Agents of Ishq Loading...

बेपनाही के बारे में बहुत कुछ समझ में आया - 6 हेल्पलाइन वर्कर के तजुर्बे सुनिए

हेल्पलाइन में काम करना हमें लोगों को सहारा देने में क्या सिखाता हैं?

हेल्पलाइन में काम करना, लोगों के बारे में बहुत कुछ सिखाता है। ढेर सारे लोग अपनी परेशानियाँ और दर्द कॉल के ज़रिये शेयर करते हैं। हमें इंसानों की बेबसी, खुलेपन, लाचारी की फीलिंग, सबके बारे में बहुत कुछ पता चलता है| हमने इन्हीं हेल्पलाइन में काम करने वाले छ: लोगों से उनके अनुभव के बारे में बात की। उनकी बातें सुनकर हमें उनके काम करने के तरीके और कॉल करने वालों के बारे में भी नई जानकारी मिली। जिसमें से कुछ चौकाने वाली बातें थी। हमको ये समझ में आया, कि असहाय फील करना, और ज़िंदगी जीने का हौसला रखना, ये मिली जुली बातें हैं। जब हम असहाय फ़ील कर रहे हों तो हमें मदद मांगने के लिये संकोच नहीं करना चहिये। ये हमारी कमज़ोरी नहीं, बल्कि ताकत की निशानी होती है। इस तरह अपनी परेशानी खुल कर बताने से, आपके और हेल्पलाइन कॉलर के बीच विश्वास बढ़ता है। हम भले ही दिल से बेबस या असहाय फ़ील करते हों, पर इस हालत में पहुंचने के पीछे कई और कारण होते हैं। आपकी सामाजिक परिस्थिती और निजी पहचान से आपको असहायपन की फीलिंग आ सकती है। या पैसे की किल्लत या हमारे समाज के ढांचों से। हमनें ये भी जाना कि, इंसान बहुत इमोशनल होते हैं। वे निर्णय भी दिल से लेते हैं। जिन्हें सही गलत के तराज़ू में तोला नहीं जा सकता। पेश हैं उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश –  

(नज़रिया एक फ़ेमिनिस्ट क्वीयर संगठन है| जो पिछले सात साल से, क्वीयर लोगों की मदद कर रहा है)

  “हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ खुल कर जीना कहाँ आसान है? हमें अपनी बात को खुलकर रखने ही नहीं दिया जाता है| ऑफिस में इस पर ध्यान नहीं दिया जाता| समाज में इसे नज़रअंदाज़ किया जाता है और नारीवादी आन्दोलन में भी इसकी जगह, ना के बराबर है| हम भी सुपरवुमन वाली इमेज में फँस कर रह जाते हैं| ताकि गलती से भी हमारी लाचारी किसी के सामने ना दिख जाए| कितनी ही बार सुना है, कि लोग जब असहाय फील करते हैं, उन्हें अपने पे शर्म आने लगती है| और हम उस शर्मिंदगी को भी कठघरे में खड़ा कर देते हैं| मैं क्वीयर लोगों की काउन्सलिंग करती हूँ| और उनसे ही मैंने खुलापन अपनाना सीखा है|     हम में से कुछ, फ़ेमिनिस्ट आन्दोलन के साथ -साथ, क्वीयर मूवमेंट के भी हिस्सा थे| पर हमें लगता था कि ये दो आंदोलन अलग- अलग रास्ते पकड़ रहे थे | जबकि इनकी मंज़िल एक ही थी| भारत में क्वीयर, फेमिनिस्ट और काम काजी क्वीयर महिलाओं और ट्रांसलोगों के लिए बहुत ही कम हेल्पलाइन वाली संस्थायें थीं और आज भी बहुत कम हैं | इसीलिए हमने नज़रिया की शुरुआत की|    हम अपनी हेल्पलाइन में इस बात का बढ़ावा देते हैं, कि लोग खुद की ज़िंदगी के बारे में भी बात करें| क्योंकि जिनसे बात हो रही है, वो भी हमारी तरह, हमारे साथी ही तो हैं| हम सब ज़िन्दगी की एक ही नाव