जब हम कहते हैं कि ये हमारे 'मान्य' (respectable) रिश्ते हैं, जिन्हें हम सामाजिक रूप से स्वीकारते हैं, तो इसका क्या मतलब होता है। खासकर जब हम उन रिश्तों की बात करते हैं, जिनमें हम जन्मे नहीं, लेकिन जो हमने खुद से चुने हैं। कभी-कभी शायद हमारा मतलब उन रिश्तों से होता है, जिन्हें बनाने की 'अनुमति' हमें कानून और समाज देता है। लेकिन अगर हम उन रिश्तों को गौर से देखें, तो दो बातें सामने आती हैं। - कानून, लोगों के जीवन के अनुसार, बदलते हैं, नए रूप लेते हैं। रिश्तों को, समय और बदलती सोच के साथ, जैसे नए तरीके से प्रैक्टिस किया जाता है, कानून भी वैसे ही बदलता है। इसलिए कानून कोई निश्चित और तय चीज नहीं है। ये वही सोच दर्शाता है जो हम मानते या बनाते हैं। - क़ानून किन रिश्तों को मानता है...अगर हम इस बात की जांच करें तो हमें आश्चर्य होगा, हम खुश भी होंगे और परेशान भी हो जाएंगे। क्योंकि इनमें कुछ ऐसे रिश्ते हैं जिनका कानूनन रूप से लाज़मी होने की कल्पना, अच्छे और बुरे, दोनों तरीकों से, हम कर ही नहीं सकते हैं। तो आईये हमारी पसंद से बनाये गए कुछ ऐसे रिश्तों पर एक नज़र डालते हैं जिन्हें क़ानून स्वीकारता है । शादी कानून में भांति-भांति के वैवाहिक रिश्तों को स्वीकार किया जाता है और उन रिश्तों की रक्षा के लिए, कई अधिकार, सुरक्षा और उपाय उपलब्ध कराए जाते हैं। लेकिन इन भांति-भांति रिश्तों में एक समानता है: ये सभी विषमलैंगिक (hetrosexual) शादियां हैं, कानून द्वारा तय किये गए उम्र वाले पुरुष और महिला के बीच। शादी की कानूनन न्यूनतम उम्र पुरुष के लिए 21 और महिला के लिए 18 वर्ष, मान्य है। भारत में लोग कई अलग-अलग वैवाहिक एक्ट में से किसी भी एक के तहत शादी कर सकते हैं। समान समुदाय और धर्म के लोगों के बीच विवाह आमतौर पर पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार आयोजित किए जाते हैं। ये शादियां व्यक्तिगत कानूनों के तहत रजिस्टर होती हैं । जैसे: हिंदू विवाह अधिनियम (Hindu Marriage Act) (जो बौद्ध, जैन और सिखों पर भी लागू होते हैं), मुस्लिम पर्सनल लॉ (एप्लीकेशन) अधिनियम (Muslim Personal Law (Application) Act), भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम (Indian Christian Marriage Act) और पारसी विवाह और तलाक अधिनियम (Parsi Marriage and Divorce act), जो केवल पारसी जोरास्ट्रियन पर लागू होते हैं । लगभग इन सभी नियमों को अंग्रेज़ी राज के समय कानून का हिस्सा बनाया गया था । (केवल हिंदू विवाह अधिनियम को छोड़कर, जो स्वतंत्र भारत में बहस और राजनीतिक संघर्ष के बीच तैयार किया गया था)। लोगों को अपनी परंपराओं और पसंद के आधार पर विविध प्रथाओं को जारी रखने की अनुमति दी गई थी। क्या इसका मतलब ये है कि कानून लोगों को अपने समुदाय से बाहर शादी करने की अनुमति नहीं देता है? नहीं, यह सच नहीं है। लोग अपने समुदाय की सीमाओं के बाहर भी प्यार करते हैं और लव मैरिज करते हैं। आजकल कई अरेंज्ड मैरिज ( परिवार द्वारा तय की गई शादियां) भी समुदाय के बाहर होती हैं, क्योंकि कई लोग अब उन पुराने सामाजिक विभाजनों और ऊँच-नीच के रिवाज़ों में विश्वास नहीं करते हैं। कानून इस बदलती मानसिकता को मानता और दर्शाता है, और जाति, धर्म और गोत्र के अलग होने के बावजूद भी ऐसे विवाह को मान्यता देता है। फिर चाहे कोई व्यक्ति या सामुदाय ऐसे विवाह को स्वीकार करे या ना करे। विभिन्न धर्मों के लोग, या फिर वो लोग जो एक धर्मनिरपेक्ष (secular) शादी पसंद करते हैं, वे विशेष विवाह अधिनियम (special marriage act) के तहत विवाह कर सकते हैं। इस विवाह को सिविल मैरिज (civil marriage) कहा जाता है। इसमें कोई धार्मिक समारोह नहीं होता है, यहां सरकारी अधिकारी और दूल्हा और दुल्हन डॉक्युमेंट्स पे हस्ताक्षर करके