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मेरी माँ की खोई हुई दोस्तियां

क्या एक शादीशुदा औरत के पास दोस्ती करने की आज़ादी है ?

दूसरों का तो पता नहीं, लेकिन कोरोना का मेरे पे एक एहसान रहा। मेरी बेस्ट फ्रेंड कनाडा वापस जाने वाली थी। उसे इंडिया में 6 महीने और रहने की इजाज़त मिल गयी। कोरोना की वज़ह से कनाडा की फ्लाइट तीन बार कैंसिल हो चुकी थी। लेकिन अब, उसके यूनिवर्सिटी जाने का टाइम आ गया था। वो जा रही थी, सात समंदर पार, एक अलग टाइम ज़ोन में! मेरी इंस्टाग्राम स्टोरी, मेरा कैलेंडर और मेरी आंखें, सब मेरी हालत बयां कर रहे थे। उस वक़्त मेरा मूड ऐसा था, कि अगर कोई भी ये टॉपिक छेड़ दे, तो मैं दहाड़ मार के रोने लगती, या तो चिल्ला पड़ती। पापा दिन में घर पर नहीं होते थे, इसलिए उन्होंने कभी मुझे यूं बिफरते नहीं देखा। जिस रात वो जाने वाली थी, उन्होंने मुझे पहली बार यूं फूट-फूट के रोते हुये देखा। मुझे लगा था कि वो दिलासा देंगे। समझाएंगे कि क्रिसमस में तो मेरी दोस्त वापस आने ही वाली है। लेकिन वो तो मुझे देखकर चौंक गए, और शायद निराश भी हुए।  "दोस्त ही तो है! इतना तो तुम तब भी नहीं रोई, जब तुम्हारा भाई जा रहा था!”  मैं उनको याद दिलाना चाहती थी, कि मेरा भाई सिर्फ शहर के एक छोर से दूसरी छोर शिफ्ट हुआ था, और वो भी अपने कॉलेज के नज़दीक रहने के लिए। सच तो ये है, कि हम ही एक दूसरे से खास मिलना नहीं चाहते- नहीं तो मिलने की कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन उस समय मेरा उनसे बहस करने का बिल्कुल भी मूड नहीं था। मैं बस सिसकती रही। मुझे लगता है कि वैसे भी, मैं पापा के सामने ज़्यादा बात ही कहाँ कर पाती हूँ।  मेरी बेस्ट फ्रेंड और मैंने, एक ही स्कूल से पढ़ाई की थी। बहुत टाइम तक तो हम एक दूसरे को बस बैचमेट की तरह जानते थे। लेकिन फिर हमारा गर्मी के टाइम का ‘समर प्रोग्राम’ आया, जहां हमने साथ में अप्लाई किया। उस दौरान, मुझे उसकी कविताएं पढ़ने का मौका मिला। उसकी कविताओं से प्यार होना लाज़मी था। इतनी ख़ूबसूरती से उसने दुनिया की, और उसमें अपनी जगह की बात की थी। मैं उसकी दुनिया का हिस्सा बनना चाहती थी। शुरुआत में हम हमारे पसंदीदा म्युज़िक और फिल्मों की बात किया करते थे। स्कूल के प्रशासन, जिससे हम दोनों को नफ़रत थी, को हम साथ झेला करते थे। अपने-अपने आर्ट की प्रैक्टिस भी चालू थी। और कुछ भी हो, हर चीज़ में हम एक दूसरे को सपोर्ट किया करते थे। फिर मेरे 17th बर्थडे के दो दिन बाद, हम स्कूल के बाहर पहली बार मिले, लोधी गार्डन में। और इसके साथ हमारी कहानी का रुख़ बदल गया। उसके बाद तो समझो हम हर काम साथ करने लगे। चाहे बाल रंगना हो, दिल्ली के राजसी खंडहरों की ख़ाक छाननी हो, या उनकी उजाड़ हालत में घुमते हुए, हमने क्या खोया-क्या पाया, की चर्चा करनी हो!