में सवार हैं | हम ज्ञान नहीं बाँटते, और ना ही लोगों को लेक्चर देते हैं | अपनी ज़िन्दगी के बारे में बात करते हैं| हमें कॉल करने वाले, क्वीयर या ट्रांस लोग होते हैं| ऐसे लोग, जो जेंडर और सेक्सुअलिटी पर हेटेरोनोर्मेटिव सोच(जब केवल आदमी और औरत के बीच के सेक्सुअल संबंध को ही नार्मल माना जाए) को चैलेंज करते हैं| जिसकी वजह से, वो अक्सर अपने को एकदम अकेला महसूस करते हैं| इसलिए हमारे काउंसलर उनसे, अपनी ज़िन्दगी के बारे में भी खुल कर बात करते हैं| ताकि उनको विश्वास हो, कि हम उनको समझते हैं, उनकी बात सुन रहे हैं और वो ये जानें कि हम सही में जानते हैं, कि यूं जीना कितना मुश्किल होता है| हम भी उसी समाज से आते हैं, जिसका वो हिस्सा हैं| हमने भी वही झेला है, जो उनके साथ हुआ है| हमारे जैसे ना जाने कितने और हैं| उनसे बात करते वक्त, जब हमारी टीम ‘तुम’ या ‘तुम्हारे’ की जगह ‘हम’, ‘हम जैसे’ शब्दों का इस्तेमाल करती है, तो उन्हें एहसास होता है कि वो अकेले नहीं हैं| हम भी उनके साथ हैं| और हम जैसे कितने सारे लोग हैं | उनकी बातें सुनकर, हमें अपनी लाचारियों और बेबसी को समझने का मौका मिला है| हेल्पलाइन के हर कॉल के साथ, ऐसा लगता है, कि हम भी अंदर से और खुल जाते हैं, अपनी बेपनाही भी सामने आ जाती है |दिन में 5-6 कॉल्स लेना कभी -कभी  खुद की शान्ति के लिए, बहुत ज़्यादा हो जाता है|  हम सब ने कभी न कभी बेबस या लाचार फ़ील किया है। ये ज़िन्दगी का हिस्सा है। और इस हेल्पलाइन में काम कर के मैंने इसके बारे में करीब से समझा। कि हम लोगों की लाइफ़ के फैसलों को सही या गलत के तराज़ू में नहीं तोल सकते। बल्कि हमें उन्हें और अच्छे से समझने की ज़रूरत है। मैं क्वीयर लोगों की काउन्सलिंग करती हूँ। अपने साथ के लोगों की क्वीयर कॉउंसलिंग(इसे पीयर कॉउंसलिंग कहते हैं) करते समय हमें यही सिखाया जाता है कि खुल के अपनी फ़ीलिंग्स उनके साथ शेयर करो, आँसू निकले तो बहने दो,अगर किसी से जलन है तो बिंदास बोलो। सही गलत में बांटे बिना। ताकि उनको भी लगे कि वो एक दोस्त से बात कर रहे हैं। जो बोलो, इमोशन्स के साथ हो पर एक मददगार की तरह। जो उनकी बात को लॉजिकली भी समझे।     “मैं छ: साल से इस संस्था के साथ जुड़ा हुआ हूँ| हम इमरजेंसी सिचुएशन में फंसी महिलाओं की मदद करने वाली हेल्पलाइन चलाते हैं| हमें ज़्यादातर कॉल, मानसिक रोगी महिलाओं की मदद करने के लिए आते हैं| जो या तो बेघर हैं, या जिनकी ठीक तरीके से देखभाल नहीं की जा रही होती है| हमारे प्रोगाम के तहत छ: महीने उनकी देखभाल होती है, उन्हें सही केयर मिलती है| और छ: महीने बाद, हम उनके पुनर्वास, या नए सिरे से सेट्ल होने में मदद भी करते हैं| जिससे वो एक बेहतर ज़िंदगी जी सकें, जिसके वो हक़दार हैं|     इन छ: सालों में, मैंने ये देखा- समझा है, कि एक सी परिस्तिथी को, अलग अलग लोग, अपने अपने तरीके से महसूस करते हैं|  कुछ अपने को उस ही सिचुएशन में ज़्यादा असहाय फील करते हैं, कुछ कम| मेरे और आपके लाचारी का कारण अलग हो सकता है| एक उदाहरण