मैं कपड़ों में नहीं, टेंट पहने बड़ी हुई हूँ|
अट्ठारह की होने से पहले मैं जो सलवार कमीजें पहनती थी, उन्हें देखकर लगता था जैसे मैंने एक बड़ी अटैची को अपने पेट पर बाँध कर, ऊपर से दुपट्टा डाल लिया हो| अगर कोई मुझसे आज पूछे कि मेरे लहराते टेंट/लबादे जैसे कपड़े का क्या रंग होता था, तो मैं बता ही नहीं पाऊंगी| या मटेरियल कौन सा था, गले के पास एम्ब्रायडरी थी या नहीं, कुछ होश ही नहीं रहता था| और अगर कोई पूछे कि कुर्ते का कट ‘A” था या ‘V’ तो मैं ‘O’ कह देती हूँ | उस समय की मेरी यादें, एक फिल्म की रील की तरह है, जिसमें हर फ्रेम से मेरे किरदार को काट कर हटा दिया गया है| जिसके बारे में मुझे कुछ याद भी नहीं है| मैं अपनी ही दुनिया में रहती थी|
मैं अपनी ही लाइफ से अपनी ही गैरमौजूदगी को कैसे समझाऊँ? अगर तुम उस समय की मेरी लाइफ के बारे में पूछोगे, तो मैं तुम्हें मेरी किताबों की दुनिया और लाइब्रेरीयों के बारे में बता सकती हूँ| उन सभी किताबों की एक एक लाइन, हर कहानी के बारे में डिटेल में बात कर सकती हूँ| कुछ ऐसी थीं जो सर के ऊपर से निकल गयीं| वहीँ कुछ किरदार तो अब भी मेरे कानों में अपनी कहानियाँ सुनाते हैं| रेल्वे स्टेशन के पास ही गैलेक्सी नाम की एक लाइब्रेरी थी| उसका मालिक लंबा, साँवला, अच्छे दिल का, कम बोलने वाला आदमी था| उसके शर्ट के अन्दर से उसकी गोल्ड चेन चमकती थी| वो मुझसे ज़्यादा बात नहीं करता था| मेरे किताबी कीड़े वाले दिमाग को लगता था कि वो जासूसी कहानियों से निकल कर आया एक जासूस है| जो अगले मिशन के आने तक, किताबों से भरे इस कमरे में समय बिता रहा था| मैं हर सुबह वहाँ से किताबें लेती थी और कॉलेज जाते वक्त बस में ही पूरी पढ़ लेती| शाम को भाग कर उनको वापस करती| ताकि अगले दिन फिर नयी किताबें इशू करा सकूँ|
‘वाचनालय’ नाम की एक और लाइब्रेरी थी | संकरी सी गली की शुरुआत में | उससे अगरबत्ती की महक आती थी| उसके मालिक के बाल हमेशा तेल से चिपके रहते थे| ये तुक्का लगाने में मज़ा आता था कि उसके बालों को यूँ चुपड़ने में कितना लिटर तेल लगता होगा | वो ज़्यादा बोलता नहीं था| और मुझे किताबें आराम से देखने देता था| ज़्यादा मिलनसार नहीं था| उसे मेरे होने या ना होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था |
ये सारी बातें पूछ लो, सब याद है| लेकिन अगर तुम मुझसे ये पूछोगे की बड़े होते हुए मेरे हिप्स या स्तन किस शेप के थे तो मेरे पास इसका जवाब नहीं है| आईने से कभी दोस्ती ही नहीं हुई| अपने आप से इतनी बेपरवाह थी| अब लगता है यह बेपरवाही सही नहीं थी|
मैं गाने गाती भी थी और सुनती भी | मेरे पास एक टेप रिकॉर्डर था | जिसे लेकर खिड़की किनारे बैठ कर देर रात तक गाने सुनती थी| खिड़की पर दो जालियाँ लगी थीं| एक महीन तारों वाली जाली, जो कबूतरों से बचने के लिए थी | दूसरी साधारण सी, जिसका कोई ख़ास काम नहीं था, मुझे तो लगता था कि वो धूल अन्दर लाती थी और पेड़ों के पत्तों से छनकर आती सुन्दर धूप को अन्दर नहीं आने देती थी| मैं घर पर नाइटी ही पहनती थी| वो बेढंगा, कमरे जैसा लिबास, किसी मोटे मटेरियल का बना हुआ | उसके साइड पर हल्दी के दाग लगे हुए थे| और क्यों ना हों, जब हाथ पोंछने को, इतना सारा एक्स्ट्रा कपड़ा पड़ा है, तो तौलिये का क्या काम|
