लॉकडाउन में लिव इन
शहरों में लाइव-इन में रहने वालों का लोखड़ौन कैसे बीता
लेख - तूनिका
चित्रण - एना दासगुप्ता
अपना कॉलेज शुरू करने के लिए जब मैं पहली बार दिल्ली पहुंची, मुझे जल्दी ही समझ में आ गया कि राजधानी में एक अकेली औरत को रहने के लिए जगह मिलना कितना मुश्किल है। मैं एक विमेंस कॉलेज में पढ़ रही थी और मेरा पेइंग गेस्ट कमरा या पी.जी.( जैसा कि हम उसे बुलाते हैं), ठीक मेरे कॉलेज के गेट के सामने था। और वो भी सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही था। जबकि देश के कई हिस्सों से औरतें इस कॉलेज में पढ़ने आती थीं, उनमें से कुछ ही को कॉलेज के हॉस्टल में जगह मिल पाती थी। तो ऐसे में कॉलेज के आस पास का इलाका जल्दी ही एक मिलि-जुली व्यवस्था में बदल जाता था , जो उन युवा औरतों के जीवन को क़ायम रखता था। हाँ, इस सब से सुविधा थी, पर ये सब आसान नहीं था। बहुत ही सख़्त आंटी और अंकल पी.जी. चलाया करते थे, जो आने-जाने पर बड़ी पाबंदियाँ लगाते - हर मामले में कण्ट्रोल करने जैसी कोशिश करते थे। किसी के खाने की आदत पे कण्ट्रोल, और यहाँ तक कि किसी के फ्रेंड सर्किल पे भी। कुछ औरतें अगर एक साथ फ़्लैट किराए पर लेकर रहतीं, तो वहाँ भी उन्हें अपने मकान मालिक, पड़ोसियों और अभिभावकों की लगातार कड़ी निगरानी में रहना पड़ता था। यानि ये हाल था कि जबकि इन औरतों की वजह से ही सबकी जीविका चल रही थी, फिर भी, हर बात पर उन्हें ही कटघरे में खड़ा किया जाता। हर बार उनकी ही बुराई की जाती, उनको कुसूरवार बताया जाताl यहाँ तक कि कभी-कभी अपने ऊपर डाले गए नियमों का पालन नहीं कर पाने की वजह से उन्हें वहां से बाहर भी निकाल दिया जाता था।
पाँच साल बाद, जब मैं उतनी सिंगल नहीं थी, तब मुझे और मेरे पार्टनर को ये समझ में आया कि किसी अविवाहित जोड़े के लिए एन.सी.आर. (दिल्ली) में घर मिलना कितना कठिन है। 2018 की सर्दियों में, जब मैंने और मेरे लॉन्ग-टर्म पार्टनर ने एकसाथ रहने के लिए कोई अपार्टमेंट ढूंढना शुरू किया, तो हमें बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। एक ब्रोकर, हमारी बातों से अचरज में पड़ गया। हम एक-दूसरे को पार्टनर क्यों कह रहे थे ? क्या हम बिज़नेस पार्टनर थे जो एक फ़्लैट की खोज में थे ?
