माया शर्मा एक नारीवादी और क्वीयर कार्यकर्ता है जो भारतीय महिला आंदोलन का हिस्सा है। राजस्थान में जन्मी, माया ने दिल्ली में साहित्य कि पढ़ाई की। भारतीय महिला आंदोलन और एक्टिविज़्म के संपर्क में आने के बाद उनका जीवन बिलकुल बदल गया। उन्होंने शहरी मध्यम वर्ग के घर में एक गृहिणी के रूप में अपना घरेलू जीवन छोड़ने और एक कार्यकर्ता बनने का फैसला किया। दिल्ली की पुनर्वास कॉलोनियों के लोगों और पूरे भारत में कामगार वर्ग की महिलाओं के साथ उन्होंने जो काम किया था, वो उनके लिए किताब लिखने की प्रेरणा बना। उन्होंने हिंदी में सिंगल वुमन पर एक पुस्तक का सह-लेखन किया है और 2006 में प्रकाशित "लविंग वुमन: बीइंग लेस्बियन इन अनप्राइवल्ड इन इंडिया" जैसी पथ - प्रदर्शक किताब लिखी। यह किताब कामकाजी वर्ग की की महिलाओं की ज़िन्दगी पर आधारित दस कहानियों का संग्रह थी जिसमे बसी थी उनकी अनूठी आवाजें। यह किताब एक अनूठी रचना है जिसने कहानी और शोध को एक साथ जोड़ा, जो हमें भारत के मजदूर वर्ग में महिलाओं से प्यार करने वाली महिलाओं की दुनिया की एक झलक दिखाती है और इसके माध्यम से जीवन, प्रेम और नारीवाद की तरफ एक बहुस्तरीय ध्यान भी खींचा। फ़िलहाल, माया विकल्प (महिला समूह ) वडोदरा में एलबीटी समुदाय के साथ काम कर रही हैं।
यह इंटरव्यू दो अलग समय पर की गयी बातचीत पर आधारित है जो एजेंट्स ऑफ़ इश्क़ ने माया शर्मा के साथ की। स्पष्टता के लिए इनको सरलता के साथ संपादित किया गया है।
एक कार्यकर्ता बनने का आपका सफर कैसा था? और ये सफर, जहाँ अपने कामुकता, पहचान और जेंडर की बात की, कैसे आपको अपनी किताब "लविंग वुमन: बीइंग लेस्बियन इन अंडरप्रिवीलेज्ड इन इंडिया" की ओर ले गया ?
जब मैंने बस्तियों और पुनर्वास कॉलोनियों में काम करना शुरू किया, तो वहां की महिलाओं से बात करते हुए मुझे सबसे अच्छी बात यह पता चली कि वे, जो एक "गैर - राजनीतिक जीवन" जीती है, अपने जीवन के बारे में एकदम उसी तरीके से बात करती है जिस तरह वो उसे जीती है। हम उस सादगी भरे तरीके से बात नहीं कर पाते हैं। शायद हम इतना पढ़-लिख गए हैं की हमारा जीवन असली चीज़ों से बहुत दूर चला गया हैं। हमारा जीवन लोगों को प्रभावित करने, बन-ठन के कपड़े पहनने, बाहर जाने से भरा है... लेकिन इन महिलाओं के तैयार होने और हमारे तैयार होने के तरीके में अंतर है उन बस्तियों की औरतों ने मुझे बताया की भूक दो तरह की होती हैं - एक पेट की भूख और एक कोख की भूख। कोख से उनका मतलब हैं - हमारी कामुकता और यौन इच्छायें। इसीलिए वे अपने जीवन और फीलिंग्स से बहुत करीब थी। तो यह सीख इतनी मूल्यवान रही मेरे लिए की जैसे - जैसे मैं सीखती गयी वैसे वैसे मैं कई अनजान चीज़ो को जाना और उनसे बहुत कुछ सीखने में मदद मिली।
