मैं हमेशा औरत बनना चाहता था। अगर आप ऐसी औरत को जानते हैं जो काम करती है, गाती है, मुस्काती है, शक्तिशाली लगती है - उससे, उफ़, बहुत खूबसूरत प्रेरणा मिलती है। औरत में जो एक खुदी, एक मनमानी बसती है, मनोहर होती है- मुझे वो चाहिए। बचपन से ही, लड़का होके लड़की जैसे कपड़े बाहर पहनना आसान नहीं था; मैं ऐसा केवल अपने कमरे में कर पाता। दिन के खाने के बाद, मैं अपने सर पे एक तौलिया डाल देता, जैसे ये मेरे लम्बे बाल हों। माँ का दुपट्टा एक स्मार्ट सी ड्रेस बन जाता-एक गाउन। और हर बार ऐसा करने से मैं रोमांचित हो जाता। मेरी कल्पना खिल जाती। जैसे एक सुन्दर सी कहानी में शरीक हो जाता- ऐसी कहानी जिसका कोई छोर नहीं।
माँ और बाबा को लड़कों का लड़कीनुमा कपडे पहनना, बड़ा क्यूट लगता, मज़ेदार भी। वो अपने पास पड़ोसियों और सिस्टर्स (nuns) को कहते, कि ये मेरा ‘लड़की- लड़की वाला खेल’ था। जब सिस्टर रोज़ एक दिन घर आईं और उसने मुझे से कहा "एई! तुझको लड़की बनना है, हा? " मैंने मुंडी हिला दी, मुझे लगा मुझसे सीरियसली कुछ पूछा जा रहा है। वो ऐसे हँसे जैसे मैंने कोई बढ़िया मज़ाक किया था। मुझे ठीक ठाक तो कुछ समझ नहीं आया, पर मैं ये समझ गया कि लड़के लड़की नहीं बन सकते। कि ऐसा सोचना एक ख़तरा था, जैसे दुनिया को इससे टेंशन होने लगता था। ये एक शर्म की बात थी, एक पाप था। कि अगर कोई वो बन जाए जो वो बनना चाहे, वैसे दिखे जैसे दिखना चाहे, तो ये हमेशा एक बदनामी की बात होती है। और मैं कंफ्यूज रहा, जो मन चाह रहा था, जो शायद सरल सा था, एक मीठी कप चाय पीने की तालाब जैसा, उससे मुकर गया।
मैं त्रिशंकु बन गया, न यहां का न वहां का- पूरी तरह से अपने जेंडर और सेक्सुआलिटी को अपना नहीं रहा था; लगा कि ये समाज और मेरे स्कूल के लड़कों से कुछ ज़्यादा ही मांग लेने जैसे होगा। तो मैं यूं ही आगे बढ़ता गया, अपनी इन मान्यताओं पे मैंने कोई सवाल नहीं किये। मैं अपनी चौथी कक्षा की टीचर की दमकते बालों का चुप चाप सा प्रशंसक रहा। कल हो न हो की प्रीटी ज़िंटा और ज़रा ज़रा की दिया मिर्ज़ा के रूप में अपनी कल्पना की। ये कहानियां एक निजी डायरी के जैसे थीं। जैसे मेरी गहराइयों में एक सीक्रेट बात छिपी थी, और मैं उसके साथ धोखा नहीं करना चाहता था।
फिर मैंने दसवीं को क्लियर क्या, और फिर पुरोहितों के कॉलेज - सेमनरी/seminary - को जॉइन किया। तब तक मुझे ये लगने लगा था, कि मुझे एक आदमी ही बने रहना होगा और केवल आध्यात्मिक पढ़ाई मुझे गे आदमी होने के पाप से दूर रख पाएगी। ये जेंडर के आधार पे होने वाले एक अजीब भेदभाव और उस किस्म की गुंडागर्दी के दूर भागने की मेरी कोशिश थी। मैं और लड़कों जैसे नहीं बन पाया था, जो कान्वेंट स्कूल के बाहर इंतज़ार करते थे। अपनी गर्ल्फ्रेंड्स के नाम लेते हुए, जिनकी आंखों में एक ऐसी चमक आती जिसे शायद वो ही समझ पाते थे। हां, मुझे अपनी पड़ोस की लड़कियों के साथ लागोरी खेलना