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अच्छे दोस्त, बुरे लड़के और दोस्ती में बेवफ़ाएं

Do you remember your first friendship break-up? Pranav does!

रक्षित तो तोल-मोल में हमेशा से तेज़ था। इसलिए जब उसने बताया कि सामने खड़ा ऑटो वाला हमें फ्री में सड़क के आख़िर तक छोड़ने को तैयार हो गया था, मुझे बिल्कुल भी हैरानी नहीं हुई। खिले हुए रंगीन ऑटो में जगह-जगह जंग के निशान थे। उसको देख के लगता, मानो एक मोटी सी मधुमक्खी फुटर - फुटर कर रही हो। अंदर घुसते-घुसते मन में कई अजीबोगरीब ख़्याल आने लगे। 'अजनबी पे यकीन करने के बुरे अंजाम ' टाइप की डरावनी कहानियां आंखों के आगे घूमने लगा। मैंने रक्षित को आगाह किया, कि सिर्फ बच्चों को उठाने वाले किडनैपर ही ऐसी "फ्री सवारी" देते हैं। लेकिन वो कहां सुनने वाला था। हर बार की तरह मेरी बात अनसुनी कर दी और फुर्ती से अंदर बैठ गया। मेरी माँ कहा करती थी कि मैं जब भी किसी ख़तरे में होता हूँ, उसे पता चल जाता है। तो इसी उम्मीद से मैंने ऑटो से झांककर घर की तरफ देखा... कि शायद वो मुझे बचाने बाहर निकल आयी होगी। लेकिन वहां कोई नहीं था। रक्षित 'रिघ्या!!!!’ ऐसे चिल्लाया, जैसे कोई बस का कंडक्टर हो! अब मेरी किस्मत इस 'रिघ्या'  में बंद थी। मैं अम्मा पर बहुत गुस्सा हुआ। उन्होंने बचपन से अपने मम्मी-ओट्टे (मां का अंदेशा) को लेकर मुझे बहलाया था। बोलती, कि जब भी मुझपे कोई मुसीबत आएगी तो उनको पता चल जाएगा। अब देखो, उनके झूठे भरोसे पे, मैं ऑटो में बैठ गया था। और हम मेरे घर के सामने से गुज़र रहे थे, पर मम्मी कहीं नहीं दिख रही थी । मेरा डर सामने आ ही गया। ऑटो वाला मेरे घर के सामने रुका ही नहीं, बल्कि आगे बढ़ गया। मैंने आव देखा ना ताव, और ऑटो से कूद पड़ा। एक बड़े पत्थर से टकराकर अपना सिर भी फोड़ बैठा। आपको भले मेरी ये हरक़त नागवार लगे, लेकिन जब मैंने शुरू में ही उस ड्राइवर को घर की तरफ इशारा कर के बता दिया था कि भैया वहीं रोकना, और उसने सिर हिलाकर हां भी कह दिया था, तो वो रुका क्यों नहीं?!! मुझे भी तो अपने किडनैपर से बचने का रास्ता ढूंढना था। तो वो जैसे ही मेरे घर से आगे बढ़ा, मैं कूद पड़ा। ये और बात है कि वो दरअसल एक अच्छे स्वभाव का ऑटो ड्राइवर निकला। मुझे तो बहुत हैरानी हुई। खैर, जब मैं उठा, मेरी हड्डियां बड़ी मुश्किल से मुझे सीधा खड़ा रख पा रहीं थीं । मैं तब तक हिल नहीं पाया, जब तक कि मेरे पाट-पुर्जे सब वापस जिंदा नहीं हो गए। अगले दिन पता चला कि मेरे सिर में खासा धक्का लगा था, जिसका अंग्रेज़ी में खासा नाम है, कन्कशन । उस एपिसोड के बाद, रक्षित से दोस्ती तोड़ने का दबाव और बढ़ गया। उसका कोई स्टैण्डर्ड नहीं था। वो मुझ पर बुरा असर डाल रहा था। जब भी ये जिक्र निकलता मैं उनको याद दिलाता, कि उसके कई स्टैण्डर्ड थे। भला कोई बिना 5 स्टैण्डर्ड पार किये 6th पे पहुंच सकता था क्या? पर वो लोग मेरी बात पे ध्यान ही नहीं देते