मेरे लबादे को टेंट कह लो, पर वो था बड़ा आरामदायक| मुझे अपने खुद के अन्दर कभी झाँकने की ज़रुरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि मेरा शरीर इस टेंट के अन्दर रहता था |
मुझे अपने ही शरीर से डर लगता था| जिधर भी देखो, हर हिस्सा आउट ऑफ़ कंट्रोल था : मेरा शरीर मेरे कंट्रोल में था ही नहीं| बाकी लड़कियों के शरीर की तरह नहीं था| उनका शरीर उनकी बात मानता था| शर्ट के बटनों के बीच गैप नहीं बनता था, उनकी कमर अंडरवियर के ऊपर से नहीं भागती थी, उनकी बॉडीज आराम से कुरते या शर्ट की स्लीव में फिट हो जातीं| उनको ब्रा फिट बैठता था| और फोटो में तो उनके पतले सुडौल शरीर की बनावट खिल कर बाहर आती थी| और इधर मेरा शरीर था जो मेरी कोई भी बात नहीं मानता था| कोई भी ब्रा पहन लो, ब्रेस्ट साइड से तो बाहर निकलना ही है| नाड़ों और बेल्टों और बटन अप वाली जीन्स से तो मेरे पेट और कमर का छत्तीस का आंकड़ा चलता रहता था| और हाथों का क्या कहना, कुछ भी पहन लो, स्लीव में अटते ही नहीं थे|
मेरा हाल? स्ट्रैप से दबे हुए कंधे, कसे हुए नाड़ों के निशान वाली कमर और तंग पेंट से रगड़ रगड़ कर चोट खाई हुई जांघें, सब एक ही बात कहतीं, कि इन कसे कपड़ों में उनका दम घुटता है| मेरी बॉडी विद्रोह को तैयार थी l उसको मनाने के लिए मैंने दर्जी को कह कर अपने कपड़ों की सिलाई थोड़ी और खुलवा दी| मैं खुद के शरीर से लड़ाई नहीं करना चाहती थी|
अब जूते ही ले लो, शुरू में तो सब ठीक रहता, पर कुछ समय बाद वो काटने को दौड़ते थे| मैं अपने पाँव को मगरमच्छ का जबड़ा बुलाती थी| उनमें किसी भी जूते की सिलाई को फाड़ देने की ताकत थी| मुझे याद है एक बार मैं अपनी माँ के साथ जूते खरीदने गयी थी| दुकानदार एक चश्मा पहने गुजराती अंकल था| उसने झुककर मेरे पैरों को देखा और हँसते हुए कहा कि किसी भी लड़की के इतने बड़े पैर नहीं होते हैं| कहीं और जाओ, यह साइज़ यहाँ नहीं मिलेगा| उसने वो फैसला दुनिया की सभी जूता बनाने वाली कम्पनियों की ओर से सुना दिया| मैं उससे और अपने आप से आँखे बचा कर कहीं और देखने लगी| वो भी मेरी पाँच फुट की माँ के सुन्दर, नाज़ुक से पाँव की ओर देखने लगा| इस उम्मीद से कि वो चारों ओर लगाए हुए आकर्षक फुटवेयर में से कुछ तो खरीदेंगी| मैं छिप छिप कर कुछ जूतों की तरफ आस भरी नज़रों से देख रही थी| उसने मेरी नज़र पकड़ ली| “वो मर्दों के लिए है” उसका कहने का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था, मैं समझ गयी, वो मेरे लड़की होने का मज़ाक उड़ा रहा है|