देना चाहूँगा – पिछले लॉकडाउन में, हमारे पास एक साठ वर्षीया महिला को लाया गया| वो चेन्नई के रास्तों पर दर बदर भटक रही थी| पूछने पर बताया कि वो रत्नागिरी, महाराष्ट्र से हैं| और बीस दिन पहले, अपने घर से चलीं थीं| उसके बाद उन्हें कुछ याद नहीं है| बाद में छानबीन करने पर पता चला, कि वो बीस दिन से नहीं, बल्कि पच्चीस साल से लापता हैं| वो एक शादी में शामिल होने निकली थीं ,और फ़िर रास्ता भटक गयी| उन्होंने ट्रेन पकड़ी जो उन्हें चेन्नई जैसे अनजान शहर ले आई| उन्हें कुछ समझ नहीं थी कि वो कहाँ हैं| उस समय उनके दो बच्चे भी थे| एक सात साल की लड़की और तेरह साल का लड़का| अब तो दोनों की शादी हो चुकी है, दोनों अच्छे से सेटल हैं | उनके पिता, उनके माँ के लापता होने के कुछ साल पहले ही चल बसे थे| वो दोनों अकेले ही बड़े हुए| पर पिछले पच्चीस साल, वो हर हफ़्ते पुलिस स्टेशन का चक्कर काटते थे| इस उम्मीद में, कि शायद उनको उनकी माँ की कोई खबर मिल जाए|      पता नहीं उन्होंने कैसे मैनेज किया| पर इतने सख्त लॉकडाउन के समय भी, अपनी माँ की खबर सुनते ही, दोनों तुरंत चेन्नई आ गए|पर जहाँ वो अपनी माँ को इतने साल बाद देखकर खुश थे, वहीँ उनकी माँ के चेहरे पर, उन दोनों को देखकर, हैरानी और कंफ्यूज़न था| उनके लिए वो दोनों अनजान थे| ये उन तीनों के लिए एक बड़ा ही लाचारी भरा पल था| उनकी माँ को मालूम था कि वो अपने घर से कोसों दूर हैं| पर अब उनको ये नहीं याद था कि वो घर बोले तो किसे बोले| और वहीँ उन भाई बहन के लिए उनकी माँ उनके सामने थी| पर ऐसा लग रहा था जैसे वो अपने बच्चों को भूल चुकी थीं| पर उसके बच्चों ने हिम्मत नहीं हारी| उन्होंने अपनी माँ से आराम से, धीरे धीरे अपने बारे में बताना शुरू किया| पुरानी फ़ोटोज़ दिखाईं, उनके शहर के बारे में बताया, और वो सब बताया, जिससे उनकी माँ को कुछ याद आ सके| फ़िर धीरे धीरे, वो भी उनकी बातें सुनने लगी| उन्हें अभी भी याद नहीं था, कि ये उनके ही बच्चे हैं| पर प्यार और संयम से, उन दोनों ने अपनी माँ को धैर्य दिलाया| और ये उनका  प्यार और धीरज ही था जिससे एक समय बाद, उनकी माँ भी उनसे थोड़ा खुलकर बात करने लगीं|   ये 'मानसिक रोग' होने का लेबल, हम ही लगाते हैं| अक्सर, उनका दिमागी नज़रिया, बाकी लोगों से अलग होता है, बस| वे बातों पर अलग तरीके से रियेक्ट कर सकते हैं| इसको उनकी बेबसी नहीं माना जाना चाहिए और न ही उन्हें इसके लिए शर्मिंदगी फ़ील करनी चाहिए| ये अक्सर वो लोग होते हैं ,जिनके साथ ज़िंदगी ने बहुत बुरा सुलूक किया होता है| इनमें से ज़्यादातर लोग, अपने घर, परिवार, चाहने वालों, सबको खो चुके हैं | उनकी मानसिक स्थिति काफ़ी नाज़ुक होती है| जिसको हमें समझना चाहिए| उनके साथ संयम से पेश आना चाहिए| और उनकी केयर करनी चाहिए| ये बात हर उस शख्स पर लागू होती है, जो किसी भी नाज़ुक हालत से गुज़र रहा होता है| कभी कभार वो हमारे साथ अपनी कहानी शेयर करना चाहते हैं | पर ये उनका निर्णय होना चाहिए| हमें ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए| धीरे धीरे, समय के साथ, जब वो आप पर विश्वास करने लगें, तब वो शायद आपके सामने खुलकर बात कर सकते हैं| इसमें कोई हड़बड़ी नहीं होनी चाहिए| आप उनकी मदद ज़रूर करें, पर थोड़ा संयम भी रखें|    