मैं भंवरी के बारे में बात करना चाहूंगी क्यूंकि उससे मैंने बहुत कुछ सीखा । वह 60 साल की औरत थी, तब मैं दिल्ली में काम कर रही थी। जब मैं बस्तियों में जाती थी तो वो 60 साल की औरत ने मुझे बताया की दो औरतें हैं और उनके बीच बहुत ही गहरा प्यार हैं , जिसे आप "दो जिस्म और एक जान" कहते हैं। उन औरतों का प्यार बहुत गहरा और मजबूत था। तो मेरी मुलाकात अक्सर उससे होने लगी। भंवरी ने मुझे ये भी बताया की उसका उसका रिश्ता अपने पति की दूसरी बीवी के साथ भी था. मैंने जब ये सब सुना तो मेरे दिल में एक हलचल सी मच गयी। मैं सोचती थी की कुछ नैतिकता होनी चाहिए - एक पुरुष, एक स्त्र। इस तरह के रिश्ते को समझने में मुझे बहुत कश्मकश हुई क्यूंकि मेरे हालात भी कुछ इस तरह के थे जिसने मेरे नैतिक मूल्यों और विवाह के सभी विचारों को चुनौती दी, मैंने उससे बहुत कुछ सीखा।
सच कहूँ तो मेरे को 10 साल शादी के ऊपर होने के बाद एक औरत से प्यार हुआ और आगे जाके तो दो औरतों से एकसाथ प्यार हो गया था। प्रेम को अपने भीतर बांधकर रखना मुश्किल है। हालाँकि मेरे पास अनुभव था और स्कूल में बहुत औरतों से प्यार भी हुआ पर मुझे नहीं पता था कि मैं असलियत में ऐसी ज़िन्दगी भी जी सकती हूँ क्योंकि एक मध्यम वर्ग की परवरिश में आप पर शादी करने और बच्चे पैदा करने का लगातार दबाव होता है।
अपने आरामदायक मिड्डल क्लास जीवन में पहली बार, मुझे प्यार और यौन इच्छा के बारे में बात करने और व्यक्त करने में सक्षम होने के लिए जगह मिली। पहले मैं सोचती थी की प्यार, उम्र और शादी से बंधा होता है। मुझे ऐसी दुनिया देखने का अवसर कभी नहीं मिला; इन बस्तियों में ही मुझे पहली बार आजादी का अनुभव हुआ ।
जिस तरह से उन्होंने शादी, प्यार और जीवन के बारे में बात की, उससे मुझे ये एहसास हुआ कि हम भी, एक आज़ाद पंछी की तरह खुले आसमान में ऊंची उड़ान भर सकते हैं। इसे महसूस करना यक़ीनन एक व्यक्ति को बदल देता है । इन संस्थानों से बाहर आना उतना आसान नहीं है, बल्कि यह समझना है कि यह एक लगातार चलने वाला संघर्ष है। संगठन और व्यवस्था के ढांचे हमें दबाने की कोशिश करते हैं और यह हम पर निर्भर है कि हम खुद को इन प्रणालियों की जंजीरों से मुक्त करें।
मैंने सोचा मैं भी घरेलु जीवन के बंधनो को तोड़ के, उनसे मुक्त होके, अपनी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी जी सकती हूँ। मैंने ये उस औरत से सीखा, जिससे मैं मिली थी, वो प्यार जो मैंने महसूस किया और शायद उन यौनिक इच्छाओं से जो मेरे भीतर से जाग रही थी।
और क्या इसी कारण से अपने फैसला लिया कि आप एक वंचित भारत में लेस्बियन / क्वीर प्रेम, कामगार वर्ग कि औरतों के बीच के प्रेम, जो भले ही अलग-अलग जगह से आती हो, पर किताब लिखेंगी?