अच्छा लगता। मैं नाच बलिये और देखता, न कि IPL के मैच। क्रिकेट मेरे किये एक धमकी सा था, मुझे उस खेल में कोई मज़ा न आता। हमेशा लगता कि मुझे इस मैदान में अपनी मर्दानगी का परिचय देना होगा। मैं हमेशा इस उम्मीद में रहता, कि बॉल मेरी पड़ोसन आंटी के वरांडे में जा गिरे, ताकि सबको उससे माफी मांगने में अपना पूरा टाइम गँवा देना पड़े। पुरोहिती सिखाने वाला कॉलेज - सेमिनरी - ने कुछ समय के लिए, इस ज़हरीले माहौल से मुझे दूर रखा, मेरे दिमाग को थोड़ी राहत मिली, हालांकि साथ साथ उसने मेरे अंदर चुपचाप, नए ज़हरीले विचार भी डाल दिए। एक बार जब मैंने एक पुरोहित से अपनी चाहतों का 'खुलासा' किया, तो उनकी सलाह यही थी कि दाड़ी बड़ा लो, मर्द वाली फीलिंग बढ़ेगी। यूं तो वो पुरोहित कहता था 'जीजस आपको आज़ादी देगा", पर खुद बड़ी चालाकी से बता रहा था कि मैं एक गे आदमी नहीं हो सकता था। यानी कि अगर आपके पास शिश्न है, तो आप गे हो ही नहीं सकते। आप अपनी गे पहचान को अहमियत दें , ये आपकी गलत, दुनियादारी से भरी महत्वकांशा थी, एक मिथ्या बात थी। मुझे तो यकीन भी हो गया। पर फिर किस्मत ने फिर करवट बदली और मैं, बैंगलोर आया।
बैंगलोर वो शहर था जिसने मुझे आज़ादी का मतलब सिखाया - वो हल्का सुरूर जो कोई कायदा तोड़ने से आता है, और हथेली में ठंडी बारिश की बूंदों के अहसास से भी। सेक्स एक सुन्दर शब्द बन गया और लड़कों के बारे में बात करने की इच्छा बहुत प्रखर हो गयी।
मेरा कपड़ों, फैशन का प्यार भी कुछ इस समय ही उभर के आया। मैं अब जब भी सेमिनरी के बाहर जाता, ड्रेसिंग रूम में अपने प्लेन टॉप्स को बदल के, फूलों के प्रिंट वाली शर्ट पहनने लगा।
आखिर पिछले साल ही मैंने ये फैसला किया कि ये सेमिनरी वाली ज़िंदगी मेरे लिए नहीं बनी है.. .और मैंने उसे अलविदा किया। मेरी माँ और मेरे दो भाइयों को मेरा घर लौटना अच्छा लगा। मुझे तो बहुत रास आया - अचानक सेमिनरी छोड़ के, फिर से घर की रसोई की वो पहचानी हुई खुशबू ले पाना; सेमिनरी के मुकाबले घर के कमरों को अजीब बेडौल, प्यारा सा पाना।
लोग इंस्टाग्राम पे क्या क्या हरकतें करने लगे थे। वो अब केवल मरदाना आदमी न रहकर, साड़ी में आदमी, मेक अप में आदमी, मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करने वाले आदमी बन गए थे। अंकुश बहुगुना, जो एक सोशियल मीडिया इन्फ्लुएंसर थे ( यानी बहुत प्रभावशाली), मेक अप लगाते और उनसे ये साफ़ बयान होता- कि फैशन मर्दों की दुनिया में भी एक असलियत बन चुका था। कोमल पांडे वो औरत थीं, जिनकी मैं नक़ल करने लगा, खासकर तब, जब मैंने बाबा की सफारी पहने -सुनहरे, चांदी के रंग, गहरे हरे रंग के अनोखे सफारी सूट - और ढेर सारी तसवीरें लीं। मेरे बड़े भाई के चेहरे पे साफ़ साफ़ लिखा था 'इस लड़के के साथ कुछ तो गड़बड़ है "; और जब मैंने मिलांज स्टोर से एक गुलाबी टी शर्ट आर्डर की और उसको पहन के अपने से दोस्तों से मिलने गया, फिर तो उसको मेरे पागलपन पे पूरा यकीन हो गया। जब मैं अपनी टी शर्ट को अपनी पेंट के अंदर घुसा देता हूँ और अपनी पेंट को अपनी तोंद तक ले जाता हूँ, तो तो वो बौखला ही गए। मैंने कुछ कहा नहीं, पर कोमल के जैसे, मैंने अपनी टी शर्ट और अंदर घुसा दी, और कसी हुई टी शर्ट पहनने लगा और शर्ट की फूलों वाले प्रिंट में और झूमने लगा।