(संगत एक गैर सरकारी एन.जी.ओ. है ,जो गोवा और भारत के अलग -अलग राज्यों में, चौबीस साल से एक्टिव है)

  “हाल ही में मुझे एक कोविड फ्रंट लाइन वर्कर का कॉल आया| उसकी लाइफ़ में कुछ दिक्कतें चल रही थीं|  जिससे उसके काम पर असर हो रहा था| जिसके कारण वो बहुत ही परेशान साउंड कर रही थी| उसे कोई तो चाहिए था, जो उसकी दिल की भड़ास सुन सके| इसलिए उसने हेल्पलाइन पर कॉल किया| उसे पता था, कि उसे इस हालात से कैसे निकलना है| उसे बस जी भर कर अपनी भड़ास निकालनी थी| हमें उनको उपाय बताने की ज़रुरत नहीं है| तो हमने सीखा कि लोग सिर्फ़ मदद मांगने के लिए कॉल नहीं करते हैं| कई बार वो बस मन की कहने को, आपका कंधा मांगते हैं| उनको आपकी सलाह नहीं चाहिए, न ये कि उनको अब क्या करना चाहिए l वो सब वो पहले से सोच समझ चुके हैं|   बड़ों के मुकाबले, जब किशोर हमको फ़ोन करते हैं, वो ज़्यादा परेशान होते हैं| वे बड़ों से ज़्यादा असहाय और नाज़ुक स्तिथि में होते हैं। उनका गुस्सा सिर्फ़ रिएक्शन नहीं, बल्कि वो उनकी एक समस्या भी होती है। बड़ों के पास तो अपनी बात बोलने का या  सुनाने के साधन होते हैं, पर किशोर इतने लकी नहीं होते| उनके अन्दर फ्रस्ट्रेशन का गुब्बारा फ़ट के बाहर आने का रास्ता देखता रहता है|उनको ये नहीं पता होता, कि वो मदद माँगे तो किससे | ये ही उनकी सबसे बड़ी समस्या होती है| वो खुद अपनी सिचुएशन को नहीं समझ पा रहे होते हैं|  अगर आप उनके बर्ताव पर गौर करें, तो आपको पता चलता है कि उनके रिएक्शन उनके खुद के नहीं होते हैं| वो किसी की नक़ल कर रहे होते हैं| एक बार एक ऐसे ही किशोर कॉलर ने मुझे बताया कि जब उसे गुस्सा आता है, तो वो भी वही करता है जो उसके डैड गुस्से में उसके साथ करते हैं| वो उसे मारते हैं। वो भी गुस्से में अपने छोटे भाई बहनों को मारता है और चीज़ें तोड़ता है| उनका बर्ताव उनका नहीं, बल्कि सीखा हुआ होता है। इस समस्या को समझना उनके बस की बात नहीं होती है| हल ढूंढना तो दूर की बात है|  इसलिए उनकी बातें सुनना बहुत ज़रूरी होता है| एक बार जब वो आपके साथ कम्फ़र्टेबल महसूस करते हैं, तब वो खुल कर आपसे बात करते हैं| अपने गहरे निजी राज़ भी आपसे शेयर करते हैं| जैसे कई अपने यौन उत्पीड़न के बारे में बात करते हैं| उस वक़्त बहुत ज़रूरी है कि हम उनकी बात सुने और रियेक्ट ना करें| कभी कभी वो बोलते रोने लगते हैं| हम उनसे पूछते हैं कि क्या उन्हें थोड़ा समय चाहिए| पर वो अपने आंसुओं के साथ, अपने  दिल का भार पूरी तरह बाहर निकाल देना चाहते हैं| अपनी पूरी की पूरी बात कहना चाहते हैं, जिसे अक्सर उन्होंने लम्बे समय से अपने अंदर दबा के रखा है| वो चाहते हैं कि कोई उनकी सुने और उनसे ये कहे कि सारी गलती उन्हीं की है|  इतने सारे क्लाइंट्स से बात करने के एक्सपीरियंस के बाद, हम खुद अन्दर से  थोड़ा टफ़ हो गए हैं | ये समझ में आने लगता है कि सबके अलग थलग तजुर्बे नहीं हैं, ये सारी बातें आम हैं l ये सोच के मन थोड़ा सहम जाता है| हाँ, और यह उम्मीद लगी रहती है, कि कॉल करने वाला सलामत होगा, पहले से बेहतर फील करेगा।  