उसने अपनी बातचीत में उलझे हुए सवालों की झड़ी लगा दी। जब भी हम किसी नए फ़्लैट के मालिक से मिलने जाते, तो हम ये सोचकर ही परेशान हो जाते कि अब वो हमारे शादी-शुदा होने पर सवाल करेगा। हम दोनों ने एक दूसरे को अंगूठी पहना रखी थी, ताकि हम शादी-शुदा दिखें। एक बार तो मैंने एक फ़्लैट मालिक से ये भी कह दिया कि ये मेरे मंगेतर हैं। ये सोच के कि ऐसा कहने से उनकी आँखों में हमारा रिश्ता जायज़ लगे। मगर फिर भी हमारी बातचीत रुक गयी। उस फ़्लैट मालकिन ने वहीँ के वहीँ हमें फ़्लैट देने से इनकार कर दिया। कहा कि चूँकि हम बंगाली हैं, इसलिए उसे डर है कि हम मछली पकाएंगे जिसकी महक से वो परेशान हो जाएंगी। ये साफ ज़ाहिर था कि उन सबने हमारे रिश्ते को अस्वाभाविक और नाजायज़ समझा। दुःख तो इस बात इस बात का था कि ये हमारे लिए नया अनुभव नहीं था। हम शादी-शुदा नहीं थे, इसलिए हमें होटलों में भी जगह नहीं मिली। यहाँ तक कि जब हमें एक किराये का घर मिल गया, तो हमको घर मिलने तक एक रात होटल में रहने की ज़रुरत पड़ी l पर वो होटल जिसे हमने एक रात बेघर गुज़ारने के लिए बुक किया था, उसने भी बिना विवाह के प्रमाण के हमें ठहरने की अनुमति नहीं दी। मज़े की बात तो ये है कि उस होटल की श्रंखला आज अपने कपल-फ्रेंडली (Couple Friendly) होने का प्रचार कर रहे हैं। ऐसी दुनिया में, जहाँ शादी को ही जोड़े की पहचान माना जाता है, वहां एक अविवाहित जोड़े के लिए रहने को घर मिलना एक लम्बा और काँटों भरा रास्ता होता है। समाज दुनिया को दो हिस्सों में बांटकर देखता है - एक - जिसमें परिवार शामिल हो, जैसे कि शादीशुदा जोड़े (और भी बेहतर हो अगर आपके बच्चे हों, क्योंकि उनसे परिवार जाने कैसे और लाजमी लगने लगते हैं ) और दूसरा - अविवाहित लोग, जो समाज की नज़रों में एक अस्वाभाविक स्तर रखते हैं।
जिस घर में हम अभी रह रहे हैं, जब तक हमको वो मिला, तब तक हम दोनों बिलकुल थक के चूर हो चुके थे और सिर्फ़ शांति से आराम करना चाहते थे। इसलिए हमने तय किया कि हम अपने मकान-मालिक से कहेंगे कि हम शादी-शुदा हैं और ये सुनके वो राज़ी-ख़ुशी लीज़ एग्रीमेंट पे साइन करने को तैयार हो गया। लेकिन मैं झूठ बोलने में एक दम कमज़ोर हूँ और अपने घर में घुसने के दिन, एक असहाय और थकान भरे पल में, अपने मकान-मालिक के ये पूछने पर कि क्या हम सही में शादी-शुदा हैं, मैंने उसे सच बता दिया। लीज़ साइन हो चुकी थी और हमारा फ़र्नीचर वग़ैरह भी आ चूका था, तो मकान-मालिक ने मुझसे कुछ ज़्यादा सवाल नहीं किये और हमें फ्लैट में आने दिया। लेकिन इससे मेरे अंदर ये डर बैठ गया कि साल भर बाद, जब लीज़ रीन्यू होगी, तब क्या होगा। ऊपरवाले के आशीर्वाद से, हमारे मकान-मालिक एक बहुत ही प्यार से बोलने वाले, तमीज़दार और सुलझे हुए इंसान निकले। उन्होंने इसके बाद कभी शादी की बात फिर से नहीं उठाई और आज पिछले डेढ़ साल से हम उसी फ्लैट में आराम से रह रहे हैं (नज़र ना लग जाए ) l
हमने छह साल से लॉन्ग डिस्टेंस में अपना रिश्ता कायम रखा था lएक ही शहर में अपना मन पसंद काम पाने के लिए हम दोनों जी-जान से कोशिश कर रहे थे। जब हम पहली बार यहाँ आए थे, मुझे सब कुछ जादुई सा लगा था। हम दोनों बिना कोई छुट्टी लिए, बिना बाहर गए, बिना मिलने के बाद घर लौटने के लिए टैक्सी ढूंढने की परवाह किए, एक दूसरे के संग समय गुज़ार सकते थे। हमें सुबह काम पे जाना पड़ता था। अपना निजी करियर बनाने के लिए अपना समय और अपनी ऊर्जा दोनों का इस्तेमाल करना पड़ता था l फिर शाम को हम एक साथ घर लौटते, अपने दिन भर के काम की बातें करते, खाना बनाते, कुछ पैक कराके ले आते और फिर टीवी शो का आनंद लेते। हां, ये सच है कि हमारे बीच, घर का कचरा फेंकने, किराने का सामान लाने और ऐसे ही कई रोज़ की दुनियादारी वाली बातों पे बहस होती थी। लेकिन वो बहस हमारे एक साथ होने पे बेइंतेहा ख़ुशी की बराबरी नहीं कर सकती थीl हम बिना किसी रीत रिवाज़ के, खुशी खुशी, एक लम्बे समय से एक दूसरे से जुड़े थे l
