एडवरटाइजिंग ( विज्ञापन बनाने) में काम करती हुई स्वाति भट्टाचार्य हमेशा औरतों की छवियाँ बनाती रही | पर वो उन छवियों से फ्रस्ट्रेट होने लगी थी | बार बार इन्ही से वास्ता पड़ता- हर तरह से परफेक्ट हॉर्लिक्स मम्मी या मैगी मम्मी, ऐसी ख़याली माँ जो हर वक्त अच्छे मूड में रहती| स्वाति के शब्दों में “जो इस ही कोशिश में लगी रहती कि अपने परिवार के स्वास्थ की अच्छी तरह से पहरेदारी करे | " स्वाति को लगता कि ये एडवरटाइजिंग की माँ उसके आस पास की औरतों से कोई मेल नहीं खाती थीं |
एक रात की बात है | दिन भर ऐसी ही काल्पनिक छवियाँ बनाने के बाद, स्वाति अपने दोस्तों के साथ एक होटल रूम में बैठी थी, जब उसे ये आईडिया आया | उस आईडिया से उसकी 2014 की डाक्यूमेंट्री सेंटस ऑफ़ सिन ( Saints of Sin यानी पाप की देवियाँ ) |
सेंटस ऑफ़ सिन में ८ औरतों को दिखाया गया है- वो सारी स्वाति की जिगरी दोस्त हैं | हर एक बाइबिल के 7 डेडली सिनस ( यानी सात घोर पाप ) में से एक को शकल देती है | यानी वो औरत अपनी अंदर की बातें और अपने तजुर्बों को शेयर करती हैं | वो उनके ज़रिये ये दिखाती है कि कैसे हमारी पितृसत्ता समाज उनके उनके इन तजुर्बों और विचारों को एक घोर पाप मान सकता है |
चलो इस बात पर गौर करते हैं कि ये घोर पाप होता क्या है? ये तो एक बनाया- रचाया तरीका है, जो हमें बताता है कि फलां फलां गुड बेहेवियर है और ये, ये तो बैड है ! इसके ज़रिये औरतों कर शर्म थोपी जाती है, उन्हीं अस्थिर किया जाता है | इस फिल्म में, स्वाति इन सात घोर पापों का इस्तेमाल करती है, ये दिखाने को कि कैसे "अच्छी औरत/ गुड वुमन" बनने का प्रेशर कुछ ऐसा होता है, जिससे औरतों के जीवन को सीमाओं में बाँध दिया जाता है| ये ऐसी नैतिकता है जिसका प्रभाव औरतों पर भारी पड़ता है- इसके असर से वो अक्सर ये निर्णय लेती हैं कि उन्हें क्या करना/ नहीं करना है , इससे अपने बारे में उनकी सोच पर असर हो सकता है|
इस फिल्म के अंदर आख़िरकर लड़ जूझ कर, आठों औरतें 'घोर पाप' की इस सोच को एक ज़रिया बना लेती हैं और उसकी मदद लेकर अपनी ज़िंदगी को बेहतर समझने की कोशिश करती हैं| यानी ये औरतें 'घोर पाप' अपना लेती हैं| यानी ये स्वीकारती हैं कि उनमें खोट हैं, दोष हैं, वो परफेक्ट नहीं| हर वक्त अपने को सत्यवती बनाने की कोशिश नहीं करतीं, अपने पर थोपी गयी उम्मीदों के परे जाती हैं | इस तरह हमारा परिचय ऐसी औरतों से होता है, जो नैतिकता से जूझ चुकी हैं, खुद अपनी सोच से कभी कभी लड़ चुकी हैं| इस तरह उन्होंने अपने को और मज़बूत बनाया है| वे पाप को इंसानियत के एक पहलू के ही एक रूप में देख पायी हैं |