(स्नेहा एक एन.जी.ओ. है जो, औरतों, बच्चों और पब्लिक स्वास्थ और सुरक्षा के सिस्टमों के साथ काम करता है

| के.ई.एम्. अस्पताल में उनका एक हेल्पलाइन सेंटर भी चलता है)

  मैं पी.वी.डब्ल्यू.सी. (प्रिवेंशन ऑफ वोइलेंस अगेंस्ट वीमेन यानि औरतों के खिलाफ होने वाली हिंसा की रोकथाम) नामक प्रोग्राम के लिए काम करती हूँ। हम औरतों के जीवन चक्र के आधार पे अपने प्रोग्राम बनाते हैं । कैसे वो लाइफ़ के अलग अलग मक़ाम पर हिंसा, नज़र अंदाज़ी और बेपरवाही का सामना करती है। हम पुलिस और स्वास्थ प्रणाली की मदद से, सिस्टम में बदलाव लाने की कोशिश करते हैं, ताकि आगे किसी औरत को उत्पीड़न और हिंसा का सामना न करना पड़े। हमारे पास ऐसी कई औरतों के कॉल्स आते हैं, जो घरेलु हिंसा का शिकार होतीं हैं| अचानक उस घड़ी, वो औरत ये ठान लेती है कि उसको अपनी ज़िंदगी में होने वाली हिंसा रोकनी है, और वो कॉल करती है| अपनी सहेली या बहन से अपनी बात बताने के बाद, उनको ये हिम्मत मिलती है l या  वो बहुत समय अपने माँ बाप से ये बात छिपाती है l जब माता पिता को किसी तरह सब कुछ पता चल जाता है, उस औरत को इससे थोड़ी आज़ादी मिल जाती है, खुल के अपनी बात बताने की ताकत मिल जाती है |  थप्पड़ फ़िल्म में तापसी पन्नू जैसी कई औरतें होती हैं, जो एक दिन क्या, एक पल भी खुद पर हाथ उठना बर्दाश्त नहीं करती हैं| वहीं दूसरी ओर, ऐसी भी औरतें होती हैं ,जो सालों साल हिंसा झेलती हैं| और फ़िर एक दिन निर्णय लेती हैं कि बस अब बहुत हुआ | वो उस सिचुएशन में अपने रोल को कैसे देखती हैं, ये उसपे भी निर्भर होता है|  बहुत कुछ आपके सपोर्ट सिस्टम पर भी निर्भर करता है| इस पर निर्भर करता है कि आपके परिवार या आपके ससुराल से आपको कितना सपोर्ट मिलता है| कई जगह सास अपने ही बेटे के ख़िलाफ़ अपनी बहु का साथ देती है(हमारे टीवी सीरियल में जो दिखाया जाता है, उसके बिल्कुल अलग) | कई कॉलर्स तो ऐसी होती हैं, जिनके साथ कुछ देर पहले ही मारपीट हुई है, या रूम में बंद कर दिया गया है| हर एक महिला की उनकी खुद के हालात से लड़ने की कहानी जान के हमें आश्चर्य होता है| जो औरत ताउम्र दूसरों पर डिपेंडेंट थी, वो अचानक से अपने पैरों की बेड़ियाँ तोड़, एक नयी ज़िन्दगी की शुरुआत करती है| खुद का बिज़नस शुरू कर दिया है| खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए बहुत अच्छा कमा रही है| दूसरी तरफ, कभी कभी हम एक बहुत काबिल लड़की को देखते हैं और सोचते हैं कि वो कुछ धमाकेदार काम करने वाली है .. पर वो अपने माँ और भाई पे निर्भर रहने का चॉइस लेती है | ये देख कर हमें आश्चर्य तो होता है, पर ये उसकी चॉइस है| और अगर वो उसमें खुश है, तो हमें भी संतुष्टि होनी चाहिए| कई बार औरतें अपने नसीब को ही कोसती