यह संपादित भाग माया शर्मा की किताब ‘लविंग वीमेन: बीइंग लेस्बियन इन अनप्रिवीलेज्ड इंडिया’(Loving Women: Being Lesbian in Unprivileged India) का हिस्सा है| दिल को छूने वालीं दस संवेदनशील कहानियों के ज़रिये, ये किताब उन औरतों या जिन्हें जन्म पे औरत की पहचान दी गयी है, की बात बताती है, जो इंडिया के छोटे शहरों और गाँव की, वंचित समाज की हैं, और जिन्हें दूसरी औरतों से प्रेम है l
इस भाग को यहाँ पब्लिश करने के लिए माया शर्मा और योडा प्रेस को हम प्यार भरा धन्यवाद देते हैं | आप अपनी कॉपी अमेज़न किन्डल और जगरनौट एप्प से खरीद सकते हैं|
सुभाष कैम्प के टीवी एंटेना, उलझे तार, किसी टूटे गमले से अचानक उभरी हरी पत्तियां, और फेंके हुए सामान के टुकड़ों के बीच हमारा जमावड़ा होता था । सुभाष कम्प यूं तो अवैध था, पर यहां हमारे महिला ग्रुप में, दर्ज़नों औरतें आती थीं, अपनी और दूसरों की ज़िन्दगी में कुछ बेहतर बदलाव लाने के लिए। किसी लीगल कागज़ पर भले ही हमारा नाम नहीं था, पर असल में हमारा ग्रुप काफी फेमस था।
एक संडे बाबूलाल नाम का एक कंस्ट्रक्शन वर्कर अपनी पत्नी मीना के साथ हमारी बैठक में आया। "कुछ लोगों ने हमें आपके ग्रुप के बारे में बताया, इसलिए हम आपके पास आए हैं। क्या आप हमारी मदद करेंगी?"
"शीला शर्मा पिछले दो सालों से हमारे घर में रह रही है। ना ही वो घर खाली करती है और न ही किराया देती है। हर बार जब भी हम उसे घर खाली करने को कहते हैं, तो गुंडे या पुलिस लेकर हमें धमकाती है। वो पड़ोस की एक शादी में, पार्टी के लिए आई थी। वहाँ उसने हमारी बेटी लाली के साथ दोस्ती कर ली। तब उसने हमें ये बताया कि वो छोटी उम्र में ही अनाथ हो गई थी, और परिवार के नाम पे बस उसकी एक शादी शुदा बहन है, जो यमुना पार रहती है। हमें उस पे दया आ गयी और हमने उसे कहा कि जब तक उसकी नौकरी न लग जाए वो हमारे साथ रह सकती है। दो महीने तक हमने उसका खर्च उठाया। फिर उसे नौकरी मिल गई। तो हमने उसे अपनी दूसरी मंजिल किराए पर दे दी..."
"तो आपकी बेटी का इस सब पर क्या कहना है? वो कहाँ है ?"
"हमने उसे उसकी बहन के घर भेज दिया है। पता नहीं उसके ऊपर कौन सा भूत सवार हो गया है। जब देखो उसे शीला के साथ ही रहना है। दोनों मानो अलग ही नहीं होते थे। साथ ही खाना, सोना, घूमना। ऐसा लगता है, जैसे उसने अपने परिवार को पुराना फर्नीचर समझ कर, दरकिनारे कर दिया है।"
अब हमारे लिए तो ये साफ था, कि मुद्दा मकान मालिक-किरायेदार के बीच की कहा-सुनी नहीं, बल्कि दो औरतों के बीच का आकर्षण था। ये एक इमोशनल एंगल था। भले ही ऐसा सीधे तौर पर कहा नहीं गया था, पर कहानी साफ थी।
मैंने कहा कि इस केस में घुसने से पहले मुझे लाली से मिलना होगा। ताकि कहानी उसके मुंह से भी सुनी जा सके। हालांकि, मुझे पता था कि टॉपिक थोड़ा सेंसिटिव था और मेरी टीम ने कभी समलैंगिक संबंध को हैंडल नहीं किया था। इसलिए मुझे ही मुख्य रूप से इस केस को संभालना था।
बाबूलाल ने जोर दिया कि हमें उसके साथ शीला के गाँव चलना चहिये। वो गाँव जहां शीला ने बताया था कि उसका जन्म हुआ था। शायद वहां से कुछ इनफार्मेशन मिल जाये।
गाँव हरियाणा में था, दिल्ली से कुछ दो घंटे की दूरी पर।
