ऐसी क्या बात है कि एक औरत का इंस्टाग्राम पर होना, जो कि इतना ख़ुशनुमा, इतना संतोषजनक है - मर्दों को खीज दिला देता है ?
लो, यहाँ एक और विषमलैंगिक (straight- heterosexual) आदमी मुझसे कह रहा है कि मैं “ बहुत ज़्यादा ” इंस्टाग्राम करती हूँ। पिछले दो सालों में ऐसा कहने वाला पाँचवाँ आदमी। मैंने आँख सिकोड़ी और चुपचाप बड़ी ठंडक से अपना एकदम ठंडा सुशी (एक जापानी व्यंजन) खाती रही, कि कहीं मेरी खीज बाहर न दिख जाए। मैं अपनी खीज उसे दिखाना नहीं चाहती थी क्योंकि मुझे वही ख़तरनाक एहसास होने लगे थे - कि ये मुझे पसंद है, और मैं इससे जुड़ने भी लगी हूँ । और वो? वो बस अपनी शराब को ग्लास में घुमाता रहा और मुझे समझाने की कोशिश कर रहा था कि मेरे इंस्टाग्राम के प्रति उत्साह पर उसका नाख़ुश होना सही है। उसका कहना था कि मैं रोज़ाना कम से कम एक फ़ोटो पोस्ट करती थी, ऊपर से मैं वहाॅ कहानियाँ भी डालती थी - आखिर किस तरह की खोखली राक्षस थी मैं? उसने दावा किया कि वो मुझे बदलना नहीं चाहता, मेरे जो हूँ वो ही बने रहने पर वो मुझे रोकने नहीं जा रहा - (ओह, कितनी उदारता ) - लेकिन वो ये जानने के लिए जिज्ञासु था कि मुझे अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को अपने 500+ फ़ॉलोअर्स से शेयर करने की क्या ज़रुरत होती है। “ तुम ये क्यों चाहती हो कि इतने सारे लोग तुमसे कहें कि तुम कमाल की हो….तुम ये ख़ुद क्या बख़ूबी नहीं जानती ? ” मैं दुविधा में पड़ गई। ये सब तारीफ़ है, या ताना, या एक बाहरी- रूप -से -धीरजभरा दिखता हुआ, वाक़ई में क्रोधी हमला, जो इसलिए किया जा रहा है क्योंकि उसे खुद यकीन नहीं है कि मैं कमाल की हूँ ? इससे पहले कि मैं उस सवाल पर अपना जवाबी प्रहार शुरू कर पाती, वो मुस्कुराया। एक चमचमाती दिलक़श मुस्कराहट, जिसने एक बार फिर, मुझे मेरी इंस्टाग्राम की बुरी आदत के दोष का एहसास कराया।
अजीब बात तो ये है कि वो फिर भी मुझे पागल की तरह इंस्टाग्राम पर पोस्ट करते रहने से रोक नहीं पाया, जो मैं पिछले दो सालों से करती आ रही हूँ। बेशक़, मुझे बुरा लगा, लेकिन मैं क्या कर सकती हूँ, जब मैं इंस्टाग्राम करती हूँ, मुझे अपने बारे में भला या बुरा नहीं लगता । मुझे दूसरों से संपर्क बनाने में मज़ा आता है - ये मेरी ज़रूरत है, ऐसी ज़रूरत जिसपर मैं बेड़ियाँ नहीं डालना चाहती।
इस बात को मैं इस शक़्क़ी इंसान को कैसे समझाऊँ, (मैं उन दिनों ये हमेशा सोचा करती थी,) उसे कैसे समझाऊँ कि मैं झटपट अपने ख़यालों, एहसासों, तस्वीरों, मज़ाकों और ग़ुस्से को अपने मित्रों की छोटी-सी दुनिया में शेयर करना पसन्द करती हूँ ? समय बीतते, मेरी ये आदत उसके व्यंग्य का निशाना बन गई - उसके दोस्तों के सामने, पढ़ाई को लेकर मतभेदों के झगड़ों में, दिल्लगी में, या फिर गंभीर पलों में। उसने मुझे सनकी कहा - एक आरोप जिसे मैंने सिर्फ़ इन बेकार के झगड़ों को ख़त्म करने के लिए स्वीकार किया, पर मन में ये ख़याल ज़रूर रहा कि आखिर मेरे सनकीपन से वो इतना कैसे सनक गया | ज़ाहिर तौर पर, हमारा ब्रेकअप हो गया, मैंने विजयी भाव से अपनी आज़ादी के उस पल को सेलिब्रेट करने के लिए एक सेल्फ़ी डाली | मुझे ये पता था कि मेरी सेल्फ़ी पोस्ट से वो और भी परेशान होता है, तो फिर तो मैं ये करने से अपने को रोक ही नहीं पाई ।
