हाल ही में मैं सोच रही थी, कि कैसे कुछ लोगों को आभास होने में समय लगता है कि उनके साथ शोषण हुआ है। ये बात उनको महीनों या सालों बाद समझ आती है। उन्हें ये बात, हमेशा से पता नहीं होती । शायद किसी दोस्त की बात सुनते वक्त या कोई ऐसी फिल्म देखते हुए एहसास होता है कि "ऐसा ही तो मेरे साथ भी हुआ था।"
मुझे अपने साथ हुए उत्पीड़न को उस नज़र से देखने में सालों लग गए। मुझे अभी भी इस बात पे थोड़ा कम ही विश्वास होता है। कॉलेज के पहले साल में एक प्रोफेसर ने पूरी क्लास को कहा था, "ज़रूर आप में से कई लोग शोषण का शिकार होंगे" और फ़िर बताया कि कैसे एक काउंसलर और प्रोफेसर होने के नाते, उनके कई स्टूडेंट्स, अपने साथ हुए शोषण के बारे में खुलकर क्लासरूम में और काउंसलिंग में उनसे बात कर चुके हैं। मैंने क्लास में चारों ओर नज़र दौड़ाई, और ये अनुमान लगाने की कोशिश की, कि ऐसा और कौन हो सकता है । यकीनन मैं अकेली नहीं थी जिसके साथ ऐसा हुआ हो ।
जो कहानी मैं लिखने जा रही हूँ, उससे हम सब लोग चिर परिचित हैं। एक बच्चे के साथ उसके ही घर में सालों तक शोषण होता है और जब माता पिता को पता चलता है, तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। बस फर्क ये है कि ज़्यादातर मामलों में, बच्चे ये बात परिवार से शेयर ही नहीं करते हैं।
जैसे ही बच्चा भाषा समझने लगता है, उसके माँ बाप अपने बच्चे को सही और गलत टच के बारे में सब कुछ सिखाना अपना मिशन बना लेते हैं । बच्चों को कंफर्टेबल करने के लिये माता पिता जनांगो को अजीब गरीब नाम देते हैं। हाल ही में इंस्टाग्राम में एक रील काफ़ी मशहूर हो गई। इसमें एक बाप हाथों के अलग अलग हावभाव से, अपनी छोटी बच्ची को सही टच के बारे में सिखा रहा है। इससे ये साबित होता है कि बच्चों को इसके बारे में सिखाने के लिये, किसी खास उम्र तक बड़े होने की ज़रूरत नहीं है। देखा जाये तो जब बच्चा स्कूल जाने के लिये तैयार हो जाता है, तब तक उसे अनजान लोगों से होने वाले खतरे के बारे में बहुत कुछ सिखा दिया जाता है, बस एक पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन की कमी बचती है । जबकि अक्सर, असली शोषक, घर में बिंदास घूम रहा होता है।
जब मैंने एक नई शुरुआत करने के लिये बैंगलोर छोड़ा था, तो मुझे नहीं लगता था कि मैं अपने साथ हुए हादसे का बोझ और उसकी चोट लिए घूम रही हूं। कुछ कारणों से मुझे विश्वास था कि हर महिला अपने जीवन में किसी तरह के यौन उत्पीड़न से गुज़रती ही है। चाहे वो उसका चाचा या मामा हो, या बस में पैंट खोलने वाला अनजान ठरकी या ब्वॉयफ्रेंड जो शादी के बदले सेक्स की डिमांड करता है। चूंकि मैंने ऐसा काफी कुछ बचपन में देखा था, तो मेरे लिये ये सब नॉर्मल ही था। मेरे खुद के अनुभव को लेकर भी मुझे कुछ अलग नहीं लगा।
मेरे साथ जो हुआ उसमें कोई हिंसा या ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं थी। उस समय के बारे में सोचें तो ऐसा लगता था कि जो भी हुआ हम दोनों की सहमति से हुआ। मुझे कोई विक्टिम/उत्पीड़ित जैसा महसूस नहीं हुआ। वो उस समय चौदह या पंद्रह साल का ही था। पर उसे क्या बोलना है, उसे सब पता था। कभी कभी मुझे उसका फ़ोन चाहिये होता था तो मुझसे कुछ कुछ हरकतें कराता था। जब भी देखता तो बोलता कि मैं उसकी सबसे फेवरेट कज़न हूं। और इसलिए वो सब चीज़ें वो मेरे साथ करता है। कभी कभी ये जानना अच्छा लगता था कि कोई आपको चाहता है(ये मुझे अब पता चल रहा है कि ये मेरी आदत है, गलत जगह और लोगों से अपने अच्छे होने का प्रमाण मांगना, उनकी सराहना चाहना)। तो मुझे लगता था कि क्योंकि ये सब ठीक ही है तो मुझे नेगेटिव फील नहीं करना चाहिये। बाद में मुझे इस बात का बड़ा पछतावा हुआ कि मुझे इस तरह के अनुभव से होने वाली कोई फीलिंग्स ही नहीं है, जैसी बाकी लोगों को होती है, मुझे लगा ये मेरी तरफ से गलत है । एक बच्चे के लिये इतनी सारी भावनाओं को संभालना आसान नहीं होता है। इसीलिए मेरे साथ जब भी कुछ हुआ, उसे मेरी किस्मत मान लेना ज़्यादा आसान लगता था।
इस बात को इतना समय हो गया है कि ऐसा लगता है कि जैसे घर छोड़ते वक्त, जो खिलौने या कपड़े सूटकेस में फिट नहीं हुए, मैं उनको छोड़ आई, वैसे ही इन यादों को भी उनके साथ घर में छोड़ आई हूँ।
शायद जब आप किसी जगह को छोड़ कर जाते हैं तो ऐसा ही होता है।आप कौन सी यादें अपने साथ ले जाना चाहते हैं, ये आप खुद ही चुनते हैं। और जब आप ये नहीं कर पाते, तो आपका दिमाग आपके लिये चुनता है। और उसी हिसाब से आपको वो समय याद रहता है।
मुझे याद है, मैं नौ साल की थी जब मैंने उसे पहली बार 'नहीं' बोला था। उससे पहले उसका शोषण तीन साल से चल रहा था। अगर उससे भी पहले ये सब हुआ, तो मुझे याद नहीं है। उसका उसके बिस्तर से उठ कर मेरे बाजू में लेट जाना और मेरी टी शर्ट के अंदर अपना हाथ डालना। बस इतना याद है। जब मैंने ना बोला तो वो रुक गया। पर कुछ देर बाद वापस उसने हाथ डाल ही दिया।
मैंने अपने घरवालों को बताने की कई बार सोची । मेरे आठ साल की उम्र थी, इसलिए मुझे ये तो नहीं पता था कि पीड़ित को दोषी मानना क्या होता है।पर मैंने बाकी घरों में देखा था, जहां औरतों पर सारा दोष मढ़ देते हैं। अगर मैं अपनी आप बीती घरवालों को बता देती, तो मेरी जो बची कुची सी आज़ादी है, वो भी छिन जाती। मैंने पहले भी ये होते हुए देखा था। जब मैं सात साल की थी, तो हम एक रिश्तेदार के घर, तमिलनाडु गए थे। वहां छः और तीन साल की दो बच्चियां थीं। एक दूर के चाचा सबसे छोटी वाली को अपने साथ ले गए और उसके कपड़े उतार कर फोन से फोटो खींचीं। जब ये बात बाहर आई तो लोगों ने पूछा कि "वो बच्ची घर की बाकी औरतों के साथ क्यों नहीं बैठी रही?"
साइकोलॉजी में एक थ्योरी के मुताबिक बच्चे दुनिया को जानने समझने का प्लान या ब्लूप्रिंट लेकर पैदा नहीं होते हैं।
वो जो अपने आसपास देखते हैं, उसी से सीखते हैं। खासतौर पर अपने माता पिता से। ये जानना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इसका मतलब है कि बच्चे देखते रहते हैं कि बड़े लोग अलग अलग हालातों में क्या कर रहे हैं, और फिर वैसा करना सीखते हैं । वैसा ही करने लगते हैं।
हर हिंदुस्तानी बाप की तरह, जब भी कोई आदमी हमारे घर पर आता, मेरे पिता मुझे खुद को ढकने को कहते। और किसी भी आज्ञाकारी बेटी की तरह, बिना कोई सवाल किए, मैं अपने को ढक लेती । पर जब मेरा सामना, फेमिनिज्म की मीठी आंधी से हुआ, मुझे उससे मिली नई आज़ादी का एहसास हुआ । फिर मैंने खुद को अपने हिसाब से लोगों के सामने पेश करना शुरू किया। एक बार मैं जब कॉलेज में थी, तो कोई बूढ़ा आदमी घर आने वाला था। मेरे पिता ने मुझे खुद को ढकने को कहा। तो मैंने भी पलट कर पूछ लिया कि, "ऐसे लोगों को घर पे बुलाते ही क्यों हैं?" उसके बाद उन्होंने इस बारे में मुझे कभी कुछ नहीं कहा।
वो मुझे कहते थे कि मैंने उनको जीवन के बारे में काफ़ी कुछ सिखाया है। मुझे लगता था कि मैंने वो बात इसलिए कही थी क्यूंकि मैं अपने घर में ही एक पीड़ित जैसा महसूस नहीं करना चाहती थी। पर इसकी वजह से वो ये सोचने पर मजबूर हो गए कि हम अपने बच्चों को बाहरी दुनिया से सुरक्षित रखने के चक्कर में, जिम्मेदारी आखिर किस पे डाल रहे हैं। इस एक बात को समझना बहुत ज़रूरी है। ताकि हमारी सोच में जो एकदम काम न आने वाली, बकवास बातें हैं, उन्हें हम छोड़ पाएँ । अगर हमारा घर सही में एक सुरक्षित स्थान है, तो हम वो कौन कौन से बदलाव लाने को तैयार हैं, जिससे घर को सही मायने में एक सुरक्षित स्थान बोला जा सके।
सीजे एक टीचर और काउंसिलर हैं जो कभी कभी लेखिका भी बन जाती हैं। जब वो किताबों में डूबी नहीं होतीं हैं, तब वो राजाजीनगर में हेलमेट पहने इधर उधर चलती हुई मिलेंगी ।