"शादी, प्यार और संभोग के बारे में यह मेरी निजी कहानी है और इस के लिए मुझे बहुत साहस जुटाना पड़ा है ।"
मैं बावन साल की होने वाली हूँ और मेरा शरीर अब भी संभोग चाहता है लेकिन हर बार मुझे उसे बेरहमी से इन्कार करना पड़ता है, क्योंकि मैंने वफ़ा की है और उसे ना तोड़ने का चुनाव किया है। मैं एक नादान २३ वर्षीय थी, अपने मास्टर्स के बीचों-बीच, जब मेरी शादी एक कमाल के आदमी से करा दी गयी । वह उम्र में मुझसे नौ साल बड़े थे। हालाँकि यह परिवार द्वारा तय की गयी शादी थी, मुझे पहली मुलाकात के बाद ही अपने होनेवाले पति से प्यार हो गया।हाँ ये भी सच है कि मेरी शादी ने मेरे उभरते हुए शैक्षणिक करियर को ख़तम कर दिया, पर इसने मुझे मेरे कठोर और रूढ़िवादी मध्यम वर्गीय माता-पिता से छुटकारा भी दिलाया।मेरे पति की बदौलत मैंने एक ऐसे जीवन में प्रवेश किया, जिसमें मुझे एक अकल्पनीय आज़ादी मिली।
हमारे बीच संभोग बहुत बढ़िया था और हम एक दूसरे के साथ लैंगिक रूप से एकदम अनुकूल थे। शुरुआती सालों में, हम हर दिन संभोग करते थे, दिन में कई बार। जब हम अपने होम टाऊन जाते, तो बड़ों के आसपास होते हुए, हम उनसे छुप के संभोग करते। मेरे पति ने मुझसे संभोग के समय प्रयोग करने को प्रोत्साहित किया; और सिर्फ़ मेरे शरीर से जुड़ी मेरी स्वाभाविक शर्म ने मुझे ऐसा करने से रोका। मैं काफी मायनों में बहुत दबंग, मुखर और बाग़ी थी, लेकिन विचित्र रूप से शरीर से जुड़े सभी मामलों में संकोची थी - खासकर जब उनके बारे में बात करनी होती। शायद यह एक सख़्त, कॉन्वेंट स्कूल के माहौल में बड़े होने का नतीजा था और उस माँ का दोष जो कभी कोई विवादास्पद विषय पे चर्चा नहीं करती, संभोग तो छोड़ ही दो। उन दिनों मेरा फिगर कामुक और सेक्सी था, लेकिन इससे मुझे कभी संभोग में आत्मविश्वास नहीं मिला।मैं हमेशा से बहुत मोटा महसूस करती थी, और १९७० की ‘मिल्स अँड़ बून्स ‘और ‘बारबरा कार्टलेंड़’ के गुनगुने रोमांस की कहानियों ने मुझे काम का तो कुछ नहीं सिखाया। दूसरी ओर मेरे पति एकदम दुबले थे, कबूतर सी पतली पर फ़ूली हुई छाती वाले, पर उन्होंने बहुत पॉर्न देखा था। इस वजह से वह बेड़रूम में फायदे में रहे और उनमें एक आत्मविश्वास नज़र आता था।
मेरी शादी उस बचपन में सुनी कविता की तरह थी -
"एक छोटी सी लड़की थी, जिसके माथे के बीचों-बीच थेघुंघराली लट थी,
जब वह लड़की अच्छी होती, तो बहुत ही अच्छी होती,
और जब वह बुरी होती, तो बिल्कुल भयानक हो जाते हाल।”
हमारी शादी में भी कुछ ऐसा ही था। जब स्थिति अच्छी होती, तो बहुत ज़्यादा अच्छी होती। हमने कुछ बहुत शानदार पल बिताए - हँसते, एक दूसरे की टाँग-खींचते, घूमते-फ़िरते। हमें जाननेवाले कभी यकीन नहीं करते कि हमारा प्रेम विवाह नहीं था। मुझसे उम्र में लगभग एक दशक बड़े मेरे पति, इतने बड़े दिखते नहीं थे, काफ़ी जोशीले थे, और हर पार्टी की जान थे, असल मायनों में एक दिलकश व्यक्ति जिन्हें बूढ़े-नौजवान सभी चाहते थे।