हमारी पूछताछ से पता चला कि शीला वास्तव में वहाँ रहती थी। ऐसा लग रहा था कि लोग ना ही सिर्फ उसे जानते थे, बल्कि उसे पसंद भी करते थे। वो एक औरत की ट्रेडिशनल इमेज और रोल, दोनों से ही बहुत अलग रही थी। फिर भी लग रहा था कि आम तौर पर गाँव के घरों में शीला के आज़ाद तौर तरीकों पे किसी को इतराज़ नहीं था। लोगों ने उसके बारे में अपनी राय बताई। वो 'बुरी औरत' नहीं थी। उसका किसी मर्द से कोई चक्कर नहीं था, इसलिए उसके चरित्र पे भी कोई दाग नहीं था। पर बाद में लोगों को ऐसा पता लगा कि वो औरतों को बेचने का धंधा करती थी। उसका एक मुस्लिम औरत के साथ करीबी रिश्ता था। ऐसी दोस्ती जो किसी को भी साफ नजर आये। जब उस मुस्लिम औरत के परिवार को पता चला कि उनकी बेटी, शीला से अपनी दोस्ती की वजह से शादी करने के लिए तैयार नहीं है, तो उन्होंने शिला को गाँव से बाहर निकालने की साजिश रची। लेकिन जिस दिन उसकी दोस्त की शादी होने वाली थी, शीला छुपे से लौट आई और उसके साथ भाग निकली। एक हफ्ते बाद दोनों को पास के एक गाँव में देखा गया और जबरन वापस लाया गया। शीला को दो दिनों तक कमरे में बंद रखा गया, पीटा गया। ये मालूम करने के लिए कि वास्तव में वो औरत है भी या नहीं, उसके कपड़े उतारे गए। रिहा करने से पहले, उसके चेहरे पे कालिख पोतकर, चप्पलों की माला पहनाकर, उसे पूरे गाँव में घुमाया गया। एक आदमी जिसने इस पूरे कांड में भाग लिया था, गर्व से बोला, "हमने पुलिस को इस घटना की सूचना नहीं दी, क्योंकि आखिर हमारी बेटी को ही इस सबमें घसीटा जाता। ऊपर से दो औरतों के बीच ऐसे रिश्ता की बात से पूरे गाँव की बदनामी होती। तो बस हमने मामला खुद ही सलटा लिया।"
शीला के साथ किस कदर बेरहमी हुई थी, इसे सोक पाने में हमें बहुत वक्त लगा। और उसे इन्साफ दिलाने के लिए तो कुछ भी नहीं किया गया था, कुछ भी नहीं ।
तीन दिन बाद हम लाली से अपने ऑफिस में मिले। बिना किसी हिचकिचाहट या शर्म के उसने कहा, "मैं शीला से प्यार करती हूं। मैंने तो उसे अपना सब कुछ दे दिया। लेकिन उसने मुझे धोखा दिया है।"
ये सुनकर, बाबूलाल ने गुस्से में, झट से अपना मुँह फेर लिया। लेकिन मीना, शीला की माँ, अपनी बेटी को प्यार से ही देखती रही। शायद वो उसे समझ पा रही थीं!
"उसने तुम्हें धोखा दिया है! कैसे?"
"वो किसी और से प्यार करती है। दिन-रात उसी के साथ रहती है। मैंने उससे प्यार किया। उसका सारा काम करती थी। खाना पकाना, झाडू लगाना, सिलाई करना, साफ-सफाई करना- सब कुछ।" फिर अचानक, लाली रुकी और उसने हमसे पूछा, "क्या आप उससे मिले हैं?"
मैंने अपनी अंतरात्मा को चुप कर, झूठ बोल दिया। "हां, हम उसे मिले, पर वो तो बता रही थी कि तुमने उसे धोखा दिया है। तुम अपने परिवार के दबाव में आ गयी। वो बोल रही थी, कि जो लोग अपने प्यार को धोखा देते हैं, वे दोस्त नहीं होते हैं, बल्कि ...।"
लाली ने भड़क के मुझे वहीं रोक दिया। "उस ने मुझे धोखा दिया है! उसने मेरी भावनाओं और मेरे शरीर, दोनों का इस्तेमाल किया है। जब उसका मेरे साथ रिश्ता था, तब भी वो पड़ोस की दो और लड़कियों के साथ संबंध बना रही थी।" आवेश में वो आगे बोल नहीं पाई। उसके आंसू बह निकली, आवाज़ कंपकपा गई। उसने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे।
अगले दिन हम सुबह-सुबह ही बाबूलाल के घर पहुँचे। "शीला बस अभी-अभी निकली है। ज्यादा दूर नहीं गई होगी।" उसने हमारे आते ही कहा। लेकिन ढूंढने पर भी वो हमें नहीं मिली ।
फिर बाबूलाल हमें दूसरे इलाके में ले गया, जहाँ शीला की सहेली लक्ष्मी रहती थी। "शायद वो बता सकती है कि शीला कहां मिलेगी।"
हमने लक्ष्मी का दरवाजा खटखटाया। दरवाज़ा खुला तो अंदर दो मर्द और एक औरत थे। हम अंदर गए और सीधे-सीधे पूछा, "हमें पता है शीला शर्मा यहां आई है। कहाँ है वो?"