मेरे स्कूल के दोस्त, अभिलाष और आनंदु, अब फोटोग्राफी में लगे हुए थे। मेरी माँ ने जब इन दोनों को देखा, लम्बे बाल, बड़ी हुई दाड़ी और महेश बाबू की फिल्मों के विलन जैसी उनकी हाइट... वो तो बेहोश ही हो गयीं। मैं इसकी बराबरी नहीं कर सकता था। इस फोटोशूट के दौरान, मुझे पहली बार लगा कि मैं एक मॉडल था। इससे मैं भी एक इन्फ्लुएंसर/ प्रभावशाली बन गया, जो खुद बाथरूम के शीशे के सामने अपने को देखके मुझे कभी नहीं लगता था। मैंने पोज़ किया और वही मॉडल वाला चेहरा अपने बैडरूम में भी में भी बनाया, कभी अपनी सीखिया टांगों को फैला के, फिर उनको साथ जोड़ के। मैंने कैमरा को ताका, और उसने कहा, दिखाओ! अपनी कातिल अदा, दिखाओ ना।
माइली साइरस ('हन्ना मोंटाना' नामक हिट टी.वी. शो के इनके गाने बहुत ही फेमस हैं) का गाना बैकग्राउंड में चल रहा है, वो ये गाये जा रही थी कि वो मेरे लिए बड़ी खुश है। मेरा कमरा स्टूडियो से कम नहीं था, मैं खिड़की से छत तक जाती हुई सुनहरी लाइट्स को एडजस्ट कर रहा था। दीवारों पे मैंने 'फ्रेंड्स' 'कारपेंटर्स', बीटल्स, क्वीन - यानी अपने सारे फेवरिट कलाकारों के पोस्टर डाले हुए थे। जब जब कैमरा क्लिक करता, मेरे उभरे हुए कंधे ये समझ जाते कि उनको नया एक्सपोज़र मिलने वाला है ; ये अपनी खूबसूरती दिखाने का सफर, मेरे बैडरूम से मेरे दोस्तों के कमरों तक, और सोशियल मीडिया के कमरों तक जाता था। मेरा रोम रोम पुलकित हो जाता। मेरा बदन कैमरा से, बड़े आराम से, इतरा के बात करता , जो वो पहले केवल चादरों और तकियों से कर पाता था। मेरा मन रुक रुक के उस पल का अहसास ले रहा था। उस पल को जैसे मैंने अपनी हथेली में हलके से पकड़ा हुआ था, ये डर भी नहीं था कि कहीं ये चिड़िया सा सुन्दर पल, उड़ तो नहीं जाएगा - कोई डर नहीं था। मैं बिना अंजामों की चिंता किये, उस पल में जी रहा था, ये जानते हुए भी कि किसी दिन इसका अंजाम देखना होगा। मैं पोज़ करता गया, मेरी कमर शिल्पा शेट्टी की खूबसूरत कमर से कम न थी। मेरी जांघें मेरे पैरों पे बड़े क्लासिकल अंदाज़ में टिकी हुई थीं। मैंने अपना नीला मग उठाया और खिड़की से झाँक के देखा - अपने बदन के ऊपरी हिस्से को धूप दिखाई, धूप सोकने दी, उस ही तरह जैसे कैमरा मेरी छवि को सोक रहा था। फिर मैंने मनु थॉमस के उपन्यास को अपने फ्रेम में लिया, उसको पैनी नज़र से देखा, पोज़ किया। ऐसे लगा जैसे मैं किसी नयी खोज पे निकला हूँ, जहां पता नहीं कब क्या हाथ में आएगा। बस टिक टिक घड़ी के सुर में बहने लगा था, ताकि ज़िंदगी के मुकाम पे पहुँचने में