थे। और सबसे ज़रूरी बात तो ये है कि जिस बुरी संगत की बात की जा रही थी, मुझे तो कभी ऐसा कुछ लगा ही नहीं। उल्टा उसकी दोस्ती से तो कई सारे फ़ायदे हुए हैं। उससे मैंने कितनी ज़रूरी चीज़ें सीखी हैं। जैसे कि एक छोटे से पत्थर से साइकिल का ताला तोड़ना, नारियल के पेड़ पर चढ़ना और कंपाउंड की दीवार फांनना। वो तो इतनी अच्छी तरह पेड़ पर चढ़ता-उतरता था कि जब तक कोमाटी चाचा के घर से डोबर्मन (उनका कुत्ता) सामने के गेट से भागकर आता नहीं दिखता, वो इंतज़ार करता। और फिर उसे देखते ही दीवार के बिल्कुल किनारे में खिसक जाता।  टायसन वहीं खड़ा भयानक मुस्कान देता और बार-बार भौंकता रहता। मुझे नहीं पता वो रक्षित से इतनी नफ़रत क्यों करता था, पर उसे देखकर दुःख होता था। एक कुत्ते में नफ़रत की ऐसी फीलिंग? थोड़ा अटपटा तो था। उसी साल गर्मियों में, मुझे चिंटू और बंटी से मिलवाया गया। रक्षित ने उनसे हाथ मिलवा दिया तो उनको बर्दाश्त करना मजबूरी बन गयी। उस वक़्त तक मैं सिर्फ उनके दादाजी को जानता था। डॉक्टर चाचा! जिनकी मैं बिल्कुल इज़्ज़त नहीं करता था। वो लंबे थे, बूढ़े थे और हमेशा धारीदार पजामा पहना करते थे। अक्सर अपने बगीचे की देखभाल करते ही दिखते थे। उनकी आवाज़ इतनी कर्कश और तीखी थी कि लगता ही नहीं था कि उनकी बॉडी से ऐसी आवाज़ आ सकती थी। ऐसा लगता था मानो किसी एलियन ने उनके शरीर पे कब्ज़ा कर लिया हो। लेकिन उनका बगीचा हमेशा हरा-भरा और कई तरह के फूलों से लदा रहता था।  ज्यादातर के नाम मुझे नहीं पता थे।  मुझे बस गुलाब का नाम पता था। पर उनके बागीचे के गुलाब इतने मोटे थे कि लगता था, जैसे उन्हें चिकनी मिट्टी से बनाया गया हो। उस जगह वैसी ही खुशबू आती थी जैसी मेरी सोच में जंगलों की आती होगी। गीली मिट्टी की गंध! और जब उस हवा में सांस लो तो मानो एक अलग ही ठंडक महसूस होती थी। एक दिन जब मैं नंदिनी मिल्क पार्लर से दूध लेकर वापस आ रहा था, तो देखा कि वो लॉन के किनारे खड़े होकर हरे रंग की पाइप को फेंसर की तरह पकड़, पौधों में पानी दे रहे थे। उनकी छोटी उंगली ने पाइप को काफ़ी कवर कर लिया था, इसलिए पानी बड़े कांच के पत्ते की तरह, हर तरफ फैल रहा था। सीन मज़ेदार था तो मैंने सोचा, पास जाकर देखूँ। इसलिए मैं गेट के पास गया और एड़ी तब तक उठाई जब तक कि उनको मेरा सिर ना दिख जाए। "गुलाब" मैं लाल फूलों की क्यारी की ओर इशारा कर मुस्कुराया। मैंने सोचा वो भी ज़वाब में मुस्कुरायेंगे। लेकिन नहीं! उन्होंने बस अपना सिर मेरी तरफ झुकाया। वो भी इसलिए क्योंकि वो अपने डबल फोकस वाले चश्मे, जो उनकी नाक की नोंक पे अटका था, से हटकर इधर देखने की कोशिश कर रहे थे।   ऐसा लगा जैसे इस तरह उनको सब कुछ और साफ दिखेगा। मैं ये सोचकर परेशान हो रहा था कि शायद वो समझ जाएंगे कि मुझे उनके बागीचे में से बस गुलाब का ही नाम पता था। जैसे ही मैं अपना चेहरा छुपाने ले लिए पीछे हटने लगा, उन्होंने पाइप मेरी तरफ घुमाकर उसका मुंह दबा दिया। "ए काठी! काठी!  