"मैंने काफी दिनों से उसे नहीं देखा। हमारा झगड़ा हुआ था और तब से उसने यहां आना बंद कर दिया है। लेकिन आप उसके बारे में क्यों पूछ रही हैं?'' लक्ष्मी ने कहा।
हमने अपना परिचय दिया और उसे अपने काम के बारे में भी बताया।
उनके मन में संदेह था। लेकिन जब हम थोड़ी देर बैठे और बातचीत की, उनको थोड़ा भरोसा हुआ और वो रिलैक्स हुए। लक्ष्मी ने फिर हमें उन दोनों मर्दों का परिचय दिया- कहा कि एक उसका पति है और दूसरा उसका देवर। लक्ष्मी और उसके 'पति' की वास्तव में शादी नहीं हुई थी, लेकिन वे एक साथ रह रहे थे। लड़के का परिवार नार्थ इंडिया से था और ठाकुर जाति का था। लक्ष्मी का परिवार साउथ से था और क्रिस्चियन था। अगर उनका रिश्ता समाज के सामने आता तो उन्हें सैंकड़ों सवाल, अपमान और विरोधों का सामना करना पड़ता। उनके सभी युवा दोस्त, लड़के-लड़कियां, उन्हें सपोर्ट देने घर आया करते थे। इसलिए आस-पास के लोगों को लगा कि वे कोई वेश्यालय चला रहे थे।
ये दिल्ली का वो इलाका था जो कानूनन मान्यता के बिना, अपने आप ही बस गया था । वहां बसने वालों की उमड़ती बढ़ती जरूरतों और संख्याओं के ज़ोर पर, उस जगह ने बाद में वैधता हासिल कर ली थी।
ये इलाका उन लोगों को शरण देता था जो काम की तलाश में थे, गुमनाम हो जाना चाहते थे, कोई आश्रय ढूंढ रहे थे या पुरज़ोर आज़ादी चाहते थे। या फिर शीला और लक्ष्मी की तरह नियम तोड़ भाग निकले थे, और अपनी पहचान बदलना चाहते थे। ये इलाका बिना किसी भेद-भाव के, सबको अपना लेता था।
जब हम सब चाय पी रहे थे, तो लक्ष्मी के पति ने मुझसे अपने दिल की बात कही। उसने बताया कि शीला आमतौर पर पास के एक पानवाले की दुकान पर जाया करती थी। थोड़े असमंजस में, उसने कहा, "मुझे तो शीला कभी समझ में ही नहीं आई। जवान औरत है, मगर सिर्फ दूसरी औरतों के साथ ही दोस्ती रखती है। यहां भी हमेशा लक्ष्मी से चिपकी रहती। कुछ दिन बाद तो मुझे सब अजीब लगने लगा। बस, मैंने लक्ष्मी को बोल दिया कि उससे दूर रहे और उसे यहां आने भी ना दिया करे।"
जैसे ही हम वहां से निकले, हमने देखा कि बाबूलाल काफी हड़बड़ी में हमारी ओर आ रहा है।
"जल्दी चलिए, शीला पानवाले की दुकान पर है," उसने अपनी फूलती सांस रोकते हुए कहा।
हम दुकान के पास पहुंचे ही थे, कि बाबूलाल ने हमें रोककर इशारा किया। वहां सफेद शर्ट और हरे रंग की पैंट पहनी एक युवा औरत खड़ी थी। उसके बाल बहुत छोटे थे। वो खाकी वर्दी पहने दो पुलिसवाले के बीच अपने पाँव थोड़े फैलाके, आराम से बैठी थी । वो इस मर्दों वाले पब्लिक माहौल में, उन्हीं में से एक के साथ, बिल्कुल आराम से अपनी चाय पी रही थी ।
हमने पीछे से आकर, उसकी पीठ पे हाथ रख, बड़े ही केज़ुअल तरीके से कहा, "तुम यहाँ हो, और हम तुम्हें कहां-कहां ढूंढ रहे थे।" शीला चौंक गई। इससे पहले कि वो जवाब दे पाती, पानवाले ने हमसे पूछ डाला, "आप लोग यहां फिर से? पिछली बार तो आपने हमारे इलाके के लड़कों को पुलिस से छुड़ाया था। इस बार क्या आन पड़ी?"