दुनिया ये फैसला कर चुकी है कि लड़की को कैसा होना चाहिए| फ़रमान जारी हो चुका है| पर इन पैमानों पे मैं कहीं भी फिट नहीं बैठती थी| बोलने को तो मैं लड़की थी, पर मेरा पैर लड़कियों वाले किसी भी जूते में फिट नहीं बैठता था| मेरी बॉडी ब्रा के आजू बाजू से अदरक की तरह निकलती रहती थी और जींस तो मेरे लिए बनी ही नहीं थीं| दुनिया के तानों ने, उसकी हंसी ने, उसके द्वारा बनाए गए सुन्दरता के पैमानों ने, चिल्ला चिल्ला कर मुझे बताया कि कहने को तो मैं लड़की हूँ| पर मेरी बॉडी को कहीं से भी लड़की की बॉडी नहीं कहा जा सकता|
पर यह तो कहानी का एक छोटा सा हिस्सा है |
एक बार मैं अपने दोस्तों के साथ एक ट्रेक(trek) पे जा रही थी| स्टेशन आने पर हम सब उतर ही रहे थे और हंसने में मशगूल थे कि अचानक किसी अनजान हाथ ने मेरी छाती कस के दबाई| मैं लड़खड़ाते हुए ट्रेन से उतरी| मुड़ कर देखा तो वो आदमी इंसानों के समन्दर में खो चुका था| मेरे दोस्त इस घटना से अनजान थे| बस मेरी छाती का दर्द इस बात का गवाह था| वो बात, जो धीरे धीरे उस भीड़ में खोती जा रही था|
मुझे खुद नहीं मालूम कि ऐसी घटनाओं को मैं दुबारा याद करना चाहती हूँ या नहीं| क्योंकि ऐसे कई मामले हैं| मेरा शरीर लोगों की नज़र में सुन्दर लड़की का शरीर नहीं था| पर ऎसी हरकतों से मुझे यह बताया जाता कि यह अंत में था तो लड़की का ही| एक बार कॉलेज में एक सीनियर के सामने मेरा दुपट्टा फिसल गया था| उसकी नज़र सीधे मेरी छाती पर गयी| उसने तुरंत घबरा कर नज़रें हटा लीं|
जब मैं काफी छोटी थी ,तब भी कुछ लोग मुझे ऐसे देखते कि मैं समझ जाती कि मेरा शरीर लोगों में इच्छाएँ जगा सकता है| पर वो ग्रीटिंग कार्डों के संदेशों में पाए जाने वाला प्यार की भावना नहीं जगाता था| ना ही वो प्यार, जो लिविंग रूम में लगे हुए पति पत्नी के बीच दिखता है| मुझे देख कर लोगों के अन्दर वही जोश जागता था जो चद्दर के अन्दर किसी के साथ या मस्तराम के पन्नों के बीच पनपता था| जैसे जैसे दुनिया इंटरनेट के जाल में समाती चली गयी, तो नेट पे पोर्न इंडस्ट्री विराजमान होने लगी lपोर्न की दुनिया में तो इसी शरीर का बोलबाला है| पहले मुझे ये फील कराया गया था कि मेरा शरीर लड़की के शरीर सा नहीं है, यानी एक तरह से लड़की की दुनिया से गैर है l और अब, पोर्न यानी गैरकानूनी दुनिया से ऐसे शरीर को जोड़ा जाने लगा !
उस बात को काफी साल बीत गए |
एक बार मेरी एक दोस्त(यार, उसके क्या लम्बे घने बाल थे) मुझे अपने लड़कों के साथ चक्करों के बारे में बता रही थी| जब मैंने उसे बताया कि मुझे इसका ज़्यादा आईडिया नहीं है, तो उसने झट से पूछा कि ऐसा क्यों भला| मैं थोड़ा नर्वस हो गयी और घबरा कर मुंह से निकल गया कि मैं सुन्दर नहीं हूँ, इसीलिए लड़के मुझे भाव नहीं देते| उसने मुझे काफी देर तक घूरा| और कहा कि मैं शायद खूबसूरती और सेक्सी दिखने को आपस में कंफ्यूज कर रही हूँ| फिर हमने टॉपिक बदल दिया| पर हफ़्तों, महीनों, सालों और दशक बीत जाने के बाद भी उसकी यह बात बार बार मुझे टोकती थी| माना कि मैं दुनिया के बनाए गए सुन्दरता के ढाँचे में फिट नहीं होती हूँ, पर इसका मतलब यह है कि मैं किसी के सपनों की रानी नहीं बन सकती?