मुझे लगता है कि मेरे अनुभव कुछ ऐसे थे जो समाज के मापदंड थे उसमे ठीक से फिट नहीं हो रहे थे। तो मैंने सोचा कि मुझे मेरी जैसी औरतें कहाँ मिलेंगी जिनसे मैं बातचीत कर सकू। मेरी बहुत ख्वाहिश रही कि मैं मेरी जैसी औरतों से मिलूं। भंवरी जैसी औरतों से मिलू जो बस्ती में रहती है। मैं चाहती थी कि मैं अपने जैसी औरतों को खोज के उनके बारे में लिखूं और जानूं। जैसे जैसे हम बतियाते गए, मैंने अपनी आपबीती सुनाई, उनकी परबीती सुनी तो इन सब बातों के बीच मुझे बहुत कुछ हमारी ज़िन्दगी में रला मिला देखा और बहुत कुछ फ़र्क भी देखने को मिला। और तब मुझे समझ में आने लगा कि प्यार दरअसल ना धर्म को देखता है, ना जेंडर, ना शहर, ना गाँव, वो एक ऐसी चीज़ है जो सबको छु लेती है।
दरअसल मैंने इसे किताब के जैसे कभी सोचा ही नहीं था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं किताब लिखूंगी। जब मैं इन औरतों के साथ काम कर रही थी तो अक्सर मैं जिस भयानक मानसिक तनाव में रहती थी वो अब बेहतर होने लगा क्यूंकि मैंने इन मुद्दों को जोड़ने कि कोशिश कि और इन विषयों पर लिखने के बारे में सोचा। मेरा दिल उन सब लोगों के बारे में लिखना चाहता था जिनसे मैं बस्तियों में मिली। ये लोग उन्ही मुश्किलों , कठिनाइयों का सामना कर रहे थे जिनका सामना मैं खुद कर रही थी, अपनी सेक्सुअलिटी कि वजह से। हालाँकि मेरी मुश्किलें उन लोगों कि मुश्किलों कि तुलना में काफी छोटी थी। इस सच्चाई ने मुझे डरा दिया और मैंने सोचा कि हमारे बारे इस तरह से बात करना बहुत ही ज़रूरी है ताकि उन लोगों को मज़बूत बनाया जा सके जो अभी भी इन हालातों से गुज़र रहे हैं।
जब आप कहते हैं कि 'हमारे बारे में इस तरह बात करें' तो इससे आपका क्या मतलब है और क्यों?
इससे पहले, जब भी हम महिला आंदोलन में अपनी इच्छाओं या समलैंगिक प्रेम के बारे में बात करते थे - हमें काम/मजदूरी के बारे में बात करने के लिए कहा जाता था।
अखबारों ने लेस्बियन्स के बारे में स्पष्ट रूप से कभी बात नहीं की, जिसके कारण लोगों ने हमें यह दिखाने के लिए उकसाया कि हम किन लेस्बियन श्रमिक वर्ग की महिलाओं की मदद कर रहे थे, हमारे इस विवाद को सही ठहराने के लिए कि राजनीतिक रूप से समलैंगिक प्रेम मायने रखता है। ऐसी ही सोच ने महिला आंदोलन की अध्यक्षता की, जिसमें कहा गया था कि यह मुद्दा ज़रूरी या प्राथमिकता सूची में नहीं है ... काश हमारा जीवन ऐसे ही बड़े बक्सों में बंटा होता। लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है।
मुझे याद है ऐसे कुछ ग्रुप्स/ समूह थे जो फायर (1996 ) फिल्म के प्रचार को एक लेस्बियन राइट्स /समलैंगिक अधिकारों की तरह देख रहे थे । वो एक बहुत ही बड़ा समय था हमारी ज़िन्दगी में। कितनी लड़ाइयों - झगड़ों के बाद और ये मना करने बाद कि हम लेस्बियन नाम से कोई पैम्फलेट नहीं छाप सकते और न हीं पोस्टर लगा सकते है - इन सबके बावजूद भी हम लोग सड़क पर आए। एक पोस्टर था जिसे हम सभी ने बहुत संजो कर रखा था, जिस पर लिखा था - "लेस्बियन्स आर इंडियंस" क्योंकि उस समय वे कह रहे थे कि भारतीय समलैंगिक नहीं हो सकते।