हममें से एक ने शीला को दुकान पर बैठे दूसरे लोगों से थोड़ा अलग किया और कहा, "तुम जबरदस्ती किसी के घर पर कब्जा नहीं कर सकती। हमने ये भी सुना है कि तुम औरतों को बहलाती हो और उनका धंधा भी करती हो।"
"मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है," उसने घबराकर कहा। "अगर आप बाबूलाल के घर की बात कर रहे हैं, तो मैं आपको बता दूं कि मैंने उस आदमी को अपने 20,000 के गहने संभालकर रखने को दिए थे। अब वो इस बात को मान ही नहीं रहा है। अगर आप इससे मेरे गहने वापस दिला दें, तो मैं अभी घर खाली कर दूंगी।"
"चलो, तुम्हारे घर चलकर बात करते हैं।" हमने कहा।
"मेरी जिंदगी तो एक खुली किताब है। आपको जो कुछ भी कहना है, यहीं कहिए। ये लोग मेरे बारे में सब कुछ जानते हैं।"
अब हम दुविधा में पड़ गए। ऐसे सार्वजनिक जगह पर लाली के साथ उसके संबंधों की बात करना कितना सही होगा? "ये सिर्फ एक मकान मालिक-किरायेदार के बीच का झगड़ा है या इसमें तुम्हारी कोई प्रेम कहानी भी छुपी है? तुम लाली से प्यार करती हो, उसके साथ तुम्हारे सेक्सुअल संबंध भी हैं, है ना? उसे लगता है कि तुमने उसे धोखा दिया है। वो कह रही थी तुम अगर उससे एक बार मिल सको...।"
हमने उसकी दुखती रग पे हाथ रख दिया था। आंसुओं के ज़ोर से भारी आवाज़ से उसने कहा, "चलिए, मेरे घर चलते हैं। मैं आपको सब कुछ बताऊँगी।" जैसे ही हम थोड़ा आगे बढ़े, हमने एक आदमी को पीछे से कहते सुना, "अजीब बात है, दो औरतें ये सब कैसे कर लेती हैं?" रास्ते में शीला ने हमसे कहा, "मुझे पता नहीं था कि आप औरतों के बीच वाले इन संबंधों के बारे में जानती हैं। आपने उन मर्दों के सामने ऐसे खुलकर ये चर्चा कर दी।" शुरुआत में जो उसने बेरुखी और बेचैनी दिखाई थी, वो धीरे-धीरे खुलेपन में बदल गयी थी।
हम वापस लक्ष्मी के घर पहुँचे। वहां सीधे अंदर के कमरे में गए, जिसको किचन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। शीला ने हमारे बैठने के लिए एक चादर बिछाई और फिर हमें उसकी और लाली की तस्वीरें और एल्बम दिखाने लगी। "उसने मेरा नाम रवि रखा था। और मैं उसे नैना बुलाती थी। उसकी आँखें देखो, उफ़! कितनी प्यारी हैं," उसने एक तस्वीर की ओर इशारा करते हुए कहा।
"मैं उनसे पहली बार एक शादी की पार्टी में मिली थी। बिदाई के समय जब सब औरतें खड़ी हो, रो रही थीं, मैं चुपचाप पीछे से गई और लाली की कमर को पकड़ लिया। उसे वो सब पसंद आया था। फिर जब मैं वापस चली गयी, तो उसने मुझे एक ख़त लिखा। फिर अक्सर हम एक दूसरे को ख़त लिखने लगे। जब मैंने उनके साथ रहना शुरू किया, तो बाबूलाल ने मुझसे एक दफा कहा था, "अपने तड़पते हुए मरीज़ की देखभाल करो।" मैंने तो एक बार उसकी मांग में सिंदूर भी भर दिया था। उसकी मां को हमारे रिश्ते के बारे में पता था।"
"बाबूलाल तो मना कर रहा है कि तुमने उसे कुछ भी गिरवी रखने को दिया था। बल्कि वो तो ये कह रहा है कि तुम उसके घर में बिना किराया दिए रह रही हो। अगर तुम उससे कुछ वापस माँगोगी, वो शायद तुम्हें किसी से पिटवा दे।"
"मुझे उसकी परवाह नहीं है। अगर आप कहती हैं, तो मैं बिना एक भी पैसा लिए, उसका घर खाली कर दूंगी। बस मुझे एक बार लाली से मिलवा दीजिए।"
कुछ दिन बाद हम दोबारा इस उम्मीद में बाबूलाल के घर गए कि दोनों प्यार करने वालों को मिला देंगे। हमारी एंट्री के साथ ही तेज़ भौंकने की आवाज़ आई। हमें आश्चर्य हुआ कि लाली घर में थी। उसने ही उस छोटे से, बॉल जैसे पिल्ले को पीछे हटाया। हम एक शांत अंधेरे कमरे में बैठे, जहां बीच में एक बड़ा सा टेलीविज़न था। तीनों बेटियाँ और उनकी माँ साथ बैठ कोई फिल्म देख रहे थे। वैसे तो हमें पहले पानी और बाद में चाय भी पिलाई गई, लेकिन ये साफ था कि वो ये मान रहे थे कि हम लोग शीला की तरफदारी कर रहे थे, और उसी की वक़ालत करने वाले थे।
