ये कह सकते हैं कि मैं और मेरा आईना दोस्त तो बिलकुल भी नहीं हैं । बचपन से ही मेरे अंदर ये झिझक बैठ गई । और मैं इसका सारा इलज़ाम अपनी चर्बी पे लगाऊंगी, जो ज़िद्द पकड़कर मेरी हड्डियों को पकड़ कर बैठी हुई है। वैसे तो मेरा वेट इतना ज़्यादा भी नहीं था कि डॉक्टर मुझे अलग ही प्लैनेट से आया हुआ मरीज़ समझे। ना ही कभी किसी ने मुझे भारी भरकम कहा । या ये जताया कि मैं धरती पर बोझ हूँ। लेकिन मैं इतनी मोटी तो थी कि मेरे साथ लोग अलग तरीके से पेश आते थे। मेरे पतले दुबले दोस्त जिस दुकान से शॉपिंग करते थे, वहां तो मेरे साइज़ का कुछ भी नहीं मिलता था। मतलब वो जो सहेलियां एक दूसरे से साथ कपड़े शेयर करती हैं, और इन तरीकों से अपनी दोस्ती भी गहरी करती हैं, मेरे साथ वो सब कभी नहीं होने वाला था। मेरे दोस्त बार-बार मुझे समझाते, यक़ीन दिलाते, कि मैं 'मोटी' नहीं थी। वो इतने भरोसे से कहते कि एक मिनट के लिए, वो भी अपनी बात पे यकीन कर लेते थे।
देखा जाए, तो हर साल मैं उससे पिछले साल के मुक़ाबले ज़्यादा मोटी हो जाया करती थी। और मेरी माँ हर साल भगवान से यही मांगती, कि मेरा वज़न कम से कम पिछले साल जितना हो जाए। माँ तो कुछ भी करने को तैयार थी। वो मुझे एरोबिक्स और ज़ुम्बा, हर जगह भेजा करती थी। सुबह-सुबह साइकिल चलाने के लिए भी उठा दिया करती थी। और मेरे सारे चचेरे भाइ-बहनों को मेरे पीछे दौड़ा देती, ताकि मैं भागने को मजबूर हो जाऊं। जब मैं गर्मियों में दादी-नानी के घर जाती, तो वो सारे समान छुपा दिए जाते थे जिनको खाकर मेरा मोटापा बढ़ सकता था। और जब मैं सो जाती, तक चुपके से मम्मी-पापा को मिठाईयां दी जाती थीं। वज़न कांटे पर तो मैं कभी उस नंबर पर नहीं आ पायी जहां मेरी माँ मुझे देखकर खुश हो। बस जब दो बार, काफी बुरे तरीके से बीमार हुई थी, तब थोड़ा ‘शेप’ में आई थी। एक बार तो मैं सात दिन तक बेड पे थी। और जब ठीक होकर उठी तो एकदम शानदार शेप में। माँ अभी भी मेरा वो रूप याद करती है।
मैं हमेशा अपना वज़न छुपाने में लगी रहती हूँ। अपना मिड-रिफ (सीने से लेकर कमर तक का हिस्सा) कवर करने के लिए बड़े-बड़े जैकेट खरीदती हूँ। टाइट टीशर्ट से तो इतनी दूर भागती हूँ, मानो वो कोई महामारी हो। और अगर कोई स्विमिंग पूल में बुलाये, फिर तो बीमारी का बहाना बनाना पड़ता है। किसी-किसी दिन, जब मेरा मूड अच्छा हो, तो मैं अपने आप से कहती हूँ, कि लोग चाहे मेरे बारे में जो कहें, इस बात से तो इनकार नहीं कर पाएंगे कि मेरा चेहरा ख़ूबसूरत है। कई सालों तक, मैंने वो चीज़ें सीखी जिनका मेरे बॉडी से कुछ लेना-देना नहीं था। तो भले ही मैं क्रॉप टॉप ना पहन पाऊं, पर अपनी आंखों के उपर ऐसी मोटी लेकिन परफेक्ट लाइनर लगाउंगी, कि आपका ध्यान उसी पे जाएगा। देखा जाए तो शाम को मैं मोटापे से घबराने वालों का मज़ाक उड़ाती हूँ, लेकिन फिर घर जा के, रात का खाना गोल कर देती हूँ, इस उम्मीद में कि अगले सवेरे उठूंगी तो मेरा पेट सपाट हो गया होगा !
