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सेक्स में मदहोश पर क्यों लगे दोष - मेरी कामनाओं के साथ मेरा रिश्ता

सेक्स में दोषी फीलिंग्स से ले कर संतुष्टि तक का सफर |


  मेरी सेक्सुअलिटी से मेरा रिश्ता किसी जंगली जानवरों पर बनी डाक्यूमेंट्री से कम नहीं  रहा  है। कभी-कभी मैं हट्टे-कट्टे जहरीले मर्दों के चंगुल में फंसी शिकार होती हूँ, तो कभी-कभी शातिर शिकारी। और मेरे प्रियजन दूर से देख, बड़ी शांति से कमेंटरी करते रहते हैं, वाइल्ड-लाइफ शो के प्रसिद्ध एंकर, डेविड एटनबरो, की तरह। उनको आगे आने वाली आपदा का पता होता है। तो आखिर मैं यहाँ कैसे पहुंची, और क्योंसच कहूँ तो मैं अभी भी अपनी बालकनी की सुनहरी रौशनी के नीचे पिचपिचे चुम्मे ले- दे के, इस सवाल का जवाब ढूंढ रही हूँ। और बार-स्टूल के इर्द-गिर्द पैर पर पैर चढ़ाने  वाले खेल के बीच भी। मैंने ऐसी कई सुबहें बिताई हैं, जहां खुद का चेहरा हाथों में लेकर खुद से ही दबी आवाज़ में हौले से पूछा है- "अनथ्या, तुम ऐसी क्यों हो?" और मेरी इस सोच में डूबी, आत्मदोष की भावनाओं पर, मेरे उबर टैक्सी का ड्राइवर, ब्रेक लगाता है "मैडम आपका घर गया।" मैं लोगों को 'ना' नहीं कह पाती हूँ और इसी वजह से अक्सर ये महसूस करती हूँ, कि मैंने कुछ बुरा किया है । कभी-कभी तो इस वजह से परेशानी में भी पड़ी हूँ। परेशानी से मेरा मतलब है, अकेले केमिस्ट के पास आई-पिल खरीदने जाना। मैं उस टाइप की हूँ, जिसे लोग 'सबको खुश करने वाला' कहते हैं। हालांकि लोग मुड़कर मुझे उस तरह खुश करने की कोशिश नहीं करते ।  मैं कई बार अपनी कामुकता को जांचने के लिए  सच्चे दोस्तों के बीच बैठी हूँ। जिस एकमात्र सवाल का जवाब मुझे चाहिए, वो ये है कि- अपनी शारीरिक इच्छाओं को पूरा करने पे मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैंने कोई अपराध कर डाला है? और भले ही ऐसा लगे कि इन इच्छाओं का कोई अंत नहीं है, सच तो यही है ना कि वो नेचुरल हैं। हमारी सेक्स करने की, प्यार करने की, उन्माद की (जो भी नाम दो- मैं लोकतंत्र में विश्वास रखती हूँ ), सब इच्छाएं लाजमी हैं। तो, जब हम आज़ाद तरीकों से इन इच्छाओं को पूरा करने निकलते हैं, तो फिर अपराधी महसूस करने का क्या कारण है?     शुरुआती दिनों में तो मेरा सेक्सुअल अनुभव मर्द को आनंद देने तक ही सीमित था। इस राह पर दो साल बिता के, फिर ये पता चला कि मुझे भी उन्माद का आनंद मिल सकता है। जो शुरू में मैंने सोचा था, कि सेक्स अकेले खिलाड़ी का खेल है, अब पता चला कि इस गेम में  ‘मल्टी-प्लयेर ऑप्शन’ भी है, दरअसल और खिलाड़ी हो सकते हैं । इस आभास से मुझे एक तरह की आज़ादी मिली और मैं अपनी इच्छाओं पर ध्यान देने लगी।  ये इच्छाएं मुझे अक्सर मंद रौशनी वाले कमरों में नयी खोज करने के लिए, कोई जांच करने के लिए ले गयीं । पर जल्दी ही मुझे पता चल गया कि वहां मुझे आनंद तो मिल रहा था लेकिन इज़्ज़त नहीं। मैं अभी भी तनी हुई रस्सी पे चल रही थी, मेरे पैर जमीन पर मजबूती से नहीं टिके थे। नहीं, मैं उस सुखद मदहोशी वाले पल की बात नहीं कर रही हूँ जो उन्माद के बीच अनुभव होता है। जितनी कम इज़्ज़त मेरे सेक्सुअल अनुभवों के दौरान मुझे मिली, उतनी ही कम इज़्ज़त मैंने खुद को दी। और ऐसे में ही अपराध-बोध नाम के राक्षस का जन्म हुआ। मैं अपने आप को बुरा भला कहती, शॉवर में खुद से बातें करती और अपने आपको