लाली की माँ जानना चाहती थीं कि हम शीला के संपर्क में थे या नहीं। "हमने सुना है शीला अब किसी दूसरी औरत के साथ रहती है। उन लोगों की भी एक जवान बेटी है। उन लोगों को पहले ही बता देना चाहिए कि शीला कैसी औरत है," उन्होंने कहा।
"कोई मानेगा ही नहीं कि वो बुरी औरत है। उसमें एक अजीब सी मधुरता है, जो लोगों को उसकी ओर आकर्षित करती है। किसी भी औरत की आंखों में देख ले, तो वो उसके प्यार में पड़ जाए। उसे खुद पे इतना भरोसा है। यहां तक कि हम तो लाली को शीला के साथ रहने देने के लिए भी तैयार हो गए थे, लेकिन शीला तो खुद बेवफा निकली।"'
लाली बोल उठी, "मैंने तो उसकी लिखी सारी चिट्ठियां भी फाड़ दी। वो उन्हें रवि नाम से भेजा करती थी।"
फिर भावना कहने लगी, "हर कोई हमें नादान बोल रहा है, कि हमने आँख बंद करके उस पर पूरी तरह से भरोसा कर लिया। लेकिन क्या लोगों को उस पर आरोप नहीं लगाना चाहिए, जो जानबूझकर दूसरों को गुमराह करती है ? एक बार जब मैं उसका कमरा साफ कर रही थी, मैंने देखा, यहां-वहां कोने में ना जाने कौन से कागज के टुकड़े थे। मुझे तो लगता है वो काला जादू करती थी।"
ये सुन, मैंने लाली की तरफ देखा। लेकिन वो तो अपनी ही ज़िद में थी। इधर देख भी नहीं रही थी। हम लाली से अकेले में नहीं मिल पाए, इसलिए जान नहीं पाए कि वो इस फैसले से खुश भी थी या नहीं। कुछ महीने बाद पता चला कि उन दोनों बहनों की शादी हो गई थी।
लेकिन इस बीच में शीला के साथ हमारी कई मुलाकातें हुई। और उसे अब हम पर भरोसा होने लगा था। "बचपन में मेरा नाम अनुराधा था। मेरी उम्र कुछ 10 या 12 साल रही होगी, जब मैंने वो नाम बदलकर अपना नाम शीला रख लिया। मुझे इस नाम की धुन पसंद आई, एकदम साफ़ और सरल।"
नर मादा के बीच के फर्क को धुंधला देने वाला स्टाइल, भारी शरीर, शीला अपनी असली लंबाई पांच फीट से ज्यादा लंबी दिखती है। वो नीम के पेड़ की तरह है। समाज के लिए एक कड़वी सच्चाई! समाज उसे इधर-उधर फेंकता रहता है, इसलिए क्योंकि वो अपने लिए एक अलग रास्ता बनाती है। सेक्स, जेंडर, क्लास और धर्म के बड़े सारे कॉमन नियमों को काटके! औरत के लिए तय की गई धारणाओं को चुनौती देके! उसे कई बार बड़ी क्रूरता से उखाड़ दिया गया, पर बस थोड़ी सी सिंचाई भर से, वो कठोर धूप और ठंड के बीच, फिर से उठ खड़ी होती है।
"पाँच बहनों और दो भाइयों में मैं सबसे छोटी हूँ। मेरे पिता की मृत्यु 1989 में हुई और माँ की 1995 में। मैं अपने भाइयों के साथ नहीं रह पाई।"
कुछ दिनों बाद जब हम उससे मिलने गए, तो वो कहीं गायब हो चुकी थी। हमने उस इलाके की कई अलग-अलग सड़कों को छाना, पर वो नहीं मिली। चूँकि शीला नार्मल औरतों से थोड़ी अलग दिखती है, लोगों को याद रह जाती है। हमें बताया गया कि वो वहां से जा चुकी थी। अब वो मंजू नाम की एक औरत के साथ किसी दूसरे घर की पहली मंजिल पर रह रही थी। जब हमने उसे बताया कि हमने उसे कैसे ढूंढ निकाला, तो उसने कहा, "मुझे पैंट और शर्ट पहनना पसंद है। जब मैं छोटी थी तो मेरी माँ मुझे कभी-कभी फ्रॉक पहना देती थी। लेकिन मैं जिद किया करती थी कि वो मुझे अंडरशर्ट और शॉर्ट्स ही पहनाए। लेकिन अब आपको देखकर लगता है कि मुझे भी सलवार पे पॉकेट वाली कुर्ती ट्राय करनी चाहिए। शायद मुझे अच्छी लगेगी।"
जब हम वहां पहुंचे थे, हमने उसे घर में अकेले, बनियान और शॉर्ट्स में बैठा पाया था। पहली बार हमारी नज़र उसकी खुली बाईं बाँह पर पड़ी। वहां कोहनी से नीचे, हथेली तक, एक भारी चोट का निशान था।
मैंने पूछा, "क्या तुम्हें कभी किसी ने मारा है?’’
