सन 1960 में बंबई में एक पारसी, कांगा नामक परिवार में एक लड़का पैदा हुआ। उन्होंने उसका नाम फ़िरदौस रखा।
वो बड़े होके बड़े प्रसिद्ध हुए। उन्होने पहली भारतीय -अंग्रेज़ी नॉवेल भी लिखी जिसमें समलैंगिक होने का ज़िक्र यूं किया, जैसे ये आम बात हो ।
ये पहला ऐसा भारतीय उपन्यास भी था जिसमें एक विकलांग इंसान की सेक्शुअल ज़िन्दगी और फैंटेसी का बयान था ।
पर सबसे पहले उनको अपनी शारीरिक परिस्थिति को स्वीकार करने की लड़ाई लड़नी पड़ी । उनको एक कभी न ठीक होने वाली बीमारी थी- ऑस्टेओजेनेसिस इम्पेरफ़ेकटा( जिसमें हड्डियाँ बहुत नाज़ुक हो जाती हैं और टूटने का डर रहता है)
ऑस्टेओजेनेसिस इम्पेरफेकटा आपकी हड्डियों को बहुत ही नाज़ुक बना देता है और साथ में आपके लंबे होने पर भी ब्रेक लग जाता है।
इसका मतलब कांगा की लंबाई चार फ़ीट तक के बाद रुक गई थी।
" जब मैं छोटा था तो ऐसी बहुत सी चीज़ें थीं जो मैं नहीं कर पाता - उनमें से सबसे अजीब था बिस्किट न तोड़ पाना। उसकी टूटने की आवाज़ से मेरे अंदर कुछ होता था। वो आवाज़ मुझे उन पलों का याद दिलाती, जब मेरी ही छाती की हड्डी टूटती या कूल्हों की । जैसे भारतीय कैलेंडर में कोई ना कोई त्यौहार साल भर आता ही है, कुछ यूं ही नियमित रूप से मेरी कोई न कोई हड्डी टूटती थी।" - बीबीसी के लिये लिखे गये लेख से
जैसे जैसे कांगा बड़े हुये, उन्हें किताबों में वो समलैंगिक किरदार मिले जो उनकी असल ज़िन्दगी से गायब थे।
" बड़े होते हुए सालों में, मेरे किसी समलैंगिक इंसान से पहचान न थी, सिवाय उन खूबसूरत किरदारों की, जो मुझे जेम्स बाल्डविन, ई. एम. फॉर्स्टर और आइरिस मर्डोक की कहानियों में मिलते ।" - बीबीसी के लिये लिखे लेख में से
कांगा ने शुरुआत कानून की पढ़ाई से की थी पर पत्रकारिता के लिये उसे बीच में ही छोड़ दिया।
उन्हें लघु कहानियाँ लिखने में मज़ा आता था।
एक प्रतियोगिता में उन्होने अपनी कहानी भेजी और वो पुरूस्कृत।
(मज़ेदार बात ये कि उस प्रतियोगिता को जज करने वालों में से एक लेख़क अमिताव घोष थे!)
