कई साल साथ रहने के बाद, मेरी पार्टनर(एक्स पार्टनर) ने मुझसे ब्रेक अप का लिया | वो खुद को मूल रूप से, नॉन बाइनरी(जिनकी जेंडर की समझ, स्त्री पुरुष की सीमाओं से परे है) लेस्बियन मानती है | उसने जो ब्रेक अप की वजह बताई: उसके प्रति मेरा रूखा, पत्थर दिल व्यवहार | मेरा लगातार उसकी फीलिंग्स से खेलना | मुझे इस बात पे अचम्भा नहीं हुआ | क्यूंकि मैं खुद, दो cis-मर्दों के साथ, दो अलग, नैतिक, ओपन रिलेशनशिपस में भी थी| मैं उनके साथ रहती भी थी | और शुरू से ही हमको बड़ी सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था | मेरी अपनी पहचान के पहलू बदल रहे हैं | दो नाव पे सवार हूँ | ये श्राप भी है, वरदान भी | कहा जाए तो मैं एक थकी हुई, कंफ्यूज सी cis-औरत* हूँ | जो बायसेक्सुअलिटी** को समझने की कोशिश कर रही है | और साथ ही साथ, एरोमांटिसिज़्म (किसी दूसरे के प्रति रोमांटिक फीलिंग नहीं होना) के पहलू को भी जानने की कोशिश का रही हूँ | खुद की और समाज की भलाई के लिए यह जानना बहुत ज़रूरी है, कि हमारी इच्छाएँ, हमारी पहचान और हमारा मानसिक स्वास्थ, हमारी हमारी अपेक्षाओं के क्या असर करते हैं | ख़ास उन उम्मीदों या अपेक्षाओं पे, जो हमें अपने रिश्तों से होती हैं और अपने रोमांटिक पार्टनर से | मेरी एक्स की मेरे से कई शिकायतें थीं | मेरे पत्थर दिल होने की | हद से ज़्यादा शर्तें और नियम बनाने की | उसका कहना था कि मैंने उसे खुल के अपनी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं बनाया | ऊपर से मेरे मानसिक स्वास्थ की कशमकश | जिसकी वजह से उसको हर बात बहुत संभाल के बोलनी पड़ती थी | जिसकी वजह से उसने कभी खुलकर यह नहीं बताया, कि उवो मुझसे क्या चाहती थी | उसने कहा कि ये रिश्ता उसके लिए फाइनली तब ख़त्म हुआ, जब उसे लगने लगा कि मेरी आँखों में उसे उसके लिए कोई प्यार या चाहत की झलक ही नहीं दिख रही थी | ये आख़री इलज़ाम मुझे बहुत चुभा, मैंने इसे नकारने की बड़ी कोशिश की | यहाँ पर थोड़ा रिवाइंड करती हूँ | मेरी और मेरी लेस्बियन पार्टनर के साथ की कहानी, एक दिन अचानक शुरू हुई थी| पर जल्द ही हम दोनों उस मकाम तक पहुँच गए, जहां एक दूसरे के अलावा और कोई या कुछ सूझता ही नहीं था| वो मुझे चुपचाप घूरती रहती थी | अपना शहर छोड़ने से ठीक पहले( हम दोनों एक शहर से हैं) , मैंने उससे अपने दिल की बात बोल दी | मेरे लिए वो ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाला पल था| मुझे ख़ुशी है ,कि मैंने वो कदम उठाया | पहली डेट से ही हम दोनों के बीच की गहरी केमिस्ट्री थी | मैंने उसके सामने अपनी पूरी किताब खोलके रख दी | मेरे सबसे गहरे राज़, मेरी मुश्किल लाइफस्टाइल, मेरी मानसिक बीमारी और cis-मर्दों के साथ रहने की बात, सब बता दिया | उन दिनों,मैं चाहत को कम समझती थी | मेरी समझ किताबी किस्म की थी | सेक्स, चिमटना चिपटना, सब कुछ , उस किताब के चैप्टर भर थे | पर फिर हमारे बीच हो हुआ वो एक जीती जागती खूबसूरत लेस्बियन प्यार की कहानी थी| जवांदिल | वैसी कहानियों पर और फ़िल्में बननी चाहिए | और तब भी, क्वीयर