पर जब बात बिगड़ जाती, तो हमारा रिश्ता बहुत खराब हो जाता। हम अक्सर लड़ते और बड़े द्वेष के साथ से लड़ते। ५० की होने के बाद, मुझे यह एहसास हुआ है कि मेरे पति की खुद के बारे में एक मानसिक छवि थी, एक 'गुड़ बॉय' होने की, एक 'खुले-विचारों' वाले व्यक्ति होने की, एक 'आदमी जो बिना किसी के कहे घर के काम करता है'। हमारे दोस्त और परिवार वाले समझते कि वह उत्तम व्यक्ति थे। दूसरी औरतें अपने पतियों से मेरे पति जैसे बनने का आग्रह करतीं। वह कोई मौका नहीं छोड़तीं यह दोहराने का कि मैं कितनी सौभाग्यशाली थी कि मैंने शादी के बाज़ार में इतना बढ़िया वर पाया । ज़ाहिर है, मुझे इस बात से नाराज़गी होती। सबसे छिछली बातों पे हमारे झगड़े होते। मैं अपने पति के जीवन का ऐसा काँटा बन गयी जो उनके निष्कलंकी स्व:चित्र पर सवाल बन के चुभती रहती थी। हाँ, इस बात का एहसास मुझे हाल ही में हुआ। मेरे पति के मुताबिक मैं अभी भी पर्याप्त मात्रा में आज्ञाकारी नहीं हूँ, उनकी बात मानती नहीं हूँ।
उन दिनों, मैं विवेक से काम नहीं लेती थी, जो मुँह में आता कह देती, और क्रोध से झल्ला जाती। पर आधे घंटे में मेरा गुस्सा ठंड़ा हो जाता और मैं तुरंत भूल जाती कि मुद्दा क्या था। मैं कभी शिकवे नहीं रखती, गिले नहीं पालती । मेरी मुखरता और नादानी ने मुझे कई बार मुश्किल में ड़ाला। माफ़ी माँगना मेरे लिए कभी आसान नहीं था। मेरे पति, जो मुझसे उम्र में ९ साल बड़े और समझदार थे, मुझसे उसी वक्त माफ़ी माँगने और फ़िर से वह जुर्म ना करने की उम्मीद रखते थे। लेकिन अफ़सोस, ऐसा ना होता था।
अब मुड़कर देखती हूँ, तो ऐसा लगता है कि हर छोटे-बड़े झगड़े के बाद, मेरे पति ही विजयी होते। कैसे? क्योंकि हर छोटी-बड़ी तकरार के बाद, वह मुझे अपनी सज़ा सुनाते। इस सज़ा के तहत, वह ना सिर्फ़ मुझसे बात करना बंद कर देते, पर इस सज़ा को बेड़रूम तक खींचते, जिसका मतलब यह था कि वह मुझे छूने से इन्कार कर देते। जैसे-जैसे समय बीतता गया, हमारी शादी की उम्र बढ़ती गयी, उन सज़ाओं की अवधि भी लंबी होती गयीं - कुछ दिनों से लेकर हफ़्ते और फ़िर महीनों में तब्दील होती गयीं।'किसी से गिला रखना' इन शब्दों के मायनों को अलग रूप से समझना पड़ रहा था।
मुझे किसी चीज़ ने इस तरह की सज़ा के लिए तैयार नहीं किया था। मैं बहुत ही स्पष्ट और सुलझी हुई व्यक्ति थी। इस चुप्पी वाली सज़ा को ना मैंने अपने जीवन में पहले देखा था, ना इसके बारे में उन सैकड़ों किताबों में कहीं पढ़ा था, ना इसे किसी फ़िल्म में दर्शाए गये देखा था। अब यह मुझे इस तरह से बेसुध कर रही थी और दुख पहुँचा रही थी जैसे किसी और चीज़ में करने की क्षमता नहीं थी। मैं चिल्लाती, चीखती, रोती, भीख माँगती, यहाँ तक कि गिड़गिड़ाती, पर मेरे पति पे कुछ असर नहीं होता। हर छोटी-बड़ी लड़ाई के बाद, इस चुप्पी में बने रहना ऐसा था जैसे बर्फ़ के पिघलने का इंतज़ार करना; जब उनका क्रोध और उनकी चोट की लहर थम सी जाती, उनके मुताबिक थोड़ा सा हँसना, थोड़ी सी बातचीत करना, और थोड़ा सा संभोग करना काफ़ी था।
यह उन दिनों की बात है जब मुझे गूगल भगवान के बारे में पता नहीं था। तब मालूम नहीं था कि यह भी एक प्रकार का मानसिक शोषण था। कभी यह भी नहीं मालूम था कि ऐसी सज़ा के लिए इंसाफ कैसे माँगा जाए जो अपने जुर्म से इतनी बड़ी थी। मैं जवान थी, एक बड़े मेट्रो में अकेले रहती थी, बिना किसी रिश्तेदार या माता-पिता के जिनके कंधे पर मैं सिर रखकर रो सकती और दोस्त तो बिल्कुल नहीं क्योंकि बाकी सबके लिए (दोस्त, रिश्तेदार और साथी), मैंने किसी तरह से और बिल्कुल लायक ना होते हुए भी एक ऐसे आदमी को पा लिया था जो इस ग्रह के सबसे अच्छे इंसान थे।
इसका परिणाम क्या हुआ?
