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मैंने माँ से खुलकर बात की, और अब मुझे लगता है, वो 'फोमो सेक्सयूएल' हैं।

मेरी माँ स्पष्ट रूप से एक ही समय में इन सभी चरणों का अनुभव कर रहीं थीं। मैंने उनका दिमाग शांत करने के लिए उदार हृदय से कुछ मार्गदर्शन की कोशिश की

  FOMO : यह चिंता कि ऐसा तो नहीं कि कहीं और कुछ मज़ेदार बात हो रही है, जिससे आप वर्जित हैं... ऐसी चिंता जो इंटरनेट के होने से बढ़ती जानकारी का नतीजा हो सकती है "अच्छा माँ, मुझे आपको कुछ बताना है ..." हम 'एल' आकार के सोफे पर आड़े-तिरछे लेटे थे, और हर लिहाज़ से यह मेरे जैसी प्रवासी (डायस्पोरिक- जो देश-विदेश से घूमकर आयी है) बेटी के जीवन का एक सामान्य दिन जैसा प्रतीत हो रहा था। मुझे अपने घर के नियमित वार्षिक दौरे पर आए चार दिन हो चुके थे। नयापन खत्म हो चुका था। देर रात तक बैठकर इधर-उधर की बातें करने का जोश ठंडा पड़ गया था। माँ, डिनर के बाद अपनी पसंदीदा गतिविधियों में व्यस्त हो गईं थीं- जिनमें से मुख्य थे फेसबुक फ़ीड विश्लेषण और उनपर टिप्पणी।  "हाँ बोलो ना, मैं सुन रही हूँ।" अपने फोन की 'पूडूप पूडूप' को जारी रखते हुए उन्होंने कहा।  मेरी माँ हर चीज़ को उत्साहित रूप से पसंद करतीं थी।  शायद यह एक अच्छा संकेत था। "यह बात शायद आपको शॉकिंग लगे।" मैंने इस पूरे वार्तालाप की रिहर्सल अपनी घर तक की लंबी फ्लाइट यात्रा में कई बार कर चुकी थी। "मैं किसी भी बात से अचम्भित नहीं होती हूँ।" वो अभी भी नीचे ही देख रहीं थीं, अपने पसंदीदा काम में लीन। "ठीक है। तो सुनिए, मैं किसी से प्रेम करती हूँ। किसी से डेटिंग ... मतलब... रिश्ता " अभ्यास की गई स्क्रिप्ट मेरे मस्तिष्क में तेजी से इधर उधर कर रही थी, जिससे मेरी छाती ज़ोर से धक-धक कर रही थी। आखिर  उन्होंने ऊपर देखा, चेहरे पर हल्की चिंता और चरम राहत की भावना लिए हुए। "अरे बहुत बढ़िया! मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ! बहुत अच्छा। इसमें चौंकने वाली कौन सी बात है?" वाकई, कौन सी? ? मेरी माँ ने महाविद्यालय के एक लड़के के साथ मेरे लंबे समय तक और लंबी दूरी तक खींचे गए रूखे रिश्ते को निष्पक्षता के साथ देखा था, बिना कोई सलाह दिए, बिना किसी आलोचना के। ये तीन वर्ष पहले की बात थी। उसके बाद से मेरे जीवन में कोई रोमांटिक दौर नहीं आया था। तो तकनीकी तौर पर, उनकी खुशी जायज़ थी। उन्होंने फ़ोन को भूलकर, बेसब्री से पूछा , "तो? वो कौन है?" "तो, बात ये है कि मैं जिसे पसंद करती हूँ, वो जेंट्स नहीं, बल्कि लेडीज है।" मैं औरत के वर्णन के लिए एक ऐसे शब्द को ढूँढ रही थी जो सबसे अधिक 'नॉन-सेक्सुअल' (गैर-यौन) हो। अब सोचती हूँ तो लगता है, ये शब्द 'लेडीज' उस माहौल की याद दिलाता है जहाँ महिलाएँ आस पास के कमरों में, प्रत्यक्ष जननांग समेत बैठी होती हैं... लेडीेज़ पेशाबघर! यानी इस शब्द का चुनाव एक बेवकूफी थी। खैर। "ओह।" मुझे उम्मीद थी कि वह नाराज होंगी। लेकिन वह सिर्फ कन्फ्यूज्ड लग रहीं थीं। ये मैं संभाल