हां, वजन को लेकर मेरी रातों की नींद अब भी गायब होती है, पर वक़्त के साथ कुछ और भी ऐसी बातें सामने आईं , जिन्होंने दिन का चैन भी छीन लिया। आईने से बैर दोगुना हो गया। कोई मज़बूरी होती तभी उसके सामने जाती, वरना दूर से ही हाय-हेलो, बस! ऐसी चिढ़ मुझे शायद ही कभी किसी और चीज़ से हुई हो। जब भी आईना देखती, तो लगता कि उसमें कोई और ही इंसान दिख रहा है। एक तरफ तो मेरा बदलता शरीर मेरे औरत होने के सबूत दे रहा था, और वहीं दूसरी तरफ मेरा दिमाग मेरे औरत होने को लेकर , और ही सवाल उठा रहा था। मैं दिलो जान से औरत बनना चाहती थी, लेकिन अंदर ही अंदर मुझे पता था कि कुछ तो था, जो बदल रहा था। मैंने उस सोच को रोकने की पूरी कोशिश की। किसी प्रॉब्लम को एक नाम दे दो तो वो सच बनकर सामने आ जाता है। इसलिए उसे सीधा नकार देना मुश्किल है। लेकिन उससे भी मुश्किल है, उसे मान लेना। खासकर तब, जब आपको ये समझ आ जाता है कि आप शायद वो कभी नहीं बन पाओ, जो आप सचमुच बनना चाहते हो।
मैं औरत हूँ, मुझे दूसरों की नज़र से इस बात की, बार बार, लगातार, पृष्टि चाहिए थी ।मैं हर पल औरत होने के सबूत देती रहती 16 साल की थी, तबसे पैर पे पैर रखकर बैठना शुरू कर दिया था। क्लासरूम में घंटो वैसे बैठने से मेरी जांघों में दर्द उठ जाता, पर मैं अपने पैर अलग करती ही नहीं थी। ऐसे में स्कूल डेस्क मेरे सबसे बड़े दुश्मन साबित हुए थे। कभी तो मेरी जांघों को इतना दबा देते की लाल निशान पड़ जाते, और कभी इतनी जगह ही नहीं देते की पैर पे पैर चढ़ सके। उस उम्र में जहां ज़्यादातर बच्चे डेस्क के नीचे रोमांस ढूढ़ रहे थे, मैं अपने औरत होने के सबूत जुटाने में लगी थी। मैं जो ये नाटक कर रही थी, उसमें काफी रिसर्च की जरूरत थी। मुझे पता था कि ऐसा नही होगा कि मैं किसी की रोल मॉडल बन जाऊं, या लोग मेरी तरह बनना चाहें । मैं फ़्रेंड्स सीरियल वाली रेचल, मोनिका या फिबी नहीं बन सकती थी। मैं उन लोगों जैसी बनना चाहती थी, जो मेरे जैसे दिखते थे, पर फिर भी अपने अंदर की औरत को जिंदा रखते थे। मैंने एडेल और क्वीन लतीफा को अपने जैसा पाया। लेकिन, उनके जैसे खुलकर सामने आना मेरे बस की बात नहीं थी।
मैंने सारे जवाब विषमलैंगिकता में ढूंढें।औरत होने का मतलब, विषमलैंगिक दुनिया के अनकहे कायदों के अनुसार समझा l मेरे लिए औरत होने का बड़ा फिक्स्ड मतलब था । जिसपे चाहिए किसी मर्द की मोहर। लड़की हो, तो उसपे मर्दों की रजामंदी भी होनी चाहिए। अब मेरे घर के बाहर लड़के लाइन लगा के तो नहीं खड़े थे । इसलिए चुनने का मौका मिला नही। जो लड़के खुद मेरे पास आये, मैंने मजबूरन उनसे ही प्यार का रिश्ता बनाया। उन लड़कों की बांहों में होना मेरे औरत होने को बल देता था। खासकर अगर कोई हमारी करीबी को देख रहा होता था । अगर कोई हमें देख रहा हो, तब तो किस करना ज़रूरी हो जाता था। यानी लड़कों के साथ होने से ज़्यादा, उनके साथ देखा जाना, मेरे औरत होने को बल दे रहा था ।