हैं| “मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ, मेरे ही नसीब में था|” ऐसी सोच रखने वालों के मदद के लिए, हम ग्रुप थेरेपी सेशन रखते हैं| जहाँ इस तरह सोचने वाले लोग साथ आ कर, अपने अनुभव आपस में बाँट सकें| और देख पायें कि वो इस परेशानी की पहाड़ी में अकेले नहीं फँसे हुए हैं| ये समझें कि “मेरी जैसी कई औरतें हैं जिसने मेरे जैसा ही अनुभव किया है| हम एक दूसरे की ताकत बन सकते हैं| एक दूसरे से बात कर, उनकी स्तिथि समझ सकते हैं|”  

(सी.एस.जे. एक संस्था है जो बच्चों को मदद करने पे फोकस करती है| बाल यौन शोषण से बच के निकलने वाले, या फिर घरेलू हिंसा के शिकार बच्चों को, न्याय दिलाने का काम करती है|इसके अलावा, वो उन बच्चों की भी मदद करती है जिन्होंने कोई जुर्म किया हो, या किसी को चोट पहुंचाई हो|)

   “हम भारत की उन गिनी चुनी संस्थाओं में से हैं, जो रिस्टोरेटिव जस्टिस के लिए काम करती है| जिसमें हम गुनाहगारों को सज़ा दिलवाने पर फ़ोकस नहीं करते हैं| बल्कि गुनाहगार और पीड़ित दोनों से बात कर के, उन दोनों की मदद करने की कोशिश करते हैं| उनसे उनकी ज़रूरतें पूछते हैं| उनके साथ जो हुआ, उसे ठीक करने करने के लिए उनको क्या चाहिए| हम उनकी कैसे मदद कर सकते हैं| ये तरीका हमें तब समझ में आया, जब हम ऐसे बच्चों के साथ काम कर रहे थे, जो यौन शोषण से निकल के आये थे| हमनें पाया कि ज़्यादातार केसेज़ में दोषी या तो बाप या फ़िर दादा होते हैं| कई बार तो ये उत्पीड़न सालों साल तक चला| पर गौर करने की बात ये है, कि कई बच्चों ने हमसे ये भी कहा, "अगर मुझे पता होता कि दंड न्याय/ क्रिमिनल जस्टिस का सिस्टम मेरे साथ ऐसा सुलूक करने वाला है, तो मैं रिपोर्ट ही नहीं करता "|   हादसे की रिपोर्ट करना ज़रूरी होता है| लेकिन सच तो ये है, कि इस सारे सिस्टम में बहुत खामियां हैं,  इसे करने का तरीका मानवीय नहीं है l रिपोर्ट  करते वक्त, सारे निर्णय स्टेट के हाथों में होते हैं, और पीड़ित से बार बार अपनी आपबीती सुनाने को कहा जाता है, उसपे आड़े टेड़े सवाल पूछे जाते हैं  l ये साबित करने के लिए, कि उसके साथ वाकई ऐसा हुआ था | इस तरह, उसे उस हादसे को कई बार जीना पड़ता है| उसे इन्सान की तरह नहीं, बल्कि बस एक गवाह की तरह देखा जाता है| जो एक प्रोसेस में शामिल होता है, गवाही देता है, और फिर चला जाता है| जो भी किसी वजह से इस प्रोसेस में पाँव रखता है, उसकी लाइफ पे मानो दंड न्याय प्रणाली/क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का भारी हथौड़ा पड़ जाता है | जिन बच्चों ने गुनाह किया है, उनको बहाली/पुनर्वास के लिए जुवेनाइल रीहैब(अट्ठरह से कम उम्र साल के अपराधियों के लिए सुधार गृह) के लिए भेजा जाना चाहिए| पर ये करते समय भी, बच्चे को सॉरी तक बोलने का मौका नहीं दिया जाता है|  वो ये नहीं कह पाता "मैं समझ पा रहा हूँ कि मैंने जो किया, सही नहीं था, मैं वो मामला सुधारने की कैसे कोशिश कर सकता हूँ "| वो ये भी नहीं पूछ सकता कि अपनी गलती सुधारने के लिए वो क्या कर सकता