कुछ समय मुझे बड़ा पछतावा हुआ कि मेरी बेतहाशा इंस्टाग्राम करने की वजह से, मेरा ये नया-नवेला रिश्ता टूट गया। लेकिन फिर मेरे ध्यान में आया कि अगर मैंने इंस्टाग्राम बिलकुल भी नहीं किया होता, तो एक अलग ही शिक़ायत सामने आती : तुम इसलिए इंस्टाग्राम नहीं करती हो क्योंकि तुम आशंकित हो, अपने पर कॉन्फिडेंस नहीं है तुममें । मैंने बुद्धिमानी के इस आशय को फ़ौरन इंस्टाग्राम किया। आख़िरकार, इसमें तो कोई नई बात नहीं कि औरतें पुरुषों की निगाह और उस निगाह से जुडी हुई निगरानी, मूल्यांकन और निर्धारण से गुज़रती हैं । पुरुष उनपर अपनी राय देना अपना हक़ समझते हैं। लेकिन ये पहली दफा था जब किसी ने मुझे मेरे इंस्टाग्राम करने पर शर्मिन्दा करने की कोशिश की। और ये बेशक़ आख़री नहीं होगा।
वो पहला इंसान जिसने ये सोचा कि मैं बहुत इंस्टाग्राम करती हूँ, उसने मुझसे कहा था कि मुझमें उल-जलूल रद्दी बातों की ओर झुकाव है - उसने इंस्टाग्राम को इंस्टास्पैम बताया। मैं तो शब्दों के खेल की एक सच्ची प्रेमी हूँ। सो मैंने इस परिभाषा को मस्त मानकर उसे अपने प्रोफइल पर डाल दिया। “इंस्टास्पैमर (Instaspammer)”, मैंने ख़ुद को कहा । श्रीमान को झटका लगा और उसने दो साल बाद ये माना भी, उसको झटका इसलिए लगा था क्यूंकि उसने सोचा था कि उसकी बात से मुझे बुरा लगा होगा। उलटा मैं तो..
जो बात मैंने उसे बताई नहीं, वो ये थी कि मुझे उसकी बातों से गहरी चोट लगी थी, और मैंने एक हफ़्ते के लिए इंस्टाग्राम को डिलीट कर दिया था। मुझे अचानक ये सोचकर बुरा लगा था कि मैं दूसरों को कैसी दिखती हूँगी। हो सकता था कि मैं बहुत ज़्यादा बोल रही थी। ये एक लक्षण हमेशा ही दोस्तों और परिवार के उपहास की वजह बनता है। हालाँकि वो मज़ाक करते थे “ओह, ये कितना बोलती है! इसे कोई चुप नहीं करा सकता!” श्रीमान नंबर वन ने मुझे फिर से ये अहसास दिया था कि मुझे अपना बहुत ज़्यादा बोलने का दोष स्वीकारना होगा। इंस्टाग्राम को अपनी ज़िन्दगी में वापस लाने के कुछ दिनों बाद तक, मैं ख़ुद से काफ़ी सावधान थी। ठीक वैसी ही सावधान जैसी मैंने जब 12 वर्ष की उम्र में पहली बार एक स्पघेटी ( spaghetti) टॉप पहना था और मेरी दोस्त की माँ ने मुझसे कहा था कि मैं क्यों अपना बदन इतना ज़्यादा दिखाना चाहती हूँ। उस समय तो मैं मुरझा गयी थी, शुक्र है इतने सालों बाद अब मैं अपने कंधे झाड़कर पहले जैसी बेफ़िक्री से इंस्टाग्राम के खेल में वापस लौटने में सक्षम थी। महिला मित्रों ने, जिन्हें मैंने ये कहानी बताई, मुझे याद दिलाया कि मैं एक समाजशास्त्री हूँ। औरतों का “बहुत ज़्यादा बोलना ,” औरतों का “बहुत ज़्यादा मज़े करना,” “अपने से बहुत ज़्यादा ख़ुश रहना” - क्या ये मर्दों का डर नहीं है, क्यूंकि वो ख़ुद परिभाषित करना चाहते हैं कि हम औरतों को दुनिया से किस तरह जुड़ना चाहिए।