और मुझे कैंपेन के दरमियां ही ये एहसास हुआ कि हम लोग बहुत ही शहरी लोग है। और जहाँ मैं काम कर रही थी वहां भंवरी जैसी और भी औरतें थी और मैं यूनियन में भी काम कर रही थी। तो मुझे लगा बहुत सारी औरतें है जिनके जीवन के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते है। मैं और भंवरी जहां काम कर रहे थे, वह अलग जगह और परिस्तिथि थी । मैं कई कारणों से मजदूर वर्ग कि महिलाओं के बीच समलैंगिकता की गैर-मौजूदगी के बारे में लोकप्रिय धारणाओं के बारे में इस चुप्पी को तोड़ना चाहती थी।
हम अभी भी कहते है कि पहले गरीबी हटा दे फिर प्लेज़र के बारे में बात करेंगे । लेकिन क्या यह मानव अधिकारों और आनंद न लेने की इच्छा के विरुद्ध नहीं है? मुझे लगता है कि यह समझ पाना कि हमारी यौन इच्छाएं और हमारी गरीबी दो अलग पैमाने नहीं हैं, जैसे पेट की भूख और कोख कि भूख, हमें करीब ला सकती है।
जब आप इन दो तरह कि भूख के बारे में बात करती हैं, तो यह मुझे याद दिलाता है कि कैसे कहानियां और बातचीत की भावनात्मक और नाटकीय विशेषता कितनी अद्भुत है। भले ही यह शोध और शिक्षा के क्षेत्र में एक किताब है, लेकिन कहानियों के माध्यम से जो जो सामने आती है वो भावनाएं होती हैं। आपके लिए यह महत्वपूर्ण क्यों था?
सिंपल, जीवन जीने के लिए इमोशंस बहुत ज़रूरी है, तो फिर क्यों उनको दबाया जाए ? हमारे को तो हमेशा से ही दबाया जाता आ रहा है !
कहानियां एकदम इमोशंस से भरी पड़ी थी और मुझे चिंता थी कि जो बात भोजपुरी और गुजराती में जिस तरह दिल को छू रही है कहीं वो अंग्रेजी में बेकार न लगे। इसीलिए मैंने कोशिश कि इन इमोशंस को बिलकुल वैसे ही उभारू और दिलों में वही भावनाये पैदा करूँ जो मेरे दिल में पैदा हुई थी। क्योंकि वे भी अपनी यौन इच्छाओं को खुलकर नहीं समझ पा रहे थे कि उनके शरीर को क्या चाहिए। आप जानते होंगे कि अक्सर हम अपने शरीर में जो महसूस करते हैं या हमारी यौन इच्छाएं क्या हैं, हम खुलकर नहीं कह पाते हैं। तो ये ज़रूरी था, कि एक नया रास्ता मुझे यही लगा कि मैं भावपूर्ण रूप से इसको दिखा पाऊं या हमारी बात कह पाऊं।
कहानियों कि सबसे अच्छी बात ये है कि वे जीवन के बारे में सही तरीके से बोल पाती हैं, जिसे शायद राजनीति बयां नहीं कर पाती। मुझे यह भी लगता है कि जब हम कुछ कहने में असमर्थ होते हैं, तो हमें इसे एक कहानी के रूप में बताना पड़ता है, क्योंकि कहानियां डेटा का एक रूप है। मेरा स्वाभाव शायद ऐसा है कि मैं आंकड़ों से बड़ी घबराती हूँ - आंकड़ा बड़ा अखरता है, और संख्या ही एकमात्र प्रकार का डेटा नहीं है।
अगर मैं ये भी कहूं कि ये कहानियां सच्ची है वो भी एक तरह का झूठ होगा। क्यूंकि, हालांकि ये कहानियां सच्ची है है पर मुझे इनको सच्चा ठहराने के लिए "सच" शब्द इस्तेमाल करने कि ज़रूरत नही। इनका अपना वज़न होता है।
लगभग 80 प्रतिशत कहानियों में लोगों ने अपने समलैंगिक प्रेम के बारे में बात करते हुए "लेस्बियन" शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, हालाँकि वे लोग इस रिश्ते को बहुत ही खुल के और गहरे रूप से जी रहे थे और बाकी लोगों ने भी उनके इस रिश्ते को एक रोमांटिक और सेक्सुअल रिश्ता माना। आपकी "लेस्बियन" जैसे शब्द के बारे में क्या राय है ?