कुछ और साल बीत गए| फिर कुछ दिनों पहले, इंदु हरीकुमार नाम की आर्टिस्ट के एक ‘identitty’ नाम के प्रोजेक्ट बारे में पता चला| जिसके ज़रिये वो औरत और उसके स्तनों के बीच के रिश्ते को अपने चित्रों के द्वारा समझना चाह रही थीं| कई औरतों ने अपने स्तनों के फोटो के साथ अपने ख्याल भी लिख कर भेजे| जिसे देख कर इंदु ने उनके स्तनों की तस्वीर बनाई| पर जब मुझे उस प्रोजेक्ट के बारे में पता चला, तब तक उन्होंने फोटोज़ और कहानियाँ लेना बंद कर दिया था| फिर भी मुझे लगा कि मुझे भी इसका हिस्सा बनना चाहिए| मुझे अपने स्तनों के बारे में क्या लगता है, मैं भी इसपर लिखना चाहती थी | मैं उनके बारे में क्या महसूस करती हूँ, बताना चाहती थी| और सोचते सोचते मैंने कुछ पन्ने लिख डाले| उनको इस प्रोजेक्ट के लिए शुक्रिया अदा करते हुए, जो लिखा था मैंने वो भेज दिया| सच मानो, लिखकर ऐसा लगा जैसे मेरे अन्दर कुछ तो बदल सा गया था|
उन्होंने जवाब में मुझसे फ़ोटो माँगा| मैं बिल्कुल डर गयी| अभी तो टेंट जैसे कपड़े पहनने वाली लड़की के बारे में लिखा था| और अचानक से मैं वापस वही लड़की बन गयी थी जो अपनी कमीजों को खींच कर पहनती थी, कि किसी तरह वो टेंट बन जाएँ | मेरे पास अब दो रास्ते थे – या मैं वापस उस टेंट में समा जाऊँ या फिर फ़ोटो खींच कर भेज दूँ|
इससे पहले कि मैं अपना फैसला बदलती, मैं झट से अपने कमरे में गयी| दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कीं और अपना टॉप उतार फेंका| खुद को कैमरे में, बिना कपड़ों के देखकर, ऐसा लगा कि मानो मैंने ऐसे ही बाज़ार जाने का फैसला ले लिया हो| बिल्कुल पागलों जैसी हरकत लगी| मेरी हंसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी| मैं चाहती तो इस हरकत को भुला, किसी दूसरे ज़रूरी काम में मशरूफ हो जाती| डरने की बात थी न:
अगर किसी ने मेरा मोबाइल चोरी कर लिया और मेरे स्तनों के फ़ोटो को सारे सहर के बिलबोर्ड पर लगवा दिया तो? कहीं माँ से बात करते वक़्त फोन हाथ से फिसल गया और गलती से कुछ दब गया और वो फ़ोटो उनको सेंड हो गया तो? यह सेल्फी लेना बेवकूफी लग रही थी| पर इसी बेवकूफी ने, मेरे मन का डर निकाल दिया| फिर मैंने एक क्या, कई सेल्फी लीं|
वो सेल्फी भेजे हुए अब कुछ महीने बीत चुके थे |
मैं बिस्तर पर लेटे-लेटे किसी से चैट कर रही थी| बात ख़त्म कर, मैं कैमरे के साथ खेलने लगी| मैंने सेल्फी लेने की कोशिश की, पर थोड़ा संकोच हुआ| मैंने कैमरे को थोड़ा और नीचे किया| अपने टॉप के बटन खोले और फिर सेल्फी ली| इस बार मैंने इसके बारे में ज़्यादा नहीं सोचा|
जब भी अपने बिना कपड़ों वाली फोटों को देखती हूँ, तो ऐसा लगता है कि मैं अपने आप को, बिना किसी सवाल के, देख पाती हूँ,समझ पाती हूँ | शीशे जैसे नहीं, शीशा तो अपनी पैनी नज़र रखता है | फोटों देखते हुए मैं आराम से, अपने शरीर के हर एक भाग को, हर एक मोड़ को महसूस करती हूँ| किस तरह मेरी स्किन दमकती है और कैसे अलग अलग जगहों पर इसका रंग अलग दिखता है| कई बार मैं चेहरे के बिना ही फ़ोटो लेती हूँ| इस तरह मैं कोई अनजान औरत बन जाती हूँ| वो बॉडी अब मेरी नहीं होती | अपनी स्किन, किस तरह मेरे शरीर के बाल उमड़ते हैं, देख कर मज़ेदार कंपकपी सी होती है| वो मज़ा मुझे खुद को टच करने के भी आईडिया देता है|