है|  एक बार हम एक आदमी से बात कर रहे थे, जिसका मोबाइल फ़ोन एक बच्चे ने चुराया था| हमने उस आदमी से पूछा, कि क्या आप उस बच्चे से बात करना चाहेंगे| भले उसकी गलती माफ़ न करें, पर क्या ऐसा कुछ हो सकता है, जिससे उसे सीख भी मिले और जेल ना जाना पड़े| उसने कहा कि माना कि “मेरा फ़ोन चोरी हुआ था, पर मैं नहीं चाहूंगा की ये बच्चा जेल जाए| मैं उसकी लाल आँखें देख सकता हूँ| उसे जेल की नहीं, नशा मुक्ति केंद्र की ज़रुरत है| ये ड्रग एडिक्ट है| जेल भेजने से कुछ भला नहीं होगा|” हमें लोगों की लाचारी को बहुत ही बारीकी से समझने की ज़रुरत होती है| जिस आदमी का फ़ोन चोरी हुआ, उसे उस लड़के की लाचारी उसकी आँखों में दिखाई दे गयी – कि वो लड़का एक गरीब घर से है, जहाँ उसने प्यार से ज़्यादा, हिंसा देखी है| जिसके कारण उसे ड्रग्स की लत लग गयी| इसलिए अब वो मोबाइल फ़ोन चोरी करने वाले गैंग के साथ उठता बैठता है| और जल्द ही और बड़े जुर्म करने की कोशिश करेगा| हमारी ज़िन्दगी के कई ऐसे पहलू होते हैं, जिससे हमारी लाचारी की दशा का पता चलता है| अगर इन सब पहलूओं को हम जान लें, तो हमें हमारी लाचारी का कारण अपने आप दिख जाएगा| किसी की लाचारी भी ठहरी हुई फीलिंग नहीं है, ये बदलती रहती है| और इसकी जड़ें, इंटेरसेक्शनल होती हैं (इंटेरसेक्शनल: अलग अलग पहलू की पहचान: वर्ण, वर्ग, जाती, जेंडर l इंटेरसेक्शनल समझ, इन सब पहलुओं की उलझी हुई जड़ों को समझने की कोशिश है) l यानी उस एक इंसान की ज़िंदगी में, उसने अपने को बार बार, अपने  अलग अलग अधिकारों से वंचित पाया होगा l एक लड़का हमारे पास आया था, छोटे मोटे गुनाह किये थे l जिसकी वजह से उसने करेक्शनल होम/ सुधारक संस्था में कई महीने बिताये थे l पर जब वो वापस आया तो उसके स्कूल ने उसे एडमिशन देने से मना कर दिया| तो अब उसके पास स्कूल जाने की कोई गुंजाइश नहीं थी| जिससे उसके सुधार की एक उम्मीद हो सकती थी, उस स्कूल ने मुँह फेर लिया| इन मामलों में लोगों के साथ काम करते करते, मुझे पता चला कि मेरी लाइफ़ कितनी आसान रही है| हमारे समाज में लोगों के बीच ज़मीन आसमान का फ़र्क है| जब मैंने उन बच्चों के साथ काम करना शुरू किया, जिन्होंने कुछ गलत काम किया था, तब मैं उन्हें वैसे ही देखती थी जैसा समाज देखता है – दोषी | मैंने कभी उनकी लाचारी समझने की कोशिश नहीं की | ये कभी नहीं सोचा कि उन्हें भी प्यार और लाड़ की ज़रुरत है| काफ़ी समय बाद, मुझे ये बात समझ आयी और मैं उन्हें बच्चों के रूप में देखने लगी | जिन्हें प्यार और सुरक्षा चाहिए|   

सेफ़ एक्सेस ट्रांस क्वीयर लोगों को इमोशनल सपोर्ट देता है| इसकी शुरुआत समुदाय के लोगों ने साथ में आकर की|