उसी कहानी के ऊपर उनकी पहली सफ़ल नॉवेल बनी: ट्राइंग टू ग्रो(बढ़ने की कोशिश)
ये कांगा की खुद की ज़िन्दगी पे थी और 1990 में प्रकाशित हुई थी।
'ट्राइंग टू ग्रो' कहानी है डारियस कोतवाल की। जिसे लोग 'ब्रिट' भी बुलाते हैं(ब्रिटल बोनस- नाज़ुक हड्डियों के लिये । लेकिन ब्रिट 'ब्रिटिश' शब्द से भी लिया है, क्यूंकी ब्रिटेन में पारसियों को लेके भेद भाव था, तो ये उसके खिलाफ एक मज़ेदार इज़हार था )
डारियस/ब्रिट अपनी पहचान को लेके, लोगों की 'इस पार या उस पार ' वाली सीमित सोच से जूझता है। कांगा भी जूझते थे : भारतीय/पारसी, सकलांग / विकलांग । स्ट्रेट या समलैंगिक होने पे ।
पहले पहले तो ब्रिट खुद को समाज के हिसाब से स्ट्रेट ही मान लेता है। लेकिन फ़िर।
उसका दिल बुरी तरह से खूबसूरत नौजवान सायरस पे आ जाता है।
कांगा ब्रिट की इस सेक्शुअल डांवाडोल स्थिति को एक बड़े ही बारीक चाकू की चमचमाती धार से जैसे लिखके कहानी का हिस्सा बनाते हैं।
एक सीन में ब्रिट सायरस की गर्लफ्रैंड एमी के बालों को सहलाता है। ये मानकर कि वो सायरस के बाल हैं।
वो जानता है कि वो एमी की ओर आकर्षित सिर्फ़ इसलिये है, क्योंकि एमी के बदन को सायरस ने छुआ था।
कांगा के लंदन में दिन, बहुत खास साबित हुए ।
यहीं पे उन्होंने गे पत्रकार, ट्रूमैन कूपोट की तरह फोटो के लिए पोज़ किया था। यही पे आख़िरकर उन्होनें वो किताब खरीदी, जिसे वो 16 की उम्र से खोज रहे थे, यानी गोर विडाल की ' द सिटी एंड द पिलर '( जो एक जवान आदमी और उसके खुद की समलैंगिकता की खोज के बारे मेँ है ) ।
1997 में उन्होंने लंदन को अपना घर बना लिया। यहाँ पे आना उनका अपनी समलैंगिकता और विकलांगता, दोनों को अपनाने में मददगार साबित हुआ।
"यहाँ का रवैया काफी अलग है - मेरे लिए है काफी लाभप्रद है कि मुझे यहाँ पे एकदम आम समझा जाता है" - इंडिया टुडे आर्टिकल
कांगा का CV एकदम ज़बरदस्त है ( इसको देख के खुद को बेकार मत समझने लग जाना एजेंट्स )
1990: 'ट्राइंग टू ग्रो ' छपी। बहुत पसंद की गयी ।
1991: दूसरी किताब ' हेवेन्स ऑन व्हील्स '(व्हीलचैर पे स्वर्ग) छपी , जिसमें इंग्लैंड में उनके घूमने फिरने के किस्से थे।
1992: ' अ काइंड ऑफ़ इमिग्रेंट ' /परदेसी, अप्रवासी समझो नामक प्ले को लिखा और प्रस्तुत किया।
1992: विकलांगता और समलैंगिकता पे आधारित प्रतिभा परमार की टेलीविज़न डोक्यूड्रामा ' डबल द ट्रबल , ट्वाइस द फन' /दो गुना मुसीबत, तीन गुना मज़े में कहानी सुनाने का काम किया।
1993: विकलांगता के प्रति जो हिन्दू धर्म का रवैया है उसको ले के परमार की डॉक्यूमेंट्री ,' पीपल फर्स्ट : टैबू ' में बात की।
इसमें उन्होंने कर्म को ले के जो आस्था है , उसको ललकारा । वो पुरानी सोच जो कहती है : विकलांग लोग इसलिए तकलीफ में है क्यूंकि उन्होंने पिछले जनम में कोई पाप किया था।
1997 में पुरुसकृत BBC-BFI ब्रिटिश फिल्म ' सिक्स्थ हैप्पीनेस ' में बतौर एक्टर और स्क्रीनराइटर काम किया। फिल्म निर्देशक थे वारिस हुसैन और ये कांगा के पहले उपन्यास पे आधारित थी।