प्रक्रिया पूरी करते हैं। ये सच है कि विशेष विवाह अधिनियम और व्यक्तिगत कानून काफी ताल मेल रखते हैं। पर ये भी सच है कि ये अलग-अलग चीज़ों की अनुमति भी देते हैं। इन अधिनियमों का ये अलग अलग चीज़ों का समर्थन करना ये भी दिखाता है कि और नाजायज़ का फैसला व्यक्तिपरक (subjective)के आधार पर होती है। जैसे कि, एक तरफ, द्विविवाह (bigamy) कानून के खिलाफ है, लेकिन साथ ही साथ, मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लीकेशन एक्ट (Mulsim Personal Law (Application) Act) कई विवाह करने की अनुमति देता है। ठीक वैसे ही दो लोग, जो एक दूसरे के करीबी रिश्तेदार हो (blood related), उनको कानून के हिसाब से विवाह की अनुमति नहीं है। लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम (Hindu Marriage Act) उन्हें इसकी अनुमति देता है, खासकर यदि उनके समुदाय में ऐसी प्रथा है। तो, शादी लोगों को क्या-क्या अधिकार देती है? कानून शादी के ज़रिए एक व्यक्ति को रखरखाव (maintenance), विरासत (inheritance) और यहां तक कि सेक्स ("संयुग्मिक अधिकारों" - conjugal rights की सोच के तहत) और बच्चे पैदा करने (तलाक के लिए बांझपन/इनफर्टिलिटी का कारण भी जायज़ माना जाता है) का अधिकार देता है। अपने पार्टनर के साथ सेक्स करने का अधिकार कानून और सामाजिक नज़रिये में इतना उलझा हुआ है कि वैवाहिक बलात्कार जैसे दुर्व्यवहारों को कानून नज़रअंदाज़ कर देता है, उसपर ध्यान ही नहीं देता है। बलात्कार आपराधिक कानून (criminal law) के दायरे में आता है और इसलिए ये विवाह के कानूनों से अलग है, और ये सभी लोगों पर समान रूप से लागू होता है। फिर भी शादी के अंदर जबरन सेक्स करने को बलात्कार के रूप में पेश कर, उसपे कानून द्वारा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। यानी कानून शादी के अंदर हुए ज़बरन सेक्स को बलात्कार के रूप में देखता ही नहीं है। कानून किसी व्यक्ति को कठोर व्यवहार के (cruelty), अपने पार्टनर को छोड़कर जाने के (परित्याग- desertion), या शादी के बाहर किसी और से संबंध रखने (adultery) के आधार पर तलाक मांगकर उस शादी को खारिज़ करने की अनुमति देता है। यहां तक कि अगर पार्टनर को एच.आई.वी (HIV) या सिफलिस (syphilis) जैसी संक्रामक बीमारी हो, या कुष्ठ रोग का कोई लाइलाज लक्षण हो, तो विशेष विवाह अधिनियम (special marriage act) के तहत (जो 1954 में लागू हुआ) आपसी सहमति से तलाक की अनुमति दी गई है। और 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (Muslim Personal Law - शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट (application act) में भी ये लागू किया गया था। हालांकि, यह 1976 में आकर ही हिंदू विवाह अधिनियम (hindu marriage act) के तहत मैरिज लॉ (संशोधन) एक्ट (Marriage Law (Amendment) Act) के अंदर शामिल किया गया। फिर 2001 के भारतीय तलाक (संशोधन) अधिनियम (Indian Divorce Amendment Act) ने ईसाइयों के लिए आपसी सहमति से किये गए तलाक को संभव बनाया। लोग लगातार कानून में संशोधन करने के लिए लड़ रहे हैं। अनुचित या अन्यायपूर्ण प्रथाओं के खिलाफ आवाज़ उठाई जा रही है, ऐसी हानिकारक प्रथाएं जिनका समाज अक्सर समर्थन करता है। जैसा कि ट्रिपल (triple) तलाक को हटाने, ईसाई विरासत कानून में (Christian inheritance law) संशोधन करने, वैवाहिक बलात्कार को रोकने और बाल विवाह को रोकने के संदर्भ में हमने देखा है। लोगों ने समाज में शादी को दी जाने वाली प्राथमिकता पर कई सवाल उठाए हैं, उसपर नए विचारों को बढ़ावा दिया है, और उन नए तरीकों को अपनाने की भी कोशिश की है। और ये इसलिए हो पाया है क्योंकि आज हमारे अंदर अधिकारों, न्याय के तरीकों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर जागरूकता आई है। हमारे कानून में शादी के समर्थन में इतने सारे कानून हैं। तो ये देखकर क्या ऐसा लगता है कि लिव-इन रिश्ते (बिन शादी के साथ रहने को) कानून मान्यता नहीं देता? और ये कि कानून भी समाज की तरह दकियानूसी तरीक़े से बिन शादी के साथ रहने को पाप समझता है? आगे पढ़िए, हो सकता है आप हैरान हो जाएं। 