मैंने श्रीमान नंबर 2, मेरा एक सहपाठी, को ये बात बताई तो उसने कहा कि मेरा आदमियों के बारे में ऐसा कहना लाजमी था क्या, मैं इतनी आसानी से ये सब कैसे कह रही थी। श्रीमान दो एक गहन चिंतन करने वाले व्यक्ति हैं, एक दार्शनिक, एक सिद्धांतकार हैं। पांडित्य की वो बनावटी हँसी उसके चेहरे पर उभर आयी थी, तब जब मैं ये समझाने की कोशिश कर रही थी कि मैं “आनन्द के लिए” इंस्टाग्राम करती हूँ। उसने मेरा ये जवाब काफ़ी नहीं समझा।वो अपने विचारों को व्यक्त करने पर अड़ा रहा: उन किशोरों का क्या जो अहंकार के इस दौर में बड़े हो रहे हैं ? ये सारी सेल्फियाँ, ये हाव-भाव, ये किसी का अपनी चमड़ी को चमकदार बनाने की धुन…इन सबको देखकर तो यही लगता है कि ये किशोर अपने-आप के अलावा किसी चीज़ पर ध्यान देते ही नहीं। और इस बात को नज़रअंदाज़ करके मैं सही नहीं कर रही थी। मैं आखिर उन लोगों की बात क्यों नहीं सुन रही थी जो इन किशोरों को लेकर चिंतित थे...
वो ये बात उसी गम्भीरता से कह रहा था जैसे कि कोई कहे कि “बंग्लादेश के बच्चे निराहार हैं”। जैसे कि औरतें अपने ख़यालों से, और अपनी मर्ज़ी से, या अपने जिस्म पे यूँ मज़े लेते हुए, ज़रूर क़यामत ही ढा देंगी। मैंने उससे पूछा कि उसने, उन किशोरों से , जिनकी उसे इतनी चिंता है, ये पूछने की कोशिश भी कि है कि वो ये सब क्यों करते हैं? कि वो इस तरह की सेल्फीज़ क्यों पोस्ट करते हैं? उसकी बातों से मैं समझ गयी कि वो उनको इतना अहम् ही नहीं समझता कि उनसे कुछ पूछे।
उनके इरादे अहंकार के हानिकारक असरों को नहीं बदलते हैं, मेरे दोस्त ने बड़े इत्मीनान से एक इंस्टास्पैम करने वाले को समझाया। मैं देख रही थी कि वो अपनी बातों पर ख़ुद इतना ख़ुश हो रहा था, अपनी “तीव्र बुद्धि” से उसे जैसे ख़ुद प्यार आ रहा था। मैं उसे अपने आप के प्यार की गहराई में उतरते देख रही थी कि वो कितना स्मार्ट था। मैंने बात को यूँ नहीं छोड़ा। मैंने उससे पूछा, कि उसे क्या लगता है - क्या हमें लोगों को अपनी इच्छा के अनुसार अपनी बात ज़ाहिर करने से रोकना चाहिए? उसने गुर्राते हुए कड़े शब्दों में कहा, “हम सभी जानते हैं हर कोई इस ऐप (app) पर ज़रुरत से ज़्यादा पोस्ट करता रहता है, तो इसका मतलब है कि वो या तो ज़रूरत से ज़्यादा इतरा रहा है या इनसिक्योर (insecure) है - या फिर दोनों”... वो अपने आकलन (analysis) से ख़ुश दिखा। मैंने भी बहस नहीं की। जो बात मैंने उस वक़्त उसे नहीं बताई, (कि मैंने बता दी होती), वो ये थी कि कई औरतों के अनुसार वो ख़ुद ज़रूरत से ज़्यादा इतराता था, और इनसिक्योर महसूस करता था। हम सब देखती थीं कि कैसे किसी सम्मेलन में वो अपनी मखमली आवाज़ पर मुग्ध होकर बोलता रहता था। दूसरों को मौक़ा ही नहीं देता था। आख़िर इतराना या इनसिक्योर फ़ील करना केवल अपने रूप-रंग को लेकर ही नहीं होता!मेरी पहचान की बड़ी सारी औरतें उसको खोखला और आशंकित/insecure मान रही थीं - हमें लगता कि अगर हम उसे किसी एकेडमी के कॉन्फ्रेंस में अपनी मखमली आवाज़ से प्यार करने से रोक पाते, शायद वो थम जाता और दूसरों को बोलने देता। किसने अभिमान और असुरक्षा सिर्फ़ किसी एक की उपस्थिति के बारे में होती है ?