  “मैं एक कम्युनिकेशन प्रोफेशनल हूँ| और क्वीयर समुदाय की मदद करने में मेरी ट्रेनिंग रही है| मैं सेफ़ एक्सेस के साथ मिलकर काम करती हूँ| जो लोग इमोशनल तौर पर अपनी जेंडर और सेक्सुअल पहचान को लेकर काफ़ी परेशानी से जूझ रहे होते हैं, वो सपोर्ट की तलाश में, हमें फ़ोन करते हैं|    मेरे ख्याल से मदद मांगने से ही इंसान अपने आप को आपके सामने खोल के रख देता है, और इसलिए भी असहाय फील कर सकता है| ऐसे में इस बात को समझना और क़ुबूल करना, बहुत ज़रूरी है| जब कोई आपके पास इमोशनल सपोर्ट के लिए आता है, वो अपना दिल खोल के आपके सामने रखता है| उनकी इस पहल की आपको इज़्ज़त करनी चाहिए, ये इज़्ज़त बयान करनी चाहिए और ये भी, कि आप समझ रहे हैं कि वो सोच समझ के, निर्णय लेके आपके पास आये हैं |  अक्सर ही हम अपनी बात और अपने जवाब पर इतना फ़ोकस करने लगते हैं, कि भूल ही जाते हैं की सामने वाला क्या बोल रहा है| हमारा काम उनको जवाब देना नहीं होना चाहिए , बल्कि उनको सुरक्षित और कम्फ़र्टेबल महसूस कराना होना चाहिए| कई बार लोगों को बस ये ही सुनना होता है, कि आप उनकी बात और फ़ीलिंग, दोनों समझ रहे हैं| उनको आपसे कोई हल नहीं चाहिए| कोई उनकी बात सुने| अपनी फ़ीलिंग किसी के साथ शेयर कर पाएं| अपनी ख्वाहिशें बता पाना, बस यही तो वो चाहते हैं | इससे भी काफ़ी मदद मिलती है|  अपने करीबी दोस्त से बात करना अच्छा लग सकता है l पर दोस्ती तो दो लोगों के आपसी रिश्ते के बारे में होती है, कभी इधर से, कभी उधर से, रिश्ते में कुछ लेना, कुछ देना, चलता रहता है l  यहाँ पर ऐसा नहीं है| यहाँ फ़ोकस सिर्फ़ मदद मांगने वाले पे है, न कि उसपे जो मदद दे रहा है | हम आपकी बात सुनते हैं, जो फ़ीलिंग आप शेयर करते हैं| और आपको बताते हैं, कि जो आप महसूस कर रहे हैं, उसमें कुछ गलत नहीं है | बस इतना करना भी बहुत कुछ कर जाता है| एक बार जब आपको सुनने वाले पर भरोसा हो जाता है, तब आप खुल कर अपनी बात कर सकते हैं| बात करते हुए, एक पल ऐसा आता है, जब सुनाने वाले का दिल भर आता है| तब उन्हें एहसास होता है, कि वे अपने अन्दर कितना इमोशनल भार लेकर, कितनी दिक्कत से हर दिन जीने की कोशिश में लगे हुए थे|  ये एक महत्वपूर्ण पल है, जब अपनी सारी बात सच सच कहते हुए, बात करने वाले को समझ में आता है कि वो कितना भार उठाये थे l इस पल में बहुत कुछ बदल सकता है l वो जहाँ पे अटके हुए थे, वहां से अक्सर आगे निकल पाते हैं l तो ऐसे में उनकी बात को प्यार और ध्यान से सुनना ही सबसे ज़रूरी काम होता है l देश भर के इतने क्वीयर लोगों से बात करने के बाद पता चलता है, कि हम सब किसी तरह, अपने अपने तरीके से, अपनी ज़िन्दगी की जंग हर दिन लड़ रहे हैं| ये काम करते हुए, मुझे खुद की लाइफ़ के बारे में भी सोचने के बहुत सारे मौके मिले है| मैं अपने आप से पूछती हूँ कि मैं खुद कहाँ तक इन बातों पे विशवास करती हूँ और कहाँ तक अपनी ज़िंदगी में इन्हें अमल कर पायी हूँ l अपने  समुदाय के साथियों के लिए सपोर्ट बनकर, मैंने खुद के बारे में भी बहुत कुछ जाना है| मुझे भी लोगों के समय, प्यार, दोस्ती का हक है| मुझे वो सब करने का हक है , जिससे मुझे ख़ुशी मिलती है| मुझे इस बात का भी एहसास हुआ है, कि जिन ज़रियों से या जिन बातों से, मैं लोगों की मदद करती हूँ ,वही मेरी लाइफ़ में भी लागू होती हैं|” अनुवाद: प्राचीर  
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