पर मेरे लिए उसकी सबसे खास बात ये थी, कि जब मैं  खुद को समझ नहीं पाती थी, ना जाने वो कैसे समझ लेती थी। साल में एक-दो बार, हमारे बड़े झगड़े भी हो जाया करते थे, लेकिन फिर हम एक दूसरे को मना लेते थे। मेरे लिए उसकी दोस्ती, और आम तौर पर कोई भी अच्छी दोस्ती, मेरी लाइफ में एक बेरोक खुशी लाई है। और उसके साथ थोड़ी बहुत जलन, एक दूसरे को खोने का डर, और दोस्ती भरी नोंक-झोंक! मैं अपने दोस्तों पर बहुत डिपेंड करती हूँ कि वो मेरे बारे में कोई कठोर सी राय बनाकर बैठ नहीं जाएंगे, बल्कि मुझे सही रास्ता दिखाएंगे। और ये कि वो मेरे मन में जड़ कर गयी सोच को बदलेंगे। मुझे मेरे उस चेहरे से मिलवाएंगे जिसे सामने लाना, मेरे लिए आसान नहीं है। दोस्ती सबके लिए अलग-अलग मायने रखती है।ऐसा क्यों है, ये तो पता नहीं। लेकिन मेरी बेस्ट फ्रेंड और मुझे ही देख लो, हम दोनों भी दोस्ती को अलग-अलग नज़र से देखते हैं। ताज़्ज़ुब ये है कि उम्र के इतने बड़े फासले के बावज़ूद, दोस्ती को लेकर मेरी माँ और मेरे ख्याल काफी मिलते-जुलते हैं।  मैंने तो नहीं, पर मेरी मां ने अपने दोस्तों को तीन सेट में बांट रखा है। पहला ग्रुप, उनके तीन सबसे खास, सबसे करीबी, स्कूल वाले दोस्तों का। एक सी सोसाइटी में पले-बढ़े, एक दूसरे के साथ कम्फ़र्टेबल! वो लोग साल में चार- पांच बार मिलते हैं। वैसे ग्रुप कॉल तो अक्सर ही हो जाया करते थे। जहां वो, या तो अपने बच्चों ने क्या-क्या कमाल किया है, की शेख़ी बघारते, या अपने सास-ससुर की हरकतों के किस्से सुनाते। उसके बाद आती है  उनकी कॉलेज के दिनों की बेस्ट फ्रेंड । मेरी माँ बिना सोचे-समझे जो भी फैसले ले, इस दोस्त ने हमेशा उनकी तरफ़दारी की। उनकी मानो तो मेरी माँ अपने कॉलेज के दिनों की सबसे जिंदादिल, फैशनेबल लड़की थीं।  एकदम बिंदास! घुंघराले बाल, रॉक म्युज़िक सुनने वाली, ढेर सारी जंक ज्वैलरी पहनने वाली और डिज़ाइनर जैसे फैशन की समझ रखने वाली लड़की! सही बात होगी, क्योंकि वो आगे चलकर डिज़ाइनर बन ही गईं। तीसरा सेट उन दोस्तों का, जो ज़रूरत या संगत से दोस्त बने हैं। इस ग्रुप में ज़्यादातर वो लोग हैं, जिनसे वो आजकल बात करती हैं। जैसे कि हमारे पड़ोसी या मेरी क्लास की लड़कियों की मम्मियां। दोस्ती की शुरुआत भले ही किसी मतलब से हुई हो, पर आज वो वाकई एक दूसरे की परवाह करते हैं। शायद उनका एक माहौल में रहना, एक सी परेशानियां झेलना ही उनको करीब ले आया। वैसे भी आस-पास रहने से नज़दीकी बढ़ती है। जब मां की शादी हुई, उनके पहले दो टाइप के दोस्तों के साथ उनको एक आसरा मिला, एक जगह मिली, जहां वो अपने पिछड़े ख़यालों वाले ब्राह्मण ससुराल में अपना पंजाबी अस्तित्व, या यूं कहो कि अपनी सही पहचान क़ायम रख सके। लेकिन आज की तारीख़ में भी, ये चालीस साल की औरतें  एक दूसरे के इतने करीब होकर भी अपनी सीमाओं में रहती हैं। एक दूसरे के बारे में जितना जानना चाहिए, उतना ही जानती हैं।  ना चाहते हुए भी, शादी ने उनकी दोस्ती पर असर तो डाला है और उनके बीच की दूरी बढ़ गयी है। यानी ये ऐसी दोस्तियां बनके रह गयीं, जो केवल हल्की आंच पर ही धीरे धीरे भुनी जा सकती हैं । धीरे-धीरे, पुरानी दोस्ती ठंडी पर गई। और नई दोस्ती को उस तरह पनपने का मौका ही नहीं मिला। पूरी शिद्दत से फैमिली की देखभाल जो करनी थी। शादी के  साथ ही, जैसे मां को एक आदमी दे दिया गया हो और कहा गया हो- जो चाहिए, इस से मांगो। अब शादी के बाहर किसी भी दोस्त के साथ भावनाओं में गोते लगाना कहां मुमकिन था। सारे नियम कानून दिमाग में भरे जा चुके थे।  - "कोई भी पर्सनल प्रॉब्लम हो, पति को बताओ", "घर की बात बाहर मत करो", "अपनी मां से सलाह ले सकती हो। लेकिन शादीशुदा जिंदगी से जुड़ी कोई भी बात अपने दोस्तों से मत करना।" यानी ये सोच के चलना था कि पति- पत्नी के बीच कोई 'वो' नहीं होना चाहिए। भले ही 'वो' कोई दोस्त ही क्यों न हो। घर वाले और बाहर वाले के बीच, एक लक्ष्मण रेखा खींच दी गई थी। दोस्त बाहर वाले थे, उनसे दूरी रखनी थी। कोई भी पारिवारिक मामला, रेखा पार करके उन तक नहीं पहुंचना चाहिए । ऐसे में मेरी माँ का दोनों नाव पे सवार होकर चलना, मुश्किल हो रहा था। यानि समझो अगर वो अपने दोस्तों के साथ लंच का प्रोग्राम बनाती है तो मेरी बहन को स्कूल से नहीं ला पाएगी। जिस परिवार में फैमिली को सोशियल लाइफ के किसी भी रूप से ऊपर रखा जाए, उसमें दोस्ती हमेशा दूसरे नंबर पर ही आती है। अब अगर एक तीन बच्चों की मां, पुरानी सोच वाले जॉइंट फैमिली में रहेगी, तो वो और उम्मीद भी क्या कर सकती है। मेरे पापा की साइड में तो दोस्ती को कुछ यूं देखा जाता है, मानो कोई विदेशी माल है। और जो भी विदेशी है, वो भरोसे के लायक़ नहीं! दोस्ती यानि बस हाय-हेलो और डिनर के बदले डिनर जैसी, लेन-देन वाली फॉर्मेलिटी। परिवार ने इतने कानून बना रखे थे, कि उनके घर में दोस्ती कभी अहम बन ही नहीं पायी। पर मेरी माँ और मेरी ज़िंदगी में दोस्ती की एक ख़ास ज़गह थी। फिर, 2016 में, किसी दोस्त की पहचान में, मेरी माँ को एक नई फ्रेंड मिली। कौन जानता था कि 40 साल की उम्र में भी लोग बेस्ट फ़्रेंड बन सकते हैं। मतलब, ये दोस्ती वगैरह तो जवानी में करने की चीज़ है ना! और जब तक आप बिंदास ना बनो, साथ में, मस्ती में, कुछ पागलपनती न करो, आप इतने क़रीब कैसे आ सकते हो? पर ये भी कहाँ लिखा था, कि 40 साल के लोग मस्त मौला नहीं हो सकते। दरअसल मैंने तब तक अपनी माँ को, बस अपनी माँ के रूप में ही देखा था। मुझे ताज़्ज़ुब होता था, जब मैं उनको पूरा-पूरा दिन उस दोस्त के साथ बातें करते, हंसते और अपनी परेशानियां बांटते देखती। वो लोग बचपन की अच्छी-बुरी यादें भी एक दूसरे से शेयर करते थे। उनकी दोस्त अमेरिका में रहती थी, लेकिन मेरी माँ ने कॉल कर-कर के, अपने इमोशन सात समंदर पार पहुंचाने का रास्ता बना लिया था। दो साल यूं ही बीत गए। और फिर मां एक क़दम और आगे बढ़ी। अब वो उनसे अपनी पसर्नल लाइफ के बारे में भी बात करने लगी। जब मेरी माँ के माता-पिता दोनों गुज़र गए, तो एक पत्नी और एक मां होने के बावज़ूद, उनकी लाइफ में एक ज़गह खाली हो गई थी। इस दोस्ती ने उस ख़ालीपन को भर दिया। लेकिन, चीजें धीरे-धीरे बदलने लगीं। हर बार जब भी माँ-पाप के बीच कोई बहस होती, माँ की दोस्त उनको सम्भालने में एक अहम रोल निभाती। यानी एक ऐसा रोल जो जोखिम से भरा था । यानी वो - एक माँ, बहन, पत्नी और बहू -इन दायरों से बाहर, मेरी माँ का सहारा बनी थी । माँ ने इन दायरों के बाहर अपने सुख दुःख का एक साथी ढूंढा था और ये सबकी आंखों में खटक रहा था। तो बहस का मुद्दा अब ये ‘अज़नबी’ चेहरा था, जो घर के मामलों में शामिल होने लगा था । और ये पुछा जाने लगा कि वो हमारे परिवार के मामलों में क्यों दखल दे रही थी । मेरी माँ की राय, उनके फैसले, सब जैसे बेमानी हो गए थे। क्योंकि उनपर उनकी दोस्त की 