इस कार्ड में एक छोटा वीडियो क्लिप है सिक्स्थ हैप्पीनेस फिल्म से। फिल्म के सीन में साइरस का पात्र बेड पर बैठ कर खिड़की से बाहर देख रहा है। ब्रिट उसके बगल में लेटा है। साइरस अचानक लड़खड़ा कर गिर जाता है और ये सोच कर घबराता है की ब्रिट को चोट न लगी हो। और जब ब्रिट उसके सवालों का जवाब नहीं देता साइरस उसे चूम लेता है ताकि उससे कुछ प्रतिक्रिया मिले। इस पर ब्रिट कहता है जब मैं फ्रैक्चर के करीब होता हूँ, फिर छोटा हो जाता हूँ, और फिर गायब। सब चला जाता है, सेक्स भी। साइरस ब्रिट के लिंग की तरफ देख के कहता है - ऐसा लग तो नहीं रहा और फिर दोनों एक दूसरे के आलिंगन में हस्ते हस्ते बंध जाते हैं। कार्ड के ऊपर ये पंक्तियाँ लिखी हैं:
1997 में पुरुसकृत BBC-BFI ब्रिटिश फिल्म ' सिक्स्थ हैप्पीनेस ' में बतौर एक्टर और स्क्रीनराइटर काम किया। फिल्म निर्देशक थे वारिस हुसैन और ये कांगा के पहले उपन्यास पे आधारित थी।
कांगा आआइलिंगटन , लंदन में खास तौर पे विकलांग लोगों के लिए बनाये गए घर में रहते थे।
फिर 2006 में उस प्रॉपर्टी के मालिकों ने उस साझा आवास को तरुण लोगों के केयर होम में बदलने की कोशिश की। बदले में उन्होंने कांगाऔर बाकी किरायदारों को अलग अलग, एक - एक फ्लैट देने की बात रखी।
कांगा ने इसके खिलाफ एक ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी। वो लड़ाई अपना घर बचाने के लिए थी , और कानूनी थी , साहित्यिक और सांस्कृतिक नहीं।
बारह महीने बाद, उनकी जीत हुई!
“कांगा लोगो से कट के नहीं रहना चाहते। वो एक दूसरे का साथ, दोस्ती , और भाई चारे में विश्वास रखते है। हर कोई अकेले ज़िन्दगी नहीं जीना चाहता। :
कांगा की दोस्त , नॉवेलिस्ट ज़िना रोहन
अंत में हम आपके लिए कांगा के लिखे कुछ खूबसूरत खयाल पेश कर रहे हैं।
समलैंगिकता मेरे अस्तित्व का एक अलग हिस्सा था, जिसने मुझे अपने बदन को गले लगाने का मौका दिया, नहीं तो मैं बस उससे डरता था, उस दर्द से डरता था जो मुझे वो बदन दे सकता है । मेरे लिए खुल के मानना कि मैं समलैंगिक हूँ , आसान था। क्यूंकि लोग ज़िन्दगी भर मुझे यूं भी घूरा ही करते है। और अब मैं उनको घूरने की जो वजह दे रहा था, वो मेरे लिए खुशनुमा थी ।
BBC के लिए लिखा गया लेख
जब आप विकलांग होते हो, तो बचपन से ही लोग आप को बहादुर बनने के लिए बोलते हैं और आप इस चीज़ से तंग आ जाते हो। मानो बहादुरी का आपके पास कोई खाता है और आप आलसी हो , सिर्फ इसलिए उससे चेक काटने में देरी कर रहे हो । बस एक ही चीज़ आपको मज़बूत बनाती है और वो हैआपके जैसे किसी इंसान का कुछ बड़ा करके दिखाना। तब आपको लगता है, कि वाकई, बहुत कुछ करने की संभावना है, और आपकी पहुँच आपको ऐसी ऐसी जगहों पे ले जाने लगती है, जिनके बारे मेँ आपने कभी सोचा ही नहीं होगा।
( स्टीफेन हाकिंग से मिलने के बाद )
अ विजिट टू कैंब्रिज चैप्टर , ' हेवन ऑन व्हील्स ' किताब से।