प्यार की सबसे बड़ी दिक्कत यह है, कि इसे क्वीयर लोगों के सामने एक थेरेपी की तरह पेश किया जाता है| जैसे कहा जा रहा हो, ये घुट्टी पी लो, फिर सब ठीक हो जाएगा | मानो इससे वो सारे मानसिक और इमोशनल ज़ख्म भर जाएंगे, जो क्वीयर लोग हर दिन झेलते हैं | हम क्वीयर लोग, बचपन में बहुत अकेलेपन से गुज़रते हैं | इसलिए हम प्यार भी उन लोगों में ढूंढते हैं, जो हमारे जैसे दुःख, और समाज का बहिष्कार झेल चुके होते हैं | अपने प्रेमी से साथ जीना, इस समाज में अपनी जगह ढूँढने का ज़रिया था | जिस समाज में हमें दरकिनारे करा जाता है|मेरे ज़ख्म पुराने, गहरे और गंभीर थे | मुझे उस प्यार की खुराक की ज़रुरत थी | यह तो थी कल की बातें | आज की बात करते हैं | मैं वापस अपने शहर में हूँ | अपने परिवार के साथ रहती हूँ | काम से इस्तीफ़ा दे चुकी हूँ | और आगे क्या करने वाली हूँ, कुछ पता नहीं | मैं आज जैसी हूँ, बचपन के हादसों से मिले ज़ख्मों के कारण हूँ| आज भी उनके बारे में बात करना, मुश्किल होता है | आज भी उन ज़ख्मों से ऊबरने की कोशिश कर रही हूँ| वो मेरे अन्दर मौजूद हैं | और मुझसे पूछे बिना, कभी कभी मनमानी करने लगते हैं| मैं चाहे कितनी बार इनकी बात शेयर करूँ, ये फिर भी मेरा साथ नहीं छोड़ते | अब यह मेरी पहचान का हिस्सा बन चुके हैं | मैं कई बार इन्हें नज़रंदाज़ करती हूँ| सदमे को नकार के, या उसके बारे में बात ना करके | यही बात मैं अपनी एक्स को बता नहीं पाई | कि मेरे प्यार को नकारने का कारण, मेरे सदमे से जुड़ा है | उसने कई बार मेरी दिल की बात जानने की कोशिश की| पर उसे हर बार मेरी खामोशी ही मिली | हम दोनों औरत हैं, क्या इससे इस चुप्पी का असर और गहरा पड़ा? मेरा मानना है, कि एक क्वीयर रिलेशनशिप में खुलकर दिल की बात बोलना पे कहीं ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है, एक सामन्य औरत-मर्द के रिश्ते से कहीं ज़्यादा | लीक से हटकर रिश्ता बनाने पे, इस खुली बातचीत का महत्त्व मैं समझती थी | पर ये खुलापन किस हद तक ज़रूरी है, मैं उसके लिए तैयार नहीं थी | हर चीज़ बताने की ज़रुरत के बारे में सोचके ही मेरा दिमाग फटने लगता था | तो मेरी समझ किताबी बन के रह गयी थी | मैं मानती थी कि बातचीत करना एक अच्छे और स्वस्थ जीवन के लिए ज़रूरी है | पर मेरे सदमे का असर ये रहा कि मेरी ज़िंदगी की किताब अक्सर बंद ही पडी रहती थी | इसकी वजह से मैं लोगों से इमोशनल लेवल से पूरी तरह से जुड़ नहीं पाती थी| शायद यह मेरे खुद को बचाये रखने की कोशिश भी थी | किशोरावस्था में ही मुझे पता चल गया था कि मैं डिप्रेशन से गस्त हूँ | बाद में मेरी बीमारी बाईपोलार***(मूड का बहुत उथल पुथल होना – या तो उत्तेजित या फ़िर बिल्कुल खामोश, इस मानसिक बीमारी का नींद, ऊर्जा, सोच- विचार, इन सबपे असर हो सकता है) बताई गयी और उसके बाद ए.डी.एच.डी.**** में तब्दील हो गया | और इन को और फोकस में लाया, मेरा खुद को शारीरिक हानि पहुँचाना और आत्महत्या की सोच के साथ रिश्ता रखना| इतनी बीमारियाँ होते हुए भी, मैं किसी तरह एक नार्मल लाइफ जी रही थी| जॉब था, सोशियल लाइफ थी | कभी कभी मैं अपनी हालत के बारे में भूल जाती थी...