इस फिल्म ने कहानी बताने के लिए बड़े खूबसूरत बंगाली गाने भी शामिल किये हैं, जो औरतों के अंदर की उग्र शक्तियों का बयान करते हैं| करीब आकर, बातचीत करके, स्वाति एक ऐसी आज़ाद दुनिया को हमारे सामने लाती है, जो अच्छी या बुरी औरतों के विवाद से बहुत दूर है| ये फिल्म और ये औरतें प्रेरणा देती हैं -ये वैसे नहीं जी रहीं जैसे समाज कहता है कि औरतों को जीना चाहिए, फिर भी ये कमाल की हैं |
औरतों को कैसे होना चाहिए, कैसे जीना चाहिए, उस विवाद को ही ये एक क्वीयर पहलू दे जाती हैं l
तो चलिए हम आपको हर कहानी का एक छोटा सा इंट्रोडक्शन देते हैं :
क्रोध, रौद्र रूप: एक औरत, जो बचपन में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई, बताती है कि कैसे उसकी माँ ने जानकार भी, सब कुछ अनदेखा कर दिया| उसको लगा कि वो हर तरह से बेसहारा है| इससे उसके अंदर दुनिया और रिश्तों के खिलाफ एक गुस्सा बना रहा है| पर यही गुस्सा उसकी सुरक्षा भी करता है, और उसे आत्म निर्भर बनाता है |
लोभ
एक औरत जो अपनी आज़ादी को अपने बच्चों की कस्टडी (custody ) से ज़्यादा अहमियत देती है |
गरूर
एक औरत जिसे अपनी अक्ल और मन की गहराई पर गुरूर है - उसे इस बात पर फक्र है कि वो जिस भी कमरे में प्रवेश करती है, कमरे में बैठे हर किसी का ध्यान उस पर ही जाता है|
एक और जो अपनी ज़िंदगी बदल देती है- जो पियक्कड़ थी, फिर एक जोश से अपने स्वास्थ का ध्यान रखने लगी, जो हमेशा इस बात की बहुत कॉन्ससियस रहती है, कि वो कैसे दिख रही है|
पेटूपन
एक औरत जिसका यौन उत्पीड़न उनके हाथों हुआ जिन्हें उससे प्यार करना चाहिए था, जिन्हें भरोसेमंद होना चाहिए था | उसे लगता है कि वो बेसहारा है | चीज़ें खरीदने में उसे जो सुख मिलता है, उसे लोगों में नहीं मिलता |
वासना
एक औरत जिसे सेक्स को लेकर कोई संकोच नहीं होता, पर अक्सर उसे अपनी मर्ज़ी के लिए लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं | वो सेक्स को जिज्ञासा की नज़रों से देखती है, शर्म से नहीं l
आलस
वो औरत जो 'सब कुछ खुद' नहीं करती - जो दूसरों से मदद लेना बेहतर समझती है, और इस तरह काम बढ़िया तरह से करवा लेती है l
जलन
एक ट्रांस औरत की जलन, उन सिस औरतों से जो अपनी पसंद के लड़के से प्यार पा सकती हैं| उनके बदन से जलन, उनकी उस ज़िंदगी से जलन, जिसे वो जी सकती हैं, पर जिसे ट्रांस औरत नहीं जी सकती |
हमने स्वाति से उसके काम के बारे में बात की, और उन औरतों के अतरंगी और क्वीयर होने के बारे में भी, जो सामाजिक दस्तूरों में अपने आप को नहीं ढ़ालतीं |
इस फिल्म का आईडिया कहाँ से आया?