सकती थी। अधिकतर जिन लोगों को मैंने बताया था, वे कुछ विनम्रता के साथ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। "ओह? तो क्या तुम हमेशा से ऐसी थी, या स्टेट्स जा के ऐसा हुआ?" "ओह? तो उस लड़के का क्या हुआ जिससे तुम्हारा रिश्ता था?" "ओह? तो तुम लोग वास्तव में सब कुछ कैसे करते हो, मतलब जो चीज़ें होती हैं वो? " "ओह? तो तुम्हें ये एहसास अब जाकर हुआ? मुझे तो तुम्हारे बारे में हमेशा से ये संदेह था। मेरी माँ स्पष्ट रूप से एक ही समय में इन सभी चरणों का अनुभव कर रहीं थीं। मैंने उनका दिमाग शांत करने के लिए उदार हृदय से कुछ मार्गदर्शन की कोशिश की। "माँ चिंता मत करो, मैंने अभी ज्यादा लोगों को नहीं बताया है। यह आपके लिए बड़ी बात है, मैं समझती हूँ। आप पूरा समय लीजिये। हम इसके बारे में बात कर सकते हैं। आप मुझे बताईये आप क्या सोच रहीं हैं। " और फिर एक लंबा विराम। मैंने समाज, नैतिकता, परिवार, प्रकृति, मातृत्व, जैविक घड़ी, आदि के बारे में एक व्याख्यान के लिए खुद को तैयार किया। "हम्म," उन्होंने शुरू किया, "अच्छा एक बात बताओ, तुम्हें अंतर कैसे पता चलता हैै? " "अंतर?" "हाँ। अंतर। दोस्ती है या कुछ और है ये कैसे पता चलता है? तुम उसकी ओर आकर्षित हो, कैसे समझती हो?" "पता नहीं माँ, बस समझ में जाता है। ये एक तरह की अनुभूति होती है। " "अनुभूति? वैसे तो मेरे अंदर भी कई बार ये भावनाएँ आईं हैं।" उन्होंने कहा। "कभी-कभी मैं भी महसूस करती हूँ कि महिलाएं बेहतर होतीं हैं।" मैंने मानसिक रूप से माँ की तरफ़ से हर किस्म की भावना के लिए खुद को तैयार किया था। मैंने सोचा था कि माँ संभवत गुस्सा होंगी, दुखी हो जाएंगी, छलित महसूस करेंगी, डरेंगी या 'लोग क्या कहेंगे', ये सोचकर परेशान होंगी।। लेकिन ये समान सी समलैंगिक सोच वाली - साथी - का सामना करने की कोई विधि मेरी स्क्रिप्ट में नहीं थी।  "हाँ महिलाएं बेहतर होतीं हैं। वे एक-दूसरे को अच्छे से समझतीं हैं। उनकी समस्याएं भी समान होतीं हैं- मासिक धर्म, पितृसत्ता ...मैंने अस्पष्ट साधारण टिप्पणियाँ करने की कोशिश की ताकि बातचीत भावनाओं के बारे में ना होकर किन्हीं और चीजों के बारे में हो। लेकिन माँ की एकाग्रता अब पूरी तरह से लेस्बियन लाइफ विश्लेषण और उसकी कमेंट्री पर केंद्रित थी। "तुम्हारी दोस्त ... वह भी ...?" "समलैंगिक? हाँ वो भी है।" "हम्म। मेरे छात्रावास में भी कुछ लड़कियां थीं, जो एक दूसरे के  बहुत करीब थीं। किसी ने हमें बताया नहीं लेकिन हम सभी जानते थे की माजरा क्या है। हमेशा एक दूसरे के साथ खुस-फुस करतीं रहतीं थीं, हँसती रहतीं थीं। वह रुकीं, उनके चेहरे पर मुझे एक गहन अहसास का भाव दिखा। फिर धीरे से उन्होंने कहा," इसका मतलब यह है कि तुम्हें कभी पुरुषों के साथ समझौता नहीं करना पड़ेगा? " "नहीं, कभी नहीं…" "कभी नहीं ... निजी-प्रकार की स्थितियों में?" "नहीं, मुझे नहीं लगता।" "तुम किस्मत वाली हो। पुरुष बेकार होते हैं। " मेरी माँ का चेहरा ऐसी अभिव्यक्तियों के प्रदर्शन में उलझा हुआ था, जो आश्चर्यजनक रूप से परिचित लग रहीं थीं। मैंने इस चेहरे का सामना पहले कभी किया है। ये वही भाव था जो मेरे कई स्नातक छात्रों के चेहरे पे दिखता था जब शुक्रवार की शाम को पार्टी की बजाय उन्हें एक और 'रिसर्च मेथोडोलॉजीज' ट्यूटोरियल में बैठना पड़ता था। वही असामयिक उदासीनता और निराशा का एकमात्र संयोजन था - स्पष्ट रूप से मेरे सामने दिख रहा था। लेकिन ये भाव मेरी मां के चेहरे पर क्या कर रहा था? क्या ऐसा हो सकता है…? क्या मेरी माँ... फोमो (FOMO- जो समलैंगिक ना होकर भी ऐसा बोले कि उसे लड़कियां पसंद है) थी! "और तुम्हें कभी शादी भी नहीं करनी पड़ेगी?" "यह शायद संभव नहीं होगा, कानूनी तौर पर ... 377 ..." "वाह, तुम तो बहुत भाग्यशाली हो। शादी बड़ी बेकार चीज़ है। " मुझे पता था कि अब क्या आने वाला था। दाम्पत्य समस्याओं के कई रूपों पर एक दयनीय चर्चा, ​​मेरी माँ के हिसाब से लड़कियाँ आपस में ऐसी ही बातें किया करतीं थीं। हमेशा की तरह ये उसी पॉइंट से शुरू हुआ, "मुझे ही देख लो, अच्छी शिक्षा, बढ़ियाक्वालिफिकेशन, दो नौकरियाँ- एक घर की, एक बाहर की। घर पर खाना पकाना, सफाई करना, बिस्तर बनाना, कपड़े धोना, ये सब कौन करेगा? मुझे ही तो करना है ना ... " लेकिन आज निराशा के इस मकाम पर बात खत्म करने की बजाय वो न्याय संगतता की ओर चल पड़ी। "मैं ये सब क्यों करूँ? मैंने इस जीवन को कभी नहीं चुना था! हमारे  समय में इतने विकल्प नहीं हुआ करते थे। खुश कि नाखुश, किसी को परवाह नहीं? कोई रास्ता ही कहाँ है।"  मुझे समझ नहीं रहा था कि क्या ये महज़ एक अलंकारिकप्रश्न था। "लेकिन रास्ता हो सकता है, ना!" वो चीख के बोलीं। स्पष्ट रूप से यह एक अलंकारिक प्रश्न था।  "वो 'फायर' मूवी में देखा था ना - उन औरतों के पतियों को। पूरे बेकार! लेकिन कम से कम वे एक दूसरे के लिए अच्छी थीं। मुझे अभी भी वो दृश्य याद है जहाँ एक महिला दूसरे के पैरों को बड़े प्रेम से मालिश करती है। तुम्हें लगता है कभी भी पुरुषों के साथ ये हो सकता है? बिल्कुल नहीं! तुमने अपने पिता को देखा है, अपनी खुद की प्लेट भी रसोई में वापस नहीं ले जा सकते हैं। कुछ और तो भूल ही जाओ। "  मैंने एक आवाज़ की जो एक सहानुभूतिपूर्ण कुहुक होना चाहती थी, लेकिन वह एक आतुर कराह सी बाहर निकली।  "शिकायत करके कोई फायदा नहीं है।" उन्होंने कहा, "मैं तो अब कुछ भी नहीं बदल सकती। लेकिन तुम जाओ।" "कहाँ जाऊँ?" "मतलब जाओ, जो मन है वो करो।" "ठीक है माँ, आपने मेरा साथ दिया उसके लिए धन्यवाद। लेकिन मैं कहीं नहीं जा रही हूँ" मैंने उनके पैर को अपने घुटने पर रखा और एड़ी के ऊपर प्रेस करना शुरू कर दिया, ठीक उसी तरह जैसा वो पसंद करतीं थीं। माँ कुशन में वापस समा गई और फिर से अपना फोन उठा लिया। पूडूप...पूडूप...पूडूप।   संध्या वाई (ये उनका असली नाम नहीं है) एक शिक्षिका और इडली प्रेमी हैं, जो अपना समय पढ़ाई, गायन और आरा-पहेली (jigsaw puzzles) के बीच बिताना पसंद करतीं हैं।
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