और देर न हो। मैंने 'खूबसूरत' शब्द को नयी परिभाषा दी - यानी वो खूबसूरती नहीं, जो लोग एक्सपेक्ट करते हैं, पर कुछ नया सा। एक आदमी का अपने जेंडर के साथ खेल, एक दम खूबसूरत। मैं खूबसूरती के वसूलों और ख्यालों से खेल कर रहा था। मेरा एक हिस्सा पुराने आदर्शों को छोड़ना नहीं चाहता था और दूसरा, चाहता था कि मैं हर जोखिम उठाके अपने शरीर को वो सब करने दूँ जो मैं करना चाहता था। यानी सुंदरता की ये परिभाषा जहां मैं अपने आप को अपनाऊं, उसे औरों को दिखाऊं, सबको वो दिखाऊं जो मैं होना चाहता हूँ। अभी कैमरे को दिखाऊं, और एक दिन, सारी दुनिया को।
फिर भी ये ख़याल डराता ज़रूर था, कि अगर ये तस्वीरें लीक हो गयीं, तो क्या होगा ? अगर सबको मेरे इस निजी रूप के बारे में मालूम हुआ तो ?कैसे मैं झूम के, लोलक/ पेंडुलम/ pendulum के एक छोर पे पहुँच गया था और वहीं रहना चाहता था। मेरा ये रूप सबने देख लिया थो ? ये सोचते ही, घबराहट से मितली होने लगती थी। मैं अभी भी, इस अजब- गज़ब सी नयी जगह में ही रहना चाहता हूँ, जहां कोई अंदर न आये, जहां मैं अपनी चॉइस से वो बन सकूं जो मैं बनना चाहता हूँ। वो बयान करूँ जो करना चाहता हूँ। जहां वो वो सब बचा के रख सकूं , जिसे मैं संभाले रखना चाहता हूँ।
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मैं अपने तरीके से उन कपड़ों को भी अपनाना चाहता था जिन्हें "आम मर्दाना स्टाइल " माना जाता है। मैं हरम पैन्ट्स जल्दी जल्दी ख़रीद लेना चाहता था और मैंने उन्हें आर्डर कर ही डाला - इससे पहले कि भैया मुझे बाइबिल का एक और चैप्टर न पकड़ा दें। जिस दिन मेरी हरम पैट्स आईं , मैंने उनकी नरमी -गर्मी, सबके मज़े लिए। कमर की बेल्ट इतनी सेक्सी थी, लगा कि कमर की लचक वाला बेली डांस कर डालूं। बहुत ही जल्दी मैंने उनको पहन के लिए हुए फोटो इंस्टाग्राम पे डालने को तय कर लिया। पता चला मैं उनको पहने हुए थोड़ा बहुत हैरी स्टाइल्स नाम के जाने माने कलाकार जैसे दिख रहा था, जो अक्सर एक गुलाबी टॉप और सफ़ेद पलाज़ो में दिखते हैं। कुछ दिनों बाद, एक दोस्त का फोन आया। उसने मुझे टैन फ्रांस बुलाया ! पता है, ये टैन फ्रांस/ एक बेहद खूबसूरत आदमी हैं, जो अपने गे होना का खुल के इज़हार करते हैं और जो बेहद स्टाइलिश कपडे पहनते हैं ! मैं क्या कहता, उफ्फ्फ, मैं तो फूले न समाया और मैंने क्यूट फेस वाला इमोटिकॉन और थैंक यू जवाब में भेज दिया। और आगे बढ़ा।
अब हर शूट के बाद, मैं छलांग मार के अगले की ओर जाता हूँ। इस बार, खुले आसमान के नीचे, एक गहरे गुलाबी रंग के लहंगे में, बसंत बहार सा थिरकता हुआ। मैंने सैनड्रा से लेहेंगा छीना था। ये करने का प्लान करते हुए भी मेरा पेट घबराहट और उल्लास, दोनों से गुर्रा रहा था। मैं घड़ी घड़ी, शूट के दिन अपने आप की कल्पना कर रहा था। फिर वो दिन आया। सैनड्रा ने मेक अप किया। अभिलाष की बहन ने मुझे अपने गहने दिए, इससे बढ़िया मैं क्या कल्पना