"नहीं!," शीला इस बात पे ऐसे चिढ गयी, कि हम सब चौंक उठे।
"कोई मुझे मारने की हिम्मत नहीं कर सकता है! मैं बाइक से जा रही थी, जब एक लोहे की छड़ों से भरा हुआ रिक्शा पास से गुजरा था। उसमें से एक छड़ मेरी बांह में छेद कर गयी।"'
कुछ उत्सुकता और थोड़ी छेड़खानी भरी आवाज़ में मैंने पूछा, "तुम मंजू से कहां मिली? और कितनी महिलाओं के साथ ऐसे जुड़ी हो तुम?"
"अरे, मत पूछिये, अब तो सही नंबर भी याद नहीं कि कितनी थीं। लेकिन ये याद है, कि मुझे पहली बार प्यार कब हुआ था। मैं 8वीं क्लास में थी, या शायद 9वीं में। उस समय तो मुझे इन रिश्तों के बारे में पता भी नहीं था। लेकिन मैं औरतों के प्रति आकर्षित थी। और ऐसी ही एक औरत जो मुझे पसंद थी, उसने औरतों के बीच के प्यार के बारे में मुझे सिखाया। हम एक दूसरे से जुड़े, और फिर हमने क्लास जाना ही छोड़ दिया। बल्कि हम पेड़ों के नीचे बैठकर एक दूसरे से बात करते रहते थे। फिर हर कोई हमें नोटिस करने लगा और उसके माता-पिता को ये सब पसंद नहीं आया। उन्होंने उसे स्कूल से ही निकाल लिया। मैं उसे बहुत मिस करती थी। फिर एक बार उसने जो चिट्ठी अपने माता-पिता को लिखी थी, वो हाथ लगी। तो पता चला कि वो हिल स्टेशन हल्द्वानी में थी। मैं जब वहां पहुंची, तो काफी ठंढ पड़ रही थी और काफी अंधेरा भी हो चुका था। इससे पहले मैंने कभी इतना लंबा सफर, अकेले नहीं किया था। लेकिन मैं ऐसा दिखा रही थी जैसे उस जगह को मैं अच्छे से जानती थी। यहां तक कि रिक्शेवाला भी मेरे कॉन्फिडेंस पर आश्चर्य में था। आख़िरकार मैं उससे मिली। उस ट्रिप के बाद काफी समय तक हम संपर्क में रहे। यहां तक कि एक बार मैंने हस्पताल में उसकी आंखों का इलाज भी कराया।"
"उसके बाद आयी शशि। मैं एक साल पहले स्कूल से पास हुई थी। पर उसे स्कूल से लेने जाया करती थी। मैं उसके भाई का स्कूटर ले जाती थी और हम घूम घामकर घर लौटा करते थे। एक बार की बात है, मुझे लगा कि वो बैठ चुकी है और मैंने स्कूटर आगे बढ़ा दिया। कुछ देर बात मुझे पता चला कि मैं तो खुद से बात कर रही थी। वापस आयी तो वो गुस्से में लाल-पीली थी। उसके घूंसे और उसके आंसू, मैंने सब चुपचाप सह लिए, क्योंकि गलती तो मेरी ही थी।"
"बाबूलाल के घर पे मैं बेड(bed) के बीच में सोती थी। एक तरफ भावना और दूसरी तरफ लाली। कुछ समय के लिए तो मैं दोनों के साथ रिश्ते में थी। बाद में भावना नाराज़ रहने लगी और उसने खुद को अलग कर लिया। वो गुस्सा थी, उसे जलन भी हो रही थी।"
“लेकिन मंजू, वो एक अलग तरह की औरत है। मुझे लगता है ये पहली औरत है जो सच में मेरी परवाह करती है। यहां तक कि अपने ऊपर पैसे खर्च करने की बजाय मेरे लिए बचाती है। वो पैसे बचाने पर बहुत जोर देती है। कहती है, पहले मेरा अपना घर होना चाहिए, न कि स्कूटर। हाँ, मेरा सपना है कि मेंरे पास खुद का स्कूटर हो, लेकिन मुझे पता है कि वो जो कह रही है, सही कह रही है।"