निन मुकली मेले येरड कोड़तिन नोडु!” वो मुझ पर बोर का पानी छिड़कते हुए चिल्लाए।  मैं इतनी तेजी से भागा कि मेरी हवाई चप्पल ज़ोर-ज़ोर से पैट-पैट की आवाज निकालने लगी। अब किसी ऐसे इंसान के लिए, जो कि दौड़-भाग से दूर रहता है, ये सब काफी दिलचस्प था। लेकिन फिर मेरा ध्यान उनकी कही बात पर गया। आख़िर उसने मुझे चाकू क्यों बुलाया?  और मेरी मुकली (फेस) में क्या खराबी थी?  अम्मा कहती हैं कि मेरा चेहरा काफी सुंदर है और गोल भी।  लौटते वक़्त मैंने दूर से डॉक्टर को देखा। वो तब भी अपने बगीचे में थे।  इसलिए मैं उनके सफेद घर के पास लगे गुलमोहर के पेड़ के पीछे छुप गया। साथ में जमे हुए दूध का पैकेट था, उसे एक हाथ से दूसरे में ही अदला-बदली कर, पकड़ा हुआ था। आख़िरकार जब वो घर के अंदर गया, मैं भी वहां से भागा। जब मैंने अम्मा को ये सब बताया, तो वह हँसी, फिर समझाया कि वो हुबली से है, और इसलिए एक अलग तरह की कन्नड़ बोलते है। दरअसल डॉक्टर अंकल ने मुझे गधा कहा था और मेरे पिछवाड़े पर मारने की धमकी दी थी। मुझे तो इस बात का दुःख था कि मेरा जन्म भी हुबली में ही हुआ था, यानि मैं भी उनके जैसा था। फिर भी उन्होंने मुझसे ऐसे बात की। तो अब आप ये तो समझ गए होंगे कि आपका ये सोचना कि जबसे चिंटू और बंटी आए थे, मैं उनके घर में घुसना चाहता था, गलत है। दरअसल मुझे उनसे नफ़रत थी। क्योंकि रक्षित उनसे प्यार करता था। चिंटू के नैन-नक्श अच्छे थे। उसकी आंखें भी हरी थी, बिल्कुल ऋतिक रोशन की तरह! एक दिन मैंने उसको पूछ लिया कि वो किसी दूसरी कंट्री से है क्या! "हां, शारजाह से", उसने कहा। उसकी आवाज़ में एक अलग ही टोन था जो हुबली कन्नड़ भाषा में कोई इस्तेमाल नहीं करता है। फिर  बाद में मेरी बहन ने मुझे बताया कि इस टोन को 'एकसेंट' कहते हैं और शारजाह सचमुच विदेश में, यानि दुबई में था। बंटी तो घने बाल वाले , छोटा बेबी सा लगता था। गोल-मटोल गाल और नाज़ुक अंग थे! वो भी टूटा-फूटा कुछ न कुछ बोलता रहता था। लेकिन अफ़सोस, उसकी आंखें हरी नहीं थी, बल्कि भूरी थी। मुझे लगता है उसे खुद भी इस बात का दुःख था। लेकिन उसने कभी माना नहीं। पता नहीं सबलोग उनसे मिलने के लिए क्यों लालायित रहते थे। लेकिन ये भी सच है कि उनके आने के बाद से 'रक्षित मुझपर बुरा असर कर रहा है' वाला टॉपिक कभी नहीं उठा। क्योंकि सबके हिसाब से उनका एक स्टैण्डर्ड था। इस बार मैंने भी कोई बहस नहीं की। वैसे भी अम्मा तो काफी टाइम से उस डॉक्टर के घर में घुसने का बहाना ढूँढ रही थी। और उस दिन तो मानो उनका सपना ही पूरा हो गया जब डॉक्टर की बेटी अपने छोटे से बच्चे (स्चमी) को लेकर हमारे घर आई। (उसका हस्बैंड शूमाकर(Schumacher) का फैन था। वैसे मुझे पता नहीं, ये  शूमाकर था कौन ! वो दो कदम अंदर आयी और फिर बताने लगी, कि अमेरिका में सब कुछ कितना अलग था।  "अमेरिका दल्ली ..." (अमेरिका में ...), वो इस तरह राग में बोल रही थी, मानो कुछ गा रही हो। खैर, उनको अब हमेशा के लिए एक नया नाम मिल चुका था-"अमेरिका दल्ली आंटी"।  उस दिन के बाद अम्मा अपने इन पड़ोसियों को लेके पहले जैसे लालायित नहीं रहीं । एक दिन, आखिरकार, मुझे समझ आ गया कि रक्षित को वहां जाना क्यों पसंद था। क्योंकि वो लोग हमें काफ़ी फ्री समान देते थे। इतने सारे रंग बिरंगे विदेशी चॉकलेट, मूवी और बॉम्बे स्कूटर जैसे नए गैजेट्स, ये सब हमें कहां देखने मिलता। मुझे इन बातों से कोई तकलीफ़ नहीं थी। पर उनके सामने जाते ही वो जिस तरह बदल जाता था, वो मुझे पसंद नहीं था। जैसे कि जब भी हम उनके घर पे मूवी देखा करते थे, तो वो भाई लोग सब भूरे सोफे पर बैठते थे, और हम नीचे कालीन पर। जबकि सोफे पर काफी खाली जगह बची होती थी। मुझे पता था कि अगर रक्षित चाहता तो उनको बहलाकर हमें सोफे पर बैठने देने के लिए मना लेता। लेकिन वो तो चुपचाप वही कर रहा था जो वो लोग कह रहे थे। एक दिन हम स्पाइडर मैन पिक्चर देख रहे थे, जिसमें उलट पुलट के दो लोग, एक दूसरे को किस कर रहे थे । अपनी ट्रेनिंग के मुताबिक़, मैंने नज़र फेर ली , तो सब मुझपे हंसने लगे । तो फिर मैंने पलट के सीन देख लिया और अपनी आत्मा पे उस कालिख को लग जाने दिया । पिक्चर के बाहर हम सामने वाले आँगन में आपस में स्पाइडर मैन खेलने लगे । पिक्चर के जोश में  चिंटू और बंटी ने गेट खोल दिया और थोड़ा आगे निकल गए जहां जेल्ली के छोटे पत्थरों का ढेर था, पत्थरों के वो  छोटे छोटे टुकड़े जो फर्श में डालने के काम आते थे  । ये दोनों अपने इस घर के गेट के पार, पहली बार खुद निकले थे । मैं उनपे अब भी गुस्सा था, क्यूंकि वो पिकचर देखते टाइम, मुझ पे हँसे थे । तो मैंने कुछ छोटे छोटे पत्थर उठाये और चिंटू पे फ़ेंक दिए । वो साइड हो लिया और फिर, उसने मुझपे डालने को पत्थर उठाये । मेरा प्लान मुझ पे ही भारी पड़ने लगा - उन दोनों भाइयों के पास जेल्ली पत्थरों का भडार था और वो जम के उनके साथ मुझ पे फायरिंग कर रहे थे । तो मैंने रक्षित से मदद माँगी - उन दोनों के सामने मुझे इस मदद की सख्त ज़रुरत थी । वो वहां खड़ा रहा, जैसे समझ नहीं पा रहा है कि क्या करे । मैं समझ गया कि उसने तय कर लिया है कि उसे क्या करना है, बस उसपे अमल करने की देरी है । जब वो उस ढेर के ऊपर उनके साथ चढ़ गया, मेरा खेल से मन उठ गया । उसकी गद्दारी की चोट मेरी चमड़ी के अंदर तक यूं लगी, कि मैं उसको भूल नहीं पा रहा था । "इल्ला, स्टॉप ! टी पी ! टी पी ! टी पी !" मैं सर के ऊपर हाथ रखके तब तक चिल्लाया जब तक मेरा गला दुखने लगा । वो हँसते रहे और मुझपे पत्थर मारते रहे । एक पत्थर मेरी दायीं आँख के एक इंच ऊपर लगा और उस चोट से खून निकलने लगा । वो एकदम भागते हुए आये । मेरे आंसू सलीके से बहते रहे और मैं वहां चुप चाप खड़ा रहा, अपना खून भी न पोंछा । मेरी भौं उस खून को जमा करते हुए, थोड़ा मुरझाने लगी । गेट फिर से खुला, इस बार उनके पिताजी अपने लाल स्कूटी पे बाहर आये । वो