मैं खुद एक छोटे शहर से हूँ। मैंने पहली बार लेस्बियन शब्द तब सुना था जब मैं दिल्ली में आयी थी। और उसके बाद लेस्बियन शब्द ही इस्तेमाल होता रहा। ट्रांस शब्द भी इतना उपयोग में नहीं आया था। एचआईवी/एड्स के संदर्भ में भाषा में बहुत परिवर्तन हुआ है और जैसे भाषा के इस्तेमाल में परिवर्तन हुआ तो मुझे ये भी डर लग रहा है कि यह बदलाव हमें अलग - अलग डिब्बों में बाँट रहा है।
एक कार्यकर्ता होने के नाते मुझे पता है कि अगर हम स्टेट के पास जायेंगे तो स्टेट को कैसे कहेंगे? वहां मोर्चा करने के लिए एक शब्दावली होना कितना ज़रूरी है। अगर ट्रांसजेंडर बोर्ड कि हम बात करे तो हमारे सरकारी कर्मचारियों को ट्रांस समुदाय के बारे में तबतक कोई जानकारी नहीं होती जब तक उस शब्द से सम्बंधित एक और शब्द या फिर शब्द और उससे जुड़ी कोई तस्वीर उनको दिखाई नहीं जाती। तो उनको इन शब्दों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इसलिए मेरे हिसाब से इन शब्दों का इस्तेमाल समझना चाहिए अगर हमें अपनी लड़ाई लड़नी है। इसके अलावा, मुझे नहीं लगता है कि इन शब्दों का असल ज़िन्दगी और आप किस तरह से उसे जी रहे है, कोई तालुक़ है।
मुझ ये लगता है कि एक संस्कृति के रूप में हम खुद को शब्दों से ज़्यादा इशारों में बयां करते है। इसलिए कुछ हद तक हमारे पास उस तरह के शब्दों का भण्डार नहीं है जिसे हम आज क़ानून के सामने भी आसानी से इस्तेमाल कर सकते है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि इस तरह के प्रेम को स्वीकारा या समझ नहीं जाता है। मैंने गाँवों में ये भी देखा है कि लोग अक्सर ट्रांसमेन को "भाई" या "बाबू" भी इस्तेमाल करते है। तो समझाने का तरीका अलग है।
टर्मिनोलॉजी सचमुच बहुत बाँट देती है। बहुत सी सीमाएं पैदा करदेती है जैसे समाज पुरुष और स्त्री को एक डिब्बे में फिट करने कि कोशिश करता है। पहचान के जो इतने शब्द है वो हमें बाँध देते है।
अपनी किताब के अंत कि बात करूँ तो मुझे हैरानी हुयी कि लोग शब्दों और उनसे जुड़ी पहचानों के पीछे इतना क्यों भागते हैं? जैसे जैसे हम क्वीर मूवमेंट में आगे बढ़ रहे है वैसे ही लोग भी पहचान कि सीमाओं से बाहर निकलना चाहते है। तो मुझे लगता है कि शायद हम इस आंदोलन में थोड़ा बहुत मच्योर भी हो रहे है। हम समझ रहे हैं कि हमारी जो पहचान है वो कितनी उलझी हुई है, गड़बड़ है जो कि इतनी सारी सीमाओं के अंदर नहीं समा सकती है। और मुझे अच्छा लगता है कि हमारी पहचान इस तरह से है। क्यूंकि यही ज़िन्दगी कि सच्चाई है।
क्वीर लव और लुका-छुपी/ छुप -छुप के प्यार करने का हमेशा से कुछ ना कुछ गहरा रिश्ता होता है। लेकिन आपकी किताब ने जिस तरीके से उन लोगो के ज़िन्दगी में आज़ादी की बात की, जिन लोगो से आप मिले और साथ ही में कैसे उनमे से कुछ लोगो ने हिंसा और उत्पीड़न का अनुभव किया, इन सबने हमें आश्चर्यचकित कर दिया। यह एक पेचीदा सा दोहरापन है।