इस तरीके से, यूं लगता है जैसे मैं खुद को अपनी बॉडी से थोड़ी दूरी पे रख पाती हूँ| हाँ, एक तरह से मैं इसे एक इस्तेमाल की चीज़ की तरह देख रही हूँ.. पर बॉडी भी मेरी है और नज़र भी मेरी , शायद इसलिए इससे कोई खतरा नहीं लगता| मैंने इस बारे में काफी सोचा- क्या मैं अपनी बॉडी की उस तरह की तस्वीर लेने की कोशिश नहीं कर रही हूँ, जिस तरह की तस्वीरों को मैंने अक्सर देखा है? जो औरतों को एक वस्तु के रूप में देखती और दिखाती हैं ? क्या मेरा नज़रिया अलग था? मैंने खुद की अलग अलग पोज़ में फ़ोटोज़ लीं| जिन पोज़ में कोई भी बहुत सुन्दर नहीं दिखेगा| पर उन फ़ोटोज़ को देख कर मेरे अन्दर एक नई किस्म की आग जाग उठी| जिस आग में खूबसूरती और सेक्सी के बीच की महीन डोर जल गयी|
सड़क पर चलते वक़्त, मैं लोगों को नोटिस करती| और सोचती कि बिना कपड़ों के हम सभी के शरीर कितने अलग हैं| और हर एक शरीर अपने आप में आकर्षक है| मुझे किसी के हाथ पकड़ने का मन करता| तो किसी के पेट पर हाथ फिराने का| किसी की मोटी जांघें चूमने का मन करता तो किसी के पतली हिप्स को सहलाने का| कभी कभी मैं बिन कपड़े अपने शरीर को, आँख बंद कर छूती थी| मेरे छूने से जो गर्माहट महसूस होती थी, उस से मुझे मेरे जिंदा होने का एहसास मिलता| मुझे खुद को देखे बिना, खुद पर प्यार आता |अगर ख़ूबसूरती देखने की चीज़ होती है तो चाहत, छू कर महसूस करने की| नहाने के बाद, जब मैं खुद का बदन पोंछती, तो अक्सर अलग अलग जगहों को छूती | और सोचती कि कैसे अलग अलग जगह पर छूने का एहसास, अलग होता है| अपने शरीर के दाग, जगह जगह पर गहराई स्किन, मैं सबको छूती l स्ट्रेच मार्क्स पर उँगलियाँ फिरा कर अपनी स्किन को महसूस करती |
पहले मैं अपनी ही बॉडी को अपना दुश्मन समझती थी| और अब मुझे अपनी ही बॉडी से इतना प्यार हो गया है कि मैं खुद को टच करना चाहती हूँ| पैरों को मसाज करना चाहती हूँ| अपने पेट पर मस्ती में दांत से निशान बनाना चाहती हूँ| चेहरे पर हाथ फेरते हुए, उन्हें सूंघना चाहती हूँ|
मैं एक दोस्त से मिली और बातों बातों में, मैंने उसे अपनी इन तस्वीरों के बारे में बताया| उसने देखने की माँग की, तो मैंने उसे अपना फ़ोन दे दिया| उन फ़ोटोज़ को देखने के बाद, उसने मेरी आँखों में देखा| मेरा राज़ अब राज़ नहीं था| उस राज़ को कोई और भी जानता था| किसी और ने भी मेरी बॉडी देख ली थी| वही बॉडी जिसमें मैं रहती हूँ| फिर हम दोनों खिलखिला कर हंसने लगे|
इनी 39 साल की है| लॉकडाउन के दौरान उसे एहसास हुआ कि खुद की गुदगुदी कर पाना, संभव नहीं !
मेरी न्यूड सेल्फी ने मेरी लाइफ ही बदल दी|
कईं वर्षों तक छुपने के बाद, क्या एक न्यूड सेल्फी द्वारा Ini अपने आप को नए नज़रिये से देख रही है ?
लेखिका - इनी
चित्र - हरज्योत खालसा
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