"मंजू से मेरी पहचान तब हुई जब मैं लाली के साथ संबंध में थी। लेकिन उसके साथ मेरा रिश्ता काफी बाद में शुरू हुआ। ऐसा हुआ कि घर में शादी थी और मेहमानों को ठहराने के लिए जगह कम पड़ रही थी। चूंकि उतने बेड नहीं थे, इसलिए मंजू और मैंने बेड शेयर किया। उस समय वो नहीं जानती थी कि औरतों के बीच भी ऐसे संबंध हो सकते हैं। पर लाली जानती थी। उसने इसके बारे में टेलीविजन पर देखा था और किताबों में भी पढ़ा था। मैं जब मंजू की तरफ बढ़ी तो पहले तो वो मुकर गई। तो फिर मैं भी पलट गई। अगर सामने वाले की मर्ज़ी ना हो, तो मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रहती है। लेकिन फिर वो मुझसे लिपट गई। हमने किस किया। और अब हम साथ हैं।"
शीला उठी, छत के आखिरी हिस्से में गई, नीचे झुकी और फिर उसने पुकारा,..."मंजू ...!"
एक लंबी, पतली लड़की ऊपर आई।
जैसे ही मंजू अंदर के कमरे में गई, शीला फुसफुसाई, "अब, लाली या किसी दूसरी औरत की चर्चा मत करियेगा। जब मंजू यहां हो तो उसके साथ मेरे किसी और संबंध का जिक्र भी मत करियेगा।"
फिर, अपनी नार्मल आवाज़ में वापस आकर, शीला ने कहा, "मैंने पहली बार मंजू को बाजार में देखा था, वो वहां सब्जियां बेच रही थी। मैंने अपने आप में सोचा, "ये इस जगह पर क्या कर रही है, जहां ज्यादातर मर्द या उम्र दराज़ औरतें स्टॉल चलाती हैं।" मैं इसे रोज़ देखती थी, वहाँ बाजार में बैठी बिल्कुल सीरियस होकर अपना बिज़नेस चलाते हुए। इसने उन सभी मर्दों के बीच खुद की एक जगह बना ली थी। फिर मैं उससे सब्जी खरीदने लगी और ऐसे बातें शुरू हो गईं। फिर हम दोस्त बन गए और एक दूसरे को पसंद भी करने लगे...।" शीला बीच में ही रुक गई। मंजू ट्रे में चाय के कप लेकर आ गई थी।
शीला ने उसकी ओर देखा और कहा, "मैं इन्हें बता रही थी कि तुम और मैं कैसे मिले थे। मंजू से पूछ लीजिए, मैंने तो इसे पूरी ईमानदारी से बताया था कि बाजार उसके जैसी युवा औरतों के लिए सही माहौल नहीं था। लेकिन गरीबी कोई रास्ता कहाँ छोड़ती है। इसका एक भाई है जो कि परिवार का एकमात्र कमाने वाला सदस्य है। मैं भी उन्हें पैसे उधार देती हूँ और उनके घर का जो कमरा मैंने अपने लिए लिया है, उसका किराया भी देती हूँ। मैं मंजू की शादी में भी पैसे दूंगी, लेकिन उसकी शादी के दिन मैं यहां नहीं रहूंगी। मैं उसे किसी और के साथ जाते देख नहीं पाऊंगी।"
"लेकिन तुम्हें शादी करनी ही क्यों है?" हमने मंजू से पूछा।'
शीला बोली, "'ये मुझसे कहती है कि मुझे इसके होने वाले ससुराल के लोगों से दोस्ती करनी चाहिए।"
मंजू ने फिर कहा, "यही करना सही रहेगा। मेरे भाई को मेरी बहुत चिंता रहती है। इसके अलावा, अगर शादी की उम्र होने पर की बेटियों की शादी ना हो, तो लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। अगर मैं शादी कर लूंगी तो कम से कम हम दोस्त तो बने रह पाएंगे।"
हमने बताया, "आजकल कई औरतें शादी नहीं कर रही हैं। कई औरतें हैं जो एक दूसरे के साथ रहती हैं। और कई ऐसे ग्रुप हैं जो उन औरतों की मदद करते हैं । हमने खुद ऐसी औरतों को अपने घरों में रहने की जगह दी है, उनके परिवारों के साथ बात की है। उनके रिश्तेदारों को ये दिखाने और समझाने की कोशिश की है कि वो औरतें जो एक दूसरे के साथ रहना चाहती हैं, वो कुछ गलत नहीं कर रही हैं।"