अब आए श्रीमान तीन। पहली नज़र में एकदम दिलदार। एक ख़ुद से घृणा करने वाला पंडित (मैंने बुद्धिजीवी भाइयों से दूर रहना तय कर लिया था), और एक चित्र कला का प्रेमी। एक इंस्टाग्राम करने वाला!! क्या बात है, मैं मन ही मन सोच रही थी। श्रीमान तीन उन तस्वीरों को इंस्टाग्राम करता जिन्हें वो अपने कैमरा की क़ैद में लाने के लायक़ मानता था। सूर्यास्त। क्षितिज। कोई अज्ञात अँधेरी गली। एक खुदी हुई मूर्ति। अजनबी। मोमबत्तियां। सूर्यास्त, सूर्यास्त, सूर्यास्त। कोई शीर्षक नहीं, कोई लोग नहीं - क्योंकि शीर्षक चिपचिपे होते हैं और कोई भी उतना दिलचस्प नहीं था जितना कि वो। मेरा चेहरा बेशक़ क़ैद करने लायक़ नहीं था। मेरे पोस्ट पसंद आने योग्य नहीं थे (इंस्टाग्राम पर उसके प्यार को कमाना पड़ता था, यूं ही नहीं मिलता था!) मेरी फ़ोटोग्राफ़ी की सूझ-बूझ इतनी ज़्यादा गूढ़ नहीं थी जो उसके बेमिसाल स्वयं को क़ैद कर सके। एक अच्छा क्लिक क्या होता है, आख़िरकार वो इसका विशेषज्ञ था। माना कि हम एकसाथ थे, लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं था कि उसे मेरा काम यूँही पसंद आ जाएगा। हम एक साथ थे- मैं बस इस बल उसकी प्रशंसा की लायक नहीं बन सकती थी । मैं इतनी कच्ची कैसे हो सकती थी ?
इंस्टाग्राम पर कौन क्या पसन्द करेगा, इस बारे में इतने सारे ख्याल... मुझे ऐसे आदमी के मुंह से सुनने पड़ रहे थे, जिसका दावा था कि उसे इस सब की परवाह ही नहीं थी। आठ महीनों तक मैंने अपने पर ये प्रेशर डाला कि कोई ऐसी फ़ोटो लूँ जो महाशय को पसंद आ जाए। मैं “सही फ्रेम” के साथ तसवीरें लेने के लिए क्या क्या कसरतें कर रही थी, मैंने फ़िल्टर से घृणा करने का संकल्प ले लिया था, मैंने उसके नक्शेकदम पर चलने की कोशिश की और ध्यान रखकर अपनी हर फोटो को उसके अनुसार कलात्मक बनाने की कोशिश की। मैंने अपनी तस्वीरों को शीर्षक देना छोड़ दिया और मैंने सेल्फियों (वो भयानक हस्तियाॅ!) से कन्नी काट ली। कोई फरक नहीं पड़ता था ।
मैंने जो किया, मैं जो भी करती, मुझसे यही कहा जाता कि “बेशक़, तुम बेहतर कर सकती हो”|
इस बात को व्यंगपूर्वक ही कह सकते हैं, कि उससे अपना ज़हरीला रिश्ता तोड़ते ही, मैं और अच्छी तस्वीरें लेने लगी। मैं अब उसके फ़ैसले की मोहताज नहीं थी। कभी-कभी, उसकी करारी लच्छेदार आवाज़ मुझे याद आती है:
“औरतों को इन tech (टेक्नीकल) कंपनियों द्वारा बेवक़ूफ़ बनाया जाता है; अगर महिलाएँ सेल्फ़ी लेती रहेंगी तो क्रान्ति कभी नहीं आएगी: ये महिला अपनी इतनी ज़्यादा तसवीरें क्यों पोस्ट करती है - और क्यों आप उसकी हरेक पोस्ट की लाइक करके उसका हौसला बढ़ाते हैं; अगर आप किसी की सभी तस्वीरों को लाइक करते हैं, तो आपके 'लाइक' का कुछ मतलब नहीं होता ; आप हमेशा पोस्ट क्यों करते रहते हैं ; क्यों, क्यों, क्यों क्यों …”
और जब भी ये आवाज़ अपने लुभावने स्वरुप के साथ मेरे अंदर अपनी पैठ जमाने लगती है, तो मैं अपने से कहती हूँ : “तुम जो भी करती हो अगर तुम उसका हिसाब नहीं रखोगी, और किन्हीं मापों के अनुसार अपने किए काम को नहीं मापोगी, तब जो भी तुम करोगी उसे बेकार माना जाएगा।आदि आदि आदि…”