मैं ऐसे किस करते वक्त आसपास की लड़कियों की खी खी खी सुनती । बाद में, मैं भी भागकर उनके पास पहुंच जाती और कहानियां सुनाने लगती कि उस लड़के के साथ मैंने अकेले में क्या-क्या किया। उस पल मैं एक लड़की होती थी, जो दूसरी लड़कियों को देख रही थी, उनसे बातें कर रही थी और उनके साथ एक तरह का रिश्ता कायम कर रही थी।
ऐसे पल यक़ीनन बेस्ट होते थे। पर ये मौके बार-बार सामने नहीं आते थे। मेरा ये मुखौटा वाला रूप जितनी बार कुछ जीत पाता, उससे सौ गुना ज़्यादा बार, हार कर आता था। और उस समय मुझे अपनी असलियत साफ़ साफ़ नज़र आने लगती। एक बार, एक लड़का, जिसने कुछ टाइम पहले मुझसे कहा था कि वो मुझे पसंद करता था, ब्रेकअप के बाद एक दिन चिल्लाकर मुझे मोटा हाथी बुलाने लगा। और ये भी कहा कि उसे खुद पे यकीन नहीं हो रहा था कि उसने मुझ जैसी लड़की को पसंद कैसे कर लिया। एक दूसरे लड़के ने जब मुझे सुंदर कहा, मैंने उसके हाथ में अपना हाथ डाल दिया। पर उसने आगे ये भी कह दिया, कि मुझे दिन में कम से कम, एक बार वर्कआउट करना चाहिए। मुझे कई बार सिर्फ अपनी साइज की वजह से बुरे कॉमेंट्स सुनने पड़े। दर्द तब ज्यादा होता, जब कोई ऐसा लड़का जिसकी चाहत बनना मेरा सपना रहा हो, दिल तोड़ देता। हालांकि वो लड़के मुझे मेरी माँ की तरह ही प्यार करते थे। उनकी तरह ही, ये लड़के भी मेरे अंदर दबी, दुबली पतली सी औरत से प्यार करते थे। या उस दुबली पतली औरत को, जो उन्हें लगता था कि मैं बन सकती थी।
कई बार तो लड़कों के आगे पीछे करते-करते, मैं खुद से ही पूछना भूल जाती, कि मुझे मर्द पसंद हैं भी या नहीं। जवाब है- हां पसंद तो हैं, लेकिन सिर्फ कभी-कभी, आते-जाते। मुझे ये समझ में आ चुका था, कि मेरा विषमलैंगिक होना बस एक नाटक था।
खुद को क्वीयर बुलाकर भले ही थोड़ी राहत मिली, पर थोड़े ही देर के लिए । ये तो मुझे काफी समय से पता था कि मैं केवल विषमलैंगिक नहीं थी। मैं एक ऐसे झूले पे बैठी थी, जो कभी मुझे बाईसेक्सुअल (उभयलिंगी) की ओर तो कभी पैनसेक्सुअल( जिसका सेक्सुअल रुझान लोगों की तरफ है, उनकी जेंडर पहचान या सेक्स से परे) की ओर ले जा रहा था। जब भी मैं अपने उस साइड को हावी होने देती जो मानता था कि मुझे लड़कियां पसंद थी, तो एक अलग तरह की आज़ादी का एहसास होता। विषमलैंगिकता की दुनिया के मुक़ाबले, क्वीयर लोगों को चाहत की कमी नहीं थी। किसी अलग तरह के हेअरकट या फैबइंडिया की कोई मस्त शर्ट में छुपकर, मैं बड़ी आसानी से क्वीयर बन सकती थी।