'लिव-इन' (Live-in) रिश्ते हमें हमेशा लगता है कि लिव-इन रिलेशनशिप लीगल नहीं हैं। और ऐसा रिश्ता निभाना संघर्षों से भरा रहता हैं, कभी अपने परिवार से तो कभी भावी मकान मालिक के साथ। लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पिछले कुछ वर्षों में, भारत की अदालतों ने कपल्स को विवाहित नहीं होने पर भी एक साथ रहने के अधिकार को बार-बार समर्थन दिया है। लिव-इन रिलेशनशिप को "शादी की प्रकृति" (in the nature of marriage) का ही माना जाता है, अगर लिव-इन में रहने वाले दोनों पार्टनर शादी की उम्र के हैं और अपनी इच्छा से एक दूसरे के साथ लंबे समय से एक गृहस्ती का हिस्सा हैं। यह घरेलू हिंसा अधिनियम (Domestic Violence Act) के तहत महिलाओं के लिए कुछ अधिकार और सुरक्षा भी प्रदान करता है, जिसमें घरेलू शोषण से सुरक्षा, या कुछ मामलों में रखरखाव (maintenance) की सुविधा भी मौजूद है। (हालांकि फिर से, यह केवल विषमलैंगिक (हेट्रोसेक्सयूएल) जोड़ों पर ही लागू होता है - लेकिन हाँ, समय के साथ ये भी बदल सकता है) एक अदालत ने तो हाल ही में कुईर (queer) जोड़ों के लिए इस अधिकार को लागू भी किया था। सितंबर 2018 में जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता के पक्ष में ये कहकर फैसला सुनाया था कि वो कोई अपराध नहीं है, तो उसी समय एक मामले में केरल उच्च न्यायालय ने दो महिलाओं के एक साथ रहने के अधिकार को कानूनी मंजूरी दी थी। एडल्ट्स के बीच सहमति से बनाया गया शारीरिक संबंध अगर दो लोग, जो 18 साल के ऊपर के हैं, अपनी मर्ज़ी से शारीरिक संबंध बनाते हैं, तो उनके रिश्ते को कानून द्वारा वैध माना जाता है। 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, कि अपने यौन झुकाव (sexual orientation) का ख़याल रखना और अपनी पसंद से यौन साथी का चुनाव करना, हर इंसान का मौलिक अधिकार है। उसी दौरान, सर्वोच्च न्यायालय ने ये घोषणा की कि अब कानून की नज़र में शादी के बाहर बनाये गए रिश्ते (adultery) को अपराध नहीं माना जायेगा। (इसके पहले, एक पुरुष जिसने किसी शादीशुदा महिला के साथ उसके पति की अनुमति के बिना यौन संबंध बनाया हो, उसे जेल में डाला जा सकता था)। इसका मतलब है कि आज लोगों को अपने संबंधों को चुनने की और अधिक आज़ादी है, उन्हें इस बात की कम चिंता है कि उनको अपने चुनाव की वजह से कानून द्वारा सताया जाएगा। इसने महिलाओं को भी अपने यौन साथी चुनने की स्वतंत्रता दी है। अब उन्हें अपने पुरुष रिश्तेदारों की देख-रेख और संरक्षण में बंधने की ज़रूरत नहीं है। यौन सहमति (sexual consent) की उम्र जो 16 वर्ष हुआ करती थी, बढ़ाकर 18 कर दी गई। जो लोग 18 वर्ष की आयु के नियम से सहमत हैं ,उनका मानना है कि इससे कम उम्र में होने वाली शादियां जो अक्सर टीन-ऐज प्रेगनेंसी (किशोरावस्था में यौन संबंध बनाने से हुआ गर्भधारण) की वजह से होती हैं, उनपर रोक लगेगी। वे कहते हैं कि इससे बाल शोषण और तस्करी (trafficking) भी कम होगी और युवा जब तक सेक्स जैसी चीज़ को समझने और संभालने के उम्र के नहीं होंगे, बेहतर है कि इससे दूर रहेंगे। जो लोग इसे 16 वर्ष करने की वकालत करते हैं, वो कहते हैं कि ऐसा करने से, सहमति से सेक्स करने पर, किसी युवा को उसके लिए अपराधी तो नहीं समझा जाएगा। उस युवा को सरकारी नैतिकता का दमन तो नहीं सहना पड़ेगा। एडॉप्शन (Adoption) गोद लेना आमतौर पर भारत में परिवारों के भीतर-भीतर ही होता है। या तो बच्चा निकट