समझाती रहती कि मुझे सेक्स त्याग देना चाहिए। और ये, कि मैं उससे मिलने वाले आनंद के लायक ही नहीं थी। मैं अपने बेडरूम में पैदा होने वाली स्थिति को बदलना चाहती थी। क्योंकि अब पहले जैसा कुछ भी नहीं था। अब मैं वो नादान लड़की नहीं थी जो बस दूसरों के आनंद के लिए सेक्सुअल प्रक्रिया करे। मैं जान चुकी थी कि सुख के इस सागर में, जिसके साथ मैं सो रही थी, मेरा भी बराबरी का, या शायद उससे ज़्यादा ही हिस्सा था। तो एक तरह से, चीजों को बदलने की ज़िम्मेदारी, मेरी थी। मेरे भगशेफ (clitoris) की संतुष्टि और मेरे मानसिक सन्तुलन की बागडोर सही मायनों में मेरे ही हाथों में थी। धीरे-धीरे मुझे ये भी एहसास हुआ, कि मेरे इस अपराध बोध वाली भावना के पीछे हमारी सामाजिक कंडीशनिंग का भी हाथ था।  खासकर तब, जब आपकी माँ ने कड़ी हिदायत दी हो कि "जब तक आप 25 साल के नहीं होते, तब तक कोई बॉयफ्रेंड नहीं" लेकिन आपका किशोर मन तो तकिये के साथ लिपट चिपट के थक चुका है, और उसे एक इंसान के स्पर्श  की तलब होती है। लेकिन इसके अलावा, मैंने ये भी देखा है कि ये कुछ गलत करने वाली फीलिंग इसलिए भी पैदा होती है, क्यूंकि आपके रिश्तों में लक्ष्मण रेखाओं को ठीक से बाँधा ही नहीं गया होता। अगर मैं अपने लिए, साफ-साफ लफ़्ज़ों में सीमाएं तय ना करूं, तो ज़ाहिर सी बात है कि दुर्घटना का खतरा ज़्यादा रहेगा।  हममें से अधिकांश लोग अपनी असली इच्छाओं का चेहरा देखने से कतराते हैं , उनको पहचानने से ही इंकार कर देते हैं। जब तक  मुझे अपनी चाहतों को खुलकर कुबूलने का  मौका मिला, मैं भी उसी नक्शे कदम पर चल रही थी । जब हमारी चाहतों पर ध्यान नहीं दिया जाता है, तो उन चाहतों की ओर आगे बढ़ना, किसी पाप जैसा लगता है। ये डर सताने लगता है कि ऐसा करने से कहीं इज़्ज़त की धज्जियां न उड़ जाएँ । मैं तो वो इंसान हूँ, कि गर्मी की छुट्टी में अगर कहीं टांका भिड़ा, तो बस, मैं सीधे प्यार में पड़ जाती। या जो बस कुछ घंटों की बातचीत के बाद सामने वाले के साथ बिस्तर में कूद जाती। मेरा दिमाग यही मानता है कि ये थोड़ा सा समय ही किसी इंसान को जान लेने के लिए काफी होता है । लेकिन दरअसल सच्चाई ये है कि मैं अपनी कमज़ोरियों, अपनी निजताओं को किसी ऐसे इंसान के सामने खुल्लम खुल्ला रख डालती हूँ, जिसके साथ मैंने सिर्फ  पसंदीदा रंग और फिल्मों, जैसी सतही बातें शेयर की हैं l मैं कभी इतनी हिम्मत जुटा ही नहीं पाती, जिससे सामने वाले को अपनी चाहतें सहजता से बता पाऊं। और जब आप केवल दूसरे की चाहत के आधार पे सब कुछ करते हो, तो अपनी इज़्ज़त कम होती लगती है। फिर लगता है कि आखिर आपने अपनी प्यास बुझाने की कोशिश ही क्यों की? आपको खोखलेपन और अपराधबोध का एहसास होने लगता है। प्यास बुझाने के बाद ये खोखलापन और अपराधबोध पूरी ताकत से आपके ऊपर हावी हो उठते हैं । इन सभी टेस्ट और सही-गलत अनुभवों से मैं इस नतीजे पे पहुंची हूँ, कि अगर हम अपनी ज़रूरतों को पहचानें, समझें और अपनाएं, तो खुद से खुद की ये लड़ाई रोकी जा सकती है। आप तो शिकार हैं और ही शिकारी। आप बस एक इंसान है जिसे अपनी चाहतों को पूरा करने का पूरा अधिकार है।       अनथ्या बालचंद्रन एक 22 साल की लेखिका हैं। वो आज भी वयस्कता (adulthood) के अच्छे-बुरे पहलू टटोल रही है। और अपने पिल्ले के प्यार से सहारे जी रही है। 
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