तो अक्सर ये होता है जब हमें अपने प्यार के बारे में मालूम होता है, हम सब नैचुरली कोशिश करते है कि जिसे चाहते है हम उसके करीब जाएँ, उनके साथ हम अपनी रोज़मर्रा कि ज़िन्दगी काटें। तो बहुत सारे कपल्स हैं जो शहर - गाँव से , इधर उधर भागके अपना जीवन साथ गुज़ारने लगते हैं। और अगर हम पिछले इतिहास उठा के देखेंगे तो लगेगा की, स्पेशली जो शरीर से स्त्रियां हैं, उनकी बड़ी गुमनामी है इतिहास में। दरअसल हम उनके प्यार के बारे में बहुत ज़ाहिर रूप से बात नहीं करते है। पर एक क्वीर कपल की तरह रहने के लिए उन्हें ज़्यादातर छुपके रहना पड़ता है।
तो हम जैसे लोग (क्वीर) या हाशय पे जो लोग रहते हैं और जो दबे हुए वर्ग से हैं, एक दोहरी चेतना में जीते हैं। वो एक बहुत गहरी समझ रखते हैं अपने स्वयं की और दूसरों की जो सुविधाजनक वर्ग से आते है। तो जब हमको ये समझ आ जाती है तो, बहुत बार उस ढाँचे में हम ऐसे ढल जाते हैं की हमारा रंग भी उस ढाँचे की तरह हो जाता है। वो नज़र नहीं आता है। हम वह व्यक्ति बन जाते हैं जो वे चाहते हैं कि हम बने, खुद की पहचान होते हुए भी।
और एक बात मैं ज़रूर कहना चाहूंगी, शायद मैं राजनीतिक रुप से गलत (politically incorrect ) हूँ, पर लुका-छुप्पी में भी अपना ही एक अलग मज़ा है। मतलब ये एक रोमांचक सफर है। और मैं ये नहीं कह रही की हमे खुल्लम खुल्ला प्यार नहीं करना चाहिए पर छुप छुप के प्यार करने का भी एक रोमांच है, एक मज़ा है। मुझे ये डर ही कहीं हम ये प्यार में जो ये मज़ा है वो ना खो दे।
क्या आपको लगता है शादी करने का अधिकार ऐसी दोहरी ज़िन्दगी जीने से बचा सकता है ?
ये जो शादी की व्यवस्था है वो बहुत जकड़ी हुई है और जाति से जुड़ी हुई है। ये प्रॉपर्टी , बच्चे, जाति, इत्यादि से जुड़ा है और ऐसे बहुत सारे पहलु है जो शादी जैसे रिश्ते को समाज का मज़बूत हिस्सा बनाते है। लेकिन शादी पे बात करना ज़रूरी है क्यूंकि इसमें बहुत लोगो को ज़बरदस्ती बाँधा जाता है। इसीलिए मुझे लगता है शादी की व्यवस्था में जो गैर बराबरियाँ है उनको समझना बहुत ज़रूरी है।
पर हमारी आस पास की दुनिया में, ज़िन्दगियों में, ऐसी बहुत सी चीज़े है जो शादी को चुनौती देती है। यहाँ तक की गाँव में भी कई घर ऐसे है जो फीमेल-हेडेड (जहाँ औरतें परिवार की मुखिया है) है। कई मुस्लिम और दलित औरतें शादी को धर्म से नहीं जोड़ती हैं और चाहें तो, अपने पति को भी छोड़ सकती हैं। शादी को लेकर उनके ख्याल बहुत ही प्रैक्टिकल है । उन्होंने अपनी शादियां छोड़ दी हैं, या अपने पतियों के साथ रह चुकी हैं लेकिन शादी से बाहर अपने रिश्ते बनाए रखती हैं।
मुझे लगता है कि एक क्वीर जोड़े के रूप में अगर हम शादी करने के अधिकार कि मांग कर रहे है तो हमें उस शादी के रिश्ते को एक अलग तरीके से सोचना पड़ेगा।
क्वीर लव को ध्यान में रख के, हम कैसे शादी जैसे रिश्ते को एक नया रूप दे सकते है ?