संबंधियों द्वारा या सौतेले माता-पिता द्वारा अपनाया जाता है। हालाँकि, यदि कोई बच्चा या नवजात शिशु अपने जैविक परिवार/बायोलॉजिकल फैमिली से अलग हो जाता है (फिर चाहे उसे छोड़ दिया गया हो या वो अनाथ हो या उसका और कोई ठिकाना न हो), उसे कानूनी रूप से दूसरे परिवार द्वारा भी अपनाया जा सकता है। उस बच्चे को वही अधिकार प्राप्त होंगे जो नए परिवार में पैदा हुए बच्चों को मिलेंगे। एडॉप्शन एक संस्था के माध्यम से किया जाता है जिसे सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (Central Adoption Resource Authority- ARA) कहा जाता है और कानून के तहत इस गोद लेने को किशोर न्याय अधिनियम (Juvenile Justice Act) तहत कानूनन समर्थन है। एक और कानून है जिसके तहत गोद लेना कानूनी है: हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट (Hindu Adoption and Maintainence Act)। हालांकि, इसके खिलाफ काफी आवाज़ें उठी हैं। एक तो पुराना कानून होने की वज़ह से इसकी कई सीमाएं हैं, जैसे कि: इसके तहत भावी/गोद लेने वाले परिवारों पर जांच की आवश्यकता नहीं मानी जाती है, और यह सुनिश्चित नहीं किया जाता है कि गोद लेने की पूरी प्रक्रिया के बाद कहीं बच्चे तस्करी (trafficking) या किसी और परेशानी का शिकार तो नहीं बनाया जायेगा। एक बच्चे को गोद लेने के लिए, आपको शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्थिर और आर्थिक रूप से सक्षम होना चाहिए। आपको कोई जानलेवा बीमारी भी नहीं होनी चाहिए। जो लोग बच्चे गोद लेना चाहते हैं वे सिंगल या विवाहित, दोनों में से कुछ भी हो सकते हैं। हाल ही में, लिव-इन कपल्स को भी इस लिस्ट में शामिल कर दिया गया है। हालांकि CARA के नियमों में यह नहीं कहा गया है कि गोद लेने वाले जोड़े को विषमलैंगिक (हेट्रोसेक्सयूएल) ही होना चाहिए, लेकिन अभी भी कुईर (queer/समलैंगिक) कपल्स को इसकी अनुमति नहीं है। -------------------------------------------------- - भारत में असंख्य प्रकार के रिश्ते हैं, और कानून और वास्तव में होने वाली प्रैक्टिस के बीच एक धुंधली लेकिन मोटी रेखा मौजूद है। जैसा कि हमने देखा है, समलैंगिकता (homosexuality) हमारे समाज में सालों साल से मौजूद है, लेकिन इसे पिछले साल ही कानून बनाया गया है। हमने ये भी देखा है, कि कानून ने तो समलैंगिकता को स्वीकार कर लिया है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि समाज ने भी इसे व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया हो। हालांकि, हाँ, ये स्थिति भी धीरे-धीरे बदल ही है। कानून का विस्तार हुआ तो है, लेकिन आज भी यह सभी रिश्तों को एक ही प्रकार के अधिकार और सुरक्षा नहीं देता है। ना ही उन्हें समान स्तर की प्राथमिकता मिल पाती है। लेकिन हमारी अपनी सोच क्या है? क्या हम विवाह को एक 'सीरियस' संबंध सिर्फ इसलिए मानते हैं, क्योंकि कानून ऐसा कहता है? और क्या हम दूसरे प्रकार के संबंधों - जैसे कि दोस्ती- को सीरियस रूप में नहीं लेते हैं, क्योंकि कानून ऐसा कहता है? हमारा मन क्या कहता है, हमें अंदर से क्या ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है? शायद इस बात पर विचार करना कि किस तरह के रिश्तों को कानूनी रूप से स्वीकार किया जाता है और किसे नहीं, हमें इस पदानुक्रम / ऊँच-नीच की इस दिमागी सीढ़ी (hierarchy) का फिर से मूल्यांकन करने पे मज़बूर करेगा। और हम ये गहराई से समझ पाएंगे कि आखिर कानून समाज और लोगों- यानी हमारी- की सोच के साथ ही बदलता है।
अलग-अलग रिश्तों के बारे में भारतीय कानून का क्या कहना है?
जब हम कहते हैं कि ये हमारे 'मान्य' (respectable) रिश्ते हैं, जिन्हें हम सामाजिक रूप से स्वीकारते हैं, तो इसका क्या मतलब होता है।
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