अब सीधे आज पर आते हैं, जहाँ ये सारी दुनिया पूरी तरह अँधेरे में डूब चुकी है - मैं हर सुबह न्यूज़ देखने से डरती हूँ क्योंकि मुझे चिंता रहती है कि आज का समाचार कल से भी बद्तर होगा। कोई महामारी, बाढ़, अप्रवासी की समस्या, मेरे अपने शहर में कोई भयानक साइक्लोन, जातीय दंगे, धार्मिक रूढ़िवाद, लॉकडाउन और ऐसी कई और भयावह चीज़ें जिन्हें गिनने से मैं घबरा उठती हूँ। इन सब ने हमारी ज़िन्दगी को उलट के रख दिया है।
जब मैं कॉलेज में थी, तो मैं और मेरी एक दोस्त सोचा करते थे कि जैसे फिल्मों में दिखाते हैं, अगर किसी दिन सारे मुर्दे अचानक ज़ोम्बी बनके चलने लगे, तो हम क्या करेंगे। उसका आईडिया था, कि हम ज़रुरत के हर सामान से संपन्न एक घर में रहेंगे और हमारे चारों तरफ़ ट्रेडमिल (व्यायाम का उपकरण) लगे होंगे, ताकि वो ज़ोम्बी उनमें फँस जाएं( ज़ोम्बी अकल्मन्द नहीं होते ना ) l मुझे क्या पता था कि क़यामत की रात टाइप का ये जो आज हो रहा है, इसके होने पे, मैं घर पे, अपनी नाईटी में अपनी घबराहट से जूझते हुए और टीवी देखते हुए पाई जाऊंगी ।
अगर मुझे फ़िल्मी क़यामत की रात किस्म के सीन के लिए पार्टनर चुनने को कहा जाता, तो मेरा पार्टनर मेरी पहली पसंद नहीं होगा। वो ना तो लंबा चौड़ा है, ना हट्टा-कट्टा, और एक टेक्निकल इंसान होने के नाते, वो प्रेतात्माओं और उन्हें मात देने के बारे में बहुत कम जानता है। पर चलो, एक दूसरे का ही साथ है और आजकल हम दोनों लगे हुए हैं l आजकल बड़े सारे घंटे ऑफिस का काम करना पड़ता है, पहले से ज़्यादा l और टाइम टाइम पे हम अजीब सा कुछ कर जाते हैं, जैसे आधी रात को केक आर्डर कर लेते हैं ।
सालों तक जुदा रहने के बाद, एक साथ एक घर में आना, हर पल एक दूसरे का दीदार करने का मीठा सुख पाना, हमारे लिए तो ये एक सपने का सच होने जैसा था। इन डेढ़ सालों में काम और (वो जो मैं कहती हूँ) अंतहीन साथ-साथ सोने को बारीकी से बैलेंस किया था...हमें क्या पता था इस ऐसा समय आएगा कि हम एक दूसरे के सिवा किसी और को देख ही नहीं पाएंगेl
लॉकडाउन के पहले कुछ दिन ज़बरदस्त बेसब्री से गुज़रे। वो बेगानों-सा माहौल मुझे घबराहट के दौरों की ओर धकेलता रहा जबकि मेरा पार्टनर ख़ामोशी से मेरे लिए परेशान रहा। मैंने थोड़ी सफलता के साथ, अपने काम को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर करने की कोशिश की, ताकि मैं ढीली न पड़ जाऊँ। उसके काम का लोड बढ़ गया।ऑफिस की समय सीमा से ज़्यादा काम होने लगा। हर कोई उस नए घर-बैठे-काम (Work-From-Home) के माहौल को अपनाने लगा। नतीजतन, एक ही घर में रहने के बावजूद हम एक दूसरे को कम देख पाने लगे। मैंने अपने सोशल मीडिया पर परिवारों का प्रचार देखा और देखा कि लॉकडाउन कैसे उनको एक दूसरे के क़रीब ला रहा है l सोचने लगी कि हम क्या ग़लत कर रहे हैं ? कहाँ गया हमारा आपसी लगाव ? क्या वो इस भयावह स्थिति से बचने या मेरे पार्टनर के ज़रुरत से ज़्यादा काम करने के झगड़ों में सिमट गया ?
