग्लिश प्रोफेसर ने क्लास को जोन डीडीयन का लेख 'इन बेड (यानी बिस्तर में )' पढ़वाया। वो पढ़ के ऐसा लगा, जैसे एक-एक वाक्य का एक-एक शब्द मेरे लिए ही लिखा गया हो। उस समय मुझे पक्का यकीन हो गया कि मेरा माइग्रेन अटैक मेरी कल्पना नहीं है। उसके बाद, मैंने अपने अटैक्स पे ध्यान देना शुरू किया और देखा के दर्द के साथ साथ, मेरा मूड भी खराब होता था और डरावने/बुरे ख्याल भी आते थे। और उलटी तो ऐसे होती थी, जैसे लगता था कि बस अंदर से एक एक अंग निकल के टॉयलेट बाउल में आ जायेगा। पेट फूलना, पसीना छूटना और उलटी आना तो बस माइग्रेन के कुछ रिश्तेदार थे। असली बारात तो तब आती थी जब पीरियड्स और पेट में भयंकर दर्द शुरू होता था।
जब मैंने एक बैंग्लोर में एक गयनोकोलॉजिस्ट को दिखाया, तो उन्होंने मुझे बताया कि मुझे हल्का सा PCOD (पॉली सिस्टिक ओवरी डिसऑर्डर) है l उन्होंने मुझे पेट दर्द के लिए आइबूप्रोफेन /Ibuprofane खाते रहने की सलाह दी और पीरियड्स से पहले आने वाले माइग्रेन दर्द के लिए एक गोली लिखी, जिसका नाम था डार्ट/Dart , जो की तीन अलग अलग दवाओं से मिल के बनी थी : पैरासिटामोल , फैनाज़ोन और कैफीन। मुझे यह सोच के सुकून मिला कि मेरा दर्द वाज़िब था और इसे समझ के इलाज करने वाला कोई था।
जब कोविड -19 आया तो हम सब ही घर में रिश्तेदारों के साथ कैद हो गए। मेरे घर में तो पांच औरतें थीं, हमेशा किसी न किसी का पीरियड होता ही था, तो पीरियड्स पे खुल के बात होने लगी । और फिर सोशल मीडिया पे भी कई औरतें खुल के अपने पीरियड्स के अनुभवों पे बात करने लगी। इन सब के बीच मे मुझे अपने पीरियड्स और उसके साथ आने वाले लक्षणों को ले के कभी उतना बुरा नहीं लगा जितना पहले लगता था। लेकिन जब मैंने अपने मास्टर्स की पढ़ाई शुरू की, तो माइग्रेन और पेट दर्द की वजह से छुट्टी लेने में मुझे बड़ी शर्म सी महसूस होने लगी। क्लासेस ऑनलाइन होती थी और मुझे छुट्टी लेने में बड़ा अजीब लगता । लगता कि अगर हड्डी टूट जाती या बुखार हो जाता या फिर इंटरनेट कनेक्शन ही टूट जाता तो छुट्टी लेना ज़्यादा वाजिब लगता ।
मुझे किसी दूसरी बिमारी का बहाना बना के लेट के आराम करने की ज़रुरत तो नहीं पड़ती थी लेकिन इस बात का डर ज़रूर रहता था कि मेरे छुट्टी लेने से क्लास में यह न लगे कि मैं बाकी लोगो के मुकाबले नालायक या कमज़ोर हूँ। और लड़कियों को पीरियड्स में इस टाइप की तकलीफ नहीं होती थी। उनके पीरियड्स तो बिना किसी ख़ास परेशानी के कट जाते थे। मेरी एक दोस्त ने जब पीरियड्स की वजह से छुट्टी की अर्ज़ी लगाई, तो वह खारिज कर दी गयी । और इस वजह से उसके अटेंडन्स और मार्क्स, दोनों कम हो गए। इस घटना ने मेरे डर को और बढ़ा दिया। मैंने उस डर के मारे अपने प्रोफेसर्स को माफ़ी भरे ईमेल तो ऐसे लिखे जैसे मेरा दर्द और तकलीफ सब मेरी ही गलती थे। मैंने उनसे माफ़ी मांगी और छूटी हुई पढ़ाई कवर करने का वादा किया। और चारा भी क्या था? मैं अपने दर्द को इग्नोर करने के अलावा और कर भी क्या सकती थी ? उसको ठीक करना तो मेरे वश में था नहीं।
जोन डिडियन अपने लेख के अंत में लिखती है उन्होंने ने अब अपने माइग्रेन के साथ जीना सीख लिया है। 'मैं अब उससे नहीं लड़ती , मैं बस लेट जाती हूँ , और जो हो रहा है उसे होने देती हूँ। 10 -12 घंटों के बाद जब दर्द जाता है तो अपने साथ सब कुछ ले जाता है, जैसे मेरी दबी हुई नाराज़गी और कड़वाहट और फ़ालतू की चिंता जिसका कोई मतलब नहीं है। बहुत ही अच्छा और उत्साह भरा समय होता है वो। मैं सीढ़ी के पास रखे फूलदान के एक फूल को बड़े ध्यान से देखती हूँ। वो कितना अनोखा लगता है। ज़िंदगी ने बड़ी दुआएं दी हैं मुझे, एक एक को गिनती हूँ '.
अब मैं इस मकाम तक तो नहीं पहुँच पायी हूँ। PMS एक आफत है और मैं उससे हर तरीके से लड़ती हूँ। रोती हूँ, दवाइयां लेती हूँ , अपनी खोपड़ी के उस हिस्से पे बर्फ रगड़ती हूँ जहां दर्द होता है । आँखों और चेहरे पर भी रगड़ती हूँ और अपना गर्म पानी का थैला जहां जाती हूँ, साथ ले के जाती हूँ। पीरियड्स को अपना पुराना साथी मान के गले लगाने के लिए अभी बहुत साल पड़े है।
एंजेल मारिया पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट है और किताबें पढ़ने से ज़्यादा उन्हें किताबें खरीदने का शौक है। कभी कभी वह brewingcauldron.wordpress.com पे ब्लॉग भी करती है।
मेरा बदन, मेरा दर्द : शर्म कैसी ?
Angel's journey of accepting that her period pain was real, not imaginary or inconsequential.
लेख: एंजेल मारिया
चित्रण: हरिणी राजगोपालन
अनुवाद: मंजरी
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