मैं विज्ञापन बनाने के काम से जुडी हूँ| ऐसे में, जब भी मुझे विज्ञापन में एक औरत दिखानी होती थी, तो जो औरतें मैं दिखा पाती, उन्हें देख कर खुद मुझे लगता कि मैं अपनी हर मान्यता के विरोध में काम कर रही हूँ | मतलब अगर आप एक परिवार दिखाते हो, तो पिता तो थोड़ा ढीला ढाला हो सकता है| पर औरत की छवि हर बार परफेक्ट होनी चाहिए| मेरी उम्र बढ़ती जा रही थी और मुझे लग रहा था कि एडवरटाइजिंग में मैं जो औरतें खुद बनाती- दिखाती हूँ, उनमें और मुझमें कोई भी समानता नहीं है|मैं इस परफेक्शन की छवि तो तोड़, हम सब को आज़ादी देना चाहती थी कि हम जैसे हैं, वैसे ही अपने आप को
एक्सेप्ट कर सकें |
मैंने अपने दोस्तों को यूं चुना क्यूंकि मुझे हर एक की खासियत है पता है, वो बात जो हर एक को स्पेशल बनाती है | उसकी जड़ किसी साफ़ सुथरे आदर्शवादीपन में नहीं, कहीं और है |
मैं कुछ ऐसा करना चाहती थी जो उनकी उन खामियों और आड़े टेड़ेपन की तारीफें करे, क्यूंकि ये ही उन्हें इतना ख़ास बनाती हैं |
फिल्म की कहानियां इतनी पर्सनल हैं, बहुत अंदर की बात कह जाती हैं
देखो, वो सब मुझसे बात कर रही थीं| मैं उनकी पुरानी दोस्त हूँ, और उनके जीवन के हर प्लान को करीब से जानती हूँ| तो इसलिए मैं उनसे सही सवाल पूछ पायी और वो भी मुझसे खुल कर बोलीं | इस फिल्म में यही तो अनोखी बात है| ये फिल्म एक शहर में बसने वाली औरत के आतंरिक जीवन के अलग अलग पहलू दिखाती है| ये औरतें, जो इस फिल्म की पात्र हैं, उत्पीड़न की कहानियां सुनाती हैं, पक्षपात की, अपने को अपराधी महसूस करने की, शर्म की - ये ऐसे तजुर्बे हैं जो हम समझ सकते हैं, हम इनसे जुड़ सकते हैं|
इस फिल्म में, असल में औरतें दिखती हैं, और आपको अपने जीवन पर इनके ज़रिये, सोचने का मौक़ा मिलता है
मुझे लगता है कि मैंने इस फिल्म की हर एक औरत से कुछ सीखा है | एक एक से बात करके, मेरे अंदर बंधी गांठें जैसे खुलने लगी हैं| यानी ये फिल्म मेरे लिए एक टूल बॉक्स की तरह है| जैसे धमनी- आर्टरी- जब जाम होने लगती हैं , खून आराम से बहता नहीं, तो ये टूल बॉक्स वो जाम हुए रस्ते वापस साफ़ कर सकता है, आप चैन की सांस ले सकते हैं |
आप खुद फिल्म का हिस्सा हैं| आपका घोर पाप है - आलस | इस पर और बताएंगी हमें?
मुझे ये समझ नहीं आता कि औरत होकर हम जो अलग अलग रोल अदा करते हैं, हर एक में परफेक्ट होना क्यों ज़रूरी समझा जाता है? आलसी होना हर हाल में गलत क्यों है भाई? हमें ये कहा जाता है कि आलसी माँ दुनिया की बुरी बला है | मुझे तो लगता है कि मेरे लिए ये समझना कि मुझसे बहुत कुछ नहीं हो पाता, मेरे लिए लाभदायक रहा| मैंने दूसरे लोगों को वो काम पकड़ाने शुरू किये, जो मैं खुद नहीं कर सकती| ये मेरे लिए भी सही रहा, मेरी बेटियों के लिए भी|
वैसे भी बच्चों को देखना और पूरा घर चलाना, इन दोनों की ज़िम्मेदारी औरतों के ही कन्धों क्यों पड़ती है ?
फिल्म में आप कहती हैं 'मेरे काम करने में जो कमी रहती है, पर फिर मैं अपनी फीलिंग्स से वो सारा भुगतान करती हूँ 'ये काफी अनोखी सी बात है- थोड़ा विस्तार में समझाएंगी आपका क्या मतलब था?