हम दोनों में से कोई भी एक अच्छा घर संभालने वाला नहीं है। ऊपर से हमने संक्रमण (Virus) के डर से अपनी कामवाली को तनख्वाह सहित छुट्टी पर भेज दिया था l स्थिति ये हो गयी कि जूठे बर्तन और गन्दा फ़र्श हमारे झगड़ेकी वजह बन गए। उस वक़्त ऐसा लगता था कि संसार का यही अंत है और हम इससे कभी उबर नहीं पाएंगे। उसी समय हमने देश के बाकी हिस्सों के बारे में पढ़ा, ख़ासकर प्रवासी मजदूरों की मुसीबतों के बारे में l ये अहसास हुआ कि हम कितनी ज़्यादा सुविधा से जी रहे हैं। बावजूद इसके, कि हमें ऐसा लग रहा था कि हमारे जीवन में सबकुछ ग़लत गुज़र रहा था।
लॉकडाउन हुए अब छह महीने से ज़्यादा गुज़र चुके हैं और बहुत कुछ बदल भी गया है l हम अब भी कोरोना को लेकर चिंतित हैं, पर निजी तौर पे, इस परिस्तिथि को पहले से बेहतर संभाल पा रहे हैं l घर का काम करने का थोड़ा सलीका आने लगा है और अब काम करने को भी कोई आने लगा है l उसके काम पे आने का समय बदलता रहता है, जिससे मैं परेशान होने लगती हूँ l पर जैसे तैसे, हमने इस दौर से गुज़र रही ज़िंदगी को स्वीकार लिया है l हम सारे समय आँखों में आँखें डाले, प्यार में डूबे हुए प्रेमी नहीं हैं ( जैसे कि हमने तब सोचा था, जब हमने एक साथ रहने का फैलसा लिया था ) l पर हमारे बीच एक पारिवारिक सम्बन्ध पनपा है, और हमने एकजुट होकर इस कोविड की परिस्तिथि का सामना किया है l हम एक दूसरे से अब भी बहुत प्यार करते हैं, पर साथ साथ रहने से बड़ी सारी चुनौतियां भी सामने आती हैं l ऐसी चुनौतियां जिनके आगे सबसे रोमांचक बातें भी फीकी लगने लगती हैं l जैसे रविवार की छुट्टी के दिन, अचानक गर्मी के बीचों बीच आपका ए. सी. के खराब होने से बर्बाद हो सकता है और आपके मम्मी डैडी भी आस पास नहीं, कि आ के आपके लिए मसला हल कर दें l
जब आप इंडिया में, बिना शादी किये, लिव इन कपल के रूप में साथ रहते हो, तो समाज ऐसे कई तरीके निकालता है आपको ये बताने को, कि ये सही या स्वाभाविक नहीं है l कि आप एक 'नार्मल' परिवार जैसे नहीं रहते, यानी बिन शादी के आपका परिवार परिवार नहीं कहलायेगा l
पर हम दोनों को हमारा ये परिवार ही पसंद है l हम तीस की उम्र की ओर बढ़ रहे हैं, हमें बच्चे भी नहीं चाहिए l हाँ अपने इस परिवार को कानूनन मंज़ूरी दिलाने को, या ऐसा कराते हुए दोस्तों को पार्टी देने के लिए शादी के बारे में सोचा जा सकता है पर और किसी वजह से नहीं l हम दोनों, अपन की इस जोड़ी को परिवार ही मानते हैं, हमें और कोई परिवार नहीं खड़ा करना l सेहत या बीमारी में, अच्छे समय में या इस महामारी में, मैं बस एक 'लिव इन' ( इन शब्दों को अक्सर बड़े धिक्कार से इस्तेमाल किया जाता है ) का हिस्सा नहीं हूँ l ये मेरा पारिवारिक बंधन है, खुद का चुना, रचा, बनाया हुआ l
तूनिकालेखक, सम्पादक और ऑडियो बुक की निर्माता हैं l वो गुडगाँव में रहती हैं और जेंडर, संस्कृति, खाना, मानसिक स्वास्थ्य और अन्य विषयों पे लिखती हैं l
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