दिखावा करने में इ तनी एक्सपर्ट थी | शायद इसलिए जो लोग मेरे करीब थे ,उनको यकीन था कि मैं न्यूरोटिपिकल (जो वो लक्षण दिखाए जिन्हें आम समाज नार्मल समझता है) थी| मैं पागलों सा प्यार करती हूँ | और जब उस प्यार से निकलती हूँ, तो कुछ ज़्यादा ही जल्दी निकलती हूँ | इस बात का एहसास मुझे लॉकडाउन से एक दिन पहले हुआ| मैंने अपने आप को और बंद कर दिया | लॉकडाउन बहुत लोगों के लिए मुश्किल था| पर जो लोग मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, उनके लिए तो भयानक था | मैं अपने पार्टनर से बिल्कुल कट सी गयी| वो दूसरे शहर में थी | उसने मुझसे संपर्क करने की बहुत मेहनत की | हर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया | पर मैंने कसम खाई थी, किसी से भी किसी तरह से बात ना करने की | और यूं शुरू हुआर 2020 का ग्रेट डिप्रेशन | मुझे थेरेपी में जाना कभी पसंद नहीं आया | तो कभी दिल खोलकर उसमें हिस्सा नहीं लिया| पर मैं दवाईयाँ ले रही थी | मेरी माँ का मानना है कि मेरा दवा के अलावा और कोई मदद ना लेना, मेरी मानसिक बीमारी की पहचान है | मेरे बाकी के पार्टनर्स जो मेरे साथ रहते थे, उन्होंने मुझसे सामान्य बातचीत करने की कोशिश की | पर उन्हें भी मेरी मानसिक हालत की चिंता थी | एक यूनिवर्सिटी से नकारे जाने के बाद, बिना किसी को बताये, मैं अपने शरीर पे घाव करने लगी | मामला और गंभीर तब हो गया जब मुझे एक फ्रेंड की शादी के लिए अपने शहर जाना पड़ा | मेरी पार्टनर वहाँ होने वाली थी| मैंने उससे महीनों से बात नहीं की थी | मैं डर गयी थी| घबरा गयी | इसलिए मैं उससे मिली भी नहीं | भागमभाग में वापस आ गयी | पर अन्दर कहीं मुझे पक्का पता था कि मैंने हमारे रिश्ते को यूँ ख़त्म कर दिया था, उसके लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी| डेढ़ महीने बाद एक नए डॉक्टर, नयी दवाईयों और अपनी पार्टनर से बात करने के नये जज़्बे के साथ अपने शहर लौटी | और एक दिन, उसने अपना सारा गुस्सा मुझ पर निकाल ही डाला | वो आखिरी बार, जब उसने मुझसे बात की | मैं इसके लिए तैयार न थी | क्योंकि मेरे दिमाग में, हमारे बीच सब ठीक ही चल रहा था | उसका इस तरह का अचानक गुस्सा होना, मुझसे झेला न गया| मुझे एहसास हुआ, कि मेरी मानसिक बिमारी के चलते मैंने कभी मैंने कभी अपनी पार्टनर का दर्द और उसकी कश्मकश को पहचाना ही नहीं | उसे भी दर्द हो रहा था| उसे लगा कि कि जब उसे मुश्किल पड़ती है, उसे मेरे सहारे का कोई भरोसा नहीं रहता | हम क्वीयर लोगों के लिए रिलेशनशिप बनाने या निभाने के लिए कोई गाइड नहीं है | शुक्र है, हमें डेटिंग एडवाइस देने के लिए कोई सुहेल सेठ टाइप का 'ज्ञानी' हमपे हावी नहीं है | हमारे अन्दर से जो आवाज़ आती है, हम उस की राह लेते हैं | मैंने बिल्कुल वही किया, जो मुझे सही लगा | जो मेरी पार्टनर के लिए सरासर गलत था | एक और बात: जहां पर एक से ज़्यादा पार्टनर होते हैं, वहाँ पर शुरू से ही अपनी बात खुलकर सामने रख देनी चाहिए | वरना बाद में बहुत