कर सकता था ? वो गहने मेरी गुलाबी लहंगे पे यूं फबे, कि हमने तय किया कि हम जिस शार्ट कोट को साथ में पहनने वाले थे, उसकी कोई ज़रुरत नहीं। अब बस वो लहंगा, और मेरी खुली हुई छाती पे लहराते, इश्क़ लड़ाते हुए वो गहने। और मैंने कंस्ट्रक्शन साइट पे जाके पोज़ किया, मेरे पीछे आकाश में गिद्ध उड़ रहे थे, पास में एक बरगद का पेड़ अपनी लताएं फेरे था, एक तोता था, मछलियों का बसेरा था। मेरा दिल भर आया -उन सब चीज़ों से जो मैं चाहता था -यूं लगा कि मेरे सपने पूरे हो रहे थे, ये भी खुशी थी कि मैं कुछ नया सीख रहा था, पर उसे करने के पैसे मिल रहे थे। ये सब था और और भी बहुत था। दोस्तों के प्यार और असीम सपोर्ट की फीलिंग। वो जो मेरे काम को अपनी इंस्टाग्राम स्टोरीज़ पे शेयर करते थे। सब कुछ सही सही चल रहा था, फिर मेरी माँ और मेरे भैया को मेरे शूट्स के बारे में पता चला।
यूं पकडे जाने से मुझे अपराधी होने की फीलिंग आयी। आपका परिवार आपके आस पास आके आपको यूं देखता है जैसे आपने बैठे बैठ क्रिसमस केक को बर्बाद कर दिया - यानी ऐसा कुछ किया है जिसपे उनका किटकिट करना जायज़ है। तुमने सब कुछ बर्बाद कर दिया। तुमने, न कि रोज़ विला की आंटी ने .. न ही सिस्टर्स ऑफ़ चैरिटी ने। मेरा पेट कस गया था, जैसे कोई उसे अंदर से मरोड़ रहा हो। जैसे जब पेट को ऐसा कुछ परोसा हुआ दिखता है, और वो वहां से निकलना चाहता है, उसे खाना नहीं चाहता - पेट कह रहा था कि इस परिस्तिथि से बाहर निकलो। लोग कैसे ये विष के प्याले पी जाते हैं ? मैं चुप चाप रहा और घर की फर्श पे लगे सफ़ेद टाइल्स को देखता रहा, और मेरे आस पास परिवार के विस्फोट होते रहे। ये वो टकराव थे जिनका सामना हर ऐसे इंसान को करना पड़ता है, जो पहले से तय किये गए, दकियानूसी तरीकों को मानने से इंकार करता है। और अब भी मैं अपने कमरे में जाता हूँ, शीशे में झांकता हूँ, और अपने बालों को पोनी में बाँधने की कोशिश करता हूँ। मेरे गाल ये सोचके और भी लाल होने लगते हैं, कि हाय, मैं ऐसा दिखता हूँ, किसी मर्दाने बाहुबली जैसा नहीं !
आजकल मैं हलके बैंगनी रंगों, कुछ सोबर कपड़ों को अपने रस्ते ला रहा हूँ, कुछ जो मुझे मिले .. एक लंबा पीला चेक्स वाला कोट, नाना की टोपी, एक चमड़े की प्रिंटेड शर्ट, एक फूलों के प्रिंट वाला स्कार्फ़। साथ में पड़ोसियों और परिवार की सवालों भरी नज़रों को भी पहन लेता हूँ।
रोशन पिंटो बैंगलोर, अब हुबली से एक क्वीयर विद्यार्थी हूँ। मेरे सुख कुछ इस प्रकार के हैं: - समलैंगिकता से घृणा करने वालों पे, भूत बनके मंडराना। और अपनी ज़िंदगी के सवालों के हल ढूंढते हुए, कुत्तों के पाँव की खुशबू लेना, और ओशो जैन को सुनना।
मैंने जेंडर के दस्तूरों को हौले हौले फूँक के उड़ा दिया… और मैं सुन्दर बन गया
लड़का होके लड़की जैसे कपड़े बाहर पहनना आसान नहीं था
लेखन: रोशन पिंटो
अनुवादक: नेहा
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