* * *
इन दिमाग़ी तजुर्बों को मद्देनज़र रखते हुए, श्रीमान चार बेहतरीन से लगे थे। उसने कहा कि वो मेरे इंस्टाग्राम एकाउंट से प्यार करता है। उसने कहा, मेरी तस्वीरों में कितना जीवन भरा है। हालाॅकि चार हफ़्तों बाद, उसकी आवाज़ में एक कृपालू स्वर आ गया था। जैसे उसे मन ही मन थोड़ी हंसी आ रही थी, इतनी हंसी कि उसे अविश्वास-सा होने लगा था मेरे ऊपर। बेशक़, मैं काम में धीमी पड़ती जा रही होऊॅगी, बेशक़, मैं बस इंस्टाग्राम करती रहती होऊॅगी, बेशक़, मैं ज़्यादा पढ़ नहीं रही थी, बेशक़, मैं ज़्यादा लिख नहीं रही थी ; बेशक मेरी कोई हॉबीज़ नहीं थीं। मैं समझ गई कि उसके शक़ का शब्दों से जवाब देना, व्यर्थ था। मैंने अपने रोज़ करने वाले ज़रूरी कामों की लिस्ट में एक ये भी जोड़ दिया था - इस हर बात पर ना कहने वाले से छुटकारा पाना। और कुछ नहीं तो मेरी अलग-अलग काम करने की फूर्ती ही शायद उसे चौंका दे! बस, एक ही पल में मैंने उसे छोड़ भी दिया और उस ही पल, इंस्टाग्राम पर अपनी इत्मीनान से भरी सेल्फ़ी भी पोस्ट कर दी। मैं शक़्क़ी निगाहों से देखे जाने से थक चुकी थी : आप कैसे एक PhD (पीएचडी) के स्टूडेंट हो सकती हैं अगर आपने सारे ज़माने का दर्द महसूस करते हुए, अपने रिसर्च में ग़ुलामी ना की हो? क्यों, मेरी प्रिय अभिलाषी समाजशास्त्री, तुमको तो अपना dissertation लिखना है, तुम क्यों इंस्टाग्राम पर इंस्टा स्पैम कर रही हो? अगर कोई मुझसे पूछने की परवाह करता, तो मैं उन्हें कहती कि मेरी समझ से अपने जीवन के पलों को शेयर करने में एक सुंदर आनंद है। और वे पल एक समूह के साथ शेयर करना मुझे उचित लगता है। क्या मैं सोचती हूँ कि मेरी ज़िन्दगी में इतना कुछ है जो साझा करना उचित है ? हाँ, शायद। क्यों ? मैं हमेशा से ऐसी ही रही हूँ - अपने जीवन के बारे में आपको बताने को व्याकुल। मेरी लेखनी भी मेरे निजी अनुभवों से ली गई है। अपने अनुभवों के सहारे सोचने और उन पलों को ढूंढने में जिनसे शायद और लोग भी जुड़ सकें- मैं काम करने के अपने इन तरीकों से कभी शर्मसार नहीं हुई । इससे ज़्यादा मुझे अपनी सफ़ाई देने की कोई ज़रूरत नहीं लगती। मेरी अपनी आदतें हैं, अपनी ज़रूरतें हैं। अपने भूले-बिसरे रिश्तों के सायों को क्यों सफ़ाई देती फिरूं? मेरी बेउदासी का एक अलग-सा, काफ़ी ख़ुश करने वाला जवाब मेरा इंतज़ार कर रहा है। क़रीब एक महीने पहले, मेरे एक मर्द मित्र ने कमेंट किया था कि उसके इंस्टाग्राम फीड पर जो कहानियां आती हैं , उसे लगता है उनमें जेंडर का कुछ ज़्यादा ही रोल होता है- अक्सर पोस्ट औरतों द्वारा डाले जाते हैं। मेरा दोस्त परेशान हो रहा था कि यहां इंस्टाग्राम पर भी, औरतें प्रदर्शन करती हैं और मर्द देखते हैं ।