मुझे लगता है कि ऐसे लोग होते हैं जिन्हें काम करना- कराना पसंद आता है| फिर हमारी ज़िंदगी में कुछ ऐसे भी
लोग होते हैं जिनके साथ आप मिलते बैठते हैं, ऐसा करने से आपको लगता है कि आपकी बात सुनी समझी गयी, आपको स्वीकारा गया| मुझे लगता है मैं उन लोगों में से एक हूँ|
हां, आने की मेहनत तुमको करनी होगी, पर मैं तुम्हारी सुनने को हमेशा मौजूद हूँ| मैं हमेशा बात करने को तैयार हूँ| जो लोग बहुत कुछ करते हैं, वो इस सब के लिए टाइम नहीं दे पाते |
अपने आलस की वजह से मुझे कई चीज़ों के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है| मैं आसानी से दूसरों पर विशवास कर लेती हूँ| और घर और दफ्तर, दोनों पर मेरा तजुर्बा यही रहा है कि लोग मेरा विशवास नहीं तोड़ते| अगर मैंने अपने आप को सबके सामने यूं अपने असली हाल में न पेश किया होता, मैं कभी भी सिंगल माँ की ज़िम्मेदारियाँ नहीं निभा पाती, अपना जॉब मैनेज नहीं कर पाती, अपनी बेटियों को नहीं पाल पाती| मैं दूसरों को अपना काम करने देती हूँ, इसलिए बहुत सारा काम हो जाता है|
मेरे रिश्तों में बहुत लेन देन रहा है, शायद मैं भावनात्कम बहुत कुछ देती हूँ, और बहुत कुछ रोज़ मर्रा की सहायता लेती हूँ| यानी दो अलग चीज़, अलग मोल वालीं, के बीच का लेन देन |
आप इस फिल्म के ज़रिये क्या कहना चाहती हैं?
मुझे लगता है हम औरों से तभी नम्र हो पाते हैं, जब हम अपने आप से और नम्रता से पेश आते हैं | अपने आप का सच्चा रूप देख पाने से, अपने आप को एक्सेप्ट करने से, हम ये सारी चिंताएं छोड़ देते हैं कि लोग क्या कहेंगे | ये फिल्म हमारी खामियों के बारे में है| वो तिल, वो मुहासे जो हमारे अंदर हैं| जब इनकी वजह से हम दूसरों की नज़र में और खूबसूरत लगते हैं, तो फिर क्या गम | कुछ भी छिपा के जीने की ज़रुरत नहीं है| और जब छिपाने को कुछ नहीं होता, ज़िंदगी और आसान हो जाती है|
लोभी, घमंडी या आलसी होने में क्या गलत है? जब आदमियों की बात आती है, तो यही सब अलग सा नहीं दिखने लगता? हम सब लोभी या आलसी आदमियों को जानते हैं , या हमारी ज़िंदगी में, या मीडिया में |पर किसी वजह से वो उतने बुरे नहीं लगते जितनी वो औरतें जो मतलबी हों, या आलसी या फिर वासना से भरी ! कहने को तो हर कोई नारी मुक्ति का समर्थक है, बड़े सारे ब्रांड्स भी इस आईडिया को विज्ञापनों में डालते हैं | पर फिर भी, ये कभी नहीं कहते कि औरतों में भूख होनी चाहिए | लोग यूं मानते हैं कि अपने को दूसरों के आगे करना औरतों को सूट नहीं करता| शायद इन हालातों में, पापी होना, वासना से भरे होना, खुदगर्ज़ होना- माने स्वाभाविक होना- अपने आप में एक बड़ा विद्रोह बन जाता है l
कोई आलसी, कोई चाहतों से भरी, या पापी या बेशर्म
An interview with Swati Bhattacharya about her film 'Saints of Sin'.
Score:
0/