मुझे लगा, यही वो जगह थी, जहां बिना किसी सवाल के और बिना किसी बदलाव के, मुझे अपनाया जा सकता था। मैं औरत कहलाती थी , क्यूंकि मैंने अपने को उस रूप में ही अब तक पहचाना था। ये दुनिया और मेरी खुद की दुनिया, दोनों ही मुझे बस इसी अवतार में देखना चाहते थे। फिर भी मेरे अंदर सवाल उठते थे, अपने पे शक कर बैठती । 'क्या मैंने एक आसान रास्ता चुन लिया था?' अपनी जेंडर पहचान के इस उधेड़बुन के बीच, ये भी लगता कि कहीं ये सारी फीलिंग्स कोई मुखौटा/कोई नाटक तो नहीं!कहीं मैं ये ढोंग इसलिए तो नहीं कर रही, क्यूंकि मोटी औरत हो के जीना बहुत मुश्किल है, मोटा इंसान होना, उससे आसान है ? पर क्वीयर पहचान अपना के जीना भी तो आसान नहीं! अगर ये ढोंग होता, तो मैं ये मुश्किल रास्ता क्यों चुनती ? क्या मुझे अपनेपन की इतनी भूख है, कि उसके लिए मैं ज़ुल्म सहने को तैयार हूँ? मैं ये तो नहीं कह सकती कि मुझे मर्दाना महसूस नहीं होता, लेकिन मैं ये भी नहीं कह सकती कि मैं एक औरत नहीं बनना चाहती। दरअसल मुझे खुद नहीं पता, तो मैं बताऊं क्या। कुछ दिन ऐसे होते हैं, जब मैं पूरी तरह से मर्द, या औरत,या बीच का कोई भी जेंडर होती हूँ। पर कुछ ऐसे मुश्किल दिन भी होते हैं जब मैं सिर्फ भयानक सा महसूस करती हूं। इन सबके बीच, ये कैसे पता लगाऊं कि आख़िर मैं हूँ क्या?
मैं एक ऐसी पहचान के लिए तरसती हूं जिसकी रचना और परिभाषा इंटरनेट की दी हुई न हो। जो ‘या इस पार या उस पार’ किस्म की सोच से न उपजी हो । मैं अपनी पहचान इस दुनिया की बनाई गई केटेगरी से अलग हटकर बनाना चाहती हूं। इस पूरे सफ़र से ये बात तो साफ है, कि कोई जादू की पुड़िया नहीं है, जिसे खाने से आप फ़टाफ़ट अपने आपको पहचान लेंगे। जान लेंगे कि आप कौन हो। ढेर सारी भावनाएं उभरेंगी, फीलिंग्स बनेंगी। बदलाव आएंगे, और गिल्ट भी। सफ़र बिल्कुल आसान नहीं होगा। कंफ्यूज़न की एक लहर से झूझकर निकलती हूँ, और फिर, दूसरी लहर में फंस जाती हूँ। धीरे धीरे, मैं ये सीख रही हूँ कि कैसे दूसरों की नज़र की कम परवाह करके, अपने सच जी पाऊं । और अपने को देखने -समझने के लिए, अपनी उदार नज़र और समझ को अहमियत दूँ ।
ऐश्वर्या सुनील अपना पूरा दिन कॉफी पीने और किस्म किस्म के क्वीयर कंटेंट को देखने में बिताती हैं। वो अपनी राइटिंग से ज़रिए, खुद को जानने की कोशिश कर रही हैं। ऐसा होने तक, वो सबको, एक क्रेजी कैट लेडी के रूप में अपना परिचय देंगी ।
मेरा देह, मेरा संदेह
My idea of the feminine was intrinsic to the experience of heterosexuality.
लेखन: ऐश्वर्या सुनील
चित्र: पूर्वई अरण्य
अनुवादक: नेहा
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