संभोग कम होता गया। हफ़्ते महीनों में बदल गये; फिर महीने साल में; और साल दशकों में बदल गये। लगभग ३० साल कट चुके हैं। और अब तो यह एक रीत बन गयी है। मैंने खुद को इस वंचितता के आदी होने के लिए बाध्य कर लिया है। मैंने सीख लिया है कि मैं बिना रोए अपने आप को कैसे सुला सकती हूँ और कैसे दूसरी तरफ़ करवट ले सकती हूँ। इस तरह से, कि हम दोनों के शरीर का कोई हिस्सा एक दूसरे को ना छुए। हम यूँ बूढ़े हुए। उनकी तरफ़ से सहनशीलता ने प्यार को विस्थापित कर दिया है। शादी एक दिनचर्या बन के रह गयी है। हमारी जटिल शादी की गवाह, और हमारे झगड़ो में जज बनकर उन्हें सुलझाते-सुलझाते हमारी बेटी समय से पहले बड़ी और समझदार हो गयी है।
इस सब में कहीं मेरे पति को स्तंभन दोष हो गया है । हम एक दूसरे के शरीर को इतनी खूबी से जानते थे, पर अब हम इसकी बात कभी नहीं करते हैं। शायद यह एक किस्म की भय की मनोविकृति है? क्योंकि वह सोचते हैं कि मुझे उनकी तकलीफ़ों का कोई अंदाज़ा नहीं है, उन्हें डर है कि यदि संभोग का मौका आया, तो वह कुछ कर नहीं पाएँगे। मैं अब भी चूमना या एक दूसरे को गले लगाना चाहूँगी, सिर्फ़ आत्मीयता की विलासिता को महसूस करने के लिए। लेकिन उनके लिए, बिना संभोग किए कुछ भी करना, संभोग पूर्व क्रीड़ा करना या गले लगना ऐसा है जैसे बिना किसी रिटर्न के ड़िपॉज़िट, जिसमें उन्हें बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है।
कभी-कभी मैं खुद को दोष देती हूँ कि मैंने यह सब होने दिया, कि मैं अपने पति को रिझा नहीं सकी, और खुद के बारे में इतना कड़वा सच मैंने इतनी देर से सीखा। यह सच है कि शायद मैं बहुत बुद्धिमान हूँ, अपने काम की जगह पे बहुत कामयाब हूँ, निड़र हूँ और जवान पीढ़ी के लिए कूलनेस का प्रतीक हूँ, लेकिन फ़िर भी मैं सही मायनो में अपने पति को अपना नहीं बना पायी। मेरा मासिक धर्म मेरे ४५ होते-होते बंद हो गया। कोई गर्मी की बाढ़ नहीं - कुछ नहीं, उसका जाना बिल्कुल आसान सा रहा, लेकिन वह अपने पीछे अपनी सबसे बुरी निशानी छोड़ गया - मेरे वज़न का १० किलो बढ़ना।
क्या मुझे संभोग की ज़रूरत है? वैसे तो नहीं, लेकिन हाँ, थोड़ा-बहुत संभोग होता, तो मुझे अच्छा लगता। कम से कम कुछ समय में एक-आद बार ताकि मैं याद कर सकूँ हमारे वह बीते हुए सुनहरे दिन। मैं रेगिस्तान की तरह सूखी हूँ। कभी स्नेहक (ल्यूब्रिकेंट) का प्रयोग नहीं किया, ना कभी वाईब्रेटर का, ज़रूरत कहाँ है? अगर मुझे संभोग की लालसा होती है, तो मैं कल्पना करने में अव्वल हूँ। लेकिन अंदर से मुझे शर्म का एहसास और एक नाकाबिलियत महसूस होती है क्योंकि मेरा संभोग का सफ़र बहुत जल्दी ख़तम हो गया - इसके पहले कि मैं इसका महत्व समझ पाती, इसकी संभावनाओं का अनुभव कर पाती या सिर्फ़ इसका मज़ा भी लूट पाती।
आप सोच रहे होंगे कि मैं अब भी यह सब क्यों झेलती हूँ? क्योंकि आज भी मैं अपने पति से प्यार करती हूँ और मुझे उनसे अच्छा और उनसे ज़्यादा दिलचस्प आदमी नहीं मिला है।
जैसे कविता में लिखा गया है:
"जब हम अच्छे होते हैं,अब भी, हम बेहतरीन होते हैं” (संभोग के मामले को नज़रअंदाज़ करते हुए)"
अनामिका एम कहानीकार हैं, और किताबी कीड़ा, यात्री हैं, और फिल्मों की दीवानी: वो अपने दिल के बताए रस्ते पर चलने की कोशिश करती हैं।
मैं पच्चिस सालों से एक ऐसे पति से वफ़ादार हूँ जो मुझे सेक्स इन्कार करते हैं
मुझे किसी चीज़ ने इस तरह की सज़ा के लिए तैयार नहीं किया था।
लिखित - अनामिका एम
अनुवाद - तन्वी मिश्रा
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