औरतें मानो उस नज़र के लिए नाचती हैं। औरतों को पता होता है कि आदमियों की नज़र उनपर है, सो उस नज़र को ख़ुश करने की कोशिश में रहती हैं। इस बात पर उसने खेद प्रकट किया। मैंने भी इंस्टाग्राम के इस स्वभाव पर ध्यान दिया है। ख़ासकर सेल्फ़ियों के साथ (इसलिए तो अगर कोई आदमी अपनी सेल्फ़ि डालता है, तो मैं बेहद ख़ुश होती हूँ) मगर उसके अवलोकन ने मुझे ये समझा दिया कि सही मायने में मैं इंस्टाग्राम इस वजह से पसंद करती हूँ जिस वजह से वो परेशान हो रहा था : मैं इस हक़ीक़त से प्यार करती हूँ कि मेरी न्यूज़फ़ीड (newsfeed) और कंटेंट ( content), दोनों औरतों द्वारा डाला गया होता है। मैं इस सच्चाई को पसंद करती हूँ कि महिलाएँ इंस्टाग्राम पे जगह बना रही हैं। मुझे पसंद है औरतों का अपने पहनावे, अपने ख़यालात, अपने एहसास, अपने चेहरे, अपनी कॉफी, अपने कुत्ते, अपनी बिल्लियाँ, अपने जूते, अपने केश, अपना दिल टूटना, अपना छुई-मुई पन, अपने सूर्योदय, अपने सूर्यास्त, अपनी रातें और अपने निहारने को शेयर करना। मुझे अच्छा लगता है कि औरतें अपने दिल टूटने के बारे में पोस्ट करती हैं, कि वे अपने साथ घृणा करने वाले मर्दों के स्क्रीनशॉट पोस्ट करती हैं, कि औरतें अपना हौसला बढ़ाने वाली या उन्हें ख़ुशी देने वाली दूसरी औरतों के पीछे चल सकती हैं। मुझे पसंद है कि मैं इन सब को पसंद कर सकती हूँ। क्योंकि ये एक ऐसी दुनिया है जो महिलाओं की प्रसन्नता से परिभाषित होती है - उनकी ख़ुशियों से, उनके फुर्सत के लम्हों से, उनकी असुरक्षाओं से, उनकी प्रशंसा की चाहतों से या उनकी समाज की अभिलाषाओं से। और मेरा दिल तब टूट जाता है जब मैं अधिकतर औरतों को अपने newsfeed पर बहुत ज़्यादा पोस्ट करने के 'जुर्म ' के लिए क्षमा मांगते देखती हूँ, उनकी सेल्फीज़ के लिए क्षमा, अपनी ज़िन्दगी के पलों को शेयर करने की चाहत के लिए माफ़ी , क़ायम रहने के लिए माफ़ी । जब जब एक औरत को इंस्टाग्राम पर माफ़ी मांगते हुए पाती हूँ, कि आज उसका दिन अच्छा नहीं बीता, सो वो इंस्टाग्राम पर अपने ठीक ठाक होने की थोड़ी पृष्टि चाहती है , यूं लगता है जैसे इंस्टाग्राम का वो दिल थोड़ा टूटा हुआ है। शायद उस टूटे दिल को जोड़ने के लिए हमें अपनी चाहतों को उभारना होगा। बहुत सी औरतों को कहा जाता है कि “देखे जाने की चाहत” ग़लत है। हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि हमें अपनी पीठ ढ़ांपनी है, अपने माथे को ढकना है, जल्दी चलना है, और तवज्जो को इकठ्ठा नहीं करना है। यूं अपने ऊपर दूसरों की नज़र से सुखी होना ,ये सुरक्षित नहीं है, ये सही नहीं है,ये कुछ “अच्छी औरत” के व्यवहार जैसा नहीं है। इंटरनेट की इस वर्चुअल दुनिया में हम अभी भी अपनी शर्तों पर अपनी मौजूदगी बनाने की और अपनी हिस्सेदारी पाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन अब जबकि हम इस वर्चुअल दुनिया में चहलक़दमी करने ही लगे हैं, तो हम जो बनना चाहते हैं, उससे हमें छिपना या शर्मसार नहीं होना है। हमें खुलकर वैसे दिखना है, जैसे हम दिखना चाहते हैं। चाहे वो आवारागर्दी करते हुए अपनी फोटो खींचना हो या फिर छतों पर से चिल्लाना हो। स्नेहा वैसी हैं जैसा वो करती हैं। .. कहने को तो वो हैदराबाद की गलियों में रिसर्च करती घूमती हैं, लेकिन सच में वो बस इंस्टास्पैमिंग (instaspamming) करती हैं।