जब हम प्यार में पड़ते है, तो हम इस जूनून और प्यार का जश्न मनाना चाहते है, और एक दूसरे में विश्वास रखने का तरीका निकालते है।औरतों ने बहुत ही खूबसूरती से अपने रीती रिवाज़ो में एक ऐसी जगह धुंडी है।
जैसे कि, गुजरात में माही नाम कि एक नदी है जहाँ लोग नदी में खड़े होके सच ही बोलेंगे । अक्सर मैं जिन औरतों के साथ काम करती हूँ, उन्होंने भी नदी में खड़े होके, सूरज के सामने, पानी अपनी हथेलियों में भरके एक दुसरे से वादा करा। और बहुत सालों पहले भंवरी ने भी नदी में खड़े होके अपनी साड़ियां अरस पारस बदली, अपनी सहेली के साथ और वादा किया।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि हम लोग शब्दों से ज़्यादा इशारो का इस्तेमाल करते है। मैंने बहुत ढूंढा कि किसी को "आयी लव यू (मैं तुमसे प्यार करता हूँ)" कहने का क्या मतलब होता है और मैंने यही सवाल कई लोगो से भी पूछा। जब आप किसी का खाना कहते है तो ये प्यार खाने के लिए होता है या किसी और चीज़ के लिए? और यही चीज़ हमें लगता है हमारी कहानी में भी है। हम बादल के बरसने से अपनी इच्छाएं व्यक्त करेंगे, हम खाने कि मेज़ भी सजाके रखदेंगे… तो मुझे लगता है कि चुप्पी में भी एक रोमांस और रोमांच है।
मुझे लगता है सेक्सुअल का मतलब ही अलग होता है अलग अलग लोगो के लिए। जैसे भंवरी ने कहा था मुझे कि किसी ने मुझे ऐसे छुआ ही नहीं उसके खुरदरे हांथों से और मैंने जो अनुभव करा उसको क्या कहेंगे? मुझे लगता है कि सेक्सुअल कि परिभाषा बहुत विस्तृत है और वो हमारे हर एक कण - कण में है। उसको बैडरूम तक सीमित करना या एक अंग तक सीमित करना या यौन अंगो तक सीमित करना वो भी एक प्रॉब्लम है।
ऐसे लगता है आप एक ऐसी फेमिनिस्ट (नारीवादी कार्यकर्ता) और कार्यकर्ता है जिसको प्यार मोहब्बत के बारे में बातें करना खूब पसंद है। तो आपके हिसाब से प्यार कि क्या परिभाषा है ? और कैसे हम अपने आप को प्यार करने के लिए और खोल सकते है ?
मुझे लगता है प्यार एकदम पानी कि तरह है उसे शादी में बांधना या किसी ढाँचे में सजाना बहुत मुश्किल है। इसीलिए हम जैसे लोग जो हाशय पे जीते है, हमारे लिए बहुत मुश्किल होता है जी पाना और रोज़मर्रा का संघर्ष करना। प्यार कि परिभाषा करना तो बहुत मुश्किल है पर अगर प्यार के बारे में सोचूँ तो मुझे लगता है कि तह में सिमटा एक तूफ़ान है या बूंद में समाया पूरा आसमान।
प्यार कि कोई एक राह नहीं है जिसे हमें पकड़ने कि ज़रूरत हो। हमें बस एक दूसरे को सुनने कि ज़रूरत है।
“सिंपल, जीवन जीने के लिए इमोशंस बहुत ज़रूरी है, तो फिर क्यों उनको दबाया जाए ?” लेस्बियन इश्क़ और आज़ादी का सफर, माया शर्मा के साथ
माया शर्मा के साथ एक इंटरव्यू
लेखन : माया शर्मा
चित्र: शिखा श्रीनिवास
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