'विदेशी' सोच का साया मंडरा रहा था। मेरे पापा की साइड वालों को तो एक बलि का बकरा मिल गया था। अब माँ-पापा के रिश्ते में कोई भी खटास आये, ज़िम्मेदार तो वो नया चेहरा ही माना जाता। तो सवाल एक बार फिर उठाया गया- परिवार पहले, या दोस्ती? और हमारे घर में दोस्ती को एक बार फिर उसकी जगह दिखा दी गई। मेरी माँ ने उस दोस्त से सारे रिश्ते खत्म कर दिए। दबी ज़ुबान में इस पर फैसला जो मिल चुका था । किसी दोस्त के साथ रिश्ता बनाने का मतलब था, फैमिली के अंदर टकराव। यहां परिवार शब्द का सम्बन्ध, परिवार के लोगों से नहीं है, बल्कि समाज में 'परिवार' के स्थान से है। तो ऐसे में, ज़ाहिर सी बात थी, कि इस ‘परिवार’ को हर हाल में प्राथमिकता देनी ही होगी। मतलब साफ था। आजकल फेसबुक पोस्ट देखकर, माँ को वो टाइम याद आता है, जो शायद उनकी जिंदगी में दोबारा नहीं आएगा। उनकी वो एक दोस्ती, जिसने हमारे माहौल, यानी ब्राह्मण के उच्च ख़ानदान की नाईंसाफ़ियों की बदौलत, दम तोड़ दिया। और ये नाईंसाफ़ियां खासकर औरतों के हिस्से ही आती रही हैं। मैंने माँ को जिस तेज़ी से दोस्ती में उड़ान भरते देखा है, उसी तेज़ी से गिरते भी देखा है। और वो आज तक उठ नहीं पाई हैं। अकेलेपन ने उनको जकड़ रखा है। और कोविड ने इन हालातों को बद से बद्तर ही किया है। वो घर की चार-दीवारी में एक बहू और एक बीवी बनकर रह गयी हैं। वो अक्सर मेरे कमरे में आती हैं, इधर का सामान उधर करती हैं और बेड पर मेरे बगल में बैठ जाती हैं। कभी-कभी कुछ पूछ लेती हैं और मैं बेमन सा कुछ ज़वाब भी दे देती हूँ। कभी मैं कुछ पूछती हूँ, और वो ज़वाब देना भी भूल जाती हैं। बहुत कुछ अनकहा रह जाता है, और हम दोनों उस बोझ तले दब जाते हैं। मैं उनसे कैसे पूछूं कि वो ठीक हैं या नहीं, जबकि उनकी हालत मेरे से छिपी नहीं है। मैं खुद सच से भाग रही हूँ। वो शायद मुझे सब बताना चाहती हों, कि वो कितनी अकेली हैं, सहमी हुई हैं, परेशान हैं। पर सोचती होंगी कि इससे माँ-बेटी के रिश्ते में उलझनें ना बढ़ जाएं। कभी-कभी लगता है, उनको अपनी उस समझदार दोस्त की बातें सुननी चाहिए थी। अगर ऐसा होता तो क्या आज माँ बेहतर हालत में होती? मैं उनके साथ-साथ खुद के लिए भी डरती हूँ। मेरे दोस्त जो मेरा आईना हैं, जिनकी वज़ह से मैं दरअसल ‘मैं’ हूँ। उन्होंने अपना वो रूप खो दिया, इस बात का दर्द मुझे भी है। वो अल्हड़पन, वो मस्ती, वो खुद का खुद से मिलना! आज जिस माँ के साथ मैं रह रही हूँ, उनके अंदर ये सबकुछ दम तोड़ चुका है। कभी-कभी मैं उनके उस रूप को मिस करती हूँ। और कभी-कभी कोशिश करती हूँ, कि वो अपने ये दुःख भूल जाएँ ।   रूनी अशोका यूनिवर्सिटी की एक उभरती हुई स्टूडेंट है। नई दिल्ली में रहने वाली 19 साल की आर्टिस्ट, जो पियानो बजाती है। जहां व्यवहार अर्थशास्त्र (Behavioural Economics) और आर्ट एक दूसरे से मिलते हों, वहां वो अपनी एक छोटी सी ज़गह बनाना चाहती है।  जहां में अपने एक छोटे से स्थान पर कब्ज़ा करने की उम्मीद रखती हैं। जब वो ऑनलाइन मुकबैंग (mukbangs- खाने के वीडियो) नहीं देख रही होती हैं,तो शहर के सबसे अच्छे तिरामिसू बनाने वाली जगहों की लिस्ट बनाती नज़र आती हैं।
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