मुझे पास के क्लिनिक में ले गए, जिसमें डेटोल की बास थी । मुझसे कहा गया कि गनीमत है कि कोई सीरियस चोट नहीं थी, तो टाँके नहीं लगाने पड़े । डॉक्टर ने मुझको डांटा, बोला कि संभाल के खेला करो, मैं इंतज़ार करता रहा कि उनके पापा सच्ची बात डॉक्टर को बता देंगे । उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया । वापस आते समय, उन्होंने मेरे लिए एक छोटा कैडबरी चॉकलेट ले लिया , और मुझसे वादा किया कि मैं अच्छा हो जाऊंगा । मैंने मुंडी हिला दी । अम्मा ने मेरा पट्टी लगा हुआ सर देखा तो वो घबरा गयी, उनको पहले से चिंता लगी रहती थी कि उस ऑटो वाली वारदात के बाद, मैं थोड़ा मेन्टल हो चुका था ।  उन लड़कों के पापा ने ये कहा, कि चोट खेलते वक्त लग गयी, शायद ये गिर गया और उन्होंने इस बात का दिलासा दिया कि अम्मा को कोई मेडिकल बिल देने की ज़रुरत नहीं । अम्मा ने मुझे गोद में लिया और इतने कस के झप्पी दी कि आँखों के कोनों में बचे कुचे आंसू भी बाहर निकल आये, वैसे, जैसे दबाने से पुराने ट्यूब से टूथपेस्ट निकलता है, पच्च! अगले दिन, जब मेरी बहन मेरे लिए दूध गरम कर रही थी, मुझे दूर दूर से रक्षित की आवाज़ सुनाई दी, वो अम्मा से फुसफुसा के कुछ कह रहा है । मुझे इतनी ज़ोर का गुस्सा आया, मैं उसपे चिल्लाना चाहता था, पूछना चाहता था कि वो क्यों आया । पर जब उसके चेहरे पे नज़र पडी, मैंने देखा वो दुखी लग रहा था । “येंग  इदिया  कानो?” उसने मुझसे पुछा और मेरे चेहरे पे गुस्से की सारी सिलवटें गायब हो गयीं । वो मुझे बाहर ले गया, उसने मुझसे सॉरी कहा । उसने कहा कि उसको नहीं पता था कि वो क्या कर रहा है और ये भी कि अगर उसने मेरी मदद की होती, तो वो लड़के उससे दोस्ती तोड़ देते । मुझे नहीं पता वो अपनी सफाई क्यों दे रहा था, मैंने तो उसे पहले ही माफ़ कर दिया था, पर मैंने उसको थोड़ी देर और बुड़- बुड़ करने दिया । हम उसके पीछे के आँगन की तरफ जा रहे थे जहां उनके बहुत सारे नारियल के पेड़ थे ।  बीच बीच में ' टक!' की आवाज़ के साथ कोई टहनी या पत्ती, ऊपर से गिरती ।  मुझे उस जगह से थोड़ा डर लगता था क्यूंकि कह नहीं सकते थे कि कब कोई नारियल गिर पड़े । मुझे पहला मर्तबा याद है जब हम यहां आये थे, उसकी माँ ने मेरी माँ को ये कहके बुलाया था कि कौवो का एक झुण्ड, गिलहरियों के एक परिवार पे अटैक कर रहा था । गिलहरी का परिवार पेड़ पे लगे, एक खाली नारियल के अंदर बस गए थे । जब गिलहरियों की माँ, खाना लाने बाहर गयी, तो कौवो ने वार किया- कहते हैं न, कौवे बड़े स्मार्ट होते हैं । हमको चढ़ने को मना किया गया था तो हम नीचे से उनको भगाने की कोशिश करते रहे । पर जब हमने देखा कि कौआ चोंच से वार कर कर के एक गिलहरी के बच्चे को मार डाल  रहा है, तो हम चुप हो गए । कौआ फिर मारी हुई गिलहरी को अपने पंजों में फंसा के ले गया । गिलहरियों की माँ की चीखें  एक फायर अलारम सी बज रहीं थीं, और उसके घर लौटने के बाद, काफी घंटों तक