दिक्कत होती है| पर कभी कभी ज़बानी या लिखित कॉन्ट्रैक्ट नहीं बनाये जा सकते | तो फिर अपने रोज़ के तजुर्बे का ही सहारा होता है | मानसिक रूप से बीमार, बाईपोलर, जिसके एक से ज़्यादा रिलेशनशिप हैं, जो शायद एरोमांटिक भी है - ऐसे को प्यार करना कोई आसान काम नहीं होता है | पर हमारे आस पास जो लोगों की उम्मीद रहती है.. एक न एक दिन हमारे ठीक हो जाने की| और ठीक होने का मतलब होता है – नार्मल क्वीयर बन जाना | जिसके मैं सख्त ख़िलाफ़ हूँ | इसके लिए नहीं कि लोगों की नज़र में जो बेहतर और ठीक है, मैं उसको पसंद नहीं करती | जो मानसिक स्वास्थ से जूझ रहे होते हैं, उनके लिए इसके बारे में बात करना कष्टदायक होता है | इसका कोई एक आसान हल नहीं है | बहुत लोग बोलते हैं कि कम से कम देखभाल करने वालों, शुभचिंतकों या परिवार के लोगों के लिए ठीक होने की कोशिश करनी चाहिए | उन लोगों को मेरा कहना है, कि एक रोगी होने के नाते मैं सबके सपोर्ट की बहुत आभारी हूँ | क्यूंकि मैं मानती हूँ की ये मेरा ख़ास सौभाग्य है, हर एक को नहीं मिलता | पर इसके नाम पे अगर आप मुझे कुसूरवार होने की फीलिंग दें, ये मैं नहीं मानूगनी | मेरी पार्टनर, मेरे उन शुभचिंतकों में थी, जो मेरा ख्याल रखते हैं| इसलिए भी वो मेरे लिए ख़ास थी| ऐसे में, गलतफ़हमी की वजह से किसी को खो देना, शायद औरों की तुलना में, मुझपे ज़्यादा बुरा असर करता है | किसी भी मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को प्यार करना और फ़िर छोड़ देना... इसके लिए अलग किस्म की नैतिकता, उम्मीदें और नज़रियों की ज़रुरत है | हां, ये सच है, कि प्यार ज़ख्म भरता है | पर ये कोई इलाज नहीं, जो हमपे किया जा रहा है, कि हम मरीज़ बनके इलाज के रूल्स फॉलो करें | मैं एक ऐसी दुनिया में जीने की उम्मीद करती हूँ जहां दिल दिल कम टूटेगा, दर्द कम होगा | पर जब तक ऐसा न हो, तब तक मैं लोगों को याद दिलाना चाहूँगी, कि इस दुनिया में हम जैसे लोग भी हैं | जिनको थोड़ा अलग तरीके से समझने की ज़रुरत है | रुक्मिणी बनर्जी एक शोधकर्ता और कवि हैं,जो सेक्सुअलिटी और मानसिक रोगों के बारे में लिखती हैं | शरीर और दिमाग को कैसे संभाला जाए , इसमें इनकी ख़ास रूचि है | *सिस जन्म से समय गुप्तांगों के आधार पे, हर बच्चे का जेंडर बताया जाता है- अगर आप आगे चलके अपनी लैंगिक पहचान/कामुकता को वैसे ही देखते हैं, तो आप सिस जेंडर कहलाते हैं । **बाईसेक्सुआलिटी उभयलिंगी, जिसका रोमांटिक या सेक्सुअल रुझान एक से ज़्यादा जेंडर के लोगों की ओर हो । बाईपोलार***मूड का बहुत उथल पुथल होना – या तो उत्तेजित या फ़िर बिल्कुल खामोश, इस मानसिक बीमारी का नींद, ऊर्जा, सोच- विचार, इन सबपे असर हो सकता है ****ए.डी.एच.डी. अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिस्ऑर्डर मतलब ध्यान की कमी और अत्यधिक सक्रियता की बीमारी को एडीएचडी कहा जाता है ।
मानसिक मुश्किलों में ब्रेक अप कैसे झेलूं ? इसका ख्याल तुम भी करो !
रुक्मिणी अपने रिलेशनशिप और ब्रेक अप के बारे में लिखती हैं | और साथ ही अपनी मानसिक बीमारी के बारे में बताती हैं | जिसके होते, उन्हें लगता है, कि काश ये सब यूं न हुआ होता |