बात से बात निकलती गई और हमने कई विषयों पर चर्चा की। जब हम वहां से निकले, सूरज डूब चुका था।
जब हम अगली बार शीला से मिले तो वो नवरात्रि का आखिरी दिन था । हमें पता था कि शीला ने भी उपवास रखा होगा। दीवार से लगकर देवी काली की एक बड़ी फ्रेम वाली तस्वीर टिकी हुई थी। शीला जमीन पर लेटी हुई थी। हमारी आवाज़ सुन उसने अपना तिलक से सजा हुआ माथा उठाया। उसके पीले पड़े, थके चेहरे पर खुशी की एक मुस्कान दौड़ गई। वो हैंडसम लग रही थी। माथे का लाल तिलक, कलाई के चारों ओर लिपटा हुआ मौली का धागा, जो शर्ट की ब्लू बांह से बिल्कुल कंट्रास्ट में था। और उस पल एक अतिसंवेन्दनशील भाव, जो आमतौर पर वो छुपा लेती थी। मंजू आँखों में आँसू लिए गैस के पास खड़ी थी। एक सन्नाटा सा फैला था। जाहिर था, हम गलत समय पर आ गए थे।
खैर, हमने पूछा, "क्या हुआ?"
शीला बोली, "हमने आज पूजा रखी थी, और मैंने मंजू को जो पैसे रखने दिए थे, उसमें 100 रुपये कम थे।"
"अगर तुम्हें बताना है, तो पूरा सच बताना होगा।" मंजू बोल पड़ी।
शीला ने आगे कहा, "पूजा के वक़्त कई औरतें आई थीं। नाच-गाना चल रहा था। मैंने मंजू को डांस करने के लिए कहा। तो उसने माना किया। ऐसा नहीं है कि वो बिल्कुल ही डांस नहीं करती है। जब वो मेरे साथ होती है तो थोड़ा बहुत करती है। जब मैंने खास रूप से उसे सबके सामने डांस करने को कहा तो उसे मेरी खातिर करना चाहिए था ना। लेकिन नहीं! और फिर जब मैंने उससे पूछा, कि 100 रुपये कहाँ हैं, तो उसने उल्टा जवाब देते हुए बोली, - मैं क्या चोर हूँ? तो मैंने भी कह दिया, - हाँ, तुम चोर हो। चोर ही हो। इसलिए अब वो रो रही है।"
"मैं दूसरी लड़कियों की तरह नहीं हूं। मुझे डांस नहीं आता, मैं क्यों करूं?" मंजू बोली।
शीला बोली, "बस यही दिक्कत है, इसे जलन हो रही है। कोई भी मुझे देखने आता है, इसे बिल्कुल पसंद नहीं आता। मैं आजादी से रहना चाहती हूँ। अगर किसी को मेरे साथ रहना है, तो उसे पता होना चाहिए कि मैं ऐसी ही हूँ।"
मंजू की आँखों से आँसू लगातार ही बह रहे थे।
अंत में शीला ने हमसे, कुछ मज़ाक वाले टोन में कहा, "आप यहाँ औरतों की नियमित मीटिंग क्यों नहीं शुरू करती हैं। जैसे कि महीने में दो बार, या जो भी सूट करे। हम सभी मिलकर इस तरह की चीजों के बारे में बात कर सकते हैं। आप समझ रही हो ना, मैं क्या कहना चाहती हूं। हम सब यहां आ सकते हैं..." फिर चमकती आँखों से हमें देख कर उसने कहा, "बस ध्यान रखना कि वहां बिस्तर की व्यवस्था हो...!"
शीला की जवानी की अनोखी कहानी
यह संपादित भाग माया शर्मा की किताब ‘लविंग वीमेन: बीइंग लेस्बियन इन अनप्रिवीलेज्ड इंडिया’(Loving Women: Being Lesbian in Unprivileged India) का हिस्सा है|
अनुवाद : नेहा
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