चालू रहीं । मुझे तब से कौवे कुछ ख़ास पसंद नहीं । इस घटना को मैं याद करता रहा, तब तक जब तक मैंने रक्षित को कुछ कहते हुए सुना - उसके शब्द मेरे कान के परदे पे यूं पड़े, जैसे कोई खटखटा रहा हो । "हूँ? क्या ?" मैंने पुछा और उसने मुझे एक किस दिया । मैंने नीचे हम दोनों के चिपके हुए होंठों को देखा .. और हालांकि मुझे पता था कि ये गलत था, फिर भी मेरी आत्मा पे कोई आंच नहीं आती मालूम हुई, बल्कि उलटा ही लगा । जब उसने स्टॉप किया, मैंने देखा हम दोनों के मुंह से निकली लाड़, टपक के पहले लटकी, फिर टूटी । फिर हम दोनों ज़मीन पे लेट गए और आसमान को बिना कुछ कहे, देखते रहे । उस दिन मुझे नारियलों के गिरने का कोई डर नहीं लगा । उसके बाद उसने मुझ से बात करना बंद कर दिया । मैं उसको तकरीबन रोज़, स्कूल के साइकिल पे आते हुए देखता, पर वो मेरे घर की तरफ तक नहीं देखता । दो साल पहले, उसी साइकिल की तिल्लियों पे , मेरी एड़ी अटक गयी थी, तो उसके बाद पूरे रस्ते मैं पाँव फैला के सवार रहा, खी खी करता रहा और आंसूं भी बहाता रहा । जिस दिन वो घर बदल के जा रहे थे, मैं उनकी लकड़ी की चौखट पे खड़ा था । उसकी माँ ने मुझे अंदर बुलाया ।  मैंने उनसे कहा मैं बाई बाई करने को आया हूँ, आंटी । वो मुस्कायीं और मुझे रुकने को बोला, कहा वो रक्षित को बुलाती हैं । पर बार बार उसका नाम लेने पे भी वो नहीं आया । मुझे यूं लगा, कि मेरी उम्र अचानक बहुत बड़  गयी । उसकी माँ उसके बर्ताव से परेशान हो के उसको बुलाने को अंदर गयी, पर वो फिर भी नहीं निकला । मैं सच में, बस बाई बाई बोलने को गया था, अगर वो बाहर आया होता, तो उसको पता चलता । ऐसा लगा कि ज़िंदगी को पार करने के लिए हमने मिलके जो बेड़ा बनाया था,  वो पहली लहर में ही टूट गया । मैं थका था, इसलिए घर भाग के गया । कई सालों बाद मैंने उसे हमारी गली में होली खेलते देखा । मैं उससे कद में बहुत लंबा था पर उसने मेरे कंधे पे पहले धपकी दी । कैसे हो ? उसने पूछा । अच्छा हूँ, मैंने कहा और उसे हैप्पी होली कहा । वो हमारे साथ खेलना चाहेगा ? नहीं, उसके दोस्त उसका इंतज़ार कर रहे थे । हम दोनों मुस्कुराये और बस, उसके बाद, मैंने उसे कभी नहीं देखा । मुझे तब समझ में आया कि सारे समय ये बेड़े बनाये जाते हैं, खोल भी दिए जाते हैं, कुछ सलामत रहते हैं, कुछ नहीं, पर अपने  बेड़े को आप जिस भी दिशा में ले जाएँ, हर कोई उस एक धार पे पहुँच कर, गिर ही जाता है । मम्मी ओट्टे - माँ का अंदेशा "कोमाटी अंकल" हम हमारे एक पड़ोसी,  श्री गोपाल को, इस नाम से बुलाते थे ।ये लेख लिखते हुए, मैंने यूं ही अम्मा से उनका पूरा नाम पूछा । उन्होंने मुझे बताया कि हम उनको जिस नाम से बुलाते थे, वो अपमानजनक था ।अपने प्रोफेसर से मशवरा करने पे मुझे बाद में ये समझ में आया, कि ऐसे उपनाम देना,  जातीवाद का हिस्सा है ।   तोथा- पोथा - बच्चे तुतला के ऐसे बोलते हैं ।
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