लेख - रुक्मिणी बनर्जी
चित्रण - दीया उल्लास
कई साल साथ रहने के बाद, मेरी पार्टनर(एक्स पार्टनर) ने मुझसे ब्रेक अप का लिया | वो खुद को मूल रूप से, नॉन बाइनरी(जिनकी जेंडर की समझ, स्त्री पुरुष की सीमाओं से परे है) लेस्बियन मानती है | उसने जो ब्रेक अप की वजह बताई: उसके प्रति मेरा रूखा, पत्थर दिल व्यवहार | मेरा लगातार उसकी फीलिंग्स से खेलना | मुझे इस बात पे अचम्भा नहीं हुआ | क्यूंकि मैं खुद, दो cis-मर्दों के साथ, दो अलग, नैतिक, ओपन रिलेशनशिपस में भी थी| मैं उनके साथ रहती भी थी | और शुरू से ही हमको बड़ी सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था | मेरी अपनी पहचान के पहलू बदल रहे हैं | दो नाव पे सवार हूँ | ये श्राप भी है, वरदान भी | कहा जाए तो मैं एक थकी हुई, कंफ्यूज सी cis-औरत* हूँ | जो बायसेक्सुअलिटी** को समझने की कोशिश कर रही है | और साथ ही साथ, एरोमांटिसिज़्म (किसी दूसरे के प्रति रोमांटिक फीलिंग नहीं होना) के पहलू को भी जानने की कोशिश का रही हूँ | खुद की और समाज की भलाई के लिए यह जानना बहुत ज़रूरी है, कि हमारी इच्छाएँ, हमारी पहचान और हमारा मानसिक स्वास्थ, हमारी हमारी अपेक्षाओं के क्या असर करते हैं | ख़ास उन उम्मीदों या अपेक्षाओं पे, जो हमें अपने रिश्तों से होती हैं और अपने रोमांटिक पार्टनर से | मेरी एक्स की मेरे से कई शिकायतें थीं | मेरे पत्थर दिल होने की | हद से ज़्यादा शर्तें और नियम बनाने की | उसका कहना था कि मैंने उसे खुल के अपनी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं बनाया | ऊपर से मेरे मानसिक स्वास्थ की कशमकश | जिसकी वजह से उसको हर बात बहुत संभाल के बोलनी पड़ती थी | जिसकी वजह से उसने कभी खुलकर यह नहीं बताया, कि उवो मुझसे क्या चाहती थी | उसने कहा कि ये रिश्ता उसके लिए फाइनली तब ख़त्म हुआ, जब उसे लगने लगा कि मेरी आँखों में उसे उसके लिए कोई प्यार या चाहत की झलक ही नहीं दिख रही थी | ये आख़री इलज़ाम मुझे बहुत चुभा, मैंने इसे नकारने की बड़ी कोशिश की | यहाँ पर थोड़ा रिवाइंड करती हूँ | मेरी और मेरी लेस्बियन पार्टनर के साथ की कहानी, एक दिन अचानक शुरू हुई थी| पर जल्द ही हम दोनों उस मकाम तक पहुँच गए, जहां एक दूसरे के अलावा और कोई या कुछ सूझता ही नहीं था| वो मुझे चुपचाप घूरती रहती थी | अपना शहर छोड़ने से ठीक पहले( हम दोनों एक शहर से हैं) , मैंने उससे अपने दिल की बात बोल दी | मेरे लिए वो ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाला पल था| मुझे ख़ुशी है ,कि मैंने वो कदम उठाया | पहली डेट से ही हम दोनों के बीच की गहरी केमिस्ट्री थी | मैंने उसके सामने अपनी पूरी किताब खोलके रख दी | मेरे सबसे गहरे राज़, मेरी मुश्किल लाइफस्टाइल, मेरी मानसिक बीमारी और cis-मर्दों के साथ रहने की बात, सब बता दिया | उन दिनों,मैं चाहत को कम समझती थी | मेरी समझ किताबी किस्म की थी | सेक्स, चिमटना चिपटना, सब कुछ , उस किताब के चैप्टर भर थे | पर फिर हमारे बीच हो हुआ वो एक जीती जागती खूबसूरत लेस्बियन प्यार की कहानी थी| जवांदिल | वैसी कहानियों पर और फ़िल्में बननी चाहिए | और तब भी, क्वीयर प्यार की सबसे बड़ी दिक्कत यह है, कि इसे क्वीयर लोगों के सामने एक थेरेपी की तरह पेश किया जाता है| जैसे कहा जा रहा हो, ये घुट्टी पी लो, फिर सब ठीक हो जाएगा | मानो इससे वो सारे मानसिक और इमोशनल ज़ख्म भर जाएंगे, जो क्वीयर लोग हर दिन झेलते हैं | हम क्वीयर लोग, बचपन में बहुत अकेलेपन से गुज़रते हैं | इसलिए हम प्यार भी उन लोगों में ढूंढते हैं, जो हमारे जैसे दुःख, और समाज का बहिष्कार झेल चुके होते हैं | अपने प्रेमी से साथ जीना, इस समाज में अपनी जगह ढूँढने का ज़रिया था | जिस समाज में हमें दरकिनारे करा जाता है|मेरे ज़ख्म पुराने, गहरे और गंभीर थे | मुझे उस प्यार की खुराक की ज़रुरत थी | यह तो थी कल की बातें | आज की बात करते हैं | मैं वापस अपने शहर में हूँ | अपने परिवार के साथ रहती हूँ | काम से इस्तीफ़ा दे चुकी हूँ | और आगे क्या करने वाली हूँ, कुछ पता नहीं | मैं आज जैसी हूँ, बचपन के हादसों से मिले ज़ख्मों के कारण हूँ| आज भी उनके बारे में बात करना, मुश्किल होता है | आज भी उन ज़ख्मों से ऊबरने की कोशिश कर रही हूँ| वो मेरे अन्दर मौजूद हैं | और मुझसे पूछे बिना, कभी कभी मनमानी करने लगते हैं| मैं चाहे कितनी बार इनकी बात शेयर करूँ, ये फिर भी मेरा साथ नहीं छोड़ते | अब यह मेरी पहचान का हिस्सा बन चुके हैं | मैं कई बार इन्हें नज़रंदाज़ करती हूँ| सदमे को नकार के, या उसके बारे में बात ना करके | यही बात मैं अपनी एक्स को बता नहीं पाई | कि मेरे प्यार को नकारने का कारण, मेरे सदमे से जुड़ा है | उसने कई बार मेरी दिल की बात जानने की कोशिश की| पर उसे हर बार मेरी खामोशी ही मिली | हम दोनों औरत हैं, क्या इससे इस चुप्पी का असर और गहरा पड़ा? मेरा मानना है, कि एक क्वीयर रिलेशनशिप में खुलकर दिल की बात बोलना पे कहीं ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है, एक सामन्य औरत-मर्द के रिश्ते से कहीं ज़्यादा | लीक से हटकर रिश्ता बनाने पे, इस खुली बातचीत का महत्त्व मैं समझती थी | पर ये खुलापन किस हद तक ज़रूरी है, मैं उसके लिए तैयार नहीं थी | हर चीज़ बताने की ज़रुरत के बारे में सोचके ही मेरा दिमाग फटने लगता था | तो मेरी समझ किताबी बन के रह गयी थी | मैं मानती थी कि बातचीत करना एक अच्छे और स्वस्थ जीवन के लिए ज़रूरी है | पर मेरे सदमे का असर ये रहा कि मेरी ज़िंदगी की किताब अक्सर बंद ही पडी रहती थी | इसकी वजह से मैं लोगों से इमोशनल लेवल से पूरी तरह से जुड़ नहीं पाती थी| शायद यह मेरे खुद को बचाये रखने की कोशिश भी थी | किशोरावस्था में ही मुझे पता चल गया था कि मैं डिप्रेशन से गस्त हूँ | बाद में मेरी बीमारी बाईपोलार***(मूड का बहुत उथल पुथल होना – या तो उत्तेजित या फ़िर बिल्कुल खामोश, इस मानसिक बीमारी का नींद, ऊर्जा, सोच- विचार, इन सबपे असर हो सकता है) बताई गयी और उसके बाद ए.डी.एच.डी.**** में तब्दील हो गया | और इन को और फोकस में लाया, मेरा खुद को शारीरिक हानि पहुँचाना और आत्महत्या की सोच के साथ रिश्ता रखना| इतनी बीमारियाँ होते हुए भी, मैं किसी तरह एक नार्मल लाइफ जी रही थी| जॉब था, सोशियल लाइफ थी | कभी कभी मैं अपनी हालत के बारे में भूल जाती थी...दिखावा करने में इ तनी एक्सपर्ट थी | शायद इसलिए जो लोग मेरे करीब थे ,उनको यकीन था कि मैं न्यूरोटिपिकल (जो वो लक्षण दिखाए जिन्हें आम समाज नार्मल समझता है) थी| मैं पागलों सा प्यार करती हूँ | और जब उस प्यार से निकलती हूँ, तो कुछ ज़्यादा ही जल्दी निकलती हूँ | इस बात का एहसास मुझे लॉकडाउन से एक दिन पहले हुआ| मैंने अपने आप को और बंद कर दिया | लॉकडाउन बहुत लोगों के लिए मुश्किल था| पर जो लोग मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, उनके लिए तो भयानक था | मैं अपने पार्टनर से बिल्कुल कट सी गयी| वो दूसरे शहर में थी | उसने मुझसे संपर्क करने की बहुत मेहनत की | हर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया | पर मैंने कसम खाई थी, किसी से भी किसी तरह से बात ना करने की | और यूं शुरू हुआर 2020 का ग्रेट डिप्रेशन | मुझे थेरेपी में जाना कभी पसंद नहीं आया | तो कभी दिल खोलकर उसमें हिस्सा नहीं लिया| पर मैं दवाईयाँ ले रही थी | मेरी माँ का मानना है कि मेरा दवा के अलावा और कोई मदद ना लेना, मेरी मानसिक बीमारी की पहचान है | मेरे बाकी के पार्टनर्स जो मेरे साथ रहते थे, उन्होंने मुझसे सामान्य बातचीत करने की कोशिश की | पर उन्हें भी मेरी मानसिक हालत की चिंता थी | एक यूनिवर्सिटी से नकारे जाने के बाद, बिना किसी को बताये, मैं अपने शरीर पे घाव करने लगी | मामला और गंभीर तब हो गया जब मुझे एक फ्रेंड की शादी के लिए अपने शहर जाना पड़ा | मेरी पार्टनर वहाँ होने वाली थी| मैंने उससे महीनों से बात नहीं की थी | मैं डर गयी थी| घबरा गयी | इसलिए मैं उससे मिली भी नहीं | भागमभाग में वापस आ गयी | पर अन्दर कहीं मुझे पक्का पता था कि मैंने हमारे रिश्ते को यूँ ख़त्म कर दिया था, उसके लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी| डेढ़ महीने बाद एक नए डॉक्टर, नयी दवाईयों और अपनी पार्टनर से बात करने के नये जज़्बे के साथ अपने शहर लौटी | और एक दिन, उसने अपना सारा गुस्सा मुझ पर निकाल ही डाला | वो आखिरी बार, जब उसने मुझसे बात की | मैं इसके लिए तैयार न थी | क्योंकि मेरे दिमाग में, हमारे बीच सब ठीक ही चल रहा था | उसका इस तरह का अचानक गुस्सा होना, मुझसे झेला न गया| मुझे एहसास हुआ, कि मेरी मानसिक बिमारी के चलते मैंने कभी मैंने कभी अपनी पार्टनर का दर्द और उसकी कश्मकश को पहचाना ही नहीं | उसे भी दर्द हो रहा था| उसे लगा कि कि जब उसे मुश्किल पड़ती है, उसे मेरे सहारे का कोई भरोसा नहीं रहता | हम क्वीयर लोगों के लिए रिलेशनशिप बनाने या निभाने के लिए कोई गाइड नहीं है | शुक्र है, हमें डेटिंग एडवाइस देने के लिए कोई सुहेल सेठ टाइप का 'ज्ञानी' हमपे हावी नहीं है | हमारे अन्दर से जो आवाज़ आती है, हम उस की राह लेते हैं | मैंने बिल्कुल वही किया, जो मुझे सही लगा | जो मेरी पार्टनर के लिए सरासर गलत था | एक और बात: जहां पर एक से ज़्यादा पार्टनर होते हैं, वहाँ पर शुरू से ही अपनी बात खुलकर सामने रख देनी चाहिए | वरना बाद में बहुत दिक्कत होती है| पर कभी कभी ज़बानी या लिखित कॉन्ट्रैक्ट नहीं बनाये जा सकते | तो फिर अपने रोज़ के तजुर्बे का ही सहारा होता है | मानसिक रूप से बीमार, बाईपोलर, जिसके एक से ज़्यादा रिलेशनशिप हैं, जो शायद एरोमांटिक भी है - ऐसे को प्यार करना कोई आसान काम नहीं होता है | पर हमारे आस पास जो लोगों की उम्मीद रहती है.. एक न एक दिन हमारे ठीक हो जाने की| और ठीक होने का मतलब होता है – नार्मल क्वीयर बन जाना | जिसके मैं सख्त ख़िलाफ़ हूँ | इसके लिए नहीं कि लोगों की नज़र में जो बेहतर और ठीक है, मैं उसको पसंद नहीं करती | जो मानसिक स्वास्थ से जूझ रहे होते हैं, उनके लिए इसके बारे में बात करना कष्टदायक होता है | इसका कोई एक आसान हल नहीं है | बहुत लोग बोलते हैं कि कम से कम देखभाल करने वालों, शुभचिंतकों या परिवार के लोगों के लिए ठीक होने की कोशिश करनी चाहिए | उन लोगों को मेरा कहना है, कि एक रोगी होने के नाते मैं सबके सपोर्ट की बहुत आभारी हूँ | क्यूंकि मैं मानती हूँ की ये मेरा ख़ास सौभाग्य है, हर एक को नहीं मिलता | पर इसके नाम पे अगर आप मुझे कुसूरवार होने की फीलिंग दें, ये मैं नहीं मानूगनी | मेरी पार्टनर, मेरे उन शुभचिंतकों में थी, जो मेरा ख्याल रखते हैं| इसलिए भी वो मेरे लिए ख़ास थी| ऐसे में, गलतफ़हमी की वजह से किसी को खो देना, शायद औरों की तुलना में, मुझपे ज़्यादा बुरा असर करता है | किसी भी मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को प्यार करना और फ़िर छोड़ देना... इसके लिए अलग किस्म की नैतिकता, उम्मीदें और नज़रियों की ज़रुरत है | हां, ये सच है, कि प्यार ज़ख्म भरता है | पर ये कोई इलाज नहीं, जो हमपे किया जा रहा है, कि हम मरीज़ बनके इलाज के रूल्स फॉलो करें | मैं एक ऐसी दुनिया में जीने की उम्मीद करती हूँ जहां दिल दिल कम टूटेगा, दर्द कम होगा | पर जब तक ऐसा न हो, तब तक मैं लोगों को याद दिलाना चाहूँगी, कि इस दुनिया में हम जैसे लोग भी हैं | जिनको थोड़ा अलग तरीके से समझने की ज़रुरत है | रुक्मिणी बनर्जी एक शोधकर्ता और कवि हैं,जो सेक्सुअलिटी और मानसिक रोगों के बारे में लिखती हैं | शरीर और दिमाग को कैसे संभाला जाए , इसमें इनकी ख़ास रूचि है | *सिस जन्म से समय गुप्तांगों के आधार पे, हर बच्चे का जेंडर बताया जाता है- अगर आप आगे चलके अपनी लैंगिक पहचान/कामुकता को वैसे ही देखते हैं, तो आप सिस जेंडर कहलाते हैं । **बाईसेक्सुआलिटी उभयलिंगी, जिसका रोमांटिक या सेक्सुअल रुझान एक से ज़्यादा जेंडर के लोगों की ओर हो । बाईपोलार***मूड का बहुत उथल पुथल होना – या तो उत्तेजित या फ़िर बिल्कुल खामोश, इस मानसिक बीमारी का नींद, ऊर्जा, सोच- विचार, इन सबपे असर हो सकता है ****ए.डी.एच.डी. अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिस्ऑर्डर मतलब ध्यान की कमी और अत्